प्रथम आंग्ल-सिक्ख युद्ध (1845 ई.) के कारण
- रानी झिन्दन की कूटनीति-
रणजीतसिंह की मृत्यु के बाद सिक्ख सेना के अधिकारियों ने उत्तराधिकारी-युद्ध में और दरबार
के षड्यंत्रो में अत्यन्त सक्रियता से भाग लिया। उनकी शक्ति और उच्छृंखलता इतनी बढ़ गयी थी कि
शासन और राज परिवार के लागे उनसे आतंकित हो गये थे। उन्हें नियंत्रित करना रानी झिन्दन और
सिक्ख दरबार की सामथ्र्य के बाहर था। इसलिए रानी झिन्दन, लालसिंह और सरदार गुलाबसिंह तथा
सेनापति तेजसिंह ने सिक्ख सेना को अंग्रेजों से युद्ध के लिए भड़काया।
- पंजाब में अराजकता-
रणजीतसिंह की मृत्यु के बाद उत्तराधिकार के युद्ध और संघर्ष ने पंजाब में अराजकता और
अव्यवस्था उत्पन्न कर दी। सिक्ख और डोगंरा सरदारों में परस्पर मतभेद और गहरे हो गये वे अपनी
स्वार्थ-सिद्धि के लिए हत्या, शड़यत्रं और कुचक्रों में फँस गये थे। इसका लाभ पंजाब विजय करने के
लिए अंग्रेजों ने उठाया। उन्होंने राजसिंहासन के प्रतिद्वंद्वी दावेदारों और स्वार्थी अधिकारियों के षड्यंत्रो व हत्याओं में सक्रिय भाग लिया।
- अंग्रेजों की महत्वाकांक्षा-
रणजीतसिंह की मृत्यु के बाद पंजाब में व्याप्त उत्तराधिकार के युद्ध और राजनीतिक अस्थिरता
का लाभ अंग्रेज उठाना चाहते थे। इससे उनकी पंजाब विजय की महत्वाकांक्षा बढ़ गयी। उन्होंने सिक्ख
सरदारों को अपनी और मिलाने के लिए शड़यत्रं ही आरम्भ नहीं किये, अपितु पंजाब पर आक्रमण करने
के लिए सैनिक तैयारी भी कर ली।
- तात्कालिक कारण-
मेजर ब्रॉडफुट ने सिक्ख सेनापति तेजसिंह और गुलाबसिंह को सिक्ख सेना लेकर अंग्रेजों की
ओर बढ़ने के लिए उकसाया। सिक्ख सेना को भी यह भय हो गया था कि अंग्रेजों ने पंजाब पर
आक्रमण करने की पूरी सैनिक तैयारी कर ली है। इसीलिए ‘‘खालसा पंचायत’’ ने अंग्रेजों पर आक्रमण
करने का प्रस्ताव बहुमत से पारित कर लिया।
प्रथम आंग्ल सिक्ख युद्ध की घटनाएँ
18 सितम्बर 1845 ई. को मुदकी का युद्ध हुआ जिसमें सिक्ख सेना परास्त हो गयी। पराजय का
कारण यह था कि युद्ध प्रारम्भ होते ही लालसिंह अंग्रेजों से जा मिला। 21 दिसम्बर 1845 ई. को
फिराजे परु के युद्ध में सिक्खों ने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिये, पर वे परास्त हुए, क्योंकि इस युद्ध में भी
लालसिंह और तेजसिंह ने वि’वासघात किया। अंग्रेजों से युद्ध करने की अपेक्षा वे दोनों ही
अपनी-अपनी सेना लेकर भाग गये। इस युद्ध के बाद लालसिंह ने सिक्ख सेना की प्रत्येक गतिविधि की
सूचनाएँ अंग्रेजों को दे दी। इसलिए 28 जनवरी 1846 ई. को अलीवाल के युद्ध में भी सिक्ख अद्भुत
वीरता का प्रदशर्न करने पर भी परास्त हुए। इसी प्रकार 10 फरवरी 1846 ई. को सुबराव के युद्ध में भी
सिक्ख सेना परास्त हो गयी, क्योंकि इस युद्ध में भी लालसिंह और तेजसिंह वि’वासघात किया और
अंग्रेजों से गठबंधन कर लिया।
लाहौर की सन्धि (9 मार्च 1846 ई.)
सिक्खों की पराजय के बाद अंग्रेजों और सिक्खों के मध्य सन्धि हो गयी जो लाहौर की सन्धि
कहलाती है। इसकी शर्तें थीं -
- सतलज नदी के पूर्व का सम्पूर्ण प्रदेश और जालंधर, दोआब तथा हजारी का प्रदेश
अंग्रेजों को प्राप्त हुए।
- महाराज दिलीपसिंह ने व्यास और सतलज नदी के बीच की भूमि के सभी दुर्गों, पर्वतों
और भू-भाग से अपना अधिकार हटा लिया।
- अव्यस्क दिलीपसिंह को सिक्खों का महाराजा, उसकी माता महारानी झिन्दन को
उसकी संरक्षिका और लालसिंह को दिलीपसिंह का मन्त्री मान लिया गया।
- युद्ध की क्षतिपूर्ति के लिये सिक्ख दरबार को एक करोड़ रुपये अंग्रेजों को देना निश्चित
हुआ। पर इस समय राजकोष में केवल पचास हजार रुपये ही थे। इसलिये यह
निश्चित हुआ कि शेश धन के बदले में सिक्ख दरबार का’मीर तथा व्यास व सिंध नदी
का पहाड़ी प्रदेश अंग्रेजों को दे देगे । अंग्रेजों ने का’मीर और सिन्ध व व्यास के बीच
का भ-ू भाग एक करोड़ रुपयों में गुलाबसिंह को बेच दिया। बाद में रियायत करके यह
धनराशि 75 लाख रुपये कर दी गई।
- विद्रोही सैनिक हटा लिये गये और सिक्ख सैनिकों की संख्या घटाकर 12,000
अ’वारोही और 25 पदैल बटालियन की कर दी गई। सिक्खों द्वारा प्रयुक्त सभी
छोटी-बड़ी तोपें अंग्रेजों को दे दी गयीं।
- सिक्ख दरबार और सेना में किसी विदेशी को नियुक्त नहीं किया जायेगा।
- अंग्रेज सेना को पंजाब में से आने जाने का अधिकार होगा।
- लाहौर में एक वर्ष तक अंग्रेज सेना रहेगी।
- लाहौर में सिक्ख दरबार में हेनरी लॉरेंस को अंग्रेज रेजीडेटं नियुक्त किया गया।
- अंग्रेजों ने सिक्ख राज्य के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करने का आश्वासन दिया।
भैरोंवाल की सन्धि (16 दिसम्बर, 1846 ई.)
लाहौर सन्धि के अनुसार का’मीर गुलाबसिंह को बेच दिया गया था। जबकि सिक्खों को यह
पसंद नही था, इसलिये मंत्री लालसिंह ने कश्मीर में विद्रोह करा दिया। यद्यपि विद्रोह का दमन कर
दिया परन्तु अंग्रेजों ने महाराजा दिलीपसिहं को बाध्य किया कि वे लालसिंह को मंत्री पद से पृथक करें
और नवीन सन्धि करे। फलत: 16 दिसम्बर, 1846 ई. को लाहौर दरबार और अंग्रेजों के बीज भैरोंवाल
की सन्धि हुई। जिसकी शर्तें थीं -
- सिक्ख राज्य की शासन व्यवस्था के संचालन के लिये अंग्रेज रेजीडेंट की अध्यक्षता में सिक्ख
सरदारों की परिशद निमिर्त हो गयी। यह व्यवस्था 1854 ई. तक अर्थात दिलीपसिंह के वयस्क होने तक
के लिये की गयी। इससे रानी झिंदन की संरक्षण व्यवस्था समाप्त हो गयी।
- लाहौर में एक स्थायी अंग्रेज सेना रखी गयी और इसके रख-रखाव के लिये लाहौर दरबार से
22 लाख रुपये प्रति वर्ष देना निश्चित हुआ।
- रानी झिन्दन को डेढ़ लाख रुपये प्रति वर्ष की पेशन दे दी गयी।
द्वितीय आंग्ल सिक्ख युद्ध (1848 ई. से 1849 ई.)
प्रथम सिक्ख युद्ध के परिणामों और लाहौर तथा भैरोवाल की संधि से पंजाब में तीव्र असंतोष
उत्पन्न हो गया जिसके परिणामस्वरूप द्वितीय सिक्ख युद्ध हुआ। जिसके कारण हैं -
- भैंरोवाल की संधि के बाद पंजाब में सभी महत्वपूर्ण पदों पर अंग्रेज अधिकारी नियुक्त
किये जाने लगे और वे प्रशासन में अधिकाधिक हस्तक्षेप करने लगे। इससे सिक्ख
अधिक रुष्ट हो गए।
- अंग्रेजों ने सुधार के बहाने मुसलमानों को अजान और गा-े वध के अधिकार पद्रान किए
और जानबूझकर सिक्खों के हितों के विरुद्ध तथा उनकी धार्मिक भावना के विपरीत
कार्य किए जिससे सिक्खों में अत्यधिक असंतोष उत्पन्न हो गया।
- सिक्ख सेना की संख्या घटा देने से, अनेक सिक्खों की जीविका के साधन समाप्त हो
गए और अनेक लागे बेरोजगार हो गए। बेरे ाजे गारों अपनी बेरोजगारी के लिए अंग्रेजों
को उत्तरदायी माना।
- सिक्खों का यह वि’वास था कि उनकी पराजय और स्वतंत्रता छिन जाने के कारण
उनकी वीरता और युद्ध कौशल का अभाव नहीं, अपितु उनके अधिकारियों और सरदारों
की आपसी फूट व पंजाब राज्य के प्रति वि’वासघात था। अत: एक बार पुन: युद्ध होने
पर वे अंग्रेजों को निश्चित ही परास्त कर देगे ।
- रानी झिंदन को संरक्षिका के पद से पृथक किया जाकर उसके समस्त अधिकार छिन
गये। साथ ही अंग्रेजों के विरुद्ध शड़यंत्र करने का आरोप लगाकर द्वारा उसे अपमानित
किया गया और उसे चुनार दुर्ग में भजे दिया गया। इससे सिक्खों में भारी क्षोभ उत्पन्न
हो गया उनकी विद्रोही भावना को प्रोत्साहन मिला।
- इस समय भारत का गवर्नर-जनरल डलहौजी था। उसमें एक साम्राज्यवादी व्यक्ति
था। वह पंजाब को शीघ्रातिशीघ्र अंग्रेज राज्य में सम्मिलित करना चाहता था। इसके
लिए उसे एक बहाना चाहिए था, जो मूलराज के विद्रोह ने उसे दे दिया।
मूलराज का विद्रोह (तात्कालिक कारण)
मलू राज मुल्तान का गवर्नर था। अंग्रेज रेजीडेटं के प्रभाव और हस्तक्षपे से लाहौर दरबार ने
मलू राज से उत्तराधिकार कर के रूप में 20 लाख रुपए तथा एक तिहाई राज्य देने की माँग की। अंग्रेज
रेजीडेटं ने उस पर कुशासन का आरोप भी लगाया जो निराधार था, और उसके यहाँ एक अंग्रेज
रेजीडेटं रखना चाहा। इससे रुष्ट होकर मूलराज ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। फलत: सरदार
खानसिंह को मुल्तान का गवर्नर बनाकर उसके साथ दो अंग्रेज अधिकारी वहाँ के प्रशासन पर नियंत्रण
रखने के लिए लाहौर के अंग्रेज रेजीडेटं ने मुल्तान भेजे। मलू राज ने मुलतान का दुगर् तो अंग्रेजों को दे
दिया किन्तु अंग्रेजों के इस अन्याय से मुल्तान के सिक्खों और जनता ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्राहे कर
दिया तथा दोनों अंग्रेज अधिकारियों की हत्या कर दी। अत: अंग्रेजों ने मूलराज और रानी झिंदन पर यह
आरोप लगाया कि उन्होंने अंग्रेजों के विरुद्ध शड़यत्रं करके विद्रोह को भड़काया, जबकि यह आरोप
निराधार था। इससे सिक्खों में भारी असंतोष उत्पन्न हो गया और मुल्तान का विद्रोह समस्त पंजाब में
फैल गया। डलहौजी को बहाना मिल गया और उसने 10 अक्टूबर 1848 ई. को सिक्खों के विरुद्ध युद्ध
की घोशणा कर दी।
द्वितीय आंग्ल सिक्ख युद्ध की घटनाएँ
22 नवम्बर 1848 ई. को सिक्खों और अंग्रेजों में युद्ध हुआ, किन्तु यह अनिर्णायक रहा।
तत्पश्चात 13 जनवरी 1849 ई. को चिलियाँ वाला में भीषण युद्ध हुआ। इसमें सिक्खों ने अंग्रेजों को
परास्त कर दिया। किन्तु जनवरी 1849 ई. में अंग्रेज सेना ने मुल्तान पर आक्रमण किया, जिसमें मलू राज
परास्त हुआ और 22 जनवरी 1849 ई. को उसने आत्मसमर्पण कर दिया। अंग्रेजों ने उसे पंजाब से
निष्कासन का दण्ड दिया। अब मुल्तान पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। 21 फरवरी 1849 ई. को
चिनाब नदी के तट पर सिक्खो और अंग्रेजों में अंतिम युद्ध हुआ। यद्यपि सिक्ख सेना अदम्य उत्साह
और अपूर्व शौर्य के साथ लड़ी, किन्तु अन्त में वह परास्त हो गयी। 13 मार्च 1849 ई. को सिक्ख सेना
ने अंग्रेजों के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया।
आंग्ल सिक्ख युद्ध के परिणाम
- पंजाब का विलय
29 मार्च 1849 ई. को डलहौजी ने एक घोषणा करके पंजाब को अंग्रेजी राज्य का अंग बना
लिया और उसका शासन संचालन करने के लिये तीन अंग्रेज कमि’नरों की एक समिति बना दी गयी।
- दिलीप सिहं को पाँच लाख रुपये वार्षिक पेशन देकर उसकी माता रानी झिंदन के साथ इंग्लैंड
भेज दिया गया। रणजीतसिंह के परिवार से कोहिनूर हीरा लेकर ब्रिटिश राजमुकुट में लगा दिया गया।