सार्वजनिक उपक्रम का अर्थ, विशेषताएँ और महत्व

सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम का तात्पर्य ऐसे उपक्रम से होता है जो सरकार के स्वामित्व, प्रबन्ध एवं नियंत्रण में संचालित किया जाता है। लोक उपक्रम को लोक उद्योग, सार्वजविक उपक्रम, राजकीय उपक्रम, सरकारी उपक्रम, सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम आदि अनेक नामों से जाना जाता है।

सार्वजनिक उपक्रम का अर्थ

ऐसे व्यावसायिक इकाइयाँ जिनका स्वामित्व, प्रबंधन और नियंत्रण, केन्द्र सरकार, राज्य या स्थानीय सरकार के द्वारा किया जाता है उन्हें सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों अथवा सार्वजनिक उपक्रमों के नाम से जाना जाता है।

सार्वजनिक उपक्रमों के अन्तर्गत राष्ट्रीयकृत निजी क्षेत्र के उद्यमों जैसे, बैंक, भारतीय जीवन बीमा निगम और सरकार द्वारा स्थापित नये उद्यमों जैसे हिन्दुस्तान मशीन टूल्स (एच एम टी), भारतीय गैस प्राधिकरण (गेल), राज्य व्यापार निगम (एस टी सी), इत्यादि आते हैं।

सार्वजनिक उपक्रमों की विशेषताएँ

1. सरकारी स्वामित्व एवं प्रबन्ध-सार्वजनिक उपक्रमों का स्वामित्व और प्रबन्ध केन्द्रीय सरकार, राज्य सरकार या स्थानीय सरकार के पास होता है तथा उन्हीं के द्वारा इनका प्रबन्ध किया जाता है। सार्वजनिक उपक्रमों पर या तो सरकार का पूर्ण स्वामित्व रहता है या उन पर सरकारी और निजी उद्योगपतियों तथा जनता का स्वामित्व संयुक्त रूप से होता है। 

उदाहरण के लिए, राष्ट्रीय थर्मल पॉवर कार्पोरेशन एक औद्योगिक संगठन है, जिसकी स्थापना केन्द्रीय सरकार द्वारा की गई और इसकी अंश पूँजी का भाग जनता द्वारा उपलब्ध कराया गया है। ऐसी ही स्थिति तेल एवं प्राकृतिक गैस निगम लिमिटेड (ओ एन जी सी) की है।

2. सरकारी कोष से वित्तीय सहायता- सार्वजनिक उपक्रमों को उनकी पूॅंजी सरकारी कोष से मिलती है, और सरकार को उनकी पूॅंजी के लिए प्रावधान अपने बजट में करना पड़ता है।

3. लोक कल्याण- सार्वजनिक उपक्रमों का लक्ष्य लाभ कमाना नहीं अपितु सेवाओं और वस्तुओं को उचित दामों पर उपलब्ध कराना होता हैं। इस संदर्भ में भारतीय तेल निगम या भारतीय गैस प्राधिकरण लिमिटेड (गेल) का उदाहरण ले सकते हैं। ये इकाइयॉं जनता को पैट्रोलियम और गैस उत्पादों को उचित मूल्य पर उपलब्ध कराते हैं।

4. सार्वजनिक उपयोगी सेवाएं- सार्वजनिक उपक्रम लोक उपयोगी सेवाओं जैसे परिवहन, बिजली, दूरसंचार आदि को उपलब्ध कराते हैं।

5. सार्वजनिक जवाबदेही- सार्वजनिक उपक्रम लोक नीतियों से शासित होते हैं जिन्हें सरकार बनाती है तथा यह विधायिका के प्रति उत्तरदायी होते हैं।

6. अत्यधिक औपचारिकताएँ- सरकारी नियम एवं विनियम सार्वजनिक उद्यमों को उनके कार्यों में अनेकों औपचारिकताओं को पूरा करने के लिए बाध्य करते हैं। इसी के फलस्वरूप प्रबन्धन का कार्य बहुत संवेदनशील और बोझिल बन जाता है।

निजी क्षेत्र के उपक्रमों और सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के बीच अन्तर

निजी क्षेत्र से हमारा अभिप्राय आर्थिक और सामाजिक गतिविधियों का निजी तौर पर किसी एक व्यक्ति अथवा व्यक्तियों के समूह द्वारा संचालन से है। ये व्यक्ति लाभ कमाने के लिए निजी क्षेत्र में व्यवसाय करने को प्राथमिकता देते हैं। दूसरी ओर सार्वजनिक क्षेत्र का अर्थ, सार्वजनिक प्रभुत्व के द्वारा आर्थिक और सामाजिक गतिविधियों का संचालन करना है। सार्वजनिक क्षेत्र में स्थापित उद्यमों का मुख्य उद्देश्य लोक हित को सुरक्षा प्रदान करना होता है।

सार्वजनिक उपक्रमों  के संगठनों के प्रकार

भारत में सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों के संगठन के तीन स्वरूप होते है। 
  1. विभागीय उपक्रम
  2. सांविधानिक (अथवा लोक) निगम और 
  3. सरकारी कम्पनी।

1. विभागीय उपक्रम- 

सार्वजनिक उद्यमों में विभागीय उपक्रम सबसे पुराना है। विभागीय उपक्रम का निर्माण, प्रबंधन और वित्तीयन सरकार द्वारा किया जाता है। इसका नियंत्रण सरकार के विशेष विभाग द्वारा किया जाता है। इस प्रकार के प्रत्येक विभाग की अध्यक्षता एक मंत्री द्वारा की जाती है। सभी नीतिगत मामलों में और अन्य महत्वपूर्ण निर्णय नियंत्रक मंत्रालय द्वारा लिए जाते हैं। संसद ऐसे उपक्रमों के लिए सामान्य नीतियों को निर्धारित करती है। और उसे इन उपक्रमों पर लागू करती है।

विभागीय उपक्रमों की विशेषताएं - 
  1. इसका निर्माण सरकार द्वारा किया जाता है और इन पर मंत्री का पूर्ण नियंत्रण रहता है।
  2. यह सरकार का एक भाग है और इसका प्रबंधन सरकार के किसी अन्य विभाग की तरह होता है।
  3. इसकी वित्तीय आपूर्ति सरकारी कोष से होती है। 
  4. इन पर बजटीय, लेखांकन और अंकेक्षण नियंत्रण रहता है। 
  5. सरकार द्वारा इसकी नीतियां निर्धारित की जाती हैं और यह विधायिका के प्रति उत्तरदायी होता है। 
केन्द्रीय सार्वजनिक , क्षेत्र के उपक्रम ‘नवरत्न’ -
  1. बी एच ई एल - भारत हैवी इलैक्ट्रीकल्स लिमिटेड 
  2. बी पी सी एल - भारत पैट्रोलियम कॉरपोरेशन लिमिटेड 
  3. गेल - गैस अथोरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड 
  4. एच पी सी एल - हिंन्दुस्तान पैट्रोलियम कॉरपोरेशन लिमिटेड
  5. आई ओ सी - इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन 
  6. एम टी एन एल - महानगर टेलीफोन निगम लिमिटेड 
  7. एन टी पी सी - नेशनल थर्मल पॉवर कॉरपोरेशन 
  8. ओ एन जी सी - आयॅ ल एण्ड नेचरु ल गैस कॉरपारे श्े ान लिमिटडे 
  9. सेल - स्टील अथोरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड 
विभागीय उपक्रमों के गुण
  1. सामाजिक उद्देश्यों की पूर्ति- सरकार का इन उपक्रमों पर पूरा नियंत्रण होता है। इस प्रकार यह अपने सामाजिक और आर्थिक उद्देश्यों की पूर्ति कर सकता है। उदाहरण के लिए, दूर-दराज इलाकों में खुलने वाले डाकघरों, कार्यक्रमों का रेडियों एवं टेलीविजन पर प्रसारण, जिनसे लोगों का सामाजिक, आर्थिक और बौद्धिक विकास होता है, ऐसे सामाजिक उद्देश्य होते हैं जिनकी पूि र्त करने का प्रयास विभागीय उपक्रमों द्वारा किया जाता है। 
  2. विधायिका के प्रति उत्तरदायी- संसद में विभागीय उपक्रमों के कार्य विधि के विषय में प्रश्न पूछे जाते हैं जिनका उत्तर संबधित मंत्री द्वारा जनता को संतुष्ट करने के लिए दिया जाता है। इस प्रकार वे ऐसा कोई कदम नहीं उठा सकते जिससे जनता के किसी विशेष समूह के हितों को हानि पहॅुंचे। ये उपक्रम संसद के द्वारा जनता के प्रति उत्तरदायी होते हैं। 
  3. आर्थिक गतिविधियों पर नियंत्रण- यह सरकार की विशिष्ट आर्थिक गतिविधियों पर नियंत्रण स्थापित करने में मदद करता है तथा सामाजिक और आर्थिक नीतियों के निर्माण में एक उपकरण के रूप में कार्य कर सकता है। 
  4. सरकारी राजस्व में योगदान- सरकार से सम्बन्धित विभागीय उपक्रमों में यदि कोई अधिशेष हो तो इससे सरकार की आय में बढ़ोत्तरी होती है। इसी प्रकार यदि इसमें कोई कमी है तो इसे सरकार द्वारा पूरा किया जाता है। 
  5. कोष के दुरूपयोग होने का कम अवसर- चूंकि इस प्रकार के उपक्रम बजटीय, लेखांकन एवं अंकेक्षण नियंत्रण के लिए उत्तरदायी हैं इसलिए इनके द्वारा कोष के दुरूपयोग होने की सम्भावना कम हो जाती है। 
विभागीय उपक्रमों की सीमाएं-
  1. अधिकारी वर्ग का प्रभाव- सरकारी नियंत्रण के कारण, एक विभागीय उपक्रम नौकरशाही की सभी बुराइयों से ग्रसित होते हैं। उदाहरण के लिए, प्रत्येक खर्च के लिए सरकारी अनुमति प्राप्त करनी होती है, कर्मचारियों की नियुक्ति और उनकी पदोन्नति पर सरकार का नियन्त्रण होता है। इन्हीं कारणों की वजह से महत्वपूर्ण निर्णय लेने में देरी हो जाती है, कर्मचारियों को एकदम पदोन्नति और दण्ड नहीं दिया जा सकता है। इन्हीं कारणों की वजह से विभागीय उपक्रमों के कार्य के रास्ते में समस्यायें खड़ी हो जाती हैं। 
  2. अत्यधिक संसदीय नियंत्रण- संसदीय नियंत्रण के कारण प्रशासनिक कार्यों में दिन-प्रतिदिन समस्यायें आती रहती है। इसका कारण यह भी ह ै क्योंकि संसद में उपकम्र के संचालन के विषय में प्रश्नों की पुनरावृत्ति होती रहती है।
  3. व्यावसायिक विशेषज्ञों की कमी- प्रशासनिक अधिकारी को जो विभागीय उपक्रमों के मामलों का प्रबंधन करते है।, सामान्यत: व्यवसाय का अनुभव नही होता है और न ही वे इस क्षेत्र के विशेषज्ञ होते हैं। अत: इनका प्रबन्धन पेशेवर तरीके से नहीं होता तथा इनकी कमियों के कारण सार्वजनिक कोषों की अत्यधिक बरबादी होती है।
  4. लचीलेपन में कमी- एक सफल व्यवसाय के लिए लचीलापन का होना आवश्यक होता है ताकि समय अनुसार मांग में परिवर्तन को पूर्ण किया जा सके। लेकिन विभागीय उपक्रमों में लचीलेपन की कमी के कारण इसकी नीतियों में तुरंत परिवर्तन नहीं किया जा सकता है।
  5. अकुशल कार्यप्रणाली- इस प्रकार के संगठनों को अपने अदक्ष कर्मचारियों और उनकी दशा सुधारने के लिए पर्याप्त प्रेरणात्मकों की कमी के कारण अकुशलता से जूझना पड़ता है। यह ध्यान देने की बात है कि सार्वजनिक उपक्रमों के लिए संगठन का विभागीय स्वरूप लुप्त होता जा रहा है। अधिकतम उपक्रमों जैसे, दूरभाष, बिजली सेवाए उपलब्ध कराने वाले उद्यम, आदि सरकारी कम्पनियों में परिवर्तित हो रहे हैं। उदाहरण- महानगर टेलीफोन निगम लिमिटेड , भारतीय  संचार निगम लिमिटेड , इत्यादि। 

2. सांविधिक निगम 

सांविधिक निगम (या लोक निगम) से अभिप्राय ऐसे संगठन से है, जिसकी स्थापना संसद, राज्य विधानमंडल द्वारा विशेष अधिनियम के अन्र्तगत होती है। इसके प्रबंधन की रीति, इसकी शक्ति और कार्य, क्रिया-कलापों का क्षेत्र, कर्मचारियों के लिए नियम और विनियम तथा सरकारी विभागों के साथ इसके सम्बन्धों, इत्यादि का विवरण सम्बन्धित अधिनियम में दिया जाता है। सांविधिक निगमों के उदाहरण है-भारतीय स्टेट बैंक, भारतीय जीवन बीमा निगम, भारतीय औद्योगिक वित्त निगम, इत्यादि।

सांविधिक निगमोंं की विशेषताएं-
  1. इसकों संसद अथवा राज्य विधान सभा के द्वारा विशेष अधिनियम के अन्तर्गत समामेलन किया जाता है। 
  2. यह एक स्वायत्त संगठन है और अपने आन्तरिक प्रबन्धन के संदर्भ में यह सरकारी नियंत्रण से मुक्त है। तथापि यह संसद और राज्य विधान मंडल के प्रति उत्तरदायी होता है। 
  3. इसका अपना स्वतन्त्र वैधानिक अस्तित्व होता है। इसके लिए सम्पूर्ण पूॅंजी की व्यवस्था सरकार द्वारा की जाती है। 
  4. इसका प्रबन्धन निदेशक मण्डल द्वारा किया जाता है जो व्यवसाय प्रबन्धन में प्रशिक्षित और अनुभवी व्यक्तियों द्वारा गठित होता है। निदेशक मण्डल के सदस्यों का चयन सरकार द्वारा किया जाता है।
  5. वित्तीय मामलों में यह अनुमानत: स्वावलंबी होता है। हालांकि आवश्यकता के समय यह ऋण ले सकता है, अथवा सरकारी सहायता पा्र प्त कर सकता है। 
  6. इन उद्यमों के कर्मचारियों की भर्ती, निगम की आवश्यकतानुसार इसके अपने भर्ती बोर्ड द्वारा तय किये नियमों और शर्तों के अनुसार की जाती है। 
सांविधिक निगमों के गुण
  1. प्रबन्धन विशेषज्ञ- इसके अन्दर विभागीय और निजी दोनों उद्यमों के गुणों का समावेश होता है। इन उद्यमों का संचालन विशेषज्ञ और अनुभवी निदेशकों के दिशा-निर्देशों के अन्तर्गत व्यवसाय के सिद्धांतों से होता है। 
  2. आन्तरिक स्वायत्तता- इन निगमों के दिन-प्रतिदिन के क्रियाकलापों में सरकार का प्रत्यक्ष हस्तक्षेप नहीं होता है। निर्णय शीघ्र एवं बिना किसी बाधा में लिया जा सकता है। 
  3. संसद के प्रति उत्तरदायी- सांविधिक निगम संसद के प्रति उत्तरदायी होते है। उनके क्रिया-कलापों पर प्रेस और जनता की निगाहें होती हैं। इसीलिए उनको उच्च स्तर की कुशलता और जिम्मेदारी को बनाए रखना पड़ता है। 
  4. लचीलापन- चूंकि ये प्रबन्ध और वित्त के मामले में स्वतन्त्र होते हैं, ये अपने कार्यों के संचालन में पर्याप्त लचीलेपन का उपयोग करते हैं। यह अच्छे प्रदर्शन और संचालन के परिणामों को सुनिश्चित करने में मदद करता है। 
  5. राष्टी्रय हितों को बढ़ा़ावा देना- सांविधिक निगम राष्ट्रीय हितों की रक्षा करते हैं एवं उन्हें बढ़ावा देते हैं। 
  6. कोष एकत्र करना सरल- सरकार के स्वामित्व में होते हुए सांविधिक निगम बॉन्ड, इत्यादि जारी करके आवश्यक कोष आसानी से प्राप्त कर सकते हैं। 
सांविधिक निगमों की सीमाएं-
  1. सरकारी हस्तक्षेप- सांविधिक निगमों पर अधिकतर मामलों में अत्यधिक सरकारी हस्तक्षेप होता है। 
  2. कठोरता- इनकी कार्यप्रणाली और अधिकारों में संशोधन केवल संसद द्वारा ही किया जा सकता है। परिणामस्वरूप निगमों के कार्यों में अनेकों बाधाएॅं उत्पन्न हो जाती है जिन्हें बदलती स्थितियों के अनुरूप ढालने और निभ्र्ाीक निर्णय लेने में कठिनाइयॉं आती हैं। 
  3. व्यावसायिक अभिगम की अनभिज्ञता- सांविधिक निगमों को प्राय: अच्छे प्रदर्शन करने के लिए नाम मात्र की प्रतियोगिता और अभिप्रेरणा के अभाव का सामना करना पड़ता है। अत: उन्हें अपने मामलों के प्रबन्ध में व्यावसायिक सिद्धांतों की अनभिज्ञता से जूझना पड़ता है। 

3. सरकारी कम्पनियॉं 

भारतीय कम्पनी अधिनियम की व्यवस्था के अनुसार एक कम्पनी जिसकी 51 प्रतिशत या इससे अधिक प्रदत्त पूॅंजी केन्द्र सरकार अथवा राज्य सरकार या दोनों के पास संयुक्त रुप में हो, सरकारी कम्पनी कहलाती है। ये कम्पनियॉं भारतीय कम्पनी अधिनियम 1956 के अन्तर्गत पंजीकृत होती है तथा उन नियमों और विनियमों का अनुकरण करती हैं जो कि किसी अन्य पंजीकृत कम्पनी पर लागू होते हैं। भारत सरकार ने ऐसे बहुत सारे उपक्रमों की स्थापना, सरकारी कम्पनियों के रूप में, प्रबन्धकीय स्वायत्तता, संचालन की कुशलता और निजी क्षेत्र से प्रतियोगिता करने के लिए सुनिश्चित की हैं।

सरकारी कम्पनियों की विशेषताएं-
  1. यह कम्पनी अधिनियम 1956 के अन्तर्गत पंजीकृत होती है।
  2. इसका अपना स्वतन्त्र वैधानिक अस्तित्व होता है। यह मुकदमा चला सकती है तथा इसके विरूद्ध मुकदमा चलाया जा सकता है, और अपने नाम से सम्पत्ति का अधिग्रहण कर सकती है। 
  3. सरकारी कम्पनियों की वार्षिक रिपोर्ट को संसद में प्रस्तुत किया जाता है।
  4. सरकार द्वारा पूॅंजी पूर्णत: अथवा अंशत: उपलब्ध कराया जाता है। आंशिक स्वामित्व वाली कम्पनी की दशा में, पूॅंजी की व्यवस्था सरकार और निजी निवेशकों द्वारा की जाती है। लेकिन इस प्रकार की स्थिति में केन्द्रीय अथवा राज्य सरकार द्वारा कम्पनी के कम से कम 51 प्रतिशत अंशों का स्वामित्व प्राप्त करना होगा। 
  5. इसका प्रबन्धन निदेशक मण्डल द्वारा किया जाता है। सभी निदेशकों अथवा उनके बहुमत की नियुक्ति सरकार द्वारा की जाती है जो निजी सहभागीता की सीमा पर निर्भर करती है। 
  6. इसका लेखा और लेखा परीक्षा निजी उद्यमों के समान होती है तथा इसके लेखा परीक्षक और चार्टर्ड एकाउन्टेंट की नियुक्ति सरकार द्वारा की जाती है। 
  7. इसके कर्मचारी सरकारी अधिकारी नहीं होते हैं। यह अपनी व्यक्तिगत नीतियों का संचालन अपने अन्तर-नियमों के अनुसार करती हैं। 
सरकारी कम्पनियों के गुण-
  1. स्थापना की साधारण प्रक्रिया- एक सरकारी कम्पनी का गठन अन्य सार्वजनिक उद्यमों की तुलना में सरल होता है क्योंकि इसके लिए संसद अथवा विधानमण्डल द्वारा बिल पास कराने की आवश्यकता नहीं होती है। इसका निर्माण कम्पनी अधिनियम में निर्धारित प्रक्रिया को अपनाते हुए सरलता से किया जा सकता है। 
  2. व्यावसायिक क्षेत्र में कुशल कार्यप्रणाली- सरकारी कम्पनी का संचालन व्यावसायिक सिद्धांतों से हो सकता है। यह वित्तीय एवं प्रशासनिक मामलों में पूर्णत: स्वतन्त्र होती है। इसके निदेशक मण्डल में सामान्यत: कुछ पेशेवर और स्वतन्त्र ख्याति प्राप्त व्यक्ति होते हैं। 
  3. कुशल प्रबन्धन- चूंकि कम्पनी की वार्षिक रिपोर्ट संसद के दोनों सदनों के समक्ष विचार-विमर्श के लिए प्रस्तुत की जाती है, इसीलिए इसका प्रबन्धन इसकी गतिविधियों के क्रियान्वयन में सावधानी रखता है तथा व्यवसाय के प्रबन्धन में कुशलता को सुनिश्चित करता है। 
  4. स्वस्थ प्रतियोगिता- ये कम्पनियॉं अक्सर निजी क्षेत्र को स्वस्थ प्रतियोगिता प्रदान करती हैं और इसलिए माल एवं सेवाओं को उचित मूल्यों पर उचित गुणवत्ता के साथ उनकी उपलब्धता सुनिश्चित करती हैं। 
  5. भारी उद्योगों की स्थापना 
  6. पिछड़े क्षेत्रों का विकास 
सरकारी कम्पनियों की सीमाएं-
  1. पहल क्षमता का अभाव- सरकारी कम्पनियों के प्रबन्धन को हमेशा जनता के प्रति जवाब देही का डर बना रहता है। परिणामत: वे समय पर सही निणर्य नहीं ले पाते। इसके अतिरिक्त कुछ निदेशक व्यवसाय में जनता की आलोचना के कारण वास्तविक रूचि नहीं लेते है। 
  2. व्यावसायिक अनुभवों की कमी- व्यवहार में सामान्यत: इन कम्पनियों का प्रबन्धन प्रशासनिक सेवा अधिकारियों के हाथ में रहता है जिनका अक्सर व्यावसायिक क्षेत्र के प्रबन्धन में पेशेवर अनुभव कम होता है।
  3. नीतियों और प्रबन्धन में परिवर्तन- इन कम्पनियों की नीतियां और प्रबन्धन सामान्यत: सरकार बदलने के साथ-साथ परिवर्तित होती रहती है। नियमों, नीतियों और प्रक्रिया में अचानक परिवर्तन के कारण व्यावसायिक उद्यमों में विकृत स्थिति बन जाती हेै। 
  4. भ्रष्टाचार एवं लाल- फिताशाही इन उधमों में बढ़ती जा रही है। 

सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों का महत्व

हमारे देश में सभी उपक्रम, सार्वजनिक उपक्रम नहीं हैं। हमारे देश में मिश्रित अर्थव्यवस्था है और हमारी अर्थव्यवस्था के विकास के लिए निजी क्षे़त्रों के साथ-साथ सार्वजनिक क्षेत्रों के उपक्रम भी सहयोग देते है। तथापि, केवल कुछ ही चुनिन्दा क्षेत्र हैं जहॉं पर सरकार अपने उपक्रमों की स्थापना अर्थव्यवस्था के संतुलित विकास के लिए और समाज कल्याण को बढ़ावा देने के लिए करती है। ऐसी अनेक जगहें हैं जिनमें पूॅंजी के भारी-भरकम निवेश की आवश्यकता है लेकिन लाभांश की मात्रा या तो कम है या इसे लम्बी अवधि के बाद प्राप्त किया जा सकता है। चूंकि बिजली के उत्पादन और आपूर्ति, मशीनों के निर्माण, बांधों के निर्माण आदि में ज्यादा समय लगता है, निजी व्यापारी इन क्षेत्रों में अपना व्यवसाय स्थापित करने से कतराते है। लेकिन सार्वजनिक हितों को दृष्टि में रखते हुए इन क्षेत्रों का अनदेखा नहीं किया जा सकता है। इसीलिए इन उपक्रमों की स्थापना और संचालन सरकार द्वारा किया जाता है। इसी प्रकार से सार्वजनिक उपक्रम भी देश के प्रत्येक भाग में उद्योगों को बढा़वा देकर क्षेत्रीय विकास में संतुलन स्थापित करने में सहायता करते हैं।
  1. संतुलित क्षेत्रीय विकास 
  2. एक अर्थव्यवस्था की आधार इकाईयों 
  3. जन-कल्याण के क्रिया-कलापों पर 
  4. निर्यात को प्रोत्साहन देना 
  5. आवश्यक वस्तुओं की कीमत पर नियंत्रण रखना
  6. निजी एकाधिकार के प्रभाव को सीमित करना का विकास 
  7. देश की सुरक्षा को सुनिश्चित करना केंद्रित करना 
  8. आर्थिक असमानता को कम करना 
  9. संतुलित क्षेत्रीय विकास- देश का संतुलित आर्थिक विकास अर्थात् देश के प्रत्येक राज्य एवं क्षेत्र में उद्योगों का विकास कर संतुलित क्षेत्रीय विकास करना है। 
  10. एक अर्थव्यवस्था की आधार इकाईयों का विकास करना भी महत्वपूर्ण है। 
  11. जन-कल्याण के क्रिया-कलापों पर ध्यान देना- सार्वजनिक उपक्रम जन-कल्याण से संबन्धित जैसे विद्युत, गैस, दूरभाष आदि का उत्पादन एवं सेवा प्रदान करने में विशेष ध्यान देती है।
  12. निर्यात को प्रोत्साहन देना- निर्यात को बढ़ावा देने वाले उद्योगों को सार्वजनिक क्षेत्र में प्रोत्साहन दिया जाता है।
  13. आवश्यक वस्तुओं की कीमत पर नियन्त्रण स्थापित करने हेतु सरकार ऐसे वस्तुओं से सम्बन्धित उपक्रम सार्वजनिक क्षेत्र में स्थापित करती है।
  14. निजी एकाधिकार के प्रभाव व हानि से नागरिकों को सुरक्षा प्रदान करना।
  15. देश की सुरक्षा को सुनिश्चित करना- देश की सुरक्षा सर्वोपरि है अत: लड़ाकू विमानों का उत्पादन, अस्त्र-शस्त्रों का उत्पादन, देश की सुरक्षा से संबंधित ऐसे ही उत्पादन सार्वजनिक उपक्रम के तहत की जाती है। 
  16. आर्थिक असमानता को कम करना- देश के विभिन्न क्षेत्रों एवं राज्यों में सार्वजनिक उपक्रमों की स्थापना से लोगों को रोजगार की प्राप्ति होती है जिससे आर्थिक असमानता एवं गरीबी में कमी आती है। 
इस प्रकार जन कल्याण, देश का योजनाबद्ध आर्थिक विकास, क्षेत्रीय संतुलन, आयात विकल्प, आर्थिक शक्तियों पर नजर कुछ ऐसे लक्ष्य हैं जिन्हें सार्वजनिक उद्यमों के द्वारा प्राप्त किया जाता है।

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