अरविन्द घोष जीवन परिचय, जीवन दर्शन एवं शिक्षा दर्शन



अरविन्द घोष का जन्म 15 अगस्त 1872 को कलकत्ता में हुआ। अरविन्द घोष के पिता डॉ. कृष्णधन घोष विलायत से डॉक्टरी की पढ़ाई करके लौटे तो अंग्रेजियत के भक्त होकर आये। अरविन्द घोष को जन्म के समय जो नाम दिया गया उसमें बीच में विलायती नाम भी जोड़ा हुआ था - अरविन्द ऐक्रॉइड घोष। घर में आया रखी गयी तो वह भी अंग्रेज। स्कूल भेजा गया तो दार्जिलिंग के लोरेटो कॉन्वेन्ट में जहाँ केवल विलायती बच्चे पढ़ते थे। फिर आगे पढ़ने के लिए केवल सात वर्ष की आयु में देशनिकाला देकर इंग्लैण्ड भेज दिया गया। वहाँ उन्हें अपने दो और भाइयों के साथ एक अंग्रेज पादरी दम्पति के संरक्षण में इस हिदायत के साथ रखा गया कि यह बच्चे कभी भी किसी हिन्दुस्तानी वस्तु, व्यक्ति या विचार के सम्पर्क में न आने पायें। उद्देश्य था इन बच्चों को पक्के अंग्रेज की शक्ल मे ढालना। 

अरविन्द घोष इतनी उत्कृष्ट प्रतिभा के धनी थे कि प्रारम्भ से ही इंग्लैण्ड प्रवास के दौरान उन्होंने पाश्चात्य भाषाओं, साहित्य, चिन्तन और संस्कृति को कुछ इस समग्रता में आत्मसात कर लिया कि जब वे केम्ब्रिज में उच्च शिक्षा के लिए पहुँचे तो उनके अंग्रेज सहपाठी भी उनके सामने कहीं नहीं ठहरते थे। केम्ब्रिज में ही वे भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन से जुड़े गुप्त संगठनों के सम्पर्क में आये, और उन्हें आभास हुआ कि इस आन्दोलन में योगदान करना उनकी नियति है। ऐसे में वे पिताजी की उन्हें आइ.सी.एस. अफसर बनाने की अभिलाषा कैसे पूरी करते? मेधावी थे, तो आइ.सी.एसकी लिखित परीक्षा उत्कृष्ट अंको से पास कर गये। उन दिनों आइ.सी.एस. बनने के लिए प्रयोगिक परीक्षा की भाँति घुड़सवारी की परीक्षा भी पास करनी पड़ती थी। भाँति भाँति के बहाने करते हुए, अरविन्द घोष घुड़सवारी की परीक्षा में सम्मिलित होने से बचते रहे। इस तरह अन्ततः उन्हें आइ.सी.एस.के लिए अयोग्य घोषित कर दिया गया।

उन्हीं दिनों बड़ौदा नरेश इंग्लैण्ड में थे। श्री अरविन्द उनसे मिले, और बड़ौदा की राजकीय सेवा में उन्हें आइ.सी.एस. के समतुल्य वेतन पर रख लिया गया। चैदह वर्ष के अंग्रेजी बनवास के बाद १८९३ में जब वे भारत वापस लौटे, तो यहाँ की भाषा, संस्कृति और साहित्य से पूरी तरह अनभिज्ञ हो लौटे थे। यहाँ तक कि अपनी मातृभाषा बाँग्ला का ककहरा भी उन्हें नहीं आता था। बुद्धि मेधावी हो तो कौशल कोई भी प्राप्त किया जा सकता है। श्री अरविन्द ने संस्कृत, बाँग्ला और कुछ अन्य भारतीय भाषाएं सीख कर कुछ ही वर्षों में वेद, उपनिषद्, महाभारत, रामायण, कालिदास, भर्तृहरि का सोपांग अनुशीलन सम्पन्न कर लिया।

बड़ौदा में ही उन्होंने योगाभ्यास प्रारम्भ किया, और मराठी महात्मा लेले के निर्देशन में जो एक दिन ध्यान साधने बैठे तो कुछ ही घण्टों में निर्वाण की अवस्था प्राप्त कर ली। इन्हीं दिनों स्वतन्त्रता संग्राम आन्दोलन से वे इतनी गहराई से जुड़े कि मन के साथ साथ उनका पूरा वेतन ही आन्दोलन को समर्पित था। परन्तु राजकीय सेवा की सीमाओं के कारण वे खुलकर आन्दोलन का हिस्सा नहीं बन पा रहे थे। १९०५ मे अंग्रेजो द्वारा बंगाल विभाजन की घोषणा के बाद वे खुलकर राष्ट्रीय आन्दोलन में कूद पड़े।

बड़ौदा की नौकरी छोड़ कर वे कलकत्ता आ गये। यहाँ से ‘युगान्तर’ और ‘वन्दे मातरम्’ में लगातार प्रकाशित होने वाले उनके लेखों ने राष्ट्रीय आन्दोलन के चिन्तन को एक नयी दिशा और ऊर्जा प्रदान की। बाल गंगाधर तिलक और बिपिन चन्द्र पाल जैसे राष्ट्रवादी कांग्रेस के नेताओं का साथ देते हुए १९०७ में उन्होंने सूरत के राष्ट्रीय अधिवेशन में कांग्रेस का विभाजन करवा दिया। श्री अरविन्द के बढ़ते प्रभाव से भारत के वाइसराय लॉर्ड मिन्टो कुछ इस तरह चिन्तित हो उठे कि उन्होंने इंग्लैण्ड की सरकार को पत्र लिखा कि “यह सर्वविदित तथ्य है कि अरविन्द सबसे खतरनाक इन्सान हैं जिनसे हमारा सामना हुआ है”। उनसे निपटने के लिए अंग्रेजी सरकार किसी भी सीमा तक जाने के लिए दृढ़संकल्प थी। कई बार उन पर देशद्रोह का असफल आरोप लगाया गया। ‘वन्दे मातरम्’ के जून १९०७ के अंक मे प्रकाशित किसी लेख को देशद्रोहात्मक कहते हुए जब श्री अरविन्द को गिरफ्तार कर लिया गया, तो पूरा बंगाल सहानुभूति, क्षोभ और क्रोध से व्यथित हो उठा। इस अवसर पर कविवर रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कविता लिखीः अरविन्द, रवीन्द्रर लहो नमस्कार ! हे बन्धु, हे देशबन्धु, स्वदेश आत्मार। वाणी मूर्ति तुमि ! तोमा लागि लहे मान, नहे धन, नहे सुख, कोनो क्षुद्र दान।। अन्ततः १९०८-०९ में उन्हें अतिप्रसिद्ध अलीपुर बमकाण्ड में एक वर्ष के लिए जेल में डाल दिया गया। अलीपुर जेल में श्री अरविन्द को भगवान वासुदेव के दर्शन हुए। जेल से बाहर आने के बाद उत्तरपाड़ा की एक जनसभा में उन्होंने इस अलौकिक दर्शन का विस्तार से वर्णन किया। उन्होंने बताया कि जज, वकील, जेल की सलाखें, तमाम कैदी और कारागार के कम्बल तक में उन्हें भगवान वासुदेव ही दिखायी दे रहे थे। अंग्रेजी सरकार किसी भी तरह उन्हें फिर से जेल में डालने का यत्न कर रही थी, कि एक दिन फरवरी १९१० में उन्हें फ्रेन्च कॉलोनी चन्द्रनगर प्रस्थान करने का ईश्वरीय आदेश प्राप्त हुआ। कुछ ही क्षणों में श्री अरविन्द ने कलकत्ता के उस राष्ट्रीय आन्दोलन के संसार से सदैव के लिए विदा ले ली। उनको प्रतीति हो चुकी थी कि इस आन्दोलन में अब उनके लिए कोई कार्य शेष नहीं रहा और राष्ट्र की स्वतन्त्रता निश्चित एवं अवश्यम्भावी थी।

अगले ईश्वरीय आदेश का अनुपालन करते हुए श्री अरविन्द ने ४ अप्रैल १९१० को पॉण्डिचेरी में पदार्पण किया। यहाँ अपने कुछ शिष्यों के साथ वे गहन योग-साधना में तल्लीन थे। मार्च १९१४ में श्री माँ (मिर्रा अलफासा) का अपने पति पॉल रिशा के साथ पॉण्डिचेरी आगमन हुआ। यहाँ आने से पूर्व ही श्री माँ को उच्च कोटि की अनेक सिद्धियाँ प्राप्त थीं। उन्हें एक सांकेतिक प्रश्न भी प्राप्त था जिसका उत्तर देने वाला उनका गुरू सिद्ध हो सकता था। श्री माँ को अपने प्रश्न का उत्तर श्री अरविन्द से मिला।

सार्वभौमिक सनातन दर्शन और आध्यात्मिक दृष्टि के आधुनिक प्रस्तुतीकरण के लिए पॉल रिशा, श्री माँ और श्री अरविन्द ने सम्मिलित रूप से १५ अगस्त १९१४ को ‘आर्य’ नाम के अंग्रेजी मासिक पत्र का प्रकाशन प्रारम्भ किया। परन्तु कुछ समय पश्चात ही विश्वयुद्ध के कारण श्री माँ और पॉल को वापस स्वदेश फ्रांस जाना पड़ा। परिणाम स्वरूप, ‘आर्य’ के सम्पूर्ण लेखन और प्रकाशन का दायित्व अकेले श्री अरविन्द के कन्धों पर आ पड़ा। इसे विधि का विधान ही कहेंगे, क्यों कि कविताओं, पत्रों और पूर्व-प्रकाशित राजनैतिक लेखों को छोड़कर श्री अरविन्द के सभी ग्रन्थों का प्रकाशन ‘आर्य’ के पृष्ठों में ही हुआ। १५ जनवरी १९२१ को साढ़े छः साल बाद जब ‘आर्य’ बन्द हुआ, तब तक श्री अरविन्द का लेखन कार्य सम्पन्न हो चुका था। सावित्री, द लाइफ डिवाइन, द सिन्थेसिस ऑफ योग, एसेज ऑन द गीता उनकी प्रमुख कृतियाँ हैं।२४ नवम्बर१९२६ को श्री अरविन्द को महासिद्धि प्राप्त हुयी, जब उनके रोम रोम में भगवान श्रीकृष्ण का अवतरण हो गया। उसी दिन से पृथ्वी पर सृष्टि के उद्धार एवं रूपान्तरण हेतु ‘अतिमानस’ के अवतरण के लिए उन्होंने पूर्णरूपेण एकान्तवास का व्रत धारण कर लिया। अब वे वर्ष में केवल चार दर्शन-दिवसों को अपने शिष्यों तथा भक्तों को दर्शन देने के लिए अपने कक्ष से बाहर आते थे। ५ दिसम्बर १९५० को श्री अरविन्द ने देह त्याग महाप्रयाण किया, और उसके बाद उनके कार्य को श्री माँ ने आगे बढ़ाया। श्री माँ द्वारा स्थापित विश्व एकता का प्रतीक ऑरोविल नगर और पॉण्डिचेरी में श्री अरविन्द आश्रम आज लाखों लोगों के तीर्थस्थल हैं।

अरविन्द घोष का जीवन दर्शन

अरविन्द घोष ने योग दर्शन के महत्व को रेखांकित करते हुए आधुनिक परिवेश के अनुरूप उसकी पुनव्र्याख्या की। उनके दर्शन को अनुभवातीत सर्वांग योग दर्शन के नाम से जाना जाता है क्योंकि उन्होंने अपने विचार को योग की संकुचित व्याख्या तक सीमित रखने की जगह सत्य तक पहुँचने के लिए विभिन्न मार्गों को समन्वित रूप में बाँधकर देखने का प्रयास किया।

अरविन्द के अनुसार जीवन एक अखण्ड प्रक्रिया है। चेतना के अनेक स्तर हैं। इसे निम्नत्तर स्तर से उठाकर उच्चतम स्तर तक ले जाया जा सकता है। उन्होंने अनुभव किया कि आधुनिक युग में मस्तिष्क एवं बुद्धि की दृष्टि से विकास चरम को प्राप्त कर चुका है। अब दैवी समाज की कल्पना साकार की जा सकती है। अगर इससे आगे नहीं बढ़ा गया तो ह्रास या पराभव निश्चित है। अत: इस चेतन तत्व को प्रकाश, शक्ति एवं सत्य से समन्वित करना आवश्यक है। क्योंकि इसी के माध्यम से वह मानव जीवन के प्रमुख उद्देश्य अनुभवातीत सत्य-चेतन-तत्व में संपूर्ण रूप से रूपान्तरित हो सकती है।

अरविन्द घोष के अनुसार इस सृष्टि के रचयिता, पालनकर्ता और संहारक ईश्वर है। जिसे धर्म में ईश्वर कहा जाता है उसे ही दर्शन में ब्रह्म कहा गया है। ईश्वर सृष्टि का कर्ता, सनातन और सर्वात्मा है। ईश्वर परमपुरूष है, ब्रह्म निर्विकार एवं निराकार है किन्तु अन्तत: दोनों एक हैं। ईश्वर द्वारा इस जगत के निर्माण की प्रक्रिया का विश्लेषण अरविन्द घोष ने दो प्रकार से किया है। विकास की दो विपरीत दिशाएँ हैं- अवरोहण एवं आरोहण। ब्रह्म अवरोहण द्वारा अपने को वस्तु जगत में परिवर्तित करता है। इसके सात सोपान हैं- सत्, चित्त, आनन्द, अतिमानस, मानस, प्राण एवं द्रव्य। दूसरी प्रक्रिया है आरोहण की। इसमें द्रव्य रूप इस जगत में मनुष्य अपने द्रव्य रूप से आरोहण द्वारा सत् की ओर क्रमश: चलायमान होता है। इसके भी सात चरण हैं द्रव्य, प्राण, मानस, अतिमानस, आनन्द, चित्त और सत्। अरविन्द आत्मा को परमात्मा से इस अर्थ में भिन्न मानते हैं कि आत्मा में परमात्मा के दो गुण- आनन्द और चित्त तो होते हैं पर सत् नहीं। विभिन्न योनियों से होते हुए आत्मा मनुष्य योनि में प्रवेश करती है और आनन्द और चित्त के साथ सर्वोच्च उद्देश्य सत् को प्राप्त करती है। 

अरविन्द घोष भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों ही तत्वों के मूल में ब्रह्म को पाते हैं। अत: दोनों ही तरह के ज्ञान के एकात्मकता को जानना ही ज्ञान है। व्यावहारिक दृष्टि से ज्ञान को उन्होंने अन्य भारतीय मनीषियों की तरह दो भागों में बाँटा है- द्रव्यज्ञान (या अपरा विद्या) एवं आत्म ज्ञान (परा विद्या)। द्रव्यज्ञान प्रारम्भ है जिसकी परिणति आत्मज्ञान में होनी चाहिए। द्रव्यज्ञान प्राप्त करने का साधन इन्द्रियाँ हैं और आत्मज्ञान प्राप्त करने का साधन अन्त:करण है। आत्मतत्व का ज्ञान योग के द्वारा ही संभव है। 

अरविन्द घोष के अनुसार मानव जीवन का उद्देश्य सत् चित्त एवं आनन्द की प्राप्ति है। इस महान लक्ष्य को गीता में प्रतिपादित कर्मयोग एवं ध्यानयोग द्वारा प्राप्त किया सकता है। संसार से पलायन की जगह निष्काम भाव से कर्म करने से ही सत्, चित्त एवं आनन्द की प्राप्ति की जा सकती है। पर इसके लिए स्वस्थ शरीर, विकार रहित मन एवं संयमित आचार-विचार आवश्यक है। योग के द्वारा मानव अपने शरीर, सोच , विचार एवं कार्य पर नियंत्रण रख उन्हें उचित दिशा में ले जा सकता है।

अरविन्द घोष का शिक्षा दर्शन 

अरविन्द घोष का दर्शन इस धारणा पर आधारित है कि मानव का बौद्धिक विकास अपने चरम बिन्दु पर पहुँच गया है। इसके आगे आन्तरात्मिक और आध्यात्मिक विकास होना चाहिए। यदि मानव इस दिशा में नहीं बढ़ता है तो न केवल उसका विकल्प क्रम अवरूद्ध होगा वरन् वह पतन की ओर अग्रसर हो जायेगा।

इन्द्रियानुभव को अरविन्द घोष सर्वोच्च ज्ञान नहीं मानते थे, वरन् उसे निम्न कोटि का ज्ञान मानते थे। उनके अनुसार ज्ञान की अनेक कोटियाँ है और सर्वोच्च कोटि आध्यात्मिक अनुभूति है जिसे हम इस जगत में प्राप्त कर सकते हैं।

अरविन्द मनुष्य के एकांगी विकास को हानिप्रद मानते थे। वे स्वस्थ समाज के निर्माण हेतु मानव के सर्वांगीण विकास पर जोर देते थे। इसके लिए उन्होंने प्राच्य एवं पाश्चात्य संस्कृतियों के समन्वय पर जोर दिया। उनके दर्शन में न तो प्राचीन भारतीय संस्कृति से पलायन का भाव है न ही पाश्चात्य संस्कृति का अन्धानुकरण। दोनों का समन्वित रूप ही बेहतर शिक्षा व्यवस्था का विकास कर सकता है।

1907 में अरविन्द घोष ने ‘ए सिस्टम ऑफ नेशनल एडुकेशन’ नामक निबन्ध लिखा। इसमें उन्होंने अपनी शिक्षा की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए कहा ‘‘प्रत्येक मानव के अन्दर कुछ ईश्वर प्रदत्त दिव्य शक्ति है, कुछ जो उसका अपना है, जिसे पूर्णता की ओर अग्रसर किया जा सकता है। शिक्षा का कार्य है इसे चिन्हित करना, विकसित करना एवं उपयोग में लाना। शिक्षा का सर्वप्रमुख लक्ष्य होना चाहिए विकसित होती आत्मा की अन्तर्निहित शक्ति को पूर्णत: विकसित कर श्रेष्ठ कार्य हेतु तैयार करना।’’ 1910 में अपने एक दूसरे बहुचर्चित लेख में अरविन्द ने एक ऐसा वाक्य लिख जो शिक्षा का सूत्र वाक्य बन गया। उन्होंने लिखा ‘‘सही शिक्षा का प्रथम सिद्धान्त है कि कुछ भी पढ़ाया नहीं जा सकता है।’’

इस प्रकार स्पष्ट है कि अरविन्द घोष के विचार में हर व्यक्ति की आत्मा में ज्ञान अन्तर्निहित है। उन्होंने सही शिक्षा को उद्घाटित करने का साधन अन्त:करण को माना। अरविन्द घोष के अनुसार अन्त:करण के चार पटल हैं- चित्त, मानस, बुद्धि और अन्तदर्ृष्टि। चित्त वस्तुत: भूतकालिक मानसिक संस्कार है। जब कोई व्यक्ति कोई बात याद करता है तो वह छन कर चित्त में संग्रहित होती है। इसी से क्रियाशील स्मृति आवश्यकता एवं क्षमतानुसार कभी-कभी कुछ चीजों को चुन लेती है। सही चुनाव हेतु उपयुक्त शिक्षा एवं प्रशिक्षण की आवश्यकता पड़ती है। दूसरे पटल मानस को मस्तिष्क कहा जा सकता है। यह ज्ञानेन्द्रियों से तथ्यों को प्राप्त कर उसे विचार का रूप देता है। ज्ञानेन्द्रियों के अतिरिक्त मस्तिष्क स्वंय भी तथ्यों या संप्रत्ययों को ग्रहण करता है। 

अत: ज्ञानेन्द्रियों एवं मस्तिष्क का प्रशिक्षण लाभदायक है। अन्त:करण के तीसरे पटल ‘बुद्धि’ की भूमिका शिक्षा में अधिक महत्वपूर्ण है। मस्तिष्क द्वारा प्राप्त किए ज्ञान को व्यवस्थित करना उनका विश्लेषण एवं संश्लेषण कर निष्कर्ष पर पहुँचने का कार्य बुद्धि का है। अन्त:करण का चतुर्थ पटल ‘अन्तदर्ृष्टिपरक प्रत्यक्षीकरण’ की शक्ति है। इससे ज्ञान का प्रत्यक्ष दर्शन होता है और मानव भविष्य के बारे में भी जान सकता है। पर मानव का अन्त:करण इस शक्ति को अभी तक जागृत नहीं कर सका है। यह विकास की अवस्था में है और भविष्य में सद्शिक्षा द्वारा इस अन्तर्निहित शक्ति को मानव प्राप्त कर सकता है।

शिक्षा का उद्देश्य 

बालक का सर्वांगीण विकास- अरविन्द घोष के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य शरीर, मस्तिष्क तथा आत्मा का सर्वांगीण विकास करना है। ताकि इनका उपयोग वे स्वंय में निहित दैवी सत्य को प्राप्त करने में उपकरण के रूप में कर सकें। शिक्षा छात्रों को स्वंय का समग्र रूप से विकास करने में सहायता प्रदान करती है। वे बालक के शरीर, प्राण, मन, बुद्धि, आत्मा आदि विभिन्न पक्षों के समन्वित विकास पर बल देते हैं। अरविन्द घोष एसेज ऑन द गीता में लिखते हैं ‘‘बालक की शिक्षा उसकी प्रकृति में जो कुछ सर्वोत्तम, सर्वाधिक शक्तिशाली, सर्वाधिक अन्तरंग और जीवन पूर्ण है, उसको अभिव्यक्त करने वाली होनी चाहिए। मानस की क्रिया और विकास जिस साँचे में ढ़लनी चाहिए, वह उनके अन्तरंग गुण और शक्ति का साँचा है। उसे नई वस्तुएँ अवश्य प्राप्त करनी चाहिए, परन्तु वह उनको सर्वोत्तम रूप से और सबसे अधिक प्राणमय रूप में स्वयं अपने विकास, प्रकार और अन्तरंग शक्ति के आधार पर प्राप्त करेगा।’’

आत्म-तत्व की शिक्षा- अरविन्द शिक्षा का उद्देश्य सूचनाओं को एकत्र करना नहीं मानते। उनके अनुसार शिक्षा का उद्देश्य है आत्म-तत्व की शिक्षा या आत्म-शिक्षा प्रदान करना। जिससे मानव आत्म तत्व को परमात्मा के साथ एकाकार कर सके।

विद्यार्थी का सामाजिक विकास- अरविन्द ने शिक्षा का एक महत्वपूर्ण लक्ष्य बालकों में सामाजिक पक्ष के विकास को माना। वे एक दैवी समाज और दैवी मानव की कल्पना करते हैं। उनकी दृष्टि में शिक्षा का उद्देश्य ऐसे सर्वांग पूर्ण मनुष्य का विकास करना है, जो केवल व्यक्ति के रूप में ही नहीं बल्कि समाज के सदस्य के रूप में विकसित होता है।

राष्ट्रीयता की शिक्षा- अरविन्द घोष का दृढ़ विश्वास था कि मानव की ही तरह प्रत्येक राष्ट्र की भी आत्मा होती है जो मानव-आत्मा एवं सार्वभौमिक-आत्मा के मध्य की कड़ी है। बीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक में चल रहे राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन को अरविन्द ने नेतृत्व प्रदान किया था। अत: वे एक ऐसी राष्ट्रीय शिक्षा पद्धति का विकास करना चाहते थे जो भारतीय संस्कृति एवं परम्पराओं के अनुरूप हों। उनका कहना था कि ‘‘हम जिस शिक्षा की खोज में हैं, वह एक भारतीय आत्मा और आवश्यकता तथा स्वभाव और संस्कृति के उपयुक्त शिक्षा है, केवल ऐसी शिक्षा नहीं है जो भूतकाल के प्रति भी आस्था रखती हो, बल्कि भारत की विकासमान आत्मा के प्रति, उसकी भावी आवश्यकताओं के प्रति, उसकी आत्मोत्पत्ति की महानता के प्रति और उसकी शाश्वत आत्मा के प्रति आस्था रखती है।’’

सामन्जस्य की शिक्षा- अरविन्द घोष बाह्य रूप से विरोधी दिख रहे तत्वों में एक व्यापक सामन्जस्य की संभावना देखते थे। उनके विचारों में हम ज्ञान, भक्ति, कर्म का समन्वय, निर्गुण और सगुण का समन्वय, द्वैत और अद्वैत का समन्वय आसानी से देख सकते है। अरविन्द घोष शिक्षा के द्वारा सामन्जस्य और समन्वय की प्रक्रिया को मानव मात्र के कल्याण के लिए और आगे ले जाना चाहते थे। इस प्रकार से अरविन्द घोष ने शिक्षा के द्वारा व्यक्तित्व के सर्वांगीण और समन्वित विकास पर बल दिया। वे शिक्षा को सौंदर्य पर आधारित करना चाहते थे ताकि सत्य की अनुभूति हो सके। इस प्रकार उनकी शिक्षा का लक्ष्य सत्य, शिव और सुन्दर के समन्वित रूप को प्राप्त करना था।

पाठ्यक्रम 

पाठ्यक्रम निर्माण के सन्दर्भ में अरविन्द के आधारभूत तीन सिद्धान्त हैं:-
  1. बालक स्वयं सीखता है, अध्यापक उसकी सहायता सुषुप्त शक्तियों के समझने में करता है। 
  2. पाठ्यक्रम बच्चे की विशिष्टताओं को ध्यान में रख कर बनाना चाहिए। यह आत्मानुभूति के महान उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए आवश्यक है। 
  3. पाठ्यक्रम निर्माण में वर्तमान से भविष्य तथा समीप से दूर का सिद्धान्त अपनाना चाहिए। शिक्षा ‘स्वदेशी’ सिद्धान्तों पर आधारित होनी चाहिए। पूर्व तथा पश्चिम के ज्ञान के समन्वय पर अरविन्द जोर देते थे- पर उनका मानना था कि पहले स्वदेशी ज्ञान में विद्याथ्री की नींव मजबूत कर ही पाश्चात्य ज्ञान की शिक्षा दी जानी चाहिए। वे कहते हैं ‘‘सच्ची राष्ट्रीय शिक्षा का लक्ष्य और सिद्धान्त निश्चय ही आधुनिक सत्य और ज्ञान की अवहेलना करना नहीं है, बल्कि हमारी नींव को हमारे अपने विश्वास, हमारे अपने मस्तिष्क, हमारी अपनी आत्मा पर आश्रित करना है।’’ 
अरविन्द घोष ने अपनी सर्वांग विचारधारा के अनुरूप शिक्षा क्रम की एक वश्हद पन्चमुखी योजना प्रस्तुत की। ये पाँच पक्ष हैं- भौतिक, प्राणिक, मानसिक, अन्तरात्मिक तथा आध्यात्मिक। ये पाँचों पक्ष उत्तरोत्तर विकास की अवस्थाएँ हैं। साथ ही प्रारम्भ होने के उपरांत प्रत्येक पक्ष का विकास आजीवन होता रहता है।

शारीरिक शिक्षा:- शरीर मानव के सभी कर्मों का माध्यम है। अरविन्द घोष का योग दर्शन में स्वस्थ शरीर को बहुत महत्व दिया गया है। शारीरिक शिक्षा के तीन पक्ष हैं- (अ) शारीरिक क्रियाओं को संयमित करना (ब) शरीर के सभी अंगों और क्रियाओं का समन्वित विकास (स) शारीरिक दोषों को खत्म करना। शारीरिक विकास हेतु अरविन्द घोष आश्रम में योग, व्यायाम और विभिन्न प्रकार के खेलों की समुचित व्यवस्था है।

प्राणिक शिक्षा:- 
प्राणिक शिक्षा के अन्तर्गत इच्छा-शक्ति को दृढ़ करने का अभ्यास कराया जाता है। तथा चरित्र निर्माण पर जोर दिया जाता है। इन दोनों उद्देश्यों की प्राप्ति उपदेशों या व्याख्यानों से नहीं हो सकती है। अध्यापकों को आदर्श-व्यवहार प्रस्तुत करना होता है ताकि छात्र उनकी अच्छाइयों को ग्रहण कर सकें। साथ ही महापुरूषों के आदर्श उपस्थित करने होते हैं। छात्र स्वाध्याय एवं संयम से भी इन गुणों को प्राप्त करता है।

मानसिक शिक्षा:- मन अत्यधिक चंचल होता है इसलिए इसे नियंत्रित करना कठिन है। पुस्तकीय ज्ञान या तथ्यों के संकलन से यह कार्य नहीं हो सकता है। मानसिक शिक्षा स्वस्थ संस्कृति के निर्माण एवं बेहतर सामाजिक सम्बन्धों के लिए आवश्यक है। श्री माताजी के अनुसार मन की शिक्षा के पाँच अंग हैं-
  1. एकाग्रता की क्षमता को जाग्रत करना। 
  2. मन को व्यापक, विस्तृत और समृद्ध बनाना। 
  3. उच्चतम लक्ष्य का निर्धारण कर समस्त विचारों को उसके साथ सुव्यवस्थित करना। 
  4. विचारों पर संयम रखना तथा गलत विचारों का त्याग करना। 
  5. मानसिक स्थिरता, पूर्ण शान्ति तथा सर्वोच्च सत्ता से आने वाली अंत:प्रेरणाओं को सही स्वरूप में ग्रहण करने की क्षमता का विकास करना। 
मानसिक विकास के लिए योग को अपनाना आवश्यक है। यम, नियम, आसान और प्राणायाम विद्याथ्री की एकाग्रता बढ़ाने में सहायक होते हैं।

आन्तरात्मिक शिक्षा:- आन्तरात्मिक शिक्षा के अन्तर्गत उन शाश्वत दार्शनिक प्रश्नों का उत्तर प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है जो मानव मन में प्रारम्भ से ही मथता रहा है जैसे जीवन का लक्ष्य क्या है? पृथ्वी पर मनुष्य के अस्तित्व का क्या कारण है? मानव और शाश्वत सत्ता का क्या सम्बन्ध है? आदि। अन्तरात्मा के विकास के बिना मानव के संपूर्ण विकास की कल्पना नहीं की जा सकती है। अन्तरात्मा के विकास से ही मानव जीवन-लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। अन्तरात्मा के विकास के लिए योग-साधना आवश्यक है।

आध्यात्मिक शिक्षा:- आध्यात्मिक शिक्षा शिक्षा प्रक्रिया का उच्चतम शिखर है। इसके माध्यम से शिक्षाथ्री सार्वभौम सत्ता के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध स्थापित करता है। श्री माताजी के अनुसार आध्यात्मिक शिक्षा प्राप्त कर लेने पर ‘‘सहसा एक आन्तरिक कपाट खुल जाएगा और तुम सब ऐसी ज्योति में प्रवेश करोगे जो तुम्हें अमरता का आश्वासन प्रदान करेगी तथा स्पष्ट अनुभव कराएगी कि तुम सदा ही जीवित रहे हो और सदा ही जीवित रहोगे। नाश बाह्य रूपों का होता है और अपनी वास्तविक सत्ता के सम्बन्ध में तुम्हें यह भी पता लगेगा कि ये रूप वस्त्रों के समान हैं, जिन्हें पुराने पड़ जाने पर फेंक दिया जाता है।’’
अरविन्द घोष मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा देने के प्रबल पक्षधर थे। उनका मानना था कि विदेशी भाषा के शब्दों का संदर्भ भिन्न होता है अत: विदेशी भाषा का उपयोग विद्याथ्री का ध्यान शिक्षण-तत्व से हटाती है और वह एकाग्र होकर शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाता है। पर अरविन्द घोष अन्तर्राष्ट्रीय भाषाओं के विरोधी भी नहीं थे। वे चाहते थे छात्र अन्तर्राष्ट्रीय भाषाओं को सीखें।

विभिन्न विषयों के शाब्दिक ज्ञान के साथ-साथ अरविन्द घोष ने पाठ्यक्रम में विभिन्न क्रियाओं को महत्वपूर्ण स्थान दिया। उन्होंने विद्यालय को समुदाय के सामाजिक-आर्थिक परिवेष से जोड़ने पर बल दिया। वे शिल्प की शिक्षा पर बल देते थे। वे काव्य, कला और संगीत की शिक्षा आवश्यक मानते थे। इन सबसे सृजनात्मकता और कल्पनाशीलता का विकास होता है। अरविन्द घोष विज्ञान की शिक्षा के महत्व को स्वीकार करते हैं। विज्ञान से अन्वेषण, विश्लेषण, संश्लेषण तथा समालोचना की शक्ति का विकास होता है। प्रकृति के विभिन्न जीवों, पादपों एवं पदार्थों के अवलोकन एवं अध्ययन से मानसिक शक्तियों का विकास होता है और संवेदनशीलता बढ़ती है।

वस्तुओं के उपरांत शब्दों और विचारों पर ध्यान केन्द्रित करने की आवश्यकता है। वे राष्ट्रीय साहित्य और इतिहास का शिक्षण आवश्यक मानते थे। वे राष्ट्र को भूमि के टुकड़े से बहुत अधिक मानते थे। इतिहास के माध्यम से वे विद्यार्थियों में राष्ट्रप्रेम की भावना का विकास करना चाहते थे। उन्होंने राष्ट्रीय शिक्षा आन्दोलन के दौरान विद्यार्थियों की एक सभा को सम्बोधित करते हुए कहा: ‘‘एक राष्ट्र के इतिहास में कभी-कभी ऐसे समय भी आते है, जबकि दैव उसके सम्मुख एक ऐसा कार्य, एक ऐसा लक्ष्य उपस्थित कर देता है जिसके सामने प्रत्येक वस्तु त्याग देनी होती है- चाहे वह कितनी भी ऊँची और पवित्र क्यों न हो। हमारी मातृभूमि के लिए भी ऐसा समय आ गया है, जबकि उसकी सेवा से अधिक प्रिय और कुछ नहीं है, जबकि अन्य सबकुछ को इसी लक्ष्य की ओर निर्देशित किया जाना चाहिये। तुम अध्ययन करते हो तो उसी के लिए अध्ययन करो। अपने शरीर, मन और आत्मा को उसी की सेवा के लिए प्रशिक्षित करो। तुम अपनी आजीविका कमाओगे, ताकि तुम उसके लिए जीवित रह सको। तुम विदेशों को जाओगे ताकि तुम ज्ञान के साथ वापस लौट सको जिससे कि तुम उसकी सेवा कर सको।’’

अरविन्द घोष नैतिक शिक्षा को आवश्यक मानते हैं। वे राजनीति को भी नीति पर आधारित करना चाहते थे। वे धर्म के मूल तत्वों को पाठ्यक्रम में सम्मिलित करने का सुझाव देते हैं। वे धर्म को आत्मा और प्रकृति के बीच मध्यस्थ के रूप में देखते हैं। जैसा कि हम देख चुके हैं अरविन्द घोष शारीरिक शिक्षा पर बल देते हैं क्योंकि शरीर ही सारे धर्म और कर्म का आधार है। वे योग के द्वारा मन, मस्तिष्क और शरीर तीनों का सही दिशा में सामन्जस्यपूर्ण विकास पर बल देते हैं।

शिक्षण-विधि 

यद्यपि अरविन्द ने शिक्षण विधि के बारे में स्पष्ट नीति या कार्ययोजना का विकास नहीं किया पर उनके कार्यों से उनकी शिक्षण विधि के संदर्भ में मूलभूत सिद्धान्तों का विश्लेषण किया जा सकता है।

अरविन्द घोष का यह मानना था कि छात्र को कुछ भी ऐसा नहीं सिखाया नहीं जा सकता जो पहले से उसमें निहित नहीं है। छात्र को सीखने की स्वतंत्रता होनी चाहिए- शिक्षक का कर्तव्य है कि वह उपयुक्त परिस्थितियों का निर्माण करे। शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में बच्चे की इच्छा एवं रूचि अधिक महत्व रखता है। विद्याथ्री जिस विषय की शिक्षा में रूचि रखता हो उसे उस विषय की शिक्षा देनी चाहिए। साथ ही शिक्षण विधि का चयन छात्र की रूचि के अनुसार होनी चाहिए। शिक्षक को इस तरह से शिक्षण कार्य करना चाहिए कि छात्र पढ़ाये जा रहे पाठ एवं विषय में रूचि ले।

अरविन्द घोष ने इस बात पर जोर दिया कि बच्चे की शिक्षा वर्णमाला से प्रारम्भ नहीं होनी चाहिए। उसे प्रारम्भ में प्रकृति के विभिन्न रूपों- पेड़- पौधों, सितारों, सरिता, वनस्पतियों एवं अन्य भौतिक पदार्थों का निरीक्षण करने का अवसर देना चाहिए। इससे विद्यार्थियों में निरीक्षण शक्ति, संवेदनशीलता, सहयोग एवं सहअस्तित्व का भाव विकसित होता है। इसके बाद अक्षरों या वर्णों को सिखाना चाहिए। फिर शब्दों का अर्थ बताकर उनका विभिन्न तरीकों से प्रयोग करना सिखाना चाहिए। शब्द प्रयोग द्वारा साहित्यिक क्षमता का विकास होता है।

विज्ञान-शिक्षण में छात्र की जिज्ञासा प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करना चाहिए। इसके लिए आस-पास के वातावरण में स्थित जीव-जन्तु, पेड़- पौधे, मिÍी-पत्थर, तारे-नक्षत्र आदि का निरीक्षण कर प्रकृति के रहस्यों का उद्घाटन कर विभिन्न विज्ञानों की शिक्षा ग्रहण करने की प्रवृत्ति को बढ़ाना चाहिए।

छात्रों को दर्शन पढ़ाते समय छात्रों में बौद्धिक चेतना का विकास करने का प्रयास करना चाहिए। इतिहास इस तरह से पढ़ाया जाना चाहिए कि विद्यार्थियों में राष्ट्रीयता की भावना का विकास हो। अरविन्द घोष शिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभाषा के उपयोग पर बल देते थे। इससे राष्ट्रीय साहित्य एवं इतिहास को समझने में आसानी होती है, साथ ही चारों ओर के परिवेश का भी बेहतर ज्ञान मिलता है।

अरविन्द ने ऐसी शिक्षण-विधि अपनाने पर जोर दिया जिससे छात्र शिक्षा का अर्थ केवल सूचनाओं का संग्रह न माने। वह रटने पर जोर न दे वरन् ज्ञान प्राप्त करने के कौशलों को महत्वपूर्ण मानकर उनका विकास करे। विद्यार्थियों में समझ, स्मृति, निर्णय क्षमता, कल्पना, तर्क, चिन्तन जैसी शक्तियों का विकास किया जाना चाहिए।

अरविन्द घोष धार्मिक शिक्षा को आवश्यक मानते थे, पर उनका यह स्पष्ट मत है कि सप्ताह के कतिपय दिनों में कुछ कालांशों को धार्मिक शिक्षा के लिए तय कर उसकी शिक्षा देना उचित या लाभदायक नहीं है। धार्मिक शिक्षा बाल्यावस्था से ही पवित्र, शान्त एवं शुद्ध प्राकृतिक वातावरण में दी जानी चाहिए। आस्था से पूर्ण जीवन ही धार्मिक शिक्षा का बेहतर माध्यम है।

अरविन्द की दृष्टि में अध्यापक 

अध्यापक मात्र ‘इन्स्ट्रक्टर’ नहीं है। उसका सर्वाधिक महत्वपूर्ण कार्य ‘‘अपने आपको समझने’’ में छात्र की सहायता करना है। वह सूचनाओं को विद्यार्थियों के समक्ष परोसने वाला नहीं वरन् मार्ग-दर्शक है। अध्यापक विद्यार्थियों की क्रियात्मक एवं रचनात्मक शक्तियों के विकास में सहायता प्रदान करता है।

महर्षि अरविन्द के अनुसार शिक्षक को राष्ट्रीय संस्कृति के माली के रूप में कार्य करना चाहिए। उसका कर्तव्य है संस्कार की जड़ों में खाद देना। और जड़ों को सींच-सींच कर विद्याथ्री को महा-मानव बनाना।

महर्षि अरविन्द की शिष्या श्री माँ ने माता-पिता के कर्तव्यों के संदर्भ में जो बाते कहीं वह अध्यापकों पर भी पूर्णत: लागू होती है। वे कहती हैं ‘‘बच्चे को शिक्षा देने की योग्यता प्राप्त करने के लिए प्रथम कर्तव्य है अपने आप को शिक्षित करना, अपने बारे में सचेतन होना और अपने ऊपर नियन्त्रण रखना, जिससे हम अपने बच्चे के सामने कोई बुरा उदाहरण प्रस्तुत न करें। उदाहरण द्वारा ही शिक्षा फलदायी होती है। अगर तुम चाहते हो कि तुम्हारा बच्चा तुम्हारा आदर करे, तो अपने लिए आदर भाव रखो और हर क्षण सम्मान के योग्य बनो। कभी भी स्वेच्छाचारी, अत्याचारी, असहिष्णु और क्रोधित मत होओ। जब तुम्हारा बच्चा तुमसे कोई प्रश्न पूछे, तब तुम यह समझकर कि वह तुम्हारी बात नहीं समझ सकता, उसे जड़ता और मूर्खता के साथ कोई उत्तर मत दो। अगर तुम थोड़ा कष्ट उठाओ तो तुम्हारी बात वह हमेशा समझ सकेगा।’’

अरविन्द आश्रम, पाण्डिचेरी में कार्य करने वाले अध्यापकों को अलग से कोई वेतन नहीं दिया जाता है। अरविन्द घोष शिक्षा को धन के आदान प्रदान से जोड़ कर इसे व्यापार का रूप देने के विरोधी थे। अत: आश्रम- विद्यालय और विश्वविद्यालय के कार्यरत अध्यापकों की आवश्यकता को आश्रम उसी तरह से पूरा करता है जैसे अन्य साधकों की। यह प्राचीन भारतीय शिक्षा व्यवस्था के महान आदर्श पर आधारित है जब गुरू शिष्यों से अध्ययन काल के दौरान कोई आर्थिक माँग नहीं करते थे।

छात्र-संकल्पना 

अरविन्द घोष विद्याथ्री को प्रछन्न रूप में ‘सर्वशक्तिमान चैतन्य’ मानते हैं। वे विद्याथ्री को केवल शरीर के रूप में ही नहीं देखते हैं। शरीर के साथ-साथ प्राण, मन, बुद्धि, आत्मा आदि विभिन्न पक्षों को समान महत्व देते हैं। इन सबका वे समन्वित विकास चाहते हैं। महर्षि अरविन्द शिक्षा में अन्त:करण को महत्वपूर्ण मानते हैं। जैसा कि हम लोग पहले ही देख चुके हैं अन्त:करण के कई स्तर होते हैं। अन्त:करण का प्रथम स्तर ‘‘चित्त’’ कहलाता है। यह स्मृतियों का संचय स्थल है। द्वितीय स्तर ‘‘मन’’ कहलाता है। यह इन्द्रियों से सूचनाओं एवं अनुभवों को ग्रहण कर उन्हें संप्रत्ययों एवं विचारों में परिवर्तित करता है। अन्त:करण का तृतीय स्तर ‘‘बुद्धि’’ है। जिसका शिक्षा प्रक्रिया में अत्यधिक महत्व है। यह सूचनाओं एवं ज्ञान-सामग्रियों को व्यवस्थित करता है, निष्कर्ष निकालता है और सामान्यीकरण करता है। इस तरह से बुद्धि सिद्धान्त निरूपण करता है। अन्त:करण का सर्वोच्च स्तर ‘‘साक्षात अनुभूति’’ है। अरविन्द घोष का स्पष्ट मत है कि ‘‘मस्तिष्क को ऐसा कुछ भी सिखाया नहीं जा सकता, जो कि बालक में सुप्त ज्ञान के रूप में पहले से ही विद्यमान न हो।’’ अध्यापक इन अन्तर्निहित शक्तियों को जागृत करता है, बाहर से वह कुछ भी आरोपित नहीं कर सकता है।

बालक के सभी शारीरिक तथा मानसिक अंग उसके स्वयं के वश में होने चाहिए, न कि अध्यापक के नियन्त्रण में। बालक की रूचियों एवं आवश्यकताओं के अनुरूप उन्हें कार्य मिलना चाहिए।

अरविन्द आश्रम की सारी शिक्षा-व्यवस्था नि:शुल्क है। विद्याथ्री एक बार अगर प्रवेश पा लेता है तो उसे कोई शुल्क नहीं देना पड़ता है। यह प्राचीन गुरूकुल व्यवस्था के अनुरूप है। अरविन्द घोष विद्यार्थियों में स्वअनुशासन की भावना जगाना चाहते थे। आश्रम का सम्पूर्ण वातावरण आध्यात्मिक है अत: स्वभाविक है कि यहाँ के विद्यार्थियों की चेतना का स्तर ऊँचा हो।

शिक्षण-संस्स्थायें 

राजनीति से सन्यास ग्रहण करने के उपरांत 1910 में अरविन्द घोष पाण्डिचेरी आ गये। वे यहीं साधना-रत हो गये। धीरे-धीरे साधकों एवं अरविन्द के अनुगामियों की संख्या बढ़ती गई। 1926 में यहाँ अरविन्द आश्रम की स्थापना की गई। 1940 से साधकों को आश्रम में बच्चों को रखने की अनुमति दे दी गई। बच्चों की आवश्यकता को देखते है अरविन्द घोष ने 1943 में आश्रम विद्यालय की स्थापना की।

6 जनवरी, 1952 को श्री माँ ने ‘अरविन्द घोषो इन्टरनेशनल यूनिवर्सिटी सेन्टर’ की स्थापना की- जिसे बाद में ‘अरविन्द घोष इन्टरनेशनल सेन्टर ऑफ एडुकेशन’ के नाम से जाना गया। यह पाण्डिचेरी के योगाश्रम का अविभाज्य अंग है क्योंकि योग और शिक्षा का उद्देश्य समान है- सम्पूर्णता की प्राप्ति कर शाश्वत सार्वभौमिक सत्ता से आत्मतत्व का मिलन। इस तरह यहाँ प्रारम्भिक शिक्षा से लेकर उच्च स्तर की शिक्षा एवं शोध की व्यवस्था है।

चूँकि शिक्षा का उद्देश्य है आत्मतत्व की जागश्ति एवं विकास, अत: लड़कों एवं लड़कियों की शिक्षा के केन्द्र में कोई कश्त्रिम अन्तर नहीं किया जाता है। अत: अरविन्द अन्तर्राष्ट्रीय शिक्षा के केन्द्र में लड़कियों के लिए भी वही शैक्षिक कार्यक्रम है जो लड़कियों के लिए। यहाँ तक कि शारीरिक शिक्षा में भी भिन्नता नहीं है। इसके बावजूद विकल्प बहुत अधिक हैं पर चयन का आधार लिंग या परम्परागत निषेध न होकर आन्तरिक अभिरूचि है।

आधुनिक शिक्षा व्यवस्था बहुत हद तक वाणिज्य का रूप ले चुकी है जहाँ अध्यापक अर्थिक लाभ के लिए अध्यापन करता है और छात्र पैसा चुका कर अन्य चीजों की तरह शिक्षा को खरीदते हैं। आश्रम में एक बार प्रवेश के बाद शिक्षा पूर्णत: नि:शुल्क है। और अध्यापक भी अन्य साधकों की ही तरह आश्रम की व्यवस्था से अपनी आवश्यकताओं को पूरा करता है। उन्हें अलग से कोई वेतन नहीं दिया जाता है। वे प्रेम और सत्य की खोज के सहयात्री हैं न कि ज्ञान का बेचने और खरीदने वाले। शिक्षा केन्द्र एक समुदाय एवं एक चेतना के रूप में कार्य करता है जिसके केन्द्र में समर्पण का भाव है। 1973 में अपने शरीर-त्याग के पूर्व श्री माँ ने शिक्षा केन्द्र की जड़ें मजबूत कर दी थी। उनके बाद भी अरविन्द के आदर्शों के अनुरूप शिक्षा केन्द्र शिक्षण- अधिगम के क्षेत्र में नये-नये प्रयोग कर रहा है।

1968 में श्री माँ ने ‘ओरोविले’ की स्थापना की। यह जाति, धर्म, भाषा, प्रजाति से ऊपर उठकर संपूर्ण नगर के सामूहिक निवास एवं शिक्षा का अद्भुत प्रयोग है। यह मानव के भविष्य में विश्वास की अभिव्यक्ति है। ओरोविले जीने की एक ‘नई शैली’ के विकास का प्रयास है जो अरविन्द घोष के ‘नई मानवता’ के संप्रत्यय पर आधारित है।

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