कीमत विभेद क्या है कीमत विभेद तभी संभव हो सकता है जबकि बाजार में ये शर्तें पूरी होती है

कीमत विभेद वह स्थिति है जिसमें एक वस्तु को एक से अधिक कीमत पर बेचा जाता है। एक एकाधिकारी कई बार किसी वस्तु की विभिन्न उपभोक्ताओं से या विभिन्न उपयोगों के  लिए अलग-अलग कीमत ले सकता है। एकाधिकारी की इस कीमत नीति को कीमत विभेद (Price Discrimination) कहते हैं

कीमत विभेद वह स्थिति है जिसमें एक विक्रेता किसी एक वस्तु की विभिन्न विक्रेताओं से विभिन्न कीमत लेता है। यह उस समय संभव होता है जब बाजार में कोई प्रतियोगिता नहीं होती तथा विभिन्न विक्रेताओं के लिए वस्तु की माँग की लोच विभिन्न होती है।

कीमत विभेद की परिभाषा

प्रो0 स्टिगलर के अनुसार ‘‘कीमत विभेदीकरण का अर्थ हैं कि तकनीकी दृष्टि से समरूप पदार्थों को इतनी भिन्न-भिन्न कीमतों पर बेचना जो उनकी सीमान्त लागतों के अनुपात से कही अधिक हैं’’

जे.एस.बेंस. के शब्दों में, कीमत विभेद से अभिप्राय विक्रेता की उस क्रिया से है जिसमें कि वह एक ही प्रकार के पदार्थों के लिए विभिन्न विक्रेताओं से विभिन्न कीमतें लेता है।

Price discrimination refers strictly to the practice by a seller to charging different prices from different
buyers for the same goods Q —J.S. Bains

कौतसुयानी के अनुसार, कीमत विभेद वह स्थिति है जिसमें एक वस्तु विभिन्न खरीददारों को विभिन्न कीमतों पर बेची जाती है।

Price discrimination exists when the same product is sold at different prices to different buyers.  Koutsoyiannis

कीमत विभेद के प्रकार

कीमत विभेद मुख्य रूप से चार प्रकार का होता है-

1. व्यक्तिगत कीमत विभेद :
जब एक एकाधिकारी अपनी वस्तु की विभिन्न व्यक्तियों से विभिन्न कीमतें लेता है। उसे व्यक्तिगत कीमत विभेद कहते हैं। जैसे वकील द्वारा अमीर व्यक्तियों से अधिक फीस तथा गरीब व्यक्तियों से कम फीस लेना व्यक्तिगत कीमत विभेद का उदाहरण हैं।

2. भौगोलिक कीमत विभेद: जब एकाधिकारी फर्म घरेलू बाजार में वस्तु की ऊची कीमत और विदेशी बाजार में कम कीमत लेती हैं तो यह भौगोलिक कीमत लेती हैं तो यह भौगोलिक कीमत विभेद का उदाहरण हैं।

3. उपयोग कीमत विभेद: जब एकाधिकारी फर्म एक वस्तु के विभिन्न उपयोगों के लिये विभिन्न कीमतें लेती हैं। जैसे घरेलू उपयोग के लिए बिजली की प्रति इकाई कीमत तथा कृषि व उद्योगों में उपयोग के लिये बिजली की प्रति इकाई कम कीमत ली जाती है। यह उपयोग कीमत विभेद है।

4. समयानुसार कीमत विभेद : जब एकाधिकारी फर्म एक जैसी सेवा के लिये अलग-अलग समय पर अलग-अलग कीमत लेती है। जैसे ट्रनकॉल के रेट (कीमत) दिन में ऊँचे तथा शत में नीचे होते हैं।

कीमत विभेद की श्रेणी

पीगू ने अपनी पुस्तक ‘Economics of Welfare’ में कीमत विभेदीकरण (Price Discrimination) को तीन श्रेणियों में बांटा हैः

1. प्रथम श्रेणी कीमत विभेद : इसमे एकाधिकारी विभिन्न क्रेताओं की कीमत वसूल करता है और इस प्रकार एकाधिकारी प्रत्येक उपभोक्ता से सम्पूर्ण बचत खींच लेता हैं।

2. द्वितीय श्रेणी कीमत विभेद : इसमें एकाधिकारी इस प्रकार से विभिन्न क्रेताओं से कीमत वसूल करता है कि वह उनकी सम्पूर्ण उपभोक्ता की बचत तो नहीं किन्तु उसका एक हिस्सा प्राप्त कर लेता है। भारतीय रेलवे इसी सिद्धांत पर विभिन्न श्रेणीयों के याित्रायो से विभिन्न किराया वसूल करता है।

3. तृतीय श्रेणी कीमत विभेद : इसके एकाधिकारी माँग की लोच के आधार पर अपने क्रेताओं को दो या दो से अधिक समूहों में बाँट देता है। जिस बाजार में माँग कम लोचदार होती है। वहाँ अधिक कीमत तथा जिस बाजार में मांग अधिक लोचदार होती है। वहाँ कम कीमत वसूल की जाती है।

कीमत विभेद की आवश्यक शर्तें 

कीमत विभेद तभी संभव हो सकता है जबकि बाजार में निम्नलिखित शर्तें पूरी होती हैं- 

1. एकाधिकारी शक्ति का अस्तित्व -कीमत विभेद की पहली शर्त यह है कि विक्रेता एकाधिकारी होना चाहिए अर्थात् उसके पास एकाधिकारी शक्ति होनी चाहिए। एकाधिकारी शक्ति के अभाव में विक्रेता कुछ क्रेताओं से दूसरों की तुलना में अधिक कीमत नहीं ले सकता। पूर्ण प्रतियोगी फर्में एक समरूप उत्पाद के लिए विभिन्न कीमतें नहीं ले पाएँगी क्योंकि पूर्ण प्रतियोगिता की परिभाषा के अनुसार बाजार में एक ही कीमत प्रचलित होने की प्रवृत्ति होती है।

2. पृथक बाजार-कीमत विभेद के लिए यह आवश्यक है कि वस्तु के दो या तीन बाजार होने चाहिए जिन्हें एक दूसरे से पृथक किया जा सकता है तथा एकाधिकारी उन्हें पृथक रख सकता है। बाजारों को भौगोलिक दृष्टि से, या ब्रांड के द्वारा, या समय के द्वारा पृथक रखा जा सकता है। व्यक्तिगत सेवाएँ प्रदान करने वाले लोग जैसे डाॅक्टर, वकील, आदि भी एक समान सेवा के लिए विभिन्न कीमतें ले सकते हैं।

3. माँग की लोच में अंतर-कीमत विभेद उस समय संभव होगा जब विभिन्न बाजारों में पाई जाने वाली माँग की लोच विभिन्न होगी। यदि ऐसा होता है तो एकाधिकारी बेलोचदार माँग वाले बाजार में अधिक कीमत निर्धारित करेगा और अधिक लोचदार माँग वाले बाजार में कम कीमत निर्धारित करेगा। ऐसा करने से ही वह अपनी कुल आय को बढ़ा सकता है क्योंकि माँग में परिवर्तन का कोई डर नहीं होगा। यदि भिन्न-भिन्न बाजारों में माँग की लोच एक जैसी हो तो कीमत विभेद करना संभव नहीं हो सकेगा।

4. पुन:बक्री संभावना का अभाव-कीमत विभेद के अस्तित्व के लिए यह आवश्यक है कि उस वस्तु या सेवा का प्रारंभिक क्रेता उसकी पुन:बक्री नहीं कर सके। ऐसा तभी हो सकता है जब एक ओर तो, वस्तु की एक इकाई सस्ते बाजार से महंगे बाजार में हस्तांतरित न हो तथा दूसरी ओर क्रेता महंगे बाजार से सस्ते बाजार में नहीं जा सके, अर्थात् वस्तु की इकाइयों को सस्ते बाजार से महंगे बाजार में हस्तांतरित नहीं होना चाहिए। यदि ऐसा हुआ तो वस्तु कम कीमत के बाजार में खरीदी जाएगी और ऊँची कीमत के बाजार में पुनः बेच दी जाएगी, इससे कीमत का वह अंतर समाप्त हो जाएगा जिसे एकाधिकारी बनाए रखना चाहता है। इसलिए कीमत विभेद के लिए यह आवश्यक है कि कम कीमत वाले बाजार से अधिक कीमत वाले बाजार में वस्तु का हस्तांतरण नहीं होना चाहिए।

लिप्सी के अनुसार, कीमत विभेद करने की योग्यता की मुख्य शर्त यह है कि कम कीमत पर वस्तु प्राप्त करने वाला क्रेता उसकी पुन:बक्री उस क्रेता को नहीं कर सकता जिसे वह वस्तु ऊंची कीमत पर प्राप्त होती है।

क्या कीमत विभेद समाज के लिये हानिकारक होता है या लाभदायक  

कुछ अवस्थाओं में कीमत विभेद समाज के लिये लाभदायक और कुछ अवस्थाओं में कीमत विभेद समाज के लिये हानिकारक हैं।

कीमत विभेद समाज के लिये लाभदायक

  1. यदि कीमत विभेद के कारण किसी वस्तु की कीमत निर्धन वर्ग के लिये नीची रखी जाये और अमीर वर्ग के लिये ऊँची कीमत रखी जाये तो ऐसी अवस्था में कीमत विभेद समाज के लिये लाभदायक होता है।
  2. बहुत-सी जनसाधारण सेवायें ऐसी होती हैं। जो कीमत विभेद की नीति के बिना साधारण लोगों को प्राप्त नहीं होती हैं। जैसे रेलवे सेवा, डॉक्टर की सेवायें आदि।
  3. यदि कीमत विभेद के अन्र्तगत एकाधिकारी अपनी उत्पादन क्षमता का पूर्ण उपयोग करके उत्पादन में वृद्धि करता हैं। तो रोजगार में वृद्धि होगी। जिससे कीमत विभेद समाज के लिये लाभदायक होगा।

कीमत विभेद समाज के लिये हानिकारक

निम्न परिस्थितीयों में कीमत विभेद समाज के लिये हानिकारक होता है।
  1. यदि कीमत विभेद के कारण गरीबों को ऊँची किमतें देनी पड़ती है। तो कीमत विभेद समाज के लिये हानिकारक हैं।
  2. यदि राशिपातन की नीति के कारण एकाधिकारी घरेलू बाजार में ऊंची कीमत लेता है और विदेशी बाजार में कम कीमत लेता है तो कीमत विभेद समाज के लिये हानिकारक होगा।
  3. जब एकाधिकारी जान बुझकर (सोच-समझकर) अपने लाभ अधिकतम करने के लिये वस्तु का उत्पादन कम करता है और कीमत बहुत ऊँची वसूल करता है तो कीमत विभेद हानिकारक होता है।

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