अरविन्द घोष का जन्म 15 अगस्त, 1872 ई0 को कलकत्ता में हुआ। उनके पिता डॉ. कृष्णधन घोष एक सफल चिकित्सक थे और उन पर पाश्चात्य सभ्यता व संस्कृति का प्रभाव कुछ ज्यादा ही था। इसलिए उन्होंने अरबिन्द घोष को भारतीय सभ्यता से दूर रखने के लिए दार्जिलिंग के लोरेंटो कॉन्वेट स्कूल में प्रवेश दिला दिया। दो वर्ष बाद इन्हें इनके अन्य दो भाईयों सहित ब्रिटेन भेज दिया, वहां पर वे 1879 से 1893 तक रहे। इस दौरान उन्होंने अंग्रेजी का गूढ़ ज्ञान प्राप्त किया और फ्रेंच, ग्रीक, जर्मन तथा लैटिन भाषा भी सीख ली। लेकिन अरबिन्द जी ने सिविल सर्विस की बजाय भारतीय स्वतन्त्रता के लिए कार्य करने का मन बनाया। यदि वे चाहते थे तो भारतीय प्रशासनिक सेवा में जा सकते थे, लेकिन उन्होंने भारतमाता की सेवा को अपने जीवन का लक्ष्य बनाया।
अरबिन्द ने बंगाल के विभाजन की घटना का पूरा लाभ उठाया और उन्हें बंगाल में ‘नवगठित राष्ट्रीय महाविद्यालय’ के प्राचार्य का पद संभाला। इसी समय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में लाल-बाल-पाल का वर्चस्व बढ़ने लगा और स्वराज्य सम्बन्धी प्रस्ताव को कांग्रेस ने हरी झण्डी दे दी। इससे उदारवादी नेता चिन्तित हुए और उन्होंने उग्रवादियों को कांग्रेस से बाहर निकालने की योजना बनाई। 1907 के सूरत के कांग्रेस अधिवेशन में उदारवादियों व उग्रवादियों में झगड़ा हो गया और उग्रवादियों ने कांग्रेस छोड़ दी।
इस तरह उनका लालन-पालन तो पाश्चात्य संस्कृति में होता रहा, लेकिन उनके भीतर भारतीय संस्कृति के तत्व उभरते रहे और आगे चलकर अरबिन्द जी राष्ट्रवाद के अग्रदूत व भारतीय आध्यात्मवाद के महान पुजारी सिद्ध हुए।
1893 में इंग्लैण्ड से वापिस लौटकर उन्होंने बड़ौदा रियासत के नरेश स्याजीराव से मुलाकात की। नरेश ने उनकी योग्यता से प्रभावित होकर अपनी रियासत में नौकरी की पेशकश की। अरबिन्द जी ने पेशकश स्वीकार कर ली। उन्होंने रियासत में स्थायी बन्दोबस्त विभाग, स्टाम्प तथा राजस्व विभाग में कार्य किया। कुछ समय तक वे राजा के निजी सचिव भी रहे। बाद में उन्होंने राजा की नौकरी छोड़ दी और बड़ौदा कॉले में फ्रेंच भाषा के प्रोफेसर बन गए और वहीं पर अंग्रेजी भाषा के प्रोफेसर तथा कॉलेज के वाईस प्रिंसिपल भी रहे।इस दौरान उन्होंने प्राचीन भारतीय
साहित्य, धर्म और दर्शन का गहरा अध्ययन किया और रामकृष्ण परमहंस तथा विवेकानन्द के
साहित्य का उन पर गहरा प्रभाव पड़ा। इससे उनके दिल से पाश्चात्य संस्कृति की सारी छाप
हट गई और उनका मानस पटल भारतीयता के रंग में पूरी तरह रंग गया, इस दौरान उन्होंने
‘इन्दू प्रकाश’ पत्रिका के लिए गुप्त लेख लिखे और ये लेख ‘न्यू लैम्स फोर ओल्ड’ (New Lamps
for Old) शीर्षक से प्रकाशित हुए। इन लेखों में उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की उदारवादी
नीतियों की आलोचना की ओर उग्र राष्ट्रवाद का समर्थन किया। लेकिन उसके लेखों पर आपत्ति
उठाई जाने लगी कि उन्हें ऐसे लेख छापने से परहेज करना चाहिए जो उग्रवाद को बढ़ावा देने
वाले हों। इसी दौरान 1905 में बंगाल का विभाजन हो गया और उन्होंने बड़ौदा नरेश की सेवा
का त्याग कर दिया तथा राष्ट्रीय आन्दोलन में सक्रिय भाग लेने लग गए।
अरबिन्द ने बंगाल के विभाजन की घटना का पूरा लाभ उठाया और उन्हें बंगाल में ‘नवगठित राष्ट्रीय महाविद्यालय’ के प्राचार्य का पद संभाला। इसी समय भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में लाल-बाल-पाल का वर्चस्व बढ़ने लगा और स्वराज्य सम्बन्धी प्रस्ताव को कांग्रेस ने हरी झण्डी दे दी। इससे उदारवादी नेता चिन्तित हुए और उन्होंने उग्रवादियों को कांग्रेस से बाहर निकालने की योजना बनाई। 1907 के सूरत के कांग्रेस अधिवेशन में उदारवादियों व उग्रवादियों में झगड़ा हो गया और उग्रवादियों ने कांग्रेस छोड़ दी।
सरकर ने उग्र राष्ट्रवादियों को कुचलने के लिए
दमन की नीति का प्रयोग किया। विपिनचन्द्र पाल और लाला लाजपत राय ब्रिटिश सरकार
की दमन की नीति के शिकार हुए और तिलक को देश निकाला दिया गया। इसलिए अरबिन्द
जी ने स्वयं को अकेला महसूस किया। कुछ समय बाद उनके भाई वरिन्द्र कुमार घोष को
मुजफ्फरपुर के जिलाधीश को मारने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया और कुछ समय
बाद अरबिन्द घोष को भी देश विरोधी गतिविधियों के तहत अलीपुर जेल में डाल दिया गया।
जेल में एक वर्ष रहने के बाद वे बाहर आए तो उनकी सोच बदल चुकी थी, उन्होंने जेल
में ही भगवद्गीता पढ़ ली थी। अब उन्होंने आने वाली हर विपत्ति से बचने के लिए ब्रिटिश
भारत को छोड़ने का निर्णय किया और 4 अप्रैल, 1910 को पांडिचेरी चले गए जो अंग्रेजी शासन
के प्रभाव से मुक्त था।
इसके बाद उनके जीवन का नया अध्याय प्रारम्भ हुआ। उन्होंने योग और अध्यात्मवाद का प्रचार करना शुरू कर दिया। अब वे राजनीति से पूर्ण रूप से संन्यास ले चुके थे। अब उन्होंने राजनीतिक पत्र व्यवहार भी बन्द कर दिया और साधना के प्रति उनका लगाव बढ़ता ही चला गया, उन्होंने पांडिचेरी में एक आश्रम की स्थापना की और योग व आध्यातिमक शक्ति के द्वारा भारत की स्वतन्त्रता के लिए काम करते रहे। यह आश्रम जल्दी ही विश्व के दार्शनिकों और आध्यात्मिक रुचि रखने वालों के आकर्षण का केन्द्र बन गया। उनकी सोच थी कि आध्यात्मिकता के कारण ही भारतवर्ष में मानवता का प्रसार हो सकता है और भारत की स्वतन्त्रता का लक्ष्य योग द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। इस तरह उन्होंने पांडिचेरी में रहकर आध्यात्मिक शक्ति व योग के आधार पर भारत की स्वतन्त्रता को प्रापत करने के लिए एक महान व पुनित कार्य किया।
इसके बाद उनके जीवन का नया अध्याय प्रारम्भ हुआ। उन्होंने योग और अध्यात्मवाद का प्रचार करना शुरू कर दिया। अब वे राजनीति से पूर्ण रूप से संन्यास ले चुके थे। अब उन्होंने राजनीतिक पत्र व्यवहार भी बन्द कर दिया और साधना के प्रति उनका लगाव बढ़ता ही चला गया, उन्होंने पांडिचेरी में एक आश्रम की स्थापना की और योग व आध्यातिमक शक्ति के द्वारा भारत की स्वतन्त्रता के लिए काम करते रहे। यह आश्रम जल्दी ही विश्व के दार्शनिकों और आध्यात्मिक रुचि रखने वालों के आकर्षण का केन्द्र बन गया। उनकी सोच थी कि आध्यात्मिकता के कारण ही भारतवर्ष में मानवता का प्रसार हो सकता है और भारत की स्वतन्त्रता का लक्ष्य योग द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। इस तरह उन्होंने पांडिचेरी में रहकर आध्यात्मिक शक्ति व योग के आधार पर भारत की स्वतन्त्रता को प्रापत करने के लिए एक महान व पुनित कार्य किया।
दुर्भाग्यवश 5 दिसम्बर, 1950 को इस प्रकाण्ड विद्वान, महान दार्शनिक तथा
आध्यात्मिक शक्ति व योग के पुजारी का निधन हो गया। लेकिन उनकी मृत्यु के बाद भी उनका
चिन्तन भारतीय चिन्तन के क्षितिज पर ध्रुव तारे की भांति दैदीप्यमान हो रहा है।
अरविन्द घोष की महत्वपूर्ण रचनाएं
अरबिन्द ने पाण्डिचेरी में एक तपस्वी और योगी का जीवन व्यतीत किया और वहां पर एक आश्रम खोलकर आध्यात्म व योग की शिक्षा दी। इसी स्थान पर उन्होंने अनेक महान ग्रन्थों की रचना की। उनकी प्रमुख रचनाएं हैं-- दिव्य जीवन (The life of Divine)
- गीता रहस्य (The Essays on Geeta)
- योग समन्वय (The Synthesis of Yoga)
- मानव चक्र (The Human Cycle)
- मानव एकता के आदर्श (The Ideal of Human Unity)
- योग के आधार (The Bases of Yoga)
- भारतीय संस्कृति के आधार (A Foundation of Indian Culture)
- सावित्री (Savitri)
- विश्व एक पहेली (The Ridde of the World)
- भारतीय संस्कृति की रक्षा (A Defence of Indian Culture)
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