अनुक्रम
संगीत शब्द ‘गीत’ शब्द में ‘सम’ उपसर्ग लगाकर बना है। ‘सम’ यानि ‘सहित’ और ‘गीत’ यानि ‘गान’। ‘गान के सहित’ अर्थात् अंगभूत क्रियाओं (नृत्य) व वादन के साथ किया हुआ कार्य संगीत कहलाता है। स्वरों की ऐसी रचना जो कानों को मधुर और सुरीली मालूम हों एवं जो लोगों के चित्त को प्रसन्न करें उसे ही हम संगीत कहते हैं।
सम्पूर्ण जगत संगीतमय है। आदिकाल से ही झरनों की झर-झर, वनों की मर-मर, नदियों की कल-कल, पक्षियों की चहचहाहट, भ्रमरों की गुनगुनाहट, सागर की तरंग ध्वनि, विभिन्न पशुओं की भिन्न-भिन्न आवाज इत्यादि में अर्थात् विश्व की प्रत्येक गति या प्रवाह में संगीत निरन्तर गुंजायमान है।
संगीत मानव-मन की मलिनताओं तथा विकृतियों को धो डालता है, अर्थात् यदि हम अपनी भूख-प्यास को खा-पी तथा भोग कर तृप्त करते हैं, तो भावों की अभिव्यक्ति या मन के उद्गार, हर्ष, विशाद, शोक, करुणा आदि मर्मस्पर्शी विषय संगीत के द्वारा व्यक्त किये जा सकते हैं। वस्तुतः संगीत कला तथा आत्मा एक-दूसरे में प्रतिबिम्बित होते हैं। क्योंकि संगीत कला का मुख्य लक्ष्य जनरंजन ही नहीं, भव-रंजन करना भी है जो सांसारिक क्रियाकलापों से दूर परमात्मा से एकाकार कराता है। संगीत को सतोगुणी कला भी कहा जाता है।
कुछ विद्वानों द्वारा संगीत की परिभाषा- प्लेटो के अनुसार- Music is an emotional impart. कान्ट के अनुसार- ‘‘Music is the highest of arts as it plays with sensation imotion.’’ संगीत समस्त जीवों के समूह को आनन्द का वरदान देकर अपनी ओर खींच लेता है। ‘‘Sangeet is a technical term used for vocal and instrumental music along with the art of dancing. These three fine arts are closely connected with one another in such a way that it is a almost impossible to separate.’’ हीगेल के अनुसार- संगीत हमारी आत्मा के सर्वाधिक निकट है। ध्वनि के रूप में संगीत का जन्म होता है और गीत के रूप में नृत्य की अनुभूति होती है। महाराणा कुम्भा ने संगीत के अर्थ की व्याख्या इस प्रकार की है- ‘‘सम्यग्गीतं तु संगीतं गीतादित्रियं तुवा। समष्टि व्यष्टि भावेन शब्द नानेन गीयते।।’’ अर्थात् जो सम्यक रूप से गाया जाय वह संगीत है अथवा गीत, वाद्य और नृत्य इन तीनों की समष्टि और व्यष्टि भाव से अभिव्यक्त संगीत है।
संगीत की परिभाषा
‘संगीत रत्नाकर’ के अनुसार संगीत की परिभाषा इस प्रकार है- ‘गीतं वाद्यं तथा नृत्तं त्रयं संगीतमुच्यते’। अर्थात् संगीत एक अन्विति है, जिसमें गीत, वाद्य तथा नृत्य तीनों का समावेश है। ‘संगीत’ शब्द में व्यक्तिगत तथा समूहगत दोनों विधियों की अभिव्यंजना स्पष्ट है। इसी कारण व्यक्तिगत गीत, वादन तथा नर्तन के साथ समूहगान, समूहवादन तथा समूहनर्तन का समावेश इसके अन्तर्गत होता है और इसी परिभाषा का अनुसरण हमारे गुणीजन प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक करते चले आ रहे हैं।संगीत मानव-मन की मलिनताओं तथा विकृतियों को धो डालता है, अर्थात् यदि हम अपनी भूख-प्यास को खा-पी तथा भोग कर तृप्त करते हैं, तो भावों की अभिव्यक्ति या मन के उद्गार, हर्ष, विशाद, शोक, करुणा आदि मर्मस्पर्शी विषय संगीत के द्वारा व्यक्त किये जा सकते हैं। वस्तुतः संगीत कला तथा आत्मा एक-दूसरे में प्रतिबिम्बित होते हैं। क्योंकि संगीत कला का मुख्य लक्ष्य जनरंजन ही नहीं, भव-रंजन करना भी है जो सांसारिक क्रियाकलापों से दूर परमात्मा से एकाकार कराता है। संगीत को सतोगुणी कला भी कहा जाता है।
कुछ विद्वानों द्वारा संगीत की परिभाषा- प्लेटो के अनुसार- Music is an emotional impart. कान्ट के अनुसार- ‘‘Music is the highest of arts as it plays with sensation imotion.’’ संगीत समस्त जीवों के समूह को आनन्द का वरदान देकर अपनी ओर खींच लेता है। ‘‘Sangeet is a technical term used for vocal and instrumental music along with the art of dancing. These three fine arts are closely connected with one another in such a way that it is a almost impossible to separate.’’ हीगेल के अनुसार- संगीत हमारी आत्मा के सर्वाधिक निकट है। ध्वनि के रूप में संगीत का जन्म होता है और गीत के रूप में नृत्य की अनुभूति होती है। महाराणा कुम्भा ने संगीत के अर्थ की व्याख्या इस प्रकार की है- ‘‘सम्यग्गीतं तु संगीतं गीतादित्रियं तुवा। समष्टि व्यष्टि भावेन शब्द नानेन गीयते।।’’ अर्थात् जो सम्यक रूप से गाया जाय वह संगीत है अथवा गीत, वाद्य और नृत्य इन तीनों की समष्टि और व्यष्टि भाव से अभिव्यक्त संगीत है।
संगीत की उत्पत्ति एवं विकास
संगीत की उत्पत्ति के विषय में अलग-अलग विद्वानों की भिन्न-भिन्न मान्यतायें हैं, किसी ने संगीत की उत्पत्ति धार्मिक दृष्टिकोण से की है, तो किसी ने पक्षियों से, तो किसी ने मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से माना है, तो ‘संगीत दर्पण’ के लेखक श्री दामोदर पं0 जी के मतानुसार संगीत का जन्म ब्रह्मा जी से आरम्भ होता है और लिखा है कि-‘‘द्रुहिणेत यदन्विश्टं प्रयुक्तं भरतेन च।
महादेवस्य पुरतस्तन्मार्गस्य विमुक्तदम।।’’
अर्थात् ब्रह्माजी ने जिस संगीत को शोधकर निकाला भरत मुनि ने महादेव जी के सामने जिनका प्रयोग किया तथा जो मुक्तिदायक है वह मार्गीय संगीत कहलाता है।
संगीत का विकास सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही हुआ। ब्रह्मा जी ने शकर को भैरव राग सिखाया तथा शकर जी ने उस भैरव राग को नाना प्रकार के आलाप तानों से सुसज्जित करके ब्रह्मा जी के समक्ष प्रस्तुत किया। यही भैरव शिव जी की भयानक मूर्ति है जिसे काल भैरव भी कहते हैं। ब्रह्मा जी को संगीत शस्त्र का आदि निर्माता मानते हैं तथा मृदंग का निर्माण ब्रह्मा जी ने किया जिसके द्वारा शिव के ताण्डव नृत्य के साथ संगीत होता था। इस प्रकार संगीत का विकास सृष्टि की उत्पत्ति के साथ ही आरम्भ हो गया। भारतीय संगीत का उद्भव एवं विकास के अनुरूप होना स्वाभाविक था। प्रारम्भ से वह जन-जीवन से संम्बद्ध तथा उससे प्रेरणा प्राप्त करता रहा है। वैदिक सामगान से गांधर्व-संगीत का विकास हुआ। धार्मिक अनुष्ठानों में जिस संगीत का प्रयोग हुआ, वह सामगान तथा लौकिक समारोहों में जिस संगीत का विकास हुआ वह ‘गांधर्व’ कहलाया।
गांधर्व के अन्तर्गत ‘जाति गायन’ होता था, जिसका विकास लोक संगीत से ही हुआ था। लोक धुनों को परिष्कृत एवं परिमार्जित कर, उन्हें शोस्त्रीयता प्रदान कर, प्रमुख 18 जातियों का विकास हुआ। प्रारम्भ में इन जातियों का प्रयोग मुख्यत: नाटकों में किया जाता था। ये जातियाँ स्वतंत्र रूप से भी गार्इ जाने लगीं। ‘जाति गान’ के नियमों में शिथिलता आने पर उन्हें राग कहा गया। उल्लेखनीय है कि मार्गी संगीत का सम्बन्ध धर्म एवं आत्मिक विकास से है तथा देषी संगीत का सम्बन्ध चित्त के रंजन से है। मार्गी संगीत के नियम अपरिवर्तनीय होते हैं, जबकि देषी संगीत के नियम समय-समय पर बदलते रहते हैं। आज हमारे देष में प्रचलित शास्त्रीय संगीत को ‘देषी’ संगीत कहा जाता है।
उत्तर भारतीय संगीत को भारत में विभिन्न नामों से जाना जाता है। जैसे- शास्त्रीय संगीत, रागदारी संगीत, हिन्दुस्तानी संगीत, उच्चांग संगीत इत्यादि। डॉ0 मुकेष गर्ग के अनुसार ‘‘उत्तर भारत में जिसे शास्त्रीय “ौली का संगीत कहा जाता है उसके अलग-अलग नामों की लंबी सूची बनाई जा सकती है। कोई उसे हिन्दुस्तानी संगीत कहता है, कोई उत्तर भारतीय संगीत तो कोई घरानेदार संगीत कहना पसंद करता है।
हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की उत्पत्ति का काल दिल्ली सल्तनत और अमीर खुसरो (सन् 1233 ई.-1325 ई.) तक का माना जा सकता है। अमीर खुसरों ने एक विशेष तरीके से संगीत की वाद्ययन्त्रों सहित प्रस्तुति की कला को बढ़ावा दिया। ऐसा विश्वास किया जाता है कि उन्होंने ही सितार और तबला का आविष्कार किया था और नए रागों की भी रचना की थी।
हिन्दुस्तानी शास्त्रीय-संगीत के संगीतज्ञ सामान्यत: एक घराने या एक विशिष्ट विधि से संबंधित होते हैं। ‘घराना’ संगीतज्ञों की वंशानुगत संबद्धता से जुड़ा हुआ शब्द है, जो किसी खास संगीत विधि के सारभाग को सूचित करता है तथा अन्य रागों से विभिन्नता प्रदर्शित करता है। घराना, गुरु-शिष्य परंपरा से निर्धारित होते हैं, अर्थात् एक विशेष गुरु से संगीत की शिक्षा प्राप्त शिष्य समान घराने के कहलाते हैं। ग्वालियर घराना, किरण घराना, जयपुर घराना आदि जाने माने घराने हैं।
कीर्तन, भजन, राग जैसे भक्तिपूर्ण संगीत ‘आदिग्रंथ’ में समाहित हैं।
गांधर्व के अन्तर्गत ‘जाति गायन’ होता था, जिसका विकास लोक संगीत से ही हुआ था। लोक धुनों को परिष्कृत एवं परिमार्जित कर, उन्हें शोस्त्रीयता प्रदान कर, प्रमुख 18 जातियों का विकास हुआ। प्रारम्भ में इन जातियों का प्रयोग मुख्यत: नाटकों में किया जाता था। ये जातियाँ स्वतंत्र रूप से भी गार्इ जाने लगीं। ‘जाति गान’ के नियमों में शिथिलता आने पर उन्हें राग कहा गया। उल्लेखनीय है कि मार्गी संगीत का सम्बन्ध धर्म एवं आत्मिक विकास से है तथा देषी संगीत का सम्बन्ध चित्त के रंजन से है। मार्गी संगीत के नियम अपरिवर्तनीय होते हैं, जबकि देषी संगीत के नियम समय-समय पर बदलते रहते हैं। आज हमारे देष में प्रचलित शास्त्रीय संगीत को ‘देषी’ संगीत कहा जाता है।
उत्तर भारतीय संगीत को भारत में विभिन्न नामों से जाना जाता है। जैसे- शास्त्रीय संगीत, रागदारी संगीत, हिन्दुस्तानी संगीत, उच्चांग संगीत इत्यादि। डॉ0 मुकेष गर्ग के अनुसार ‘‘उत्तर भारत में जिसे शास्त्रीय “ौली का संगीत कहा जाता है उसके अलग-अलग नामों की लंबी सूची बनाई जा सकती है। कोई उसे हिन्दुस्तानी संगीत कहता है, कोई उत्तर भारतीय संगीत तो कोई घरानेदार संगीत कहना पसंद करता है।
हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की उत्पत्ति का काल दिल्ली सल्तनत और अमीर खुसरो (सन् 1233 ई.-1325 ई.) तक का माना जा सकता है। अमीर खुसरों ने एक विशेष तरीके से संगीत की वाद्ययन्त्रों सहित प्रस्तुति की कला को बढ़ावा दिया। ऐसा विश्वास किया जाता है कि उन्होंने ही सितार और तबला का आविष्कार किया था और नए रागों की भी रचना की थी।
भारतीय संगीत के प्रकार
1. हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत -
हिन्दुस्तानी संगीत के ज्यादातर संगीतज्ञ स्वयं को तानसेन की परंपरा का वाहक मानते हैं। ध्रुपद, ठुमरी, ख्याल, टप्पा आदि शास्त्रीय संगीत की अलग-अलग विधाएँ हैं। ऐसा कहा जाता है कि तानसेन के संगीत में जादू का सा प्रभाव था। वे यमुना नदी की उठती हुई लहरों को रोक सकते थे और ‘मेघ मल्हार’ राग की शक्ति से वर्षा करवा सकते थे। वास्तव में आज भी भारत के सभी भागों में उनके सुरीले गीत रुचिपूर्वक गाये जाते हैं। अकबर के दरबार में बैजूबावरा, सूरदास आदि जैसे संगीतकारों को संरक्षण दिया गया था। कुछ अत्यंत लोकप्रिय राग हैं बहार, भैरवी, सिंधु भैरवी, भीम पलासी, दरबारी, देश, हंसध्वनि, जय जयंती, मेघमल्हार, तोड़ी, यमन पीलू, श्यामकल्याण, खम्बाज आदि। भारत में वाद्य संगीत की बहुत विधएँ हैं। इनमें सितार, सरोद, सन्तूर, सारंगी जैसे प्रसिद्ध वाद्य हैं। पखावज, तबला, और मृंदगम ताल देने वाले वाद्य हैं। इसी प्रकार बाँसुरी, शहनाई और नादस्वरम् आदि मुख्य वायु वाद्य हैं।हिन्दुस्तानी शास्त्रीय-संगीत के संगीतज्ञ सामान्यत: एक घराने या एक विशिष्ट विधि से संबंधित होते हैं। ‘घराना’ संगीतज्ञों की वंशानुगत संबद्धता से जुड़ा हुआ शब्द है, जो किसी खास संगीत विधि के सारभाग को सूचित करता है तथा अन्य रागों से विभिन्नता प्रदर्शित करता है। घराना, गुरु-शिष्य परंपरा से निर्धारित होते हैं, अर्थात् एक विशेष गुरु से संगीत की शिक्षा प्राप्त शिष्य समान घराने के कहलाते हैं। ग्वालियर घराना, किरण घराना, जयपुर घराना आदि जाने माने घराने हैं।
कीर्तन, भजन, राग जैसे भक्तिपूर्ण संगीत ‘आदिग्रंथ’ में समाहित हैं।
2. कर्नाटक संगीत -
कर्नाटक संगीत की रचना का श्रेय सामूहिक रूप से तीन संगीतज्ञों श्याम शास्त्री, थ्यागराजा और मुत्थुस्वामी दीक्षितर को दिया जाता है, जो 1700 ई. से 1850 ई. के बीच के काल के थे। पुरंदरदास, कर्नाटक संगीत के एक दूसरे महत्त्वपूर्ण रचनाकार थे। थ्यागराजा का सम्मान एक महान कलाकार और संत दोनों रूपों में किया जाता है। वे कर्नाटक संगीत के साक्षात् मूर्त्त प्रतीक हैं। उनकी मुख्य रचनाओं को ‘‘कृति’’ के रूप में जाना जाता है, जो भक्ति प्रकृति की है। तीन महान संगीतज्ञों ने नए तरीकों का प्रयोग किया।महावैद्यनाथ
अययर (सन् 1844-93), पतनम सुब्रह्मण्यम आयंगर (सन् 1854-1902 ई.), रामनद
श्रीनिवास आयंगर (सन् 1860-1919 ई.) आदि कर्नाटक संगीत के अन्य महत्त्वपूर्ण
संगीतज्ञ हैं। बाँसुरी, वीणा, नादस्वरम्, मृदगम्, घटम् कर्नाटक संगीत में प्रयुक्त मुख्य वाद्ययंत्रा
हैं।
हिन्दुस्तानी और कर्नाटक संगीत में कुछ असमानताओं के बावजूद उनमें कुछ समान विशेषताएं मौजूद है, जैसे कर्नाटक संगीत का ‘आलपन’ हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के ‘आलाप’ के समान है। कर्नाटक संगीत में व्यवहृत ‘तिलाना’ हिन्दुस्तानी संगीत के ‘तराना’ से मिलता जुलता है। दोनों संगीत विधएं ‘ताल’ या तालम् पर जोर देते हैं।
हिन्दुस्तानी और कर्नाटक संगीत में कुछ असमानताओं के बावजूद उनमें कुछ समान विशेषताएं मौजूद है, जैसे कर्नाटक संगीत का ‘आलपन’ हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के ‘आलाप’ के समान है। कर्नाटक संगीत में व्यवहृत ‘तिलाना’ हिन्दुस्तानी संगीत के ‘तराना’ से मिलता जुलता है। दोनों संगीत विधएं ‘ताल’ या तालम् पर जोर देते हैं।
3. आधुनिक भारतीय संगीत -
अंग्रेजी शासन के साथ पश्चिमी संगीत भी हमारे देश में आया। भारतीय संगीत की मांग को संतुष्ट करने के लिए भारतीयों ने वायलिन और शहनाई वाद्ययंत्रों को अपनाया। मंच पर संगीत का वृन्दवादन एक नया विकास है। कैसेटों के उपयोग ने धुनों और रागों के मौखिक प्रदर्शन को प्रतिस्थापित कर दिया है। संगीत, जो कुछ सुविधा-सम्पन्न ध्नी लोग के बीच ही सीमित था, अब व्यापक जनता को उपलब्ध है। देश में मंचीय प्रदर्शनों के द्वारा हजारों संगीत प्रेमी आनंद उठा सकते हैं।संगीत की शिक्षा अब गुरु-शिष्य व्यवस्था पर ही निर्भर
नहीं है, अब इसकी शिक्षा संगीत सिखाने वाले संस्थानों में भी दी जाती है।
अमीर खुसरो, सदारंग अदरंग, मियां तानसेन, गोपाल नायक, स्वामी हरिदास, पंडित वी.
डी. पलुस्कर, पंडित वी.एन. भातखंड़े, थ्यागराजा, मुत्थुस्वामी दीक्षितर, पंडित ओंकारनाथ
ठाकुर, पंडित विनायक राव पटवर्द्धन, पंडित भीमसेन जोशी,
पंडित वुफमार गंध्र्व, केसरबाई केरकर तथा श्रीमती गंगूबाई हंगल आदि प्रमुख संगीत
गायक हैं।
वादकों में पंडित रविशंकर प्रमुख संगीतज्ञ हैं।
लोक गीतों का एक खास अर्थ तथा संदेश होता है। वे अक्सर ऐतिहासिक घटनाओं और महत्त्वपूर्ण अनुष्ठानों का वर्णन करते हैं। कश्मीरी ‘गुलराज’ सामान्यत: एक लोक कथा है। मध्य प्रदेश का ‘पंड्याणी’ भी एक कथा है, जिसे संगीतबद्ध कर प्रस्तुत किया जाता है।
4. लोक संगीत -
शास्त्रीय संगीत के अतिरिक्त भारत के पास लोक संगीत या लोकप्रिय संगीत की एक समृद्ध विरासत है। यह संगीत जनभावनाओं को प्रस्तुत करता है। साधरण गीत, जीवन के प्रत्येक घटनाओं को चाहे वह कोई पर्व हो, नई त्रतु का आगमन हो, विवाह या किसी बच्चे के जन्म का अवसर हो, ऐसे उत्सव मनाने के लिए रचे जाते हैं। राजस्थानी लोकसंगीत जैसे मांड़, भाटियाली और बंगाल की भटियाली पूरे देश में लोकप्रिय है। रागिनी हरियाणा का प्रसिद्ध लोक गीत है।लोक गीतों का एक खास अर्थ तथा संदेश होता है। वे अक्सर ऐतिहासिक घटनाओं और महत्त्वपूर्ण अनुष्ठानों का वर्णन करते हैं। कश्मीरी ‘गुलराज’ सामान्यत: एक लोक कथा है। मध्य प्रदेश का ‘पंड्याणी’ भी एक कथा है, जिसे संगीतबद्ध कर प्रस्तुत किया जाता है।
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