करारोपण का अर्थ, परिभाषा, सिद्धांत एवं वर्गीकरण

करारोपण का अर्थ

करारोपण एक अत्यन्त प्राचीन अवधारणा है। सरकारों को अपने सार्वजनिक कार्यों को सम्पन्न करने के लिए करारोपण द्वारा अनिवार्य रूप से कुछ धनराशि बसूली जाती है जिसे जनता द्वारा अदा किया जाता है। करारोपण का निर्धारण सरकारों द्वारा मनमाने ढंग से नहीं किया जा सकता है। इसके लिये करारोपण के अनेक सिद्धान्तों का सहारा लिया जाता है लेकिन यह वहाँ की अर्थव्यवस्थाओं की प्रकृति पर निर्भर करता है। एडम स्मिथ, विलियम पेटी, डि-मार्को, डाॅल्टन, मसग्रेव, काॅलवर्ट, वैगनर तथा सैलिगमैन आदि अर्थशास्त्रियों द्वारा करारोपण के लिए अलग-अलग सैद्धान्तिक विचारों का प्रतिपादन किया है। 

करारोपण का वर्गीकरण भी विभिन्न आधारों पर किया गया है। किसी देश की सरकारक अपनी आवश्यकताओं एवं प्राथमिकताओं के आधार पर उनमें से करों का चयन करती है। सामान्य रूप से प्रत्यक्ष कर, परोक्ष कर, एकल कर-बहुकर तथा करों की दर के आधार पर वर्गीकरण को प्राथमिकता दी गयी है। सरकार के कार्यों कीपूर्ति गैर-कर राजस्व से कर पाना सम्भव नहीं होती है इसीलिए सरकाकरों को करारोपण की आवश्यकता होती है। अर्थव्यवस्था को नियंत्रित करने के लिए भी करारोपण का सहारा लिया जाता है।

करारोपण की परिभाषा

सामान्य रूप से करारोपण को कर के ही रूप में परिभाषित किया जाता रहा हे। लेकिन करारोपण तथा कर एक दूसरे के पूरक रूप में ही हैं। प्रथमत: आपको कर की अवधारणा को स्पष्ट किया जाय। कर जनता पर लगाया गया वह अनिवार्य भुगतान है जिसे सरकार द्वारा अनिवार्य रूप से एकत्रित किया जाता है तथा उसे सार्वजनिक कार्यों पर सामान्यत: व्यय कर दिया जाता है।

1. डॉल्टन के अनुसार, ‘‘कर किसी सार्वजनिक सत्त द्वारा लगाया गया एक अनिवार्य अंशदान है भले ही इसके बदले में करदाताओं को उतनी सेवाएँ प्रदान की गयी हों अथवा नहीं। यह किसी कानूनी अपराध के दण्डस्वरूप नहीं लगाया जा सकता।’’

2. बेस्टेबिल (Bastable) के शब्दों में कर को निम्न प्रकार परिभाषित किया गया है, ‘‘कर किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह की सम्पत्ति का वह भाग होता है जो सार्वजनिक सेवाओं को चलाने के लिए अनिवार्य रूप से बसूल किया जाता है।’’

3. अर्थशास्त्री शिराज ने भी कर को निम्नवत स्पष्ट किया है, ‘‘कर सार्वजनिक अधिकारियों द्वारा बसूल किया जाने वाला वह अनिवार्य भुगतान है जो सार्वजनिक भलाई के खर्च को पूरा करने के लिए लिया जाता है और उसका किसी विशेष लाभ से कोई सम्बन्ध नहीं होता है।’’ कर की अवधारणा को स्पष्ट करके आपको करारोपण की अवधारणा को समझने में कठिनाई नहीं होगी।

करारोपण के सिद्धांत

  1. करारोपण के मुख्य सिद्धांत, 
  2. करारोपण के न्याय सम्बन्धी सिद्धांत तथा 
  3. करारोपण के अन्य सिद्धांत।

1. करारोपण के मुख्य सिद्धांत

करारोपण के मुख्य सिद्धांतों के अन्तर्गत उन सिद्धांतों का अध्ययन करेंगे जिनको करारोपण के समय मुख्य रूप से ध्यान में रखा जाता है। ये मुख्य सिद्धांत निम्नवत रूप से स्पष्ट किये जा सकते हैं :-

1. एडम स्मिथ के करारोण के सिद्धांत : 1776 में प्रकाशित पुस्तक ‘राष्ट्रों के धन के स्वरूप एवं कारणों की खोज’ (An Enquiry into the Nature and Causes of Wealth of Nations) में एडम स्मिथ ने जिन सिद्धांतों का प्रतिपादन किया वे निम्नवत् हैं :- 

(i) निश्चितता का सिद्धांत (Canon of Certainty) : एडम स्मिथ के ही शब्दों में, ‘‘प्रत्येक व्यक्ति को जो कर देना है, वह निश्चित होना चाहिए मनमानापन नहीं। भुगतान का समय, भुगतान की जाने वाली राशि, करदाता तथा प्रत्येक अन्य व्यक्ति को स्पष्ट होना चाहिए।’’ यह सिद्धांत इस तथ्य को स्पष्ट करता है कि करारोपण के द्वारा सरकार एवं करदाता दोनों में से किसी को कोई असुविधा का सामना न करना पड़े। कर की राशि, समय, तथा अन्य महत्वपूर्ण् तथ्य स्थिर तथा स्पष्ट हो ताकि कर के संग्रहण में अनावश्यक विवादों से बचा जा सके। कर देने वाले एवं कर लेने वाले दोनों को कर के बारे में पूर्ण एवं स्पष्ट जानकारी होनी चाहिए। यह सिद्ध करदाता एवं करारोपण करने वाली संस्था या सत्ता दोनों के एि ही अत्यन्त लाभदायक माना गया है। कर सम्बन्धी निश्चितता होने पर करदाता को समय से पूर्ण करक चुकाने में अनावश्यक परेशानी का सामना नहीं करना पड़ता है।

(ii) समानता का सिद्धांत (Canon of Equality) : करारोपण के इस सिद्धांत को स्पष्ट करते हुए लिखा है, ‘‘प्रत्येक राज्य की प्रजा को सरकार के लालन-पालन के लिए, जहाँ तक सम्भव हो, अपना अंशदान अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार देना चाहिए अर्थात् उस आय के अनुपात में जिसका आनन्द वे राज्य की संरक्षता में प्राप्त करते हैं।’’ यह सिद्धांत स्पष्ट करता है कर देने वाले व्यक्ति पर अनावश्यक या आवश्यकता से अधिक करारोपण नहीं करना चाहिए। राज्य का संरक्षण से प्राप्त लाभों के आधार पर ही करारोपण का आकार निश्चित होना चाहिए। इस सिद्धांत में राज्य की संरक्षता तथा कर की मात्रा के मध्य सम्बन्ध को स्पष्ट करना एक कठिन कार्य है। इसके साथ कर पर प्रतिफल की बाध्यता लागू करने के सम्बन्ध में भी यह सिद्धांत न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता है। देश में गरीब, बेरोजगार, बीमार व्यक्ति राज्य की संरक्षता के अनुपात में कर का भुगतान करने में समर्थ नहीं कहे जा सकते हैं। 

(iii) मितव्ययिता का सिद्धांत (Canon of Economy) : एडम स्मिथ के इस सिद्धांत को शुद्ध आर्थिक सिद्धांत कहा जा सकता है। एडम स्मिथ के अनुसार, ‘‘प्रत्येक कर इस तरह लगाया और बसूल किया जाना चाहिए कि उसके द्वारा सरकारी कोष में जितना द्रव्य आये उससे बहुत अधिक मात्रा में जनता की जेब से द्रव्य न निकाला जाय, अथवा जनता द्वारा दिये जाने वाले कर का सरकारी कोष में आने वाली रकम से आधिक्य न्यूनतम हो।’’ इस सिद्धांत की वास्तविकता में जाने पर आप समझेंगे कि सरकार के पास अत्यधिक मात्रा में करारोपण से प्राप्त राशि अनावश्यक नहीं आनी चाहिए अन्यथा उस राशि का प्रयोग पूर्ण कुशलता के साथ नहीं हो सकेगा। यह सिद्धांत सरकार की कार्यकुशलता पर नियंत्रण रखने पर ध्यान देता है।

(iv) सुविधा का सिद्धांत : इस सिद्धांत के अनुसार करदाता को कर देने में किसी भी प्रकार की असुविधा नहीं होनी चाहिए। यह करदाता को कर के भुगतान में किसी भी प्रकार की असुविधा होने पर करदाता को कर का भार अधिक सहना पड़ता है। एडम स्मिथ के अनुसार, ‘‘प्रत्येक कर ऐसे समय और इस ढंग से लगाया जाय कि करदाता को भुगतान की सुविधा हो। प्राय: देखा जा सकता है कि प्रत्येक करदाता कर का सुविधाजनक रूप से भुगतान करना चाहता है।’’

(v) लोच का सिद्धांत : अर्थव्यवस्थाओं के विकास एवं प्रकृति के अनुसार लोच का सिद्धांत अत्यन्त उपयोगी तथा महत्वपूर्ण रूप में देखा जा सकता है। अर्थव्यवस्थाओं की आवश्यकताओं के अनुरूप सरकारें करारोपण में आवश्यक परिवर्तन कर सकती हैं। ताकि देश में आर्थिक संकट का सामना न करना पड़े। कर प्रणाली में लोच की कमी के कारण करदाता एवं सरकार दोनों को ही अनेक समस्याओं का सामना करना पड़ता है।

(vi) उत्पादकता का सिद्धांत : इस सिद्धांत के अनुसार कर प्रणाली इस प्रकार की हो ताकि अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले प्रभाव उत्पादकता बढ़ाने वाले हों। कर प्रणाली का सम्बन्ध केवल कर देने एवं कर एकत्रित करने तक ही सीमित नहीं रह जाता है बल्कि कर प्रणाली एक अर्थव्यवस्था का केन्द्र बिन्दु होता है। कर एकत्रण की लागत पर कर प्राप्त की राशि आधिक्य होने पर भी उत्पादकता के रूप में देखा जाता है। इसके साथ उत्पादकता का सिद्धांत भविष्य में करारोपण की प्रवृत्ति में वृद्धि बनाये रखने पर जोर देता है। यह सिद्धांत उत्पादकों की उत्पादन वृद्धि, आय एवं बचत में वृद्धि की प्रवृत्ति, एवं उपभोग पर भी सकारात्मक प्रभाव डालता है।

(vii) विविधता का सिद्धांत : करारोपण का विविधता का सिद्धांत वर्तमान में गतिशील अर्थव्यवस्थाओं में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। सरकारें करारोपण के लिए केवल किसी एक मद पर ही निर्भर नहीं रह सकती हैं क्योंकि एक स्रोत से सरकार के क्रियाकलापों के लिए वित्त की पूर्ण व्यवस्था नहीं की जा सकती है। इस सिद्धांत के अनुसार कर प्रणाली में अनेक प्रकार के कर होने चाहिए जिन्हें जनता की आर्थिक स्थिति के अनुसार अलग-अलग व्यक्तियों एवं वस्तुओं पर लगाया जा सके। इससे करारोपण काक प्रभाव समस्त अर्थव्यवस्था पर फैलाने में सहायता मिलती है। एक कर प्रणाली से अर्थव्यवस्था का कुछ क्षेत्र कर प्रणाली से बाहर ही रह जायेगा और सरकार के लिए एक नई समस्या पैदा होगी।

2. करारोपण के न्याय सम्बन्धी सिद्धांत

समय-समय पर अर्थशास्त्रियों द्वारा जनता के साथ आर्थिक रूप से न्याय बनाये रखने के लिए अनेक प्रयास किये गये हैं। न्याय सम्बन्धी अनेक सिद्धांतों का भी प्रतिपादन किया गया है जो मुख्य रूप से हैं :-

1. कर देय योग्यता सिद्धांत : करारोपण के मुख्य एवं बहुत पुराने कर देय योग्यता सिद्धांत (Ability ot pay theory) का प्रतिपादन 16वीं शताब्दी में जॉन बोर्डिन और 18वीं शताब्दी में बिलियम पेटी और एडम स्मिथ ने किया था। इस सिद्धांत के सम्बन्ध में एडम स्मिथ का यह कथन अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि, ‘‘प्रत्येक राज्य की जनता को राज्य की सहायता हेतु अपनी योग्यतानुसार अनुपात में अंशदान करना चाहिए अर्थात् उस आय के अनुपात में देना चाहिए जो कि वे राज्य के संरक्षण में प्राप्त करते हैं।’’ इस सिद्धांत के अनुसार व्यक्ति की कर देने की योग्यता का निर्धारण करके करारोपण करना चाहिए ताकि वह उस कर का भुगतान आसानी से कर सके। यहाँ पर यह अत्यन्त साधारण सत्य है कि निर्धन वर्ग के व्यक्तियों की कर देने की क्षमता या योग्यता कम होती है। अत: निर्धनों पर कर का आरोपण करके कम मात्रा में अंशदान लिया जाय। इसके विपरीत धनीवर्ग के व्यक्तियों की कर देने की योग्यता अधिक होती है। 

अत: धनी वर्ग पर करारोपण द्वारा अधिक मात्रा में कर का अंशदान प्राप्त किया जाना चाहिए। इसी लिए सरकार द्वारा शासन को कुशलतापूर्ण चलाने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को अपनी क्षमताओं के अनुसार अंशदान कर देना चाहिए या सरकार द्वारा बसूला जाना चाहिए। कर देय योग्यता के निर्धारण के लिए भावनात्मक तथा आन्तरिक दृष्टिकोणों की सहायता की आवश्यकता होती है।

2. सेवा लागत सिद्धांत : यह आपको विदित है कि लोक सत्तायें सार्वजनिक कार्यों का निष्पादन करती हैं तथा समाज के कल्याण में वृद्धि के लिए निरन्तर प्रयासरत रहती हैं। समाज कल्याण में वृद्धि करने के लिए सार्वजनिक कार्यों के निष्पादन पर सरकारों या लोकसत्ताओं को एक निश्चित लागत उठानी पड़ती है जिसे अपने देश के नागरिकों से ही बसूला जा सकता है क्योंकि ये सत्तायें इन्हीं नागरिकों के कल्याण के प्रयास करती हैं। यह सिद्धांत यह स्पष्ट करता है कि समाज की सेवा पर आने वाली या उठायी जाने वाली लागत के बराबर समाज द्वारा सत्ताओं को कर दिये जाने चाहिए। 

सेवा लागत के सिद्धांत के सम्बन्ध में डॉल्टन ने लिखा है कि, ‘‘सेवा लागत का सिद्धांत डाक सेवाओं, विद्युतधारा आदि की पूर्ति पर लागू किया जा सकता है। इन सेवाओं की कीमत इस सिद्धांत के आधार पर निर्धारित की जा सकती है।’’ प्रो0 ब्यूहलर ने इस सिद्धांत के विषय में स्पष्ट किया है कि, ‘‘अनेक लेखकों का सुझाव है कि करों को सरकार द्वारा प्रदान की गयी सेवाओं की लागत के आधार पर ही लगाया जाना चाहिए। वह भी शायद इस आधार पर कि नागरिकों को सरकारी सेवाओं को चुनने या रद्द करने की पूर्ण स्वतंत्रता होनी चाहिए।’’ यहाँ आपको स्पष्ट होना चाहिए कि एक तरफ कर को अदा करने पर प्रतिफल की आशा नहीं करनी चाहिए वहीं यह सिद्ध कर अदा करने पर सेवा प्राप्त करने की कीमत पर आधारित किया गया है। जो वास्तव में करारोपण का सिद्धांत न होकर शुल्क आरोपण के रूप में देखा जा सकता है। यह सिद्धांत सेवाओं को प्राप्त न करने वालों पर करारोपण न करने की बात भी स्वीकार करता है।

2. अधिकतम कल्याण का सिद्धांत : करारोपण व्यवस्था में कल्याण आधारित इस सिद्धांत को एजवर्थ तथा पीगू ने अत्यन्त ही महत्वपूर्ण माना। इस सिद्धांत के अनुसार करारोपण की व्यवस्था इस प्रकार तय की जाय कि व्यक्तियों का अधिकतम कल्याण हो सके। एजवर्थ के अनुसार, ‘‘करारोपण की नीति को समान सीमान्त त्याग पर आधारित करने के उपरान्त ही समाज को अधिकतम कल्याण प्राप्त हो सकता है।’’ इसी सम्बन्ध में पीगू ने एक तथ्य को इस प्रकार स्पष्ट किया कि, ‘‘सभी इस बात से सहमत हैं कि सरकार की क्रियाओं का नियमन इस प्रकार से होना चाहिए कि उसके नागरिकों का कल्याण अधिकतम हो। यही सरकार की सम्पूर्ण कानूनी प्रक्रिया की कसौटी है और करारोपण के क्षेत्र में यही न्यूनतम त्याग का सिद्धांत है।’’ इस सिद्धांत को इस अवधारणा पर आधारित किया गया है कि जैसे-जैसे व्यक्ति की आय में वृद्धि होती जाती है, त्यों-त्यों व्यक्ति को मिलने वाली आय की सीमान्त उपयोगिता घटती जाती है। इसीलिए बढ़ी हुई आय पर घटती दर से करारोपण किया जाना चाहिए। 

पीगू ने स्पष्ट किया कि न्यूनतम त्याग के लिए यह आवश्यक है कि करदाताओं द्वारा भुगतान की गयी द्रव्य की सीमान्त उपयोगिता समान होनी चाहिए। डॉल्टन तथा मसग्रेव ने भी अधिकतम कल्याण के सिद्धानत से सम्बन्धित न्यायपूर्ण वितरण की समस्या को समान सीमान्त त्याग तथा समान सीमान्त कल्याण की तुलना करके हल करने का प्रयास किया। करारोपण से अधिकतम कलयाण की स्थिति को उस समय प्राप्त किया जा सकता है जब सरकार द्वारा प्रत्येक मद पर किये गये व्यय से समाज को समान सीमान्त कल्याण प्राप्त हो तथा करारोपण से जनता को होने वाला सीमान्त त्याग समान हो।

4. आय सिद्धांत : करारोपण के आय सिद्धांत का प्रतिपादन इटली के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री डि मार्को द्वारा किया गया। इस सिद्धांत को मनोवैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित किया गया है। यह सिद्धांत प्रत्येक व्यक्ति की आय के अनुपात के आधारपर करारोपण करने पर जोर देता है। डि मार्को के अनुसार, ‘‘जितनी अधिक आय एक व्यक्ति की होती है, उसे उतना ही अधिक कर देना चाहिए, क्योंकि उतनी ही अधिक सेवाओं का उपयोग उसने किया है। अत: धीन व्यक्ति अधिक तथा निर्धन व्यक्ति कम कर देगा। इस प्रकार करों का निर्धारण आय के अनुपात में किया जाना चाहिए।’’ यह सिद्धांत पूर्ण रूप से आय कर से सम्बन्धित किया गया है यदि सम्पूर्ण कर व्यवस्था के लिए आय को आधार बनाया जाय तो अर्थव्यवस्था का संचालन के लिए सरकार की वित्त व्यवस्था अत्यन्त संकुचित रूप में ही रह जायेगी तथा अन्य क्षेत्र करारोपण से बाहर ही रह जायेंगे।

5. वित्तीय सिद्धांत : करारोपण का वित्तीय सिद्धांत कॉलबर्ट के कथन ‘बत्तख को इस प्रकार नोचों कि वह कम से कम शोर मचाये’’ पर आधारित है। प्राचीन काल में सरकारों के सम्मुख मुख्य समस्या अपनी व्यवस्थाओं के लिए अधिक से अधिक मात्रा में आय अर्जित करने की थी न कि जनता के कल्याण में वृद्धि करने या आर्थिक स्थिरता की। इसीलिए इस सिद्धांत के अनुसार सरकार को करारोपण के द्वारा अधिकाधिक पर्याप्त आय प्राप्त हो जानी चाहिए। वर्तमान में सरकारों के सामने आय प्राप्त के साथ समाज के कल्याण एवं त्याग के साथ अर्थव्यवस्था में समान वितरण सम्बन्धी समस्यायें उपस्थित रहती हैं।

3. करारोपण के अन्य सिद्धांत

करारोपण के अन्य सिद्धांतों में एडोल्फ बैगनर (Adolph Wagner) द्वारा प्रतिपादित सामाजिक-राजनैतिक सिद्धांत, सैलिगमैन के हितप्राप्ति सिद्धांत को भी शामिल किया गया है।

सामाजिक राजनैतिक सिद्धांत का प्रतिपादन इस आधार पर कया गया कि करों काक चुनाव सामाजिक तथा राजनैतिक उद्देश्यों के आधार पर किया जाना चाहिए। व्यक्तिगत उद्देश्यों के आधार पर किसी समस्या का समाधान नहीं हो सकता है। वैगनर के अनुसार सम्पत्ति एवं उत्तराधिकार का संरक्षण सरकार द्वारा ही सम्भव हो सकता है। हित प्राप्ति सिद्धांत के अनुसार सरकार द्वारा समाज को अनेक सामाजिक प्रशासनिक सेवायें उपलब्ध करायी जाती हैं और समाज के जीवन, धन एवं सम्पत्ति की रक्षा भी सरकार के हस्तक्षेप के बिना सम्भव नहीं है। अत: इस सेवाओं की लागत के बदले उन्हें कर का भुगतान सरकाकर को करना ही चाहिए तथा यह वित्तीय भार सेवाओं की प्राप्ति के अनुपात में ही वहन किया जाना चाहिए।

करारोपण का वर्गीकरण

करारोपण से सम्बन्धित विभिन्न अर्थशास्त्रियों में सिद्धानतों का अध्ययन करने के बाद आपको यह समझना अतयन्त आवश्यक है कि करारोपण का वर्गीकरण किस प्रकार किया गया है।
  1. प्रत्यक्ष कर तथा परोक्ष कर
  2. एकल एवं बहुकर प्रणाली
  3. करों की दर की स्थिति के आधार पर वर्गीकरण
  4. विशिष्ट कर एवं मूल्यानुसार कर
  5. लोक सत्ताओं के आधार पर कर-केन्द्रीय कर, राज्यीय कर, स्थानीय कर
  6. अन्य वर्गीकरण
करों के उक्त वर्गीकरणों के अन्तर्गत निर्धारित किये जाने वाले करों की विस्तृत व्याख्या के आधार पर आप इन वर्गीकरणों के बारे में भली-भाँति समझ सकेंगे।

1. प्रत्यक्ष कर तथा परोक्षकर - एक लम्बे समय से अर्थशास्त्रियों में विवादास्पद विषय रहा है कि किन करों को प्रत्यक्ष कर माना जाय तथा किन करों को परोक्षकर की श्रेणी में रखा जाय। डॉल्टन ने प्रत्यक्ष तथा परोक्ष करों के विषय में लिखा है कि, ‘‘एक प्रत्यक्ष कर वास्तव में उसी व्यक्ति द्वारा दिया जाता है जिस पर वैधानिक रूप से वह लगाया जाता है जबकि अप्रतयक्ष कर एक व्यक्ति पर लगाया जाता है तथा सम्पूर्ण या आंशिक रूप से वह अन्य व्यक्ति द्वारा भुगतान किया जाता है, जो अनुबन्ध एवं सौदा करने की शर्तों के परिणाम स्वरूप ऐसा होता है।’’

जे0एस0 मिल ने प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष करों के बारे में लिखा है कि, ‘‘एक प्रत्यक्ष कर वह हे जो उसी व्यक्ति से माँगा जाता है जो उसे भुगतान करने की इच्छा या इरादा रखे और एक अप्रत्यक्ष कर वह है जो एक व्यक्ति से इस आशा एवं इच्छा से माँगा जाता है कि वह दूसरे की लागत पर इसकी क्षतिपूर्ति कर लेगा।’’

सामान्य तौर पर कर आघात तथा कर आयतन के आधार पर ही करों को प्रत्यक्ष तथा परोक्ष करों की श्रेणी में रखा गया है। प्रत्यक्ष करों के आरोपण पर कराघात एवं कर का आपतन एक ही इकाई या व्यक्ति पर पड़ता है जबकि परोक्ष करों के आरोपण की स्थिति में कराघात तथा कर का आयतन अलग-अलग इकाइयों या व्यक्तियों पर पड़ता है। इस प्रकार प्रत्यक्ष करारोपण के अन्तर्गत कर विवर्तन नहीं पाया जाता जबकि परोक्ष करारोपण की स्थिति में कर का विवर्तन किया जाता है। इस प्रकार आय, व्यय, धन, सम्पत्ति, उपहार, उत्तराधिकार, पूँजी आय, ब्याज आदि पर करारोपण प्रत्यक्ष कर की श्रेणी में आता है। उत्पादन शुल्क, बिक्रीकर, सीमा शुल्क आदि को परोक्ष कर की श्रेणी में रखा जाता है।

2. एकल एवं बहुकर प्रणाली - सामान्य रूप एकल करारोपण की स्थिति में कर प्रणाली के अन्तर्गत केवल एक ही कर अस्तित्व में पाया जाता है। साधारण जीवन की अर्थव्यवस्था में इस कर प्रणाली को अपनाया जा सकता है जिसमें एक ही कर से अर्थव्यवस्था संचालन के लिए वित्त की व्यवस्था आसानी से हो सके।

लेकिन अर्थव्यवस्थाओं के विकास एवं अनेक जटिलताओं के चलते एकल कर प्रणाली से काम चलने वाला नहीं है। इस कर प्रणाली से न तो सरकार सभी को कर सीमा में ला सकती है और न ही सार्वजनिक कार्य पूर्ति के लिए पर्याप्त मात्रा में राजस्व की आपूर्ति को जुटा पा सकती है।

बहुकर प्रणाली के अन्तर्गत एक ही कर प्रणाली में एक साथ एक से अधिक कर अस्तित्व में पाये जाते हैं। इस कर प्रणाली में अधिकांशत: सभी को किसी न किसी कर की सीमा में लाया गया है तथा सरकार के लिए सार्वजनिक कार्यों की पूर्ति के लिए पर्याप्त मात्रा में राजस्व को जुटाया जा सका है। बहुकर प्रणाली से कर प्रणाली के अन्तर्गत पैदा होने वाली अनेक समस्याओं को हल किया जा सकता है।

एकल कर प्रणाली में अर्थव्यवस्था में आवश्यकतानुसार सुधारों की सम्भावनायें समाप्त हो जाती हैं तथा अर्थव्यवस्था में स्थिरता या ठहराव की स्थिति पैदा हो जाती है। इसके साथ बहुकर प्रणाली में लोचता की अधिकता के कारण अर्थव्यवस्था की आवश्यकताओं के अनुसार आवश्यक परिवर्तन किये जा सकते हैं।

3. करों की दर की स्थिति के आधार पर कर - आपको यहाँ पर ध्यान देना होगा कि करों की दरों की स्थिति में अन्तर के आधार पर करों को अनेक रूपों में रखा जा सकता है।

1. आनुपातिक कर (Proportional Tax) : आनुपातिक कर प्रणाली के अन्तर्गत सभी प्रकार की आय वाली इकाईयों एवं व्यक्तियों पर एक ही दर से कर लगाया जाता है। आय में वृद्धि होने पर कर राजस्व में वृद्धि होती है। आय में वृद्धि की दर तथा कर राजस्व में वृद्धि की दर समान पायी जाती हैं यदि एक आय स्तर 1000 करोड़ रुपये पर 10 प्रतिशत की दर से कर लगाने पर 100 करोड़ रूपया का राजस्व प्राप्त होगा। परन्तु आय स्तर 10000 करोड़ रूपये होने पर भी कर 10 प्रतिशत की दर से ही लगाया जायेगा तथा कर राजस्0 की राशि 1000 करोड़ रूपये होगी।

2. प्रगतिशील कर (Progressive Tax) : प्रगतिशील कर प्रणाली में आय के स्तर में वृद्धि होने पर कर की दर में भी वृद्धि हो जाती है। 

3. प्रतिगामी कर (Regressive Tax) : इस प्रणाली के अन्तर्गत प्रगतिशील करक प्रणाली की विपरीत दिशा में कर की दरें निश्चित की जाती हैं। प्रारम्भ में आय स्तर पर कर की दर उच्च पायी जाती हैं जैसे-जैसे आय का स्तर बढ़ता जाता है कर की दर घटती जाती है।

4. अधोगामी कर (Degressive Tax) : अधोगामी कर प्रणाली में प्रारम्भिक आय स्तर से आय में वृद्धि होने पर कर की दरें बढ़ती जाती हैं लेकिन एक स्तर के बाद आय वृद्धि होने पर कर की दर बढ़ायी नहीं जाती हैं। इस सीमा के बाद कर की दर समान हो जाती हैं जैसे 100000 रू0 की आय पर 8 प्रतिशत की दर, रू0 200000 रू0 पर 10 प्रतिशत की दर तथा रू0 400000 की आय पर 15 प्रतिशत की दर से कर लगेगा लेकिन 400000 रू0 से ऊपर आय वृद्धि पर कर की दर 15 प्रतिशत ही रहेगी। यह कर प्रगतिशील तथा प्रतिगामी कर प्रणाली की संयुक्त विशेषताओं के आधार पर व्युत्पन्न किया गया है।

4. विशिष्ट कर एवं मूल्यानुसार कर - विशिष्ट कर वे कर कहलाते हैं जिन्हें किसी वस्तु के भार आकार या इकाईयों की संख्या के आधार पर लगाया जाता है, जबकि मूल्यानुसार कर वह कर है जिसे वस्तु के मूल्य के आधार पर लगाया जाता है। सामान्य रूप से मूल्यानुसार कर को अधिक महत्व दिया जा रहा है।

5. लोक सत्ताओं के आधार पर कर - लोक सत्ताओं के अधिकार के आधार पर करों को निम्न रूपों में विभाजित किया जा सकता है -
  1. केन्द्रीय सरकार के कर : जो कर किसी देश की केन्द्रीय सरकार द्वारा लगाये जाते हैं जैसे भारत में आय कर जो देश की संघीय सरकार द्वारा लगाया जाता है।
  2. राज्य सरकार के कर : किसी देश के अन्दर वहाँ की अलग-अलग राज्य सरकारों द्वारा लगाये जाने वाले कर इस श्रेणी में आते हैं, जैसे भारत में कृषि तथा मनोरंजन कर आदि राज्यों की सरकारों द्वारा लगाये जाते हैं।
  3. स्थानीय कर : ये कर स्थानीय सरकारों जैसे - नगर निगम, पंचायत द्वारा लगाये जाते हैं जैसे पथकर, गृहकर, जलकर आदि।
6. अन्य वर्गीकरण - करों के अन्य वर्गीकरणों में व्यक्ति कर तथा वस्तु कर, अस्थायी तथा स्थायीकर एवं सम्पत्ति कर तथा वस्तुकर (Tax on Propety and Tax on Commodity) को भी शामिल किया गया है।

करारोपण की आवश्यकता

आपको इस बिन्दु के अन्तर्गत यह समझ में आ जायेगा कि किसी राजसत्ता या सरकार को करारोपण की आवश्यकता क्यों पड़ती है। क्या अन्य साधनों से करारोपण से प्राप्त राजस्व की भरपाई नहीं की जा सकती। किसी अर्थव्यवस्था में सरकार द्वारा करारोपण की आवश्यकता को इन बिन्दुओं के आधार पर स्पष्ट किया जा सकता है।
  1. सरकार के लिए सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता अपने सामाजिक कार्यों के लिए किये जाने वाले व्यय की पूर्ति के लिए आय प्राप्त करना निर्धारित की गयी। यह आवश्यकता अत्यन्त ही प्राचीन तथा सार्वभौमिक रूप में देखी गयी है।
  2. विकास के दौर में सरकारों के सामने एक अन्य चुनौती स्वयं की अर्थव्यवस्थाओं को संतुलित स्तर पर चलाने की रही है। अर्थव्यवस्थाओं के नियमन एवं नियन्त्रण के लिये सरकारों द्वारा करारोपण का सहारा लिया गया है। व्यापारिक चक्रों की स्थिति, विदेशी प्रभाव आदि से बचने के लिए भी करारोपण को एक उपकरण के रूप में अपनाया जाने लगा है।
  3. समाज में व्याप्त अनेक विसंगतियों को दूर करने के लिए भी करारोपण पद्धति का सहारा समय-समय पर सरकारें लेती रही हैं। धन के असमान वितरण की समस्या का सामना करने वाली अर्थव्यवस्थाओं के लिए करारोपण की भूमिका और अधिक बढ़ जाती हैं।
संदर्भ -
  1. J.C. (1997), Revenue (Public Finance), Sahitya Bhavan Publications, Agra.
  2. Pant, J.C. (2005), Revenue (Public Finance), Twelfth Edition, Laxminarayan Agarwal, Publisher and Seller, Anupam Plaza, Sanjay Place, Agra.
  3. Bhatia H.L. (2008), Public Finance, Vikas Publishing House Pvt. Ltd., Jangpura, New Delhi.

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