भक्ति से तात्पर्य है कि ईश्वर के प्रति समर्पण और प्रेमपूर्ण आसक्ति। यह शब्द भज् (सम्मिलित होने) धातु
से निर्मित है और सहभागिता की ओर संकेत करता है। भक्ति मार्ग पर चलने वाला योगी दिव्य ईश्वर के
प्रति स्वयं को समर्पित करता है, भक्ति भाव से सेवा करता है और उनकी पूजा अर्चना में तल्लीन रहकर
अन्ततः उस दिव्य ईश्वर में आध्यात्मिक रूप से मिल जाता है। भक्ति से हृदय निर्मल हो जाता है तथा ईर्ष्या, घृणा, वासना, क्रोध, अहंकार, घमंड और उग्रता जैसे विकार
समाप्त हो जाते हैं। इससे आनन्द, दिव्यता, प्रसन्नता, शान्ति और ज्ञान की प्राप्ति होती है। सभी तरह की
चिन्ताएं, फिक्र, भय, मानसिक विकृतियां और कुंठाएं पूर्ण रूप से समाप्त हो जाती हैं। भक्त जीवन और
मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाता है। उसे असीम शांति, आनन्द और ज्ञान की प्राप्ति होती है।
भक्ति का मार्ग पूरे विश्व में व्याप्त है और यह सभी जीवों के लिए होता है। यह हर काल में एक ही जैसा रहता है और इसका संबंध प्रत्यक्ष रूप से आत्मा से होता है और साथ ही महान् आत्मा से भी जुड़ जाता है, यह किसी जाति, धर्म, वर्ग और राष्ट्रीयता से ऊपर है। भक्ति आपके हृदय का पावन प्रेम होता है जिसमें भक्त दिव्य ईश्वर से मिलने के लिए उत्सुक होता है और इस जीवन में आपकी आत्मा दिव्य बन जाती है।
अर्थात हे भरतवंशी अर्जुन। चार प्रकार के पुण्यशाली मनुष्य मेरा भजन करते है यानि उपासना करते है। वे है आर्त, जिज्ञासु, अर्थाथ तथा ज्ञानी।
भक्ति का मार्ग पूरे विश्व में व्याप्त है और यह सभी जीवों के लिए होता है। यह हर काल में एक ही जैसा रहता है और इसका संबंध प्रत्यक्ष रूप से आत्मा से होता है और साथ ही महान् आत्मा से भी जुड़ जाता है, यह किसी जाति, धर्म, वर्ग और राष्ट्रीयता से ऊपर है। भक्ति आपके हृदय का पावन प्रेम होता है जिसमें भक्त दिव्य ईश्वर से मिलने के लिए उत्सुक होता है और इस जीवन में आपकी आत्मा दिव्य बन जाती है।
भक्ति योग क्या है?
आपने-अपने घर के मन्दिर में, उपासना गृहों में तीर्थो में, लोगों को पूजा पाठ करते देखा होगा। भारतीय चिन्तन में ज्ञान तथा कर्म के साथ भक्ति को कैवल्य प्राप्ति का साधन माना है। आपको कुछ प्रश्न अवश्य उत्तर जानने के लिए प्रेरित कर रहे होंगे जैसे -
भक्ति योग प्रेम की उच्च पराकाष्ठा है। ईश्वर के प्रति अत्यधिक प्रेम ही भक्ति है जब व्यक्ति संसार के भौतिक पदार्थों से मोह त्याग कर अनन्य भाव से ईश्वर की उपासना करता है तो वह भक्ति कहलाती है।
प्रश्न उठता है कि भक्ति शब्द संस्कृत व्याकरण के किस धातु से बना है।
‘भज् सेवायाम धातु से ‘क्तिन प्रत्यय लगाकर भक्ति शब्द बनता है जिसका अर्थ सेवा, पूजा उपासना और संगतिकरण करना आदि होता है। भक्ति भाव से ओतप्रोत साधक पूर्ण रूप से ब्रह्म, ईश्वर के भाव में भावित होकर सर्वतोभावेन तदरूपता की अनुभूति को अनुभव करता है। इसलिए कहा गया है-
अर्थात् ईश्वर के प्रति उत्कट प्रेम विशेष का नाम ही भक्ति है।
भक्ति योग का मार्ग भाव-प्रधान साधकों के लिए अधिक उपयुक्त माना गया है। इस मार्ग में साधक का चित्त आसानी से एकाग्र हो जाता है। यह मार्ग अति सरल होने के कारण जनसाधारण में काफी लोकप्रिय व प्रचलित है।
भक्ति योग की परिभाषा देते हुए नारद भक्ति सूत्र में कहा गया है-
अर्थात् प्रभु के प्रति परम प्रेम को भक्ति कहते हैं। शाण्डिल्य भक्ति सूत्र में भक्ति को परिभाषित करते हुए कहा गया है-
अर्थात् ईश्वर में परम अनुरक्ति भक्ति है। इस प्रकार प्रभु के प्रति अनन्य प्रेम में डूब जाना भक्ति कहलाता है। जैसा की स्पष्ट हो चुका है कि अपने आराध्य से अन्नय प्रेम का नाम भक्ति है। यह तो निश्चित है कि साधक ईश्वर की भक्ति किसी प्रयोजन से करता है गीता में भक्ति के प्रयोजन को भक्त के भेद के परिपेक्ष्य में आप समझ सकते है।
- भक्ति क्या है।
- भक्ति के भेद क्या है।
- भक्त के क्या कोई प्रकार होते है।
- भक्ति से कैसे समाधि की सिद्धि होती है।
भक्ति योग प्रेम की उच्च पराकाष्ठा है। ईश्वर के प्रति अत्यधिक प्रेम ही भक्ति है जब व्यक्ति संसार के भौतिक पदार्थों से मोह त्याग कर अनन्य भाव से ईश्वर की उपासना करता है तो वह भक्ति कहलाती है।
प्रश्न उठता है कि भक्ति शब्द संस्कृत व्याकरण के किस धातु से बना है।
‘भज् सेवायाम धातु से ‘क्तिन प्रत्यय लगाकर भक्ति शब्द बनता है जिसका अर्थ सेवा, पूजा उपासना और संगतिकरण करना आदि होता है। भक्ति भाव से ओतप्रोत साधक पूर्ण रूप से ब्रह्म, ईश्वर के भाव में भावित होकर सर्वतोभावेन तदरूपता की अनुभूति को अनुभव करता है। इसलिए कहा गया है-
‘भक्ति नाम प्रेम विशेष:’
अर्थात् ईश्वर के प्रति उत्कट प्रेम विशेष का नाम ही भक्ति है।
भक्ति योग का मार्ग भाव-प्रधान साधकों के लिए अधिक उपयुक्त माना गया है। इस मार्ग में साधक का चित्त आसानी से एकाग्र हो जाता है। यह मार्ग अति सरल होने के कारण जनसाधारण में काफी लोकप्रिय व प्रचलित है।
भक्ति योग की परिभाषा देते हुए नारद भक्ति सूत्र में कहा गया है-
‘सा तस्मिन् परम प्रेमरूपा’1/2
अर्थात् प्रभु के प्रति परम प्रेम को भक्ति कहते हैं। शाण्डिल्य भक्ति सूत्र में भक्ति को परिभाषित करते हुए कहा गया है-
‘सा भक्ति: परानुरक्तिरीष्वरे’ 1/2
अर्थात् ईश्वर में परम अनुरक्ति भक्ति है। इस प्रकार प्रभु के प्रति अनन्य प्रेम में डूब जाना भक्ति कहलाता है। जैसा की स्पष्ट हो चुका है कि अपने आराध्य से अन्नय प्रेम का नाम भक्ति है। यह तो निश्चित है कि साधक ईश्वर की भक्ति किसी प्रयोजन से करता है गीता में भक्ति के प्रयोजन को भक्त के भेद के परिपेक्ष्य में आप समझ सकते है।
चतुर्विधा भजन्ते मां जतारू सुकृतिनोडर्जुन।
आर्तोजिज्ञासुर्थारथी ज्ञानी च भरतर्षभ।। गीता (7/16)
1. आर्त भक्त- पाठको अपने मानस पटल पर द्रोपदी के चीर हरण की कहानी को लाइये जब द्रोपदी ने देखा कि द:ुसासन द्वारा चीर हरण किया जा रहा है, तो उसने आर्त भाव से भगवान कृष्ण को पुकारा है और भगवान कृष्ण स्वयं उसकी रक्षा के लिए आये। कहने का तात्पर्य है कि आर्त भक्त वो कहलाते है जब वे गम्भीेर संकट में फंस जाते है तो वे अपने आराध्य को आर्त भाव से पुकारते है और उसकी शरण में जाते है।
2. जिज्ञासु भक्त - जिज्ञासु जैसा नाम से स्पष्ट है कि जिज्ञासा रखने वाले अर्थात किसी वस्तु को जानने की इच्छा रखने वाले। अब प्रश्न उठता है कि वह वस्तुु क्या है - वह है आत्मा को जानने की इच्छा, ब्रहम को जानने की इच्छा ऐसे भक्त जिज्ञासु भक्त कहलाते है।
उदाहरण के रूप में आप जाने कि एक बार राजा चण्डिकापालि, घेरण्ड ऋषि के आश्रम में जाकर कहने लगें कि तत्व ज्ञान का कारण जो घटस्थ योग है उसके बारे में मुझे बतायें।
महर्षि घेरण्ड ने राजा चण्डिकापालि के प्रश्न की प्रशंसा करते हुए उसे आत्म कल्याण के लिए घटस्थ योग की शिक्षा दी। हम कह सकते है कि राजा चण्डिकापालि जिज्ञासु भक्त थे।
नोट - स्मरण रहे कि हठयोग की महत्वपूर्ण पुस्तक घेरण्ड संहिता की रचना राजा चण्डिकापालि व घेरण्ड ऋषि के संवाद का प्रतिफल है।
3. अर्थाथी भक्त- समस्त संसार के व्यक्ति इस श्रेणी में आते है ऐसे भक्त. किसी सांसारिक वस्तु , मकान, जमीन, धन, स्त्री ,वैभव, मान-सम्मान, परीक्षाओं में सफलता विवाह के लिए अपने आराध्य को भजते है। ऐसे भक्त अर्थाथी भक्त कहलाते है।
4. ज्ञानी भक्त- ज्ञानी भक्त ऐसे भक्त है जो आत्म-कल्याण, ब्रहम की प्राप्ति के लिए अपने आराध्य को भजते है।
उपरोक्त चार प्रकार के भक्तो में ज्ञानी भक्त श्रेष्ठ है।
भक्ति योग के प्रकार
1. नवधा भक्ति
नवधा भक्ति, भक्ति योग का बड़ा महत्वपूर्ण पक्ष है। नौ प्रकार से भगवान की भक्ति की जाती है। भगवत पुराण में कहा है। श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पाद सेवन, अर्चन दास्य, साख्य और आत्मानिवेदन ये भक्ति के नौ भेद है।- श्रवण भक्ति - परमपिता परमेश्वर, अपने आराध्य ईष्ट के दिव्य गुणों व लीला आदि के विषय में सुनना श्रवण भक्ति कहलाती है।
- कीर्तन भक्ति - कीर्तन से आप भली भॉति परीचित होंगे। भगवान के दिव्य गुणों, लीला का गायन इत्यादि कीर्तन भक्ति कहलाती है।
- स्मरण भक्ति - सर्वत्र भगवान का स्मरण करना। अपने आराध्य की लीला, गुणों का निरन्तर अनन्य भाव से स्मरण करना स्मरण भक्ति कहलाती है।
- पादसेवन भक्ति- भगवान के चरणों की सेवा करना पाद सेवन भक्ति कहलाती है। यह भक्ति एक तो भगवान के चरणों का चिन्तन करते हुए तथा दूसरी उनकी प्रतिमा में चरणों को धोकर श्रद्धाभाव से साधना करते हुए की जाती है।
- अर्चन भक्ति - अर्चन भक्ति का अर्थ है पूजन करना यह पूजन मानसिक रूप से या स्थूल रूप से अपने आराध्य की हो सकती है।
- वन्दन भक्ति - भाव भरे मन से भगवान की वन्दना करना वन्दन भक्ति का उदाहरण है। वैदिक ऋचाओं, भक्तों के द्वारा भगवान की स्तुति करना वन्दन भक्ति का उदाहरण है।
- दास्य भक्ति - अपने आप को भगवान का दास समझना, अपने आप को भगवान का सेवक समझना दास्य भक्ति का उदाहरण है। जैसे हनुमान जी श्री रामचन्द्र जी के प्रति रखते थे। 8. साख्य भक्ति - साख्य का अर्थ है मित्र अपने आराध्य को अपना मित्र समझना जैसे सुदामा-कृष्ण , अर्जुन-कृष्ण इस भक्ति के उदाहरण है।
- आत्म निवेदन भक्ति - आत्मनिवेदन भक्ति अपने को भगवान के स्वरूप में अर्पण कर देना कहलाती है।