मनोरोग के स्वरूप को स्पष्ट करते हुये मनोरोग की परिभाषायें

जिस प्रकार व्यक्ति विभिन्न प्रकार के शारीरिक रोगों से ग्रस्त रहता है, उसी प्रकार वह अनेक प्रकार के मनोरोगों से भी ग्रसित रहता है और ये मनोरोग शारीरिक रोगों की तुलना में व्यक्ति, परिवार तथा समाज के लिये अधिक कष्टकारी होते है। अब प्रश्न यह उठता है कि मनोरोग क्या है? व्यक्ति के मानसिक स्वास्थ्य में ऐसे क्या परिवर्तन आते हैं कि वह मनोरोगी कहलाने लगता है? यदि हम मनोरोग की अवधारणा पर व्यापक ढंग से विचार करें तो यह तथ्य सामने आता है कि मनोरोग या मानसिक बीमारी वातावरण के साथ किया गया कुसमायोजित व्यवहार (Maladaptive behaviour) है। 

दूसरे शब्दों में हम कहें तो जब व्यक्ति मनोरोग से ग्रस्त होता है तो उसकी समायोजन क्षमता अत्यधिक घट जाती है। वह अपने आन्तरिक और बाह्य दोनों ही वातावरण के साथ सामंजस्य स्थापित करने में स्वयं को असमर्थ पाता है। मनोरोग एक असंतुलित मनोदशा की अवस्था है, जिसमें व्यक्ति का व्यवहार सामाजिक रूप से अनुकूली नहीं होता है और न ही सामान्य प्रत्याशाओं के अनुकूल होता है। सांवेदिक रूप से भी वह एक मान्य व्यवहार बनाये रखने में समर्थ नहीं होता है। अत: उसमें नैदानिक हस्तक्षेप आवश्यक हो जाता है।

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मनोरोग की परिभाषा 

मनोरोग के स्वरूप को स्पष्ट करते हुये मनोवैज्ञानिकों ने अनेक परिभाषायें दी है, जिनमें से कुछ प्रमुख हैं-

1. डेविड मेंकानिक के अनुसार-‘‘मानसिक बीमारी एक तरह का विचलित व्यवहार है। इसकी उत्पत्ति तब होती है जब व्यक्ति की चिंतन प्रक्रियायें, भाव एवं व्यवहार सामान्य प्रत्याशाओं या अनुभवों से विचलित होता है तथा प्रभावित व्यक्ति या समाज के अन्य लोग इसे एक ऐसी समस्या के रूप में परिभाषित करते हैं, जिसमें नैदानिक हस्तक्षेप की आवश्यकता होती है।’’

2. DSM-IV (1994)- के अनुसार - DSM-IV में प्रत्येक मानसिक विकृति को एक नैदानिक रूप से सार्थक व्यवहारपरक या नैदानिक संलक्षण या पैटर्न जो व्यक्ति में उत्पन्न होता है, के रूप में समझा गया है और यह वर्तमान तकलीफ या अयोग्यता से संबंधित होता है। चाहे वर्तमान समय में व्यक्ति में व्यवहारपरक, मनोवैज्ञानिक या जैविक दुष्क्रिया की अभिव्यक्ति अवश्य माना जाता है। न तो कोर्इ विचलित व्यवहार, (जैसे-राजनैतिक, धार्मिक या लैंगिक) और न ही व्यक्ति तथा समाज के बीच होने वाले संघर्ष को मानसिक रोग माना जा सकता है, अगर ऐसा विचलन या संघर्ष व्यक्ति में दुष्क्रिया का लक्षण न हो।’’

3. ब्राउन (1940) के अनुसार, ‘‘मनोरोग सामान्य व्यवहार का ही अतिरंजित रूप अथवा विकृत रूप है।’’

मनोरोग कैसे होता है?

  1. सपने अधिक देखना, उनका पूरा न हो पाना ।
  2. अन्धविश्वास में घिरे रहने के कारण मूल प्रकृति या व्यवहार से दूर होना ।
  3. ईमानदार एवं सच्चा बनने को सिद्ध करने के कारण शरीर और मन को कष्ट पहुंचाना एवं इच्छाओं का दमन करना ।
  4. अपने परिवार एवं दोस्तों से लगाव होना एवं मृत्यु होने पर शोक होना ।
  5. बच्चो में शारीरिक एवं मानसिक शोषण होना ।
  6. माता-पिता या आदरणीय व्यक्ति द्वारा अरूचि के कार्यो के प्रति दबाव ।
  7. दूसरों की गलतियां निकालना एवं फालतू गपशप के कारण ।
  8. आर्थिक समस्याओं के कारण लगातार परेशान रहना ।
  9. प्रत्येक को शक की नजर से देखना, काम, क्रोध, लोभ, मोह के जंजाल में फसे रहना ।
  10. शारीरिक रोगों से लगातार फसे रहना ।
  11. परिस्थिति ताल-मेल न बैठ पाना, हर समय बैचेनी का अनुभव करना ।
  12. छोटी-छोटी बातों में घबरा जाना एवं भय का वातावरण बनाना ।
  13. नींद न आना, दुखी जीवन व्यतीत करना ।

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