द्वितीय विश्व युद्ध का इतिहास, कारण, घटनाएं और परिणाम

द्वितीय विश्व युद्ध

1919 ई. के पेरिस शांति सम्मेलन के ठीक 20 वर्ष बाद 1939 ई. में द्वितीय विश्वयुद्ध आरंभ हो गया। 1 सितम्बर 1939 को जैसे ही हिटलर ने पोलैण्ड पर आक्रमण किया। तब 3 सितम्बर 1939 को इंग्लैण्ड ने जर्मनी के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी। इस प्रकार द्वितीय विश्व युद्ध आरंभ हो गया। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान केन्द्रीय शक्तियों जर्मनी, इटली एवं जापान ने काफी तबाही मचायी। अन्ततः अमेरिका को जापान के विरूद्ध परमाणु बम का इस्तेमाल करने के लिए बाध्य होना पड़ा। इस प्रकार विश्व को युद्ध की विभीषिका के साथ-साथ परमाणु बम की विभीषिका से भी गुजरना पड़ा।

इस युद्ध ने शीघ्र विश्वव्यापी रूप धरण कर लिया। प्रारंभ में इसमें जर्मनी और जापान को सफलताएँ मिलीं परंतु अन्ततः मई, 1945 में जर्मनी और अगस्त, 1945 में जापान परास्त हो गया और इसी के साथ द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति हो गई।  द्वितीय विश्व युद्ध 1939 से 1945 तक चलने वाला युद्ध था। 70 देशों सेनाएँ इस द्वितीय विश्व युद्ध में सम्मिलित थीं। इस युद्ध में राष्ट्रों के लगभग १० करोड़ सैनिकों ने हिस्सा लिया, तथा यह सबसे ज़्यादा घातक युद्ध साबित हुआ। द्वितीय विश्व युद्ध में 5 से 7 करोड़ व्यक्तियों की जानें गईं।

द्वितीय विश्वयुद्ध का आरंभ

1 सितम्बर 1939 ई. को जर्मनी ने पोलैण्ड पर आक्रमण किया। इंग्लैण्ड के प्रधानमंत्री चेम्बरलेन ने हिटलर को चेतावनी दी कि वह शीघ्र ही पोलैण्ड से अपनी सेनाएं वापस बुलाये। हिटलर ने इसे मात्र एक धमकी माना और इंग्लैण्ड की चेतावनी पर कोई ध्यान नहीं दिया। हिटलर इससे पूर्व भी कई आक्रामक कार्यवाही करता रहा था और इंग्लैण्ड ने उसके प्रति तुष्टीकरण की नीति अपनाई थी। अतः हिटलर ने इंग्लैण्ड की चेतावनी पर ध्यान नहीं दिया।
हिटलर की उम्मीद के विपरीत जब हिटलर ने पोलैण्ड से सेनाएं नहीं हटाई तो 3 सितम्बर 1939 को इंग्लैण्ड ने जर्मनी के विरूद्ध युद्ध की घोषणां कर दी। इस प्रकार अन्ततः द्वितीय विश्वयुद्ध आरंभ हो ही गया। 

द्वितीय विश्व युद्ध के प्रमुख कारण

लगभग बीस वर्षों की ‘शांति’ के बाद 1 सितम्बर, 1939 के दिन द्वितीय विश्व युद्ध की अग्नि ने फिर सारे यूरोप को अपनी लपटों में समेट लिया और कुछ ही दिनों में यह संघर्ष विश्वव्यापी हो गया। विगत दो शताब्दियों के इतिहास के अध्ययन के बाद यह प्रश्न स्वाभाविक है कि शांति स्थापित रखने के अथक प्रयासों के बाद भी द्वितीय विश्व युद्ध क्यों छिड़ गया? क्या संसार के लागे और विविध देशों के शासक यह चाहते थे? नहीं; यह गलत है। 

समूचे संसार में शायद कोई भी समझदार व्यक्ति ऐसा नहीं था जो युद्ध की कामना करता हो। ‘बच्चे-बूढ़े स्त्री-पुरूष तथा सभी वर्ग की जनता शांति चाहती थी। इसी तरह यूरोप की कोई सरकार द्वितीय विश्व युद्ध नहीं चाहती थी। यहाँ तक कि जर्मन सरकार भी द्वितीय विश्व युद्ध से बचना चाहती थी। स्वयं हिटलर भी द्वितीय विश्व युद्ध नहीं चाहता था। 

अन्तिम समय तक हिटलर का यही विचार था कि संकट पैदा करके, धाँस देकर, डरा-धमकाकर पोलैंड से डान्जिंग छीन लिया जाय। वह जानता था कि द्वितीय विश्व युद्ध से उसका सर्वनाश हो जायेगा। बिना द्वितीय विश्व युद्ध किये ही विजय हासिल कर लेना उसकी चाल थी। वास्तव में द्वितीय विश्व युद्ध के बिना विजय’ के सिद्धांत पर ही उसकी सारी मान-मर्यादा निर्भर थी। पर ऐसा न हो सका। किसी की इच्छा नहीं होने पर भी द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ गया। ऐसा क्यों हुआ और इसके लिए कानै जिम्मेदार था?

1. वर्साय-संधि

पेरिस शांति सम्मेलन में मित्र राष्ट्रों इंग्लैण्ड एवं फ्रांस द्वारा जर्मनी पर वर्साय जैसी अपमानजनक संधि आरोपित करना द्वितीय विश्वयुद्ध का एक प्रमुख कारण था। पेरिस शांति सम्मेलन में मित्र राष्ट्रों इंग्लैण्ड एवं फ्रांस द्वारा जर्मनी पर वर्साय जैसी अपमानजनक संधि आरोपित करना द्वितीय विश्वयुद्ध का एक प्रमुख कारण था। जर्मनी के अल्सास एवं लारेन प्रदेश वापस ले लिये। जर्मनी से सार घाटी का महत्वपूर्ण प्रदेश 15 वर्ष के लिये छीन लिया गया। जर्मनी की सामुद्रिक एवं नौसैनिक शक्ति को दुर्बल बना दिया गया। जर्मनी की जनता ने अपने आपको काफी अपमानित महसूस किया। जर्मनी जनता प्रतिशोध की ज्वाला में जलने लगी। जब उन्हें हिटलर के रूप में एक अधिनायक मिला तो उनकी प्रसन्नता का ठिकाना न रहा। हिटलर ने सत्ता प्राप्त कर वर्साय की संधि की धाराओं को तोड़ा। सार की घाटी पुनः प्राप्त की। उसने जर्मन जनता से कहा था - मेरे समय युद्ध छिड़ जाना चाहिये। उसने जो कहा कर दिखाया हिटलर के पोलैण्ड पर आक्रमण के साथ ही द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ गया।

2. जर्मनी में उग्रराष्ट्रीयता

जर्मनी में हिटलर के सत्ता में आते ही जर्मन जनता में अत्यधिक उत्साह का संचार हुआ। जर्मन जनता में जातीय उच्चता का तेजी से प्रसार हुआ। वे अपने को विश्व की सर्वश्रेष्ठ जाति समझने लगे। जर्मनी के उग्र विदेशनीति को अपनाते ही जर्मनी में उग्रराष्ट्रीयता के विकास ने द्वितीय विश्वयुद्ध का मार्ग प्रशस्त किया।

3. ब्रिटेन की नीति

इसमें कोई शक नहीं कि जर्मनी से शक्ति-संतुलन का सिद्धांत ब्रिटिश विदेश-नीति का एक महत्वपूर्ण तत्व रहता आया है। पर युद्धोत्तर-काल की ब्रिटिश नीति में इस तत्व पर अधिक जोर देना इतिहास के साथ अन्याय करना होगा। वास्तव में इस काल की ब्रिटिश विदेश-नीति में शक्ति संतुलन का सिद्धांत उतना प्रबल नहीं था जितना रूसी साम्यवाद के प्रसार को रोकने का प्रश्न था। जिस ब्रिटिश-नीति को तुष्टिकरण की नीति कहा जाता है, वह वास्तव में ‘प्रोत्साहित करो की नीति’ थी। साम्राज्यवादी ब्रिटेन की सबसे बड़ी समस्या जर्मनी नहीं, वरन साम्यवादी प्रसार को रोकना था। इस काल में ब्रिटेन में नीति-निर्धारिकों का यह अनुमान था कि एशिया में जापान और सोवियत-संघ तथा यूरोप में जर्मनी और सोवियत-संघ भविष्य के वास्तविक प्रतिद्वन्द्वी हैं। अगर इन शक्तियों को आपस में लड़ाता रहा जाय और इस तरह एक दूसरे पर रूकावट डालते रहे तो ब्रिटेन निर्विरोध अपने विश्वव्यापी साम्राज्य को कायम रखे रह सकता है। 

ब्रिटेन की नीति यह थी कि फ्रांस के साथ असहयोग करके, उस पर दबाव डालकर हिटलर, मुसोलिनी और हिरोहितों को साम्यवादी रूस के खिलाफ उभाड़ा जाय और उसकी सहायता करके साम्यवादी रूस का विनाश करवा दिया जाय। इनमें शक्ति-संतुलन का कोई सिद्धांत काम नहीं कर रहा था; क्योंकि सोवियत-संध अभी बहुत कमजोर था।

ब्रिटिश शासकों की यह नीति गलत तर्क पर आधारित थी। उसका कारण यह था कि उस समय ब्रिटेन की नीति का निधार्रण कुछ अनुभवहीन तथा कट्टर साम्यवाद विरोधी व्यक्तियों के हाथ में था। कर्नलब्लिम्प, चैम्बरलेन, बैंक ऑफ इंगलैंड के गवर्नर मांग्टेग्यू नारमन, लार्ड वेभरबु्रक, जेकोव अस्टर (लन्दन टाइम्स) तथा गारविन (ऑवजर्बर) जैसे पत्रकार, डीन इक जैसे लेखक, कैन्टरबरी के आर्चविशप तथा अनेक पूंजीपति, सामन्त, जमींदार और प्रतिक्रियावादी इस गुट के प्रमुख सदस्य थे और इन्हीं लोगो के हाथों में ब्रिटेन के भाग्य-निर्धारण का काम था। जिसे देश के नीति-निर्धारण में ऐसे लोगों का हाथ हो वहां की नीति साम्यवादी विरोध नहीं तो और क्या हो सकती थी? चैम्बरलेन इस दल का नेता था, इन लोगों के हाथ की कठपुतली। 

द्वितीय विश्वयुद्ध के कारण

मई, 1937 में चेम्बरलने ब्रिटेन का प्रधानमंत्री बना। तथाकथित तुष्टिकरण की नीति की वह प्रतिमूर्ति ही था। चेकोस्लोवाकिया का विनाश उसने इसी उद्देश्य से कराया कि इससे हिटलर प्रोत्साहित होकर सोवियत-संध पर चढ़ाई कर बैठेगा। इसी भवना से प्रेरित होकर वह पोलैंड के विनाश में भी अपना सहयोग देने को तैयार था। किन्तु हिटलर के जिद्द के कारण वह अपने इस कुकार्य में सफल नहीं हो सका। उसकी गलत नीति का परिणाम सारे संसार को भुगतना पड़ा।

4. इटली एवं जापान में उग्रराष्ट्रवाद एवं सैन्यवाद का विकास

1919 ई. के पेरिस शांति सम्मेलन की स्थिति देखें तो इस सम्मेलन में फ्यूम न मिल पाने के कारण असंतुष्ट होकर इटली सम्मेलन का परित्याग कर लौट आया था। दूसरी ओर जापान को इस सम्मेलन द्वारा चीन में जर्मन क्षेत्र प्राप्त हुये थे। 1921-22 ई. के वाशिंगटन सम्मेलन ने जापान की पेरिस शांति सम्मेलन की उपलब्धियों को धो डाला। अब इटली की तरह जापान भी अत्यन्त असंतुष्ट हो गया। इटली में मुसोलिनी के अधीन फासीवाद का उदय हुआ एवं जापान में सैन्यवादी शासन स्थापित हुआ। इस प्रकार इटली एवं जापान में उग्रराष्ट्रवाद एवं सैन्यवाद के विकास ने भी द्वितीय विश्वयुद्ध का मार्ग प्रशस्त किया।

5. यूरोपीय गुटबन्दियां

आधुनिक युग में दुनिया के अधिकतर लोगों के मन में यह एक अंधविश्वास जम गया है कि सैन्य-संधि तथा गुटबंदी के द्वारा विश्व-शांति कायम रखी जा सकती है। शांति बनाये रखने के नाम पर यूरोपीय राज्यों के बीच विविध संधियां हुई जिसके फलस्वरूप यूरोप फिर से दो विरोधी गुटों में बट गया। एक गुट का नेता जर्मनी था और दूसरे का फ्रांस। यहां पर यह स्पष्ट कर देना अनुचित नहीं कि इन गुटों के मलू में दो बातें थी : एक सैद्धांतिक समानता और दूसरी हितों की एकता। इटली, जापान और जर्मनी एक सिद्धांत (तानाशाही) में विश्वास करते थे। वर्साय-संधि से उनकी समान रूप से शिकायत थी और उसका उल्लंघन करके अपनी शक्ति को बढ़ाने में उनका एक समान हित था इसके विपरीत फ्रांस, चेकोस्लोवाकिया, पोलैंड इत्यादि देशों का एक हित था। वर्साय-व्यवस्था से उन्हें काफी लाभ पहुँचा था और इसलिए यथास्थिति बनाये रखने में ही उनका हित था। बहुत दिनों तक ब्रिटेन इस गुट में शामिल नहीं हुआ; पर अधिक दिनों तक ब्रिटेन गुट से अलग नहीं रह सका। 

परिस्थिति से बाध्य होकर उसे भी इस गुट में सम्मिलित होना पड़ा। उधर रूस की स्थिति कुछ दूसरी ही थी। साम्यवादी होने के कारण पूंजीवादी और फासिस्टवादी दोनों गुट उससे घृणा करते थे और कोई उसको अपने गुट में सम्मिलित करना नहीं चाहता था। पर, जब यूरोप की स्थिति बिगड़ने लगी तो दोनों गुट उसे अपने-अपने गुट में शामिल करने के लिए प्रयास करने लग।े अंत में जर्मनी को इस प्रयास में सफलता मिली और सोवियत-संघ उसके गुट में सम्मिलित हो गया। इसके फलस्वरूप यूरोप का वातावरण दूषित होने लगा तथा राष्ट्रों के बीच मनमुटाव पैदा होने लगा। राष्ट्रों के परस्पर संबंध बिगड़ने में इन गुटबंदियों का बहुत हाथ था। इस दृष्टि से गुटबंदियां द्वितीय विश्व युद्ध का बहुत बड़ा कारण थी।

6. मोर्चाबन्दी

जर्मनी इटली एवं जापान की 1930 ई. के पश्चात् की विस्तारवादी कार्यवाहियों ने विभिन्न राष्ट्रों के बीच असुरक्षा का भाव जाग्रत किया। विभिन्न राष्ट्र अपनी सुरक्षा सैन्य तैयारियों एवं मोर्चाबन्दी में लग गये। जिस प्रकार 10 मई 1871 की फ्रेंकफर्ट संधि के पश्चात् जर्मनी को फ्रांस के आक्रमण का भय था उसी प्रकार 28 जून 1919 ई. को वर्साय की संधि के पश्चात् फ्रांस को जर्मनी के प्रतिशोध का भय सता रहा था। इसी भय को दूर करने के लिये फ्रांस ने अपनी उत्तर-पूर्वी सीमा पर जमीन के नीचे किलों की एक श्रृंखला बनाई जिसे ‘मैजिनो लाइन’ कहा गया। क्रिया के विपरीत प्रतिक्रिया स्वरूप जर्मनी ने भी अपनी सीमा पर किलेबंदी की जिसे सीजफाइड लाइन कहा जाता है। इस प्रकार की मोर्चाबंदियों ने द्वितीय विश्वयुद्ध को अनिवार्य बना दिया।

7. राष्ट्रसंघ की कमजोरियां

प्रथम विश्व युद्ध के बाद राष्ट्रसंघ की स्थापना इसी उद्देश्य से की गयी थी कि वह संसार में शक्ति कामय रखेगा। लेकिन, जब समय बीतने लगा और परीक्षा का अवसर आया तो राष्ट्रसंघ एक बिल्कुलन शक्तिहीन संस्था साबित हइुर् । जहां तक छोटे-छोटे राष्ट्रों के पारस्परिक झगड़ों का प्रश्न था राष्ट्रसंघ को उनमें कुछ सफलता मिली, लेकिन जब बड़े राष्ट्रों का मामला आया तो राष्ट्रसंघ कुछ भी नहीं कर सका। जापान ने चीन पर चढ़ाई कर दी और इटली ने असीसीनिया पर हमला किया, पर राष्ट्रसंघ उनको रोकने में बिल्कुल असमर्थ रहा। 

अधिनायकी को पता चला कि राष्ट्रसंघ बिल्कुल शक्तिहीन संस्था है और वे जो चहे कर सकते हैं। पर, राष्ट्रसंघ की असफलता के लिए उस संस्था को दोष देना ठीक नहीं है। राष्ट्रसंघ राष्ट्रों की एक संस्था थी और यह उनका कर्तव्य था कि वे उस संस्था को सफल बनायें। राष्ट्रसंघ ने अबीसीनिया पर आक्रमण करने के अपराध में हटली को दण्ड दिया। इसके विरूद्ध आर्थिक पाबन्दियां लगायी गयीं लेकिन ब्रिटेन और फ्रांस ने इसमें राष्ट्रसंघ के साथ सहयोग नहीं किया। राष्ट्रसंघ की निष्क्रियता के जो भी कारण हो, लेकिन उस पर से लोगों का विश्वास जाता रहा और जिस उद्देश्य से इसकी स्थापना हुई थी उसकी पूर्ति करने में वह सर्वथा असफल रहा। इसीलिए राष्ट्रसंघ की कमजोरियों को भी द्वितीय विश्व युद्ध के लिए उत्तरदायी माना जाता है।

8.  हिटलर की विदेश नीति

हिटलर की आक्रामक विदेश नीति द्वितीय विश्वयुद्ध के लिये पूर्णतः जिम्मेदार थी। उसने जर्मन जनता को स्वयं विश्वास दिलाया था कि ‘मेरे समय युद्ध छिड़ जाना चाहिए’ इससे स्पष्ट है कि हिटलर तो द्वितीय विश्व युद्ध के छिड़ने का ही इन्तजार कर रहा था। समस्त विश्व को स्तब्ध करने वाली हिटलर की विदेश नीति के प्रमुख पड़ाव यह थे - आस्ट्रिया का जर्मनी में विलय, चेकोस्लोवाकिया का अंग-भंग, लिथुआनिया से मेमल प्रदेश छीनना, एवं पौलैण्ड के गलियारे एवं डेजिंग बंदरगाह को छीनने का प्रयास। इस प्रकार हिटलर की विदेश नीति ने विश्व को एक ऐसे विश्वयुद्ध की ओर अग्रसर किया जहां से वापस लौटपाना नामुमकिन था।

9. द्वितीय विश्वयुद्ध का तात्कालिक कारण

हिटलर अपनी आक्रामक विदेश नीति के तहत जब भी किसी देश को या उसके भाग को हड़पता था तो इंग्लैण्ड को यह कह कर संतुष्ट करता था कि - ‘वह तो यह कार्यवाही रूस के साम्यवादी विस्तार को रोकने के लिये कर रहा है।’ पूंजीवादी देश इंग्लैण्ड एवं फ्रांस इस समय रूस के साम्यवादी विस्तार से अत्यधिक चिंतित थे। इसी कारण वे हिटलर की आक्रामक कार्यवाहियों के प्रति तुष्टीकरण की नीति अपना रहे थे। हिटलर इसका फायदा उठा
रहा था।

1 सितम्बर, 1939 ई. को हिटलर ने पोलैण्ड पर आक्रमण किया। इस समय तक इंग्लैण्ड की जनता तुष्टीकरण की नीति की विरोधी हो गयी थी। फ्रांस में भी भय की भावना व्याप्त थी। अतः इंग्लैण्ड के चैम्बरलेन ने हिटलर को चेतावनी दी कि वह फौरन पौलैण्ड से सेना वापस बुलाये। हिटलर को अपने कदम पीछे हटाने की आदत नहीं थी, उसने इसे इंग्लैण्ड की कोरी धमकी माना। मगर यह कोरी धमकी नहीं थी। इंग्लैण्ड ने जो कहा वह कर दिखाया। इंग्लैण्ड ने 3 सितम्बर 1939 ई. को जर्मनी के विरूद्ध युद्ध आरंभ कर दिया। इस प्रकार हिटलर का पौलैण्ड पर आक्रमण ही द्वितीय विश्वयुद्ध का तात्कालिक कारण बना।

द्वितीय विश्व युद्ध का घटनाक्रम

प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात 1919 ई. में पेरिस में शांति सम्मेलन सम्पन्न हुआ। इस सम्मेलन के प्रमुख कर्ताधर्ता ब्रिटेन के लायड जार्ज एवं फ्रांस के क्लीमंेशु थे। वस्तुतः इस सम्मेलन का नाम भले ही शांति सम्मेलन हो मगर इसने अशांति अधिक फैलाई। इस सम्मेलन से सर्वाधिक असंतुष्ट राष्ट्र जर्मनी था। इटली भी इस सम्मेलन से असंतुष्ट होकर सम्मेलन को बीच में ही छोड़कर वापस आ गया था। जापान इस सम्मेलन से थोड़ा संतुष्ट था मगर 1921-22 के वाशिंगटन सम्मेलन ने उसे असंतुष्ट कर दिया। इन सभी के असंतोष के प्रमुख कारण ब्रिटेन एवं फ्रांस थे। जापान अमेरिका से अधिक असंतुष्ट था। 

जर्मनी, इटली एवं जापान के इस असंतोष ने इनके यहाँ क्रमशः नाजीवाद, फासीवाद एवं सैन्यवाद का मार्ग प्रशस्त किया। इन्होंने आक्रमक विदेश नीति अपना कर विश्व को सशंकित कर दिया। ये साम्यवाद के प्रसार को रोकने का बहाना बना कर विभिन्न देशों पर अधिकार करते रहे। 1 सितम्बर, 1939 को इसी नीति पर चलकर जैसे ही जर्मनी ने पोलैण्ड पर आक्रमण किया। इंग्लैण्ड, पोलैण्ड के पक्ष में 3 सितम्बर, 1939 को जर्मनी के विरूद्ध युद्ध में आ गया। इस प्रकार द्वितीय विश्वयुद्ध आरंभ हो गया।

इस युद्ध के मुख्यतः चार चरण थे। इन चार चरणों का घटनाक्रम इस प्रकार है -

1. द्वितीय विश्वयुद्ध का प्रथम चरण

द्वितीय विश्वयुद्ध का प्रथम चरण 1 सितम्बर, 1939 ई. से 21 जून, 1941 ई. तक माना
गया है। इस प्रथम चरण में हिटलर ने पोलैण्ड, डेनमार्क, नीदरलैण्ड, बेल्जियम, लग्जेमबर्ग, फ्रांस, ब्रिटेन, यूनान तथा क्रीट पर आक्रमण किया। शुक्रवार 1 सितम्बर, 1939 ई. को प्रातः चार बजे जब सारा यूरोप सो रहा था, उसी समय हिटलर ने तीव्रगति से पोलैण्ड पर आक्रमण कर दिया। अपने तमाम प्रतिरोध के बावजूद पोलैण्ड परास्त हुआ। 26 सितम्बर, 1939 ई. को पोलैण्ड को युद्ध विराम संधि पर हस्ताक्षर करने बाध्य होना पड़ा। यह युद्ध 27 दिन तक चला।

इंग्लैण्ड ने जब 3 सितम्बर, 1939 को जर्मनी के विरूद्ध युद्ध आरंभ कर दिया था उस समय चेम्बरलेन ब्रिटेन के प्रधानमंत्री थे। युद्ध में निरंतर जर्मनी की सफलता के कारण 10 मई, 1940 को चेम्बरलेन ने स्तीफा दे दिया। अब 11 मई, 1940 को विंस्टन चर्चिल इंग्लैण्ड के प्रधानमंत्री बने। विस्टन चर्चिल एक कुशल युद्ध नेता थे। उन्होंने कुशलता के साथ युद्ध का संचालन किया।

जिस दिन इंग्लैण्ड में चेम्बरलेन ने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा दिया उसी दिन 10 मई, 1940 को इंग्लैण्ड ने हालैण्ड पर आक्रमण किया। 14 मई को हालैण्ड का पतन हो गया। 10 मई को ही हिटलर की सेना ने बेल्जियम पर भी आक्रमण किया। 5 दिन में ही बेल्जियम ने भी आत्मसमर्पण कर दिया।

7 जून को जर्मन सेनाओं ने तेजी के साथ फ्रांस पर आक्रमण कर दिया। फ्रांस की मैजीनो रेखा के विशाल टैंक जर्मन सेना का मुकाबला न कर सके। चूँकि इस समय इंग्लैण्ड स्वयं मुसीबत में था अतः वह भी कुछ सहायता न कर सका। 8 जून, 1940 को जर्मनी ने पेरिस नगर पर अधिकार कर लिया। 22 जून, 1940 को फ्रांस ने घुटने टेक दिये। जर्मनी एवं हिटलर के लिये यह एक महान जीत थी। वर्साय की संधि के अपमान के धब्बे को उन्होंने धो दिया। वर्साय की संधि का प्रतिशोध फ्रांस से जर्मनी ने ले लिया।

फ्रांस को परास्त कर जर्मनी ने 8 अगस्त, 1940 को इंग्लैण्ड पर आक्रमण किया। मगर इंग्लैण्ड की शक्तिशाली सेना ने इस आक्रमण का करारा जबाब दिया। फ्रांस एवं इंग्लैण्ड के पश्चात जर्मनी ने रूस के बाल्टिक राज्यों पर आक्रमण किया। लिथुआनिया, लटेविया एवं एस्टोनिया पर अधिकार कर लिया। उधर इटली ने यूनान एवं
उत्तरी अफ्रीका पर आक्रमण किया। जापान भी धुरी राष्ट्रों के पक्ष में युद्ध में शामिल हो गया। जापान ने द्वितीय विश्वयुद्ध का फायदा उठाकर सुदूर पूर्व में अधिकार कर वृहत्तर पूर्वी एशिया के निर्माण का कार्य जारी किया।

2. द्वितीय विश्वयुद्ध का द्वितीय चरण

द्वितीय विश्वयुद्ध का द्वितीय चरण 22 जून, 1941 ई. से 6 दिसम्बर, 1941 तक चला। द्वितीय विश्वयुद्ध का द्वितीय चरण 22 जून, 1941 ई. को हिटलर के रूस पर आक्रमण के साथ आरंभ हुआ। एक साथ 4 नाजी सेनाओं ने मास्को, कीव, लेनिनग्राड एवं ओडेसा की ओर तीव्रता से बढ़ना आरंभ किया। इन परिस्थितियों में इंग्लैण्ड ने रूस से संधि की और अमेरिका ने रूस को खाद्य एवं युद्ध सामग्री पहुँचायी।

जब जर्मनी के विरूद्ध इंग्लैण्ड व अमेरिका ने रूस की मदद की तो जापान ने जर्मनी के पक्ष में अमेरिका पर आक्रमण किया। 7 दिसम्बर, 1941 को जापान ने अमेरिका के नाविक केन्द्र हवाई द्वीप पर एकाएक आक्रमण कर वहाँ उपस्थित अमेरिकी जहाजों को नष्ट कर दिया। जापान के इस आक्रमण से अमेरिका भी द्वितीय विश्वयुद्ध में शामिल हो गया। अब यह युद्ध पूरी तरह एक द्वितीय महायुद्ध का रूप ले चुका था। एक ओर जर्मनी-इटली एवं जापान थे तो दूसरी ओर इंग्लैण्ड, फ्रांस, रूस एवं संयुक्त राज्य अमेरिका थे। जापान काफी तीव्रता से आगे बढ़ा। उसने हांगकांग, फिलीपाइन्स, मलाया, सिंगापुर को रांेद दिया। यही नहीं उसने भारत के कलकत्ता पर भी बम वर्षाये।

3. द्वितीय विश्वयुद्ध का तृतीय चरण

द्वितीय विश्वयुद्ध का तृतीय चरण 7 दिसम्बर, 1941 ई. से 8 नवम्बर, 1942 ई. तक चला। यह तृतीय चरण मूलतः जापान के पर्लहार्वर पर आक्रमण के पश्चात आरंभ हो गया। पर्लहार्वर के पश्चात जापान ने हांगकांग, गुआम एवं थाइलैण्ड पर अधिकार कर लिया। जनवरी, 1942 ई. में जापान ने मलाया पर एवं 15 दिसम्बर, 1941 को सिंगापुर पर भी अधिकार कर लिया। मार्च, 1942 तक जापान ने रंगून पर अधिकार कर लिया।

19 नवम्बर, 1942 को रूस पर पुनः जर्मनी ने आक्रमण कर दिया। उसने स्टालिनग्राड का घेरा डाला। यह एक अत्यधिक रक्तरंजित एवं लम्बा युद्ध था। रूस ने करारा जवाब दिया और जर्मनी को परास्त कर दिया। सोवियत सेना नाजी सेना को रौंदती हुई बर्लिन जा पहुँची। यह एक महान सफलता थी। रूस ने मित्र राष्ट्रों की जीत सुनिश्चित कर दी।

4. द्वितीय विश्वयुद्ध का चतुर्थ चरण

द्वितीय विश्वयुद्ध का चतुर्थ एवं अन्तिम चरण 8 नवम्बर, 1942 से 14 अगस्त, 1945 तक चला। चतुर्थ चरण में द्वितीय विश्वयुद्ध का परिदृश्य पूर्णतः बदल चुका था। रूस द्वारा जर्मनी की पराजय द्वितीय विश्व युद्ध का परिवर्तन बिन्दु साबित हुआ।

मित्र राष्ट्रों ने अपनी सेना की संयुक्त कमान जनरल आइजन हावर को सौंपी। जनरल आइजन हावर एवं जनरल मांटगुमरी ने जर्मनी एवं इटली की सेनाओं पर आक्रमण किया। ट्यूनिशिया पर उनके आक्रमण से इटली चिन्तित हो गया। उसने हिटलर से सहायता मांगी। मगर 5 मई, 1943 को जर्मन सेनाओं ने घुटने टेक दिये। 12 मई को मित्र राष्ट्रों ने ट्यूनिशिया पर अधिकार कर लिया। सिसली को अधिग्रहित कर 25 जुलुलुलाईर्,, 1943 को मुसोलिनी को अपदस्थ किया और उसे बन्दी बना लिया। 4 जून, 1943 को रोम पर मित्र राष्ट्रों का कब्जा जम गया। मुसोलिनी को 24 अप्रैल, 1945 को गोली मार दी गई।

इटली पर आधिपत्य के पश्चात मित्र राष्ट्रों की विजय का सिलसिला जारी रहा। फरवरी, 1945 में मित्र राष्ट्रों ने तीन तरफ से जर्मनी पर आक्रमण किया। जर्मनी बड़ी बहादुरी से लड़ा मगर परास्त हुआ। 30 अप्रै्रैलैल, 1945 को हिटलर ने अपनी पत्नी सहित आत्महत्या कर ली। 7 मई, 1945 को जर्मनी ने मित्र राष्ट्रों के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया। रूस अमेरिका, फ्रांस व इंग्लैण्ड ने युद्ध पश्चात जर्मनी को चार भागों में बाट दिया।
 
मित्र राष्ट्र जब इटली एवं जर्मनी में उलझे हुये थे उस समय इनकी पश्चिम में व्यस्तता का लाभ उठाकर जापान पूर्वी एशिया में विस्तार कर रहा था। इटली एवं जर्मनी की पराजय के पश्चात मित्र राष्ट्रों ने मुख्यतः अमेरिका ने पूरा ध्यान जापान पर केन्द्रित किया।

6 अगस्त, 1945 को अमेरिकी वायु सेना ने हिरोशिमा पर एवं 9 अगस्त, 1945 को जापान के नगर नागासाकी पर अणुबम गिराये। अणुबम का विस्फोट अत्यन्त विनाशकारी था। अब जापान के समक्ष आत्मसमर्पण के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प न था। यह अणुबम अमेरिकी वायुयान बी-19 द्वारा गिराये गये थे। 14 अगस्त, 1945 को जापान ने आत्मसमर्पण कर दिया। इस प्रकार द्वितीय विश्वयुद्ध पूर्णतः समाप्त हो गया। इस प्रकार 1 सितम्बर, 1939 को आरंभ द्वितीय विश्वयुद्ध पूरे 6 वर्ष चला और 14 अगस्त, 1945 को जापान के आत्मसमर्पण के साथ समाप्त हुआ।

द्वितीय विश्व युद्ध के परिणाम 

6 वर्ष तक चलने वाले द्वितीय विश्वयुद्ध का स्वरूप अत्यन्त व्यापक, क्रूर, रक्तरंजित, वीभत्स एवं विनाशकारी था। इस युद्ध के परिणाम दूरगामी सिद्ध हुये। इस के परिणामों ने विश्व इतिहास को गहराई के साथ प्रभावित किया। द्वितीय विश्वयुद्ध के प्रमुख परिणाम थे -

1. जन-धन का अत्याधिक विनाश

द्वितीय विश्व युद्ध पूर्ववर्ती युद्धों की तुलना में सर्वाधिक विनाशकारी युद्ध माना जाता है। द्वितीय विश्व युद्ध में संपत्ति और मानव-जीवन का विशाल पैमाने पर विनाश हुआ, उसका सही आँकलन विश्व के गणितज्ञ भी नहीं कर सके। द्वितीय विश्व युद्ध का क्षेत्र विश्वव्यापी था तथा इसे विनाशकारी परिणामों का क्षेत्र भी अत्यंत व्यापक था।

द्वितीय विश्व युद्ध में अनुमानत: एक करोड़ पचास लाख सैनिकों तथा एक करोड़ नागरिकों को अपने जीवन से हाथ धोना पड़ा तथा लगभग एक करोड़ सैनिक बुरी तरह घायल हुए। मानव जीवन की क्षति के साथ-साथ यह युद्ध अपार आर्थिक क्षति, बरबादी तथा विनाश की दृष्टि से भी अविस्मरणीय है। ऐसा अनुमान है कि द्वितीय विश्व युद्ध में भाग लेने वाले देशों का लगभग एक लाख कराडे रुपये व्यय हुआ था। अकेले इंग्लैण्ड ने लगभग दो हजार करोड़ रूपये व्यय किया था। जबकि जर्मनी, फ्रांस, पोलैण्ड आदि देशों के आर्थिक नुकसान का अनुमान लगाना कठिन है। इस प्रकार द्वितीय विश्व युद्ध में विश्व के विभिé देश्ज्ञों की राष्ट्रीय संपत्ति का व्यापक पैमाने पर विनाश हुआ था।

2. औपनिवेशिक साम्राज्य का अंत

द्वितीय विश्व युद्ध के परिणामस्वरूप एशिया महाद्वीप में स्थित यूरोपीय शक्तियों के औपनिवेशिक साम्राज्य का अंत हो गया। जिस प्रकार प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात् बहुत से राज्यों को स्वतंत्रता प्रदान कर दी गयी थी, ठीक उसी प्रकार भारत, लंका, बर्मा, मलाया, मिस्र तथा कुछ अन्य देशों को द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् ब्रिटिश दासता से मुक्त कर दिया गया। इसी प्रकार हॉलैण्ड, फ्रांस तथा पुर्तगाल के एशियाई साम्राज्य कमजोर हो गये तथा इन देशों के अधीनस्थ एशियाई राज्यों को स्वतंत्र कर दिया गया। इस प्रकार द्वितीय विश्व युद्ध के परिणामस्वरूप एशिया महाद्वीप का राजनीतिक मानचित्र पूरी तरह परिवर्तित हो गया, तथा वहाँ पर यूरोपीय साम्राज्य पूरी तरह समाप्त हो गया।

3. शक्ति-संतुलन का हस्तांतरण

विश्व के महान राष्ट्रों की तुलनात्मक स्थिति को द्वितीय विश्व युद्ध ने अत्यधिक प्रभावित किया था। द्वितीय विश्व युद्ध से पूर्व विश्व का नेतृत्व इंग्लैण्ड के हाथों में था, किंतु इसके पश्चात् नेतृत्व की बागडोर इंग्लैण्ड के हाथों से निकलकर अमेरिका व रूस के अधिकार में पहुँच गयी। विश्व युद्ध में जर्मनी, जापान तथा इटली के पतन के फलस्वरूप रूस, पूर्वी यूरोप का सर्वाधिक प्रभावशाली व शक्तिशाली राष्ट्र बन गया। एस्टोनिया, लेटेविया, लिथूएनिया तथा पोलैण्ड व फिनलैण्ड पर रूस का पुन: अधिकार हो गया। पूर्वी यूरोप में केवल टर्की व यूनान दो राज्य ऐसे थे जो साेि वयत संघ की सीमा से बाहर थे। दूसरी और , पश्चिमी यूरोप के देशों का ध्यान अमेरिका की तरफ आकर्षित हुआ। फ्रांस , इटली तथा स्पेन ने अमेरिका के साथ अपने राजनीतिक संबंध स्थापित कर लिये। इस प्रकार संपूर्ण यूरोप महाद्वीप दो परस्पर विरोधी विचारधाराओं में विभाजित हो गया। एक विचारधारा का नेतृत्व अमेरिका कर रहा था, जबकि दूसरी विचारधारा की बागडोर रूस के हाथों में थी। पूर्वी यूरोप के देशों पर रूस का प्रभाव स्थापित हो गया, पाकिस्तान, मिस्र, अरब, अफ्रीका आदि रूस की नीतियों से प्रभावित न हुए। इस प्रकार शक्ति का संतुलन रूस एवं अमेरिका के नियंत्रण में स्थित हो गया।

4. अंतर्राष्ट्रीय की भावना का विकास

द्वितीय विश्व युद्ध के विनाशकारी परिणामों ने विभिन्न देशों की आँखें खोल दी थी। वे इस बात का अनुभव करने लगे कि परस्पर सहयोग, विश्वास तथा मित्रता के बिना शांति व व्यवस्था की स्थापना नहीं की जा सकती। उन्होंने यह भी अनुभव किया कि समस्याओं का समाधान युद्ध के माध्यम से नहीं हो सकता। इसी प्रकार की भावनाओं का उदय प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात भी हुआ था तथा पारस्परिक सहयागे की भावना को कार्यरूप में परिणित करने के लिए राष्ट्र-संघ की स्थापना की गयी थी। किंतु विभिन्न देशों के स्वार्थी दृष्टिकोण के कारण यह संस्था असफल हो गयी और द्वितीय विश्वयुद्ध प्रारंभ हो गया। किंतु द्वितीय विश्व युद्ध के समाप्त होने के बाद देशों ने पारस्परिक सहयोग की आवश्यकता एवं महत्व का पुन: अनुभव किया, तथा उन्होनें अपनी समस्याओं को शांतिपूर्ण तरीकों से हल करने का निश्चय किया ताकि युद्ध का खतरा सदैव के लिए समाप्त हो सके तथा विश्व-स्तर पर शांति की स्थापना की जा सके। 

संयुक्त राष्ट्र-संघ, जिसकी स्थापना 1945 ई. में की गयी थी, पूर्णत: इसी भावना पर आधारित था। इस संस्था का आधारभूत लक्ष्य अंतर्राष्ट्रीय शांति एवं सुरक्षा की भावना कायम करना तथा अंतर्राष्ट्रीय सहयोग एवं मैत्री-भावना का विकास करना था।

5. सामाजिक आर्थिक प्रभाव

विश्वयुद्ध के फलस्वरूप विश्व में प्रायः अधिकांश वस्तुओं का अभाव हो गया। राष्ट्रों को अपने यहां माल की आपूर्ति हेतु अमेरिका से समान मंगवाया। इस प्रकार पूंजीवादी व्यवस्था को बल मिला। यूरोप में एक नवीन सामाजिक व्यवस्था का आर्विभाव हुआ। जर्मनी को अपनी जातीय उच्चता का अभिमान अब त्यागना पड़ा।

6. राजनीतिक परिणाम 

  1. यूरोप का पतन 
  2. यूरोप के राजनीतिक मानचित्र में परिवर्तन 
  3. दो महाशक्तियों का उदय 
  4. शीतयुद्ध का आरंभ 
  5. उपनिवेशवाद का पतन व तृतीय विश्व का उद्भव 
  6. गुटनिरपेक्ष आंदोलन का उद्भव 
  7. संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना 
  8. प्रादेशिक संगठनों का विकास
  9. शक्ति संतुलन के स्थान पर आतंक संतुलन की स्थापना 

द्वितीय विश्व युद्ध का अंत कैसे हुआ?

इस विश्वयुद्ध में एकतरफ धुरी राष्ट्र जर्मनी, इटली-जापान थे तो दूसरी ओर ब्रिटेन-फ्रांस रूस एवं अमेरिका थे। युद्ध के प्रारंभिक चरण में जर्मनी ने फ्रांस को परास्त कर उस पर कब्जा जमा लिया। इंग्लैण्ड को भी करारी टक्कर दी। मगर जर्मनी ने जब रूस पर आक्रमण किया तो रूस ने जर्मनी को करारी शिकस्त दी। इसके पश्चात युद्ध का रूख ही बदल गया। मित्र राष्ट्र विजय हासिल करते गये और धुरी राष्ट्रों को पराजय का सामना करना पड़ा।

हिटलर अपनी पराजय सहन न कर सका अतः उसने अपनी पत्नी सहित 30 अप्रैल, 1945 को आत्महत्या कर ली। मुसोलिनी को बन्दी बना लिया गया 24 अप्रैल, 1945 को मुसोलिनी को गोली मार दी गई। 6 अगस्त एवं 9 अगस्त, 1945 को अमेरिका के बी-19 विमान ने जापान के हिरोशिमा एवं नागासाकी पर बम गिराये। अन्ततः 14 अगस्त, 1945 को जापान ने आत्मसमर्पण कर दिया। इस प्रकार द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त हुआ।

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