शरीर के ऊपरी आवरण को ‘त्वचा‘ के नाम से सम्बोधित जाता है। त्वचा शरीर और वातावरण के बीच सीमान्त या सीमा बन्धक मेम्ब्रेन है, जिसके माध्यम से सभी वस्तुओं का अदल बदल होता रहता है। इस तरह से त्वचा शरीर के ऊतकों तथा बाहय वातावरण के बीच एक रोधी भित्ति का कार्य करती है, वातावरण-संचारेक्षण के लिए यह ज्ञानेन्द्रिय का कार्य करती है तथा शरीर का तापक्रम नियन्त्रित करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है।
त्वचा के द्वारा सम्पादित होने वाले शरीरोपयोगी कार्यो को समझने के लिए त्वचा की संरचना का अध्ययन अनिवार्य है। संरचना के अनुसार, त्वचा मुख्यतः दो परतों से मिलकर बनी होती हैं-
- बह्मा त्वचा या एपीडर्मिस
- अन्तस्त्वचा या डर्मिस
1. बाह्रा त्वचा या एपीडर्मिस-
यह त्वचा की ऊपरी परत होती है, जो कई परतों से मिलकर बनी होती है। यह शरीर के विभिन्न भागों
में विभिन्न मोटाई की होती है, जैसे हथेलियों और तलवों आदि पर बहुत मोटी एवं
सख्त रहती है, तथा धड़, पलकों, होठों एवं हाथ-पैरों की अन्दरूनी सतहों पर बहुत
पतली एवं कोमल रहती है। बाहरी त्वचा में कोई तन्त्रिका अन्तांग तथा रक्त वाहिनियाॅ विद्यमान नहीं होती, परन्तु अधिकांशतः इतनी पतली
होती है, कि हल्का-सा कट भी डर्मिस तक पहुंच जाता है और रक्त बहने लगता
है। जल, जीवाणु तथा कुछ
रासायनिक पदार्थ इसे पार करके अन्दर प्रवेश नहीं कर सकते हैं, परन्तु तैलीय
पदार्थ इसमें स्वच्छंदता से अवशोषित हो जाते है।
2. अन्तस्त्वचा (डर्मिस) - अन्तस्त्वचा (डर्मिस) को वास्तविक त्वचा भी कहा जाता है। इसका निर्माण कोलेजनमय प्रत्यास्थ संयोजी ऊतकों, रेटीेकुलर एवं इलास्टिक तन्तुओं से होता है। कोलेजनमय तन्तु जो प्रोटीन कोलेजन से बने होते हैं, बहुत ही मोटे होते हैं, जिससे अन्तस्त्वचा कठोर होती है तथा इलास्टिक तन्तुओं के कारण इसमें लचीलापन रहता है। इसमें फ्राइब्रोब्लास्ट्स वसा कोशिकाएं एवं मेक्रोफेजेज होती हैं, जो बह्मा पदार्थो का भक्षण करती हैं।
इसमें रक्तवाहिनियों, लसीका वाहिनियाॅ, तन्त्रिकान्त रोम कूप स्वेद ग्रन्थियाॅ, त्वग्वसीय ग्रन्थियाॅ, वसा ऊतक एवं अल्प मात्रा में अनैच्छिक पेशी तन्तु विद्यमान रहते है। अन्तस्त्वचा का ऊपरी भाग बाहरी पैपीलरी स्तर तथा नीचे का अन्तः रेटीकुलर स्तर कहलाता है। दोनों स्तरों को स्पष्ट रूप से अलग नहीं किया जा सकता है। अन्तस्त्वचा की सबसे निचली परत विभिन्न व्यक्तियों में विभिन्न मोटाई की होती है, इसे अधस्त्वक या अवत्वचीय परत कहा जाता है। इसमें संयोजी ऊतक ही रहते हैं, परन्तु वसा की कम या अधिक मात्रा रहती हैं।
अवत्वचीय परत शरीर के किन्हीं भागों में अधिक मोटी तथा किन्हीं भागों में पतली रहती है। इनसे शरीर की सतह की असमानता दूर होती हैं और गहराइयां भर जाती है। त्वचा के समीप तक आई अस्थियों को इनसे गद्दीदार सहारा मिलता है। वसा की मात्रा पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों में अधिक रहती है।
त्वचा के कार्य
शरीर में त्वचा के निम्नलिखित कार्य होते हैंः-1. शरीर का रक्षात्मक बाह्रा आवरण
त्वचा शरीर का रक्षात्मक बाहरी आवरण हैं, जो कि शरीर के कोमल अंगो, माॅसपेशियों, रक्तवाहिनियों के लिए रक्षात्मक भित्ति का काम करती है। यह बाहरी चोट से शारीरिक अंगों की रक्षा करती है। हानिकारक सूक्ष्म जीवाणु एवं बाहरी पदार्थों के शरीर में प्रवेश करने के प्रति अवरोधक की तरह कार्य करती है। यह बाहर के तरल द्रवों को भीतर नहीं जाने देती तथा ऊतकों के तरलों को बाहर नहीं निकलने देती है। त्वचा शरीर को रोगों से बचाने में भी सक्रिय भूमिका अदा करती है।2. शरीर के तापक्रम का नियमन
त्वचा पूरी तरह वाटर-प्रूफ है, फिर भी उसकी बाहरी सतह, स्वेद ग्रन्थियों की सूक्ष्म नलियों के द्वारा स्रावित द्रव से नम रहती हैं। स्वेद या पसीना इन सूक्ष्म नलियों के सतही छिद्रों से उत्सर्जित होता है तथा वातावरणीय प्रभाव से इसका निरन्तर वाष्पीकरण होता रहता है, जिससे शरीर में शीतल प्रभाव बना रहता है। आर्द्र मौसम में शरीर सहज ही शीतल नहीं हो पाता है क्योंकि बाहर की हवा प्रायः जल से संतृप्त होती है तथा पसीना वाष्पीकृत होने के बजाय त्वचा पर बना रहता है। ठण्डे मौसम में त्वचा इन्सूलेटर की भांति कार्य करती है, जिससे शरीर में ऊष्मा बनी रहती है और शरीर गर्म बना रहता है। इसके अतिरिक्त, डर्मिस में रक्तवाहिकाओं का घना जाल विद्यमान रहता है। गर्म मौसम में वाहिकाएॅ विस्फारित हो जाती हैं, इस तरह शरीर की ऊष्मा का ह्रास होता है।4. सामान्य संवेदन
त्वचा स्पर्श, दबाव, वेदना, शीत तथा ताप की संवेदनाओं को ग्रहण करके मस्तिष्क में भेजती है। ये कार्य त्वचा में विद्यमान तन्त्रिका तन्तुओं के अंन्तागों के द्वारा सम्पादित होते हैं। तन्त्रिका तन्तुओं से बनी ‘स्पर्श कणिकाएॅ‘ ही स्पर्शेन्द्रिय का कार्य करती हैं। चूकि बालों की जड़ों में भी तन्त्रिका तन्तुओं की अधिकता रहती है बाल भी त्वचा की संवेदन क्रिया में सहायता प्रदान करते है।5. स्राव उत्पादन
त्वचा में विद्यमान त्वग्वसीय ग्रन्थियों से त्वग्वसा की उत्पत्ति होती है। इस स्राव में वसीय अम्ल, काॅलेस्टेराॅल तथा अर्गोस्टेराॅल मुख्य रूप से रहते हैं। इससे त्वचा को स्नेहन होता रहता है जिससे त्वचा चिकनी बनी रहती है। शीतऋतु में इस स्राव के कम हो जाने पर त्वचा शुष्क एवं शल्की हो जाती है। त्वग्वसीय ग्रन्थियों के रूपान्तरित रूप स्तन ग्रन्थियों से भी एक विशेष स्राव उत्पन्न होता है जो संक्रमणों से सुरक्षा करता है।6. जल-सन्तुलन
स्वेद अर्थात् पसीने का निर्माण तथा उसका वाष्पीकरण शरीर के भीतर जल सन्तुलन बनाए रखने में महत्वपूर्ण तत्व है।7. अम्ल-क्षार सन्तुलन
स्वेद की अभिक्रिया एसिडिक होती है, अतः इसके साथ-साथ पर्याप्त मात्रा में शरीर से अनावश्यक एसिड निष्कासित हो जाते हैं। अम्लरक्ततता यानि एसीडोसिस की अवस्था में स्वेद और अधिक एसिडिक होकर शरीर के एसिड के निष्कासन को और भी बढ़ा देता है। इस प्रकार त्वचा के द्वारा शरीर के भीतर की समसमान प्रतिक्रिया पद को बनाए रखने में सहायता मिलती है।8. संश्लेषण
त्वचा की त्वग्वसीय ग्रन्थियों में निर्मित त्वग्वसा (सीबम) में एर्गोस्टोराॅल विद्यमान रहता है, जिससे सूर्य की अल्ट्रावाॅयोलेट किरणों की क्रियाओं द्वारा विटामिन ‘डी‘ का निर्माण होता है, जो शरीर के कई कार्यो को संपादित करता है तथा स्वास्थ्य के लिए अति महत्वपूर्ण होता है।9. संचयन
डर्मिस एवं अवत्वचीय ऊतक वसा, जल, लवण तथा ग्लूकोज एवं अन्य पदार्थो का संचयन करते है।10. अवशोषण
त्वचा में तैलीय पदार्थो को अवशोषित करने की क्षमता रहती है। यह लिपिड्स एवं विटामिन्स को सहज ही शोषित कर लेती है।त्वचा रोग के प्रकार
- रूखी त्वचा
- घमौरी
- दाद खाज (स्कैबी)
- सफेद दाग
- कुष्ट रोग
- मुंहासे
- फोड़ा
- फुंसी
- रूसी
- त्वचा का रंग बदलना
त्वचा को स्वस्थ रखने हेतु सामान्य उपाय
त्वचा शरीर का सबसे बड़ा अंग है जो कि बाहरी अंग है। जो कि बाहरी त्वचा हमें अत्यधिक गर्म शर्द तथा शुष्क वातावरणीय प्रभाव से बचाती है। और यदि कुछ वातावरणीय प्रभाव त्वचा को भेदकर शरीर के अन्दर पहुंच जाय तो यह विभिन्न प्रकार के रोगों का कारण भी बन सकते हैं। इस लिये त्वचा का सीधा सम्र्पक इम्यून तन्त्र से भी होता है। यदि त्वचा स्वच्छ तैलीय एवं मजबूत होगी इसकी रोग प्रतिरोधक क्षमता भी अधिक होगी। और यदि त्वचा ,शुष्क, अत्यधिक तैलीय होगी इसमे वातावरणीय प्रभावों को रोकने की क्षमता उतनी कम होगी।रोजाना तैल मसाज करने से त्वचा मजबूत सुन्दर एवं रोग प्रतिरोधक क्षमता वाली होती है। त्वचा को सुन्दर एवं मजबूत बनाने के लिए आयुर्वेद में पंचकर्म के अन्तर्गत स्नेहन एवं स्वेदन कर्मों का उल्लेख किया गया है। अतः त्वचा की देखभाल न केवल सौन्दर्य की दृष्टि से अधिक आवश्यक है बल्कि शरीर की रोगप्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने के उद्देश्य से भी महत्वपूर्ण है।
स्वस्थ त्वचा न केवल आनन्द को बढ़ाने वाली होती है, बल्कि मनुष्य की रोग प्रतिरोधक क्षमता भी बढा़ती है। त्वचा को स्वस्थ एवं स्वच्छ रखने के लिए निम्न बातों का ध्यान रखना आवश्यक है-
- आहार:- सदा सन्तुलित एवं सुपाच्य भोजन का प्रयोग करें। भोजन में विटामिन एवं प्रोटीन का ध्यान रखें। भोजन में दूध, हरी सब्जी एवं दालों का सेवन करें।
- ताजी ठण्डी हवा:- ताजी ठण्डी हवा त्वचा के लिए बहुत लाभदायक है। अतः अधिक से अधिक कोशिश करके ताजी ठण्डी हवा में सम्पर्क में रहना चाहिए। इसके लिए सुबह की सैर सर्वोतम है। क्योंकि सुबह-सुबह की हवा दिन की अपेक्षा अधिक ठण्डी और ताजी होती होती है।
- नियमित व्यायाम- नियमित व्यायाम करने से भी त्वचा स्वच्छ और स्वस्थ रहती है। तथा त्वचा की कांति बढ़ती है।
- स्नान:- रोजाना स्वच्छ ताजे जल से स्नान करने से भी त्वचा चमकदार स्वच्छ एवं कांतिमान होती है।