लोक वित्त का अर्थ, परिभाषा, क्षेत्र, प्रकृति एवं महत्व

लोकवित्त अथवा राजस्व अर्थशास्त्र की वह शाखा है जो सरकार के आय-व्यय का अध्ययन करती है। राजस्व को लोकवित्त के पर्यायवाची शब्द के रूप में किया जाता है। राजस्व, संस्कृत भाषा का शब्द है जो दो अक्षरों-’राजन + स्व’ से मिलकर बना है जिसका अर्थ होता है।- ‘राजा का धन’। राजनैतिक दृष्टि से राजा को समाज एवं क्षेत्र विशेष को प्रतिनिधित्व करने वाला मुखिया माना जाता है। इस तरह सरल शब्दों में राजस्व का अर्थ ‘राजा के धन’ या राजनैतिक दृष्टिकोण से ‘मुखिया के धन’ से होता है जिसके अनतर्गत यह अध्ययन किया जाता है कि राजा धन को कहाँ से तथा किस प्रकार प्राप्त करता है तथा उस धन को किस प्रकार व्यय करता है।

अंग्रेजी में व्यक्त किया गया ‘Public Finance’ भी दो शब्दों Public और Finance से मिलकर बना है। जिसका अर्थ है ‘जनता का वित्त’ अथावा ‘सार्वजनिक वित्त’। परन्तु हम लोक वित्त अथवा राजस्व के अतर्गत जनता के वित्त का अध्ययन नहीं करते बल्कि जनता का प्रतिनिधित्व करने वाली संख्या ‘राज्य’ अथवा सरकार की वित्तीय व्यवस्थाओं का अध्ययन करते है।

लोक वित्त को विभिन्न देशों की भाषाओं में विभिन्न नामों से पुकारा जाता है यथा, जर्मनी में इसे ‘Finanzwissenschaft’ है जिसका अर्थ है वित्त का विज्ञान, फ्रांस में इसके लिए ‘Science des finances’ शब्द का प्रयोग किया जाता है। तथा इटली में इसे ने नाम से जाना जाता है। इन शब्दों को सार्वजनिक आय एवं व्यय के प्रबंध के रूप में प्रयोग किया जाता है।

लोक वित्त की परिभाषाएँ

1. डॉ0 डाल्टन (Dalton) के अनुसार, ‘‘लोकवित्त उन विषयों में से एक है जो अर्थशास्त्र एवं राजनीति शास्त्र की सीमा रेखा पर स्थित है। इसका सम्बन्ध लोकसत्ताओं के आय-व्यय तथा उनके पारस्परिक समायोजन और समन्वय से है।

2. प्रो0सी0एफ0 बैस्टेल (Bastable) के अनुसार, ‘‘लोकवित्त राज्य की लोकसत्ताओं के आय-व्यय, उनके पारस्परिक सम्बन्ध, वित्तीय प्रशासन एवं नियंत्रण का अध्ययन करता है।’’

3. प्रो0 फिण्डले सिराज (Findlay shirras) के अनुसार, ‘‘लोकवित्त के अंतर्गत लोक सत्ताओं के कोशो में वृद्धि एवं व्यय से संबधित सिद्धान्तों का अध्ययन किया जाता है।’’

4. लुट्ज (Lutz) के अनुसार, ‘‘ लोकवित्त उन साधनों की व्यवस्था, सुरक्षा तथा वितरण का अध्ययन करता है जिनकी सार्वजनिक अथवा सरकारी कार्यों को चलाने के लिए आवश्यकता पड़ती है’’

5. कार्ल प्लेहन (Plehan) के अनुसार, ‘‘ लोकवित्त वह विज्ञान है जो राजनितिज्ञों की उन क्रियाओं का अध्ययन करता है जिनके द्वारा वे राज्य के कर्तव्यों को पूरा करने के लिए आवश्यक भौतिक साधनों को प्राप्त करते है तथा उन साधनों का प्रयोग करते है।’’

6. आर्मिटेज स्मिथ (Armitage Smith) के अनुसार, ‘‘राजकीय व्यय तथा राजकीय आय की प्रकृति एवं सिद्धान्तों की व्याख्या को लोक वित्त कहा जाता है।’’

7. श्रीमती उर्सुला के.हिक्स (U.K. Hicks) के अनुसार, ‘‘लोक वित्त का मुख्य विषय उन विधियों का निरीक्षण एवं मूल्यांकन करना है जिनके द्वारा सरकारी संस्थाएँ आवश्यकताअें की सामूहिक संतुष्टि करने का निरक्षण करती है और अपने उद्येश्यों की पूर्ति के लिए आवश्यक कोश प्राप्त करती है।’’

8. प्रो0 मसग्रेव (Musgrave) के अनुसार, ‘‘वे जटिल समस्याएँ जो सरकार की आय-व्यय प्रक्रिया के इर्द-गिर्द केन्द्रित रहती है, उन्हें परम्परागत दृष्टि से लोक वित्त कहा जा सकता है।’’

9. प्रो0 डी0 मार्को (D.Marco) के अनुसार, ‘‘लोक वित्त राज्य की उन उत्पादक क्रियाओं का अध्ययन करता है जिनका उद्येश्य सामूहिक आवश्यकताओं को पूरा करना होता है।’’ 

निष्कर्ष उपरोक्त परिभाषाओं के अध्ययन से इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि लोक वित्त मूल रूप से सरकारों के आय-व्यय से सम्बन्धित है तथा सरकारों का अर्थ केन्द्रीय, प्रान्तीय तथा स्थानीय सत्ताओं से है। वर्तमान समय में लोक वित्त का क्षेत्र अधिक व्यापक हो गया है, अत: अब इसके अंतर्गत सरकारी आय-व्यय के अतिरिक्त वित्तीय प्रशासन, लेखा निरीक्षण एवं वित्तीय नियंत्रण आदि कार्यों को भी सम्मिलित किया जात है।

लोक वित्त की विषय-वस्तु एवं क्षेत्र

लोक वित्त की विषय-वस्तु की जानकारी के लिए यह याद रखना होगा कि लोक वित्त के विभिन्न पहलुओं की विवेचना का इतिहास काफी पुरा है। 

एडम स्मिथ ने अपनी पुस्तक ‘Wealth of Nations’ (1776) के खण्ड (Book V) में लोक वित्त के विभिन्न अंगों का विश्लेषण किया है। इस खण्ड में तीन अध्याय है जो क्रमश: सरकार के व्यय, सरकार के राजस्व तथा लोक ऋण की विवेचना करते है। इसका अर्थ यह हुआ कि लोक वित्त को क्षेत्र तीन विषय-वस्तु तक सीमित है, यथा लोक व्यय, लोक राजस्व तथा लोक ऋण (Public Expenditure, Public Revenue and Public Debt) रिकार्डो की पुस्तक का नाम था ‘The Principles of Political Economy and Taxation’ (1819), जिसमें दस अध्याय करारोपण की विभिन्न समस्योओं पर लिखे गये। लोक व्यय पर कोई पृथक् अध्याय नहीं है।

लोक ऋण की विस्तृत विवेचना उनके पृथक प्रकाशन Essay on the Funding System में मिलती है। इससे यह स्पष्ट होता है कि रिकार्डों ने केवल कर तथा लोक ऋण को ही लोक वित्त के अध्ययन की प्रमुख विषय-वस्तु माना।

जे0एस0 मिल ने भी अपनी पुस्तक The Principles of Political Economy जो 1848 में प्रकाशित हुई, में लोक वित्त के विभिन्न अंगों की पर्याप्त विवेचना की, लेकिन इस पुस्तक में भी करों के विभिन्न पक्षा के विश्लेषण पर विशेश ध्यान दिया गया तथा राष्ट्रीय ऋण (National Debt) की विभिन्न समस्याओं पर प्रकाश डाला गया। जहां एडम स्मिथ ने लोक व्यय के विवेचन का प्रथम पंक्ति में रखा वहा रिकार्डों तथा मिल ने करारोपण एवं लोक ऋण को अधिक महत्व दिया।

उन्नीसवीं सदी के अन्त की ओर एक अत्यधिक महत्वपूर्ण परिवर्तन आया। इसके पूर्व अर्थशास्त्रियों ने अपनी महान् कृतियो में लोक वित्त को एक छोटा-सा स्थान प्रदान किया था अब लोक वित्त पर पृथव् पुस्तकं लिखी जानी लगी। इस प्रवृित्त की श्रीगणेश 1892 में सी0एफ0 बैस्टेबल (C.F.Bastable) की पुस्तक Public Finance से हुआ। इसी श्रृखंला में डाल्टन (Hugh Dalton) की पुस्तक Public Finance सर्वप्रथम 1922 में प्रकाशित हुई जिसे आधिक ख्याति मिली। इस पुस्तक में डाल्टन ने लिखा के लोक वित्त की विषय-वस्तु है सरकार की आय तथा व्यय तथा एक का दूसरे के साथ समायोजन।

डाल्टन ने उपयुक्त विषय-वस्तु की विवेचना में लोक वित्त के क्षेत्र को विस्तृत किया। उन्होने रिकार्डों तथा मिल की तरह विशेष करों के प्रभाव के विश्लेशण के साथ ही कर के सामान्य सिद्धान्तों की भी व्याख्या की। साथ ही, एडम स्मिथ की परम्परा को अपनाते हुए उन्होने लोक व्यय का भी विस्तृत अध्ययन किया। वस्तुत: कर, लोक व्यय तथा लोक ऋण का पृथक्-पृथक् अध्ययन नही करके, उनके आपसी सम्बन्धों पर विचार किया जाने लगा। इसलिए एलेन तथा ब्राउनली (Allen and Brownlee) ने कहा कि लोक वित्त तेजी से लोक अर्थव्यवस्था का अध्ययन बनता जा रहा है।

लोक वित्त की विषय-वस्तु में आगे चलकर जो विभिन्नता आयी उसकी जानकारी पीगू की पुस्तक A Study of Public Finance से मिल सकती है जिसका प्रथम संस्करण 1928 में प्रकाशित हुआ तथा तृतीय संस्करण 1947 में। दोनो ही संस्करणों में कर के सिद्धान्तों के साथ-साथ विशेश करों के गुण एवं दोशों की विवेचना की गयी है। प्रथम संस्करण के बाकी भाग में युद्ध वित्त की समस्याओं का जिक्र है। इसके विपरीत तृतीय संस्करण में ‘लोक-वित्त एवं रोजगार’ शीर्षक के अन्तर्गत उन राजकोषीय उपायों का पूर्ण विवेचना शामिल किया गया है जिनका द्वारा समग्र आय को प्रभावित किया जा सकता है। लोक वित्त को आधुनिक समय में इसी रूप में ढाला गया है। युद्धोत्त्र काल में एक समय तो ऐसा लग रहा था कि अल्पकालीन स्थिरीकरण राजकोशित नीति (Short-term Stabilsation Fiscal Policy) ही लोक वित्त का सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंग वन जायेगी। किन्त,ु ऐसा नही हुआ।

1959 में आर0ए0 मसगेव्र (Richard A. Mugrave) की महत्वपूर्ण पुस्तक The Theory of Public Finance प्रकाशित हुई। इस पुस्तक की भुमिका में मसग्रेव ने लिखा कि रिकार्डों से लेकर केन्स तक शायद ही किसी ने अर्थव्यवस्था की क्रिया पर बजट नीति के प्रभाव पर लिखा। इस विषय को 1930 के दशक के बहुत अधिक पेर्र णा मिली जब राजकोषीय नीति की नयी अवधारणा आर्थिक यान्त्रिकी (Economic Mechanism) के हदय में प्रवेश कर गयी अर्थात् प्रमुख विषय बनी गयी। इससे लोक वित्त के प्रति हमारे दृष्टिकोण में क्रान्तिकारी परिवर्तन हुए। इसका पिणाम यह हुआ कि मैक्रो आर्थिक सिद्धान्त के अन्तर्गत बजट नीति की भूमिका का विश्लेषण होने लगा।

मसग्रेव कहते है कि लोक वित्त को इस प्रकार मैक्रो आर्थिक सिद्धान्त में शामिल करना एक-पक्षीय विकास था। कारण यह है कि इससे लोक वित्त का मैक्रो सिद्धान्त जैसे, अल्पकालीन स्थिरीकरण सम्बन्धी राजकाषीय नीति) की ओर ही विशेष ध्यान गया और इसी साधनों के आवंटन पर प्रभाव के अध्ययन की फलत: बट नीति के आय के वितरण तथा निजी क्षेत्र में साधनों के आवंटन पर प्रभाव के अध्ययन की अवहेलना की गयी। इस कमी को मसग्रेव ने दूर किया तथा बताया कि लोक वित्त का क्षेत्र तीन प्रमुख राजकोषीय कार्य, यथा, आवंटन कार्य (Allocation function) वितरण कार्य (Distribution fuctio) तथा स्थिरीकरण कार्य (Stabilisation function) तक फैला हुआ है। उन्होने लोक वित्त की पारस्परिक विषय-वस्तु (जैसे, करारोपण, लोक व्यय तथा लोक ऋण) का विश्लेषण आवंटन, वितरण तथा स्थिरीकरण के दृष्टिकोण से करके लोक वित्त के क्षेत्र को काफी विस्तृत कर दिया। आवंटन कार्य के अन्तर्गत लोक व्यय तथा करों की रचना इस प्रकार की जाती है ताकि साधनों को निजी आवश्यकताओं की सन्तुष्टि से हटराकर सार्वजनिक आवश्यकताओं की पूर्ति में लगाया जा सके। वितरण कार्य के अनुसार कर तथा लोक व्यय की रचना इस प्रकार की जाती है। कि साधनों को एक व्यक्ति के उपयोग से हटाकरण दूसरे व्यक्ति के उपयोग में (जैसे, अमीरो से हटाकरण निर्धनों के उपयोग में) लगाया जा सकें। स्थिरीकरण कार्य के अन्तर्गत कर एवं लोक व्यय की रचना पूर्ण रोजगार तथा कीमत स्थायित्व के दृष्टिकोण से की जाती है। इसका सम्बन्ध अल्पकालीन स्थिरीकरण की समस्या से तो है ही, साथ ही इसमें दीर्घकालीन आर्थिक विकास के सम्बन्ध की भी विवेचना की जाती है। दूसरे शब्दों में, इस कार्य के अन्तर्गत लोक वित्त के समष्टि पहलू (Macro aspect) पर विशेष ध्यान दिया जाता है।

1960 के दशक के पिछले भाग तथा 1970 के दशक में मैक्रो आर्थिक नीति के महत्व में ह्मास हुआ। इसके कई कारण थे, यथा, इस नीति को लागू करने में व्यावहारिक कठिनाइयाँ, आर्थिक विचारों के क्षेत्र में मुद्रावादी प्रति-क्रान्ति (monetarist counter-revolution) तथा लोक वित्त के पारम्परिक क्षेत्र में अन्य विशयों का उदय तथा उनकी फिर से खोज। इस नये विशयों में एक लोक व्यय है। लोक व्यय खुद नया विषय नही है, किन्तु इस विषय को नये रूप से देखा जाता है जिससे इसके क्षेत्र में काफी वृद्धि हुई है। पहले लोक व्यय के अन्तर्गत इसमें वृद्धि के कारण, इसके प्रभाव, वर्गीकरण, आदि का ही विश्लेषण किया जाता था। आज लोक व्यय के अन्तर्गत जिन मुद्यों पर विशेष ध्यान दिया जाता है, वे हैं सार्वजनिक तथा निजी क्षेत्रों के सापेक्ष आकार, वे परिस्थितियों जहा बाजार यन्त्र टूट जाता है, सार्वजनिक क्षेत्र के आकार के निर्धारण में राजनीतिक समाधान का महत्व, आदि। दूसरा नया विषय है बहुस्तरीय वित्त (Multi-level Finance) जहां राजकोषीय संघ (Fiscal Federalism) की समस्याओं अर्थात् केन्द्र, राज्य तथा स्थानीय सरकारों की वित्त की समस्याओं की विवेचना की जाती है। राज्य द्वारा निजी क्षेत्र को दी जाने वाली सब्सिडी (subsidy) अर्थात अर्थिक सहायता की प्रकृति तथा परिणामों की भी गहराई से खोज की जाने लगी है। लागत-लाभ विश्लेषण (Cost-enefit analysis) भी लोक वित्त का एक आकर्शक विषय बन गया है।

इस तरह लोक वित्त अर्थशास्त्र का वह भाग है जो किसी देश की वित्त व्यवस्था तथा उससे सम्बन्धित प्रशासनिक एवं अन्य समस्याओं का अध्ययन करता है और अंतत: उसका उद्देश्य स्थिरता के साथ आर्थिक विकास की गति को बनाये रखना होता है।

उपरोक्त विवरण के आधार पर लोक वित्त के अध्ययन क्रम को इन भागों में विभाजित किया जा सकता है।
  1. सार्वजनिक व्यय
  2. सार्वजनिक आय 
  3. सार्वजनिक ऋण 
  4. वित्तीय प्रशासन 
  5.  राजकोषीय या वित्तीय-नीति
1. सार्वजनिक (या लोक) व्यय - लोक वित्त के इस अंग के अन्तर्गत यह अध्ययन किया जाता है कि सार्वजनिक व्यय किन-किन मदों पर करना आवश्यक है? व्यय का स्वरूप तथा परिमाण क्या हो? व्यय करते समय किन-किन नियमों एवं सिद्धान्तों का पालन किया जाए? इन व्ययों का राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ता है ता इससे संबंधित कठिनाईयाँ क्या है? तथा उन्हे किस प्रकार दूर किया जा सकता है।

राज कीय अथवा सार्वजनिक व्यय का महत्व दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। जन कल्याण के सभी का सार्वजनिक व्यय पर ही निर्भर करते है। सार्वजनिक व्यय की मदों तथा उन पर व्यय की जाने वाली धनराशि जिसके आधार पर उस देश की आर्थिक, सामाजिक एवं राजनैतिक नीतियों तथा स्थितियों की समीक्षा की जा सकती है।

2. सार्वजनिक (या लोक) आय - इस अंग के अंतर्गत यह अध्ययन किया जाता है कि सरकार अपनी आय किन-किन स्त्रोतों से प्राप्त करती है। इसमें आय के विभिन्न स्त्रोतों का विश्लेषण वर्गीकरण, साधनों की गतिशीलता तथा उनके सापेक्षिक महत्व एवं सिद्धान्त का अध्ययन किया जाता है। इसके अतिरिक्त आय के इन स्त्रोतों का देश के उपभोग, उत्पादन वितरण, बचत तथा विनियोग पर क्या प्रभाव पड़ा है, का भी अध्ययन किया जाता है।

3. सार्वजनिक ऋण - इस अंग के अंतर्गत यह अध्ययन किया जाता है कि सरकारी ऋण क्यों और किस उद्ये’य हेतु लिए जाते है। राज्य किन सिद्धान्तों के आधार पर ऋण प्राप्त करता है? तथा इन ऋणों का भुगतान किस प्रकार किया जाता है। ऋणों के क्या प्रभाव पड़ते है? सार्वजनिक ऋणों से सम्बन्धित विभिन्न समस्याएँ क्या है? अल्पकालीन एवं दीर्घकालीन ऋणों का सापेक्षित महत्व क्या है? इत्यादि।

4. वित्तीय प्रशासन - इस विभाग के अंतर्गत इस बात का अध्ययन किया जाता है कि सरकार वित्तीय क्रियाओं का प्रबंध किस प्रकार करती है? इसके अन्तर्गत विशेष रूप से यह अध्ययन किया जाता है। कि बजट किस प्रकार बनाया जाता है, बजट बनाने के क्या उद्देश्य होते है, घाटे के बजट तथा आधिक्य के बजट का क्या महत्व है, इसके अतिरिक्त लेखों का अंकेक्षण करना भी इसके अतर्गत आता है।

वित्तीय प्रशासन लोक वित्त का सर्वाधिक महत्वपूर्ण विभाग है। प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात् इसका महत्व काफी बढ़ गया है। प्रो0 बैस्टेबल लोक वित्त के इस भाग के महत्व को स्पष्ट करते हुए लिखते है कि ‘लोकवित्त’ की कोई पुस्तक तब तक पूर्ण नही कही जा सकती जब तक कि वह वित्तीय प्रशासन और बजट की समस्याओं का अध्ययन नही करती।

5. राजकोषीय या वित्तीय नीति - लोक वित्त के एक भाग के रूप में राजकोषीय अथवा वित्तीय नीति के महत्व को आधुनिक अर्थशास्त्रियों ने स्वीकार किया है। स्थिरता के साथ आर्थिक विकास, को गति प्रदान करने के लिए आज वित्तीय नीति का सहारा लिया जाता है। वित्तीय नीति के द्वारा देश में उत्पादन क्रियाओं को नियमित करके, राष्ट्रीय आय के वितरण को न्यायपूर्ण बनाकर तथा कीमतों में स्थिरता लेकर आर्थिक विकास के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है।

इस तरह, नियोजित आर्थिक विकास हेतु राजकोषीय नीति का प्रयोग एवं अध्ययन लोक वित्त की विषय वस्तु का एक प्रमुख अंग है।

लोक वित्त की प्रकृति

लोक वित्त की प्रकृति के विवेचन हेतु यह जानने का प्रयास किया जाता है कि लोक वित्त विज्ञान है। अथवा कला ? विज्ञान ज्ञान का वह शास्त्र है जिसमें किसी विषय का क्रमबद्ध अध्ययन किया जाता है। यह अध्ययन निरीक्षण, प्रयोग एवं विश्लेषण पर आधारित होता है। इस तरह के अध्ययन के आधार पर जो नियम बनाए जाते है या निष्कर्ष निकाले जाता है, उनका स्वभाव वैज्ञानिक होता है। इस आधार पर लोक वित्त को विज्ञान कहना अनुचित नहीं होगा। परन्तु यह ध्यान देने योग्य है कि लोक वित्त एक स्वतंत्र विज्ञान नही है बल्कि एक आश्रित विज्ञान है क्योंकि इसका अर्थशास्त्र तथा राजनीति शास्त्र से घनिष्ट सम्बन्ध है और यह उन पर आश्रित है।

विज्ञान भी दो प्रकार के होते है- प्राकृतिक विज्ञान (Positive Science) तथा आदर्श विज्ञान (Normative Science) प्राकृतिक विज्ञान में हम वास्तविक एवं वस्तु स्थिति का अध्ययन करते है। वह क्या है? का उत्त्ार देता है परन्तु क्या होना चाहिए? से इसका सम्बन्ध नहीं है। वास्तविक विज्ञान उस दीप स्तंभ की तरह है जो जहाज को रोषनी दिखाता है और इंगित करता है कि यहाँ चटृान है परन्तु यह नहीं बताया कि जहाज हमारा ध्यान आकर्शित करता है। इस तरह, आदर्श विज्ञान ज्ञान का वह पंजु होत है जिसका सम्बन्ध आदर्शों को स्थापित करना होता है। इस दृष्टि से दोनो विज्ञानों में ‘वस्तु स्थिति’ तथा ‘आर्दष’ का अंतर है।

लोक वित्त के अंतर्गत तथ्यों का अध्ययन दोनो दृष्टिकोणो से किया जाता है। कला ज्ञान का व्यावहारिक स्वरूप है। किसी बात का ज्ञान तो विज्ञान है और उस ज्ञान को व्यावहारिक स्वरूप प्रदान करने के लिए जब नियम बनाए जाते है तो उसे कला कहते है। इस तरह किसी काय्र को रोकने के लिए व्यावहारिक नियमों को बताना ही कला है। इस दृष्टि से लोकवित्त कला भी है। यह कला का रूप उस समय धारण कर लेता है जब किसी देश की सरकार विविध स्त्रोतो से प्राप्त अपनी आय को इस प्रकार व्यय करने का निश्चय करती है ताकि सामाजिक कल्याण अधिकतम हो सके। सामाजिक कल्याण में वृद्धि के लिए सरकार का यह भी दायित्व हो जाता है कि राजकोषीय नीति का इस तरह प्रयोग करें ताकि समाज में धन एवं आय के वितरण की विशमता को समाप्त किया जा सके।

इस तरह निष्कर्ष के रूप में कहा जा सकता है कि लोक वित्त विज्ञान तथा कला दोनों है। जब हम सार्वजनिक आय एवं व्यय के सिद्धान्तों एवं नियमों का अध्ययन करते है तो यह लोक वित्त का वैज्ञानिक पहलू होता है और जब इन सिद्धान्तों एवं नीतियों का प्रयोग सरकार की वित्तीय समस्याओं को हल करने में किया जाता है तो वही लोक वित्त का कलात्मक पहलू हो जाता है।

लोक वित्त का महत्व

प्राचीन काल में राज्य के कार्य सीमित थे, अत: लोक वित्त का महत्व भी उसी के अनुरूप कम था। लोक वित्त का महत्व राज्यों की आर्थिक क्रियाओं से सम्बद्ध होता है। प्रारम्भ में सरकार के कार्य केवल वाह्मा आक्रमण से सुरक्षा तथा न्याय तक ही सीमित थे, फलस्वरूप सरकार का कोश भी सीमित ही रखा जाता था। क्लासिकल अर्थशास्त्री भी अहस्तक्षेप नीति के समर्थक (Laissez-faire) थे और चाहते थे कि आर्थिक क्रियाओं के स्वत: संचालन में सरकार को किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए इस तरह के सरकार के अल्प योगदान पर विश्वास करते थे। युग बदला, परिस्थितियाँ बदली, राज्य के कार्यों एवं उनके योगदान में परिवर्तन हुए तथा राज्य के अहस्तक्षेप नीति के भयंकर दोश सामने आने लगे।

इग्लैंड के राबर्ट ओवन, फ्रांस के सिसमांडी तथा जर्मनी के फ्रेडरिक लिस्ट ने इस नीति की कटु आलोचना करते हुए राज्य को आगे आने का आह्मान किया। अहस्तक्षेप नीति पर सबसे प्रभावपूर्ण एवं कारगर प्रहार कार्ल मार्क्स, लास्की, वेब्स तथा जे0 एम0 कीन्स ने किया। वास्तविकता तो यह है कि राज्य के क्षेत्र एवं महत्व का विकास 19वीं शताब्दी के अंत से ही प्रराम्भ हो चुका था जिसका श्रेय जर्मन अर्थशास्त्री वैगनर (Wagner) को है उन्होने ‘राज्य की बढ़ती हुई क्रियाओं का नियम’ प्रतिपादित किया था। राज्य के कार्यों में वृद्धि के साथ ही साथ लोक वित्त का क्षेत्र एवं महत्व भी बढ़ता जा रहा है। अब राज्य केवल देश की रक्षा एवं नागरिकों की सुरक्षा ही नहीं करता वरन् कल्याणकारी राज्य के रूप में वह देश के लोगों की बीमारी, गरीबी, अशिक्षा को दूर करने के साथ-साथ नागरिको के जीवन के प्रत्येक पहलू पर अपना नियंत्रण रखता है स्थिति यह है कि आज राज्य मानव के समस्त आर्थिक क्षेत्रों-उत्पादन,उपयोग, विनिमय तथा वितरण में प्रेवष कर चुका है।
 
कीन्स के ‘सामान्य सिद्धान्त’ के प्रकाशन के बाद देश की आर्थिक क्रियाओं में राज्य के हस्तक्षेप और लोक वित्त के महत्व में क्रांतिकारी परिर्वतन आया। कीन्स ने प्रतिपादित किया कि देश में आर्थिक स्थिरता तथा रोजगार में वृद्धि राज्य के हस्तक्षेप द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। सरकार राजकोषीय एवं मौद्रिक नीतिक का सहारा लेकर अर्थव्यवस्था को वांछित दिशा में ले जा सकती है। आज विकसित देश आर्थिक स्थायित्व के लिए तथा विकासशील देश स्थिरता के साथ तीव्र आर्थिक विकास के लिए प्रयत्नशील हैं।
 
परिणामस्वरूप इन देशों में राज्य एवं लोकवित्त का महत्व अपेक्षाकृत बढ़ता जा रहा है। सरकार अपनी राजकोषीय नीति के द्वारा स्थिरता के साथ विकास तथा राष्ट्रीय आय के न्यायोचित वितरण आदि उद्देश्यों को सुगमतापूर्वक प्राप्त कर सकती है। राज्य आज आर्थिक विकास को बढ़ावा देने, बाहय-आक्रमण से सुरक्षा तथा आंतरिक शान्ति बनाए रखने, सामाजिक सुरक्षा तथा जनकल्याणकारी कार्यो के कार्यान्वयन करने, सामाजिक बुराइयों को दूर करने, षिशु उद्योगों को संरक्षण प्रदान कर विदेशी प्रतियोगिता से बचाने के लिए, आर्थिक विषमता को समाप्त करने के लिए, दुर्लभ साधनों के सर्वोंत्त्म ढंग से आवंटन के लिए, राष्ट्रीय उपक्रमों का विकास करने तथा बेरोजगारी दूर करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। ये महत्वपूर्ण कार्य सरकार राजकोषीय नीति के द्वारा सुगमतापूर्वक कर सकती है। कोई भी राज्य कुशलतापूर्वक अपने उक्त कार्यों का सम्पादन तब तक नहीं कर सकती जब तक कि उसके पास सुसंगठित लोकवित्त नहीं होगा। इस तरह, राज्य के कार्यों एवं महत्व में वृद्धि होने से लोकवित्त के महत्व में अधिक वृद्धि हो चुकी है।

लोक वित्त की सीमाएँ

लोक वित्त से सम्बन्धित नीतियाँ राष्ट्रीय आय, उत्पादन एवं रोजगार पर वांछित प्रभाव डालने एवं अवांछित प्रभावों को रोकने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है और इस तरह देश के आर्थिक जीवन को प्रभावित करने में भारी योगदान प्रदान करती है। देश के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के बावजूद लोक वित्त की नीतियों की अपने कुछ सीमाएँ भी है यथा- (i) कर प्रणाली में मनचाहा परिवर्तन करना सुगम नहीं होता। सामान्यतया लोग नए करों का विरोध करते है। (ii) कभी-कभी सरकारी व्यय में वृद्धि से निजी निवेश में गिरावट आने लगती है। सार्वजनिक क्षेत्र के विकास से निजी क्षेत्र का संकुचन होने लगता है। (iii) सार्वजनिक निर्माण कार्यक्रम तभी सफल हो सकते है जब उन्हे उचित समय पर क्रियान्वित किया जाए परन्तु इस उचित समय अर्थात् मंदी का पुर्वानुमान लगाना कठिन होता है। (iv) सार्वजनिक निर्माण कार्यों को तुरंत लागू करना सदैव संभव नहीं हो पाता। सरकारी मशीनरी अपने ढंग से कार्य करती है, अत: निर्माण कार्यो को प्रारम्भ करने में कुछ न कछु देरी तो हो ही जाती है।

इस तरह अकेली लोकवित्तीय नीति अर्थव्यवस्था को स्थिरता के साथ विकास के पथ पर तेजी से ले जाने में पूर्णतया समर्थ नहीं है। अत: सरकार मंदी एवं बेरोजगारी का प्रभावपूर्ण ढंग से सामना करने तथा स्थिरता के तीव्र आर्थिक विकास के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए राजकोषीय नीति के साथ-साथ मौद्रिक नीति का भी सहारा लेती है। समन्वित मौद्रिक एवं राजकोषीय नीति के क्रियान्वयन से ही अर्थव्यवस्था में वाछित लक्ष्य प्राप्त किये जा सकते है।

लोक वित्त एवं निजी वित्त में अंतर

लोक वित्त तथा निजी वित्त में सामान्यतया ऊपरी तौर पर कोई विशेष भिन्नता दृष्टिगोचर नहीं होती क्योकि दोनो का उद्देश्य आय तथा व्ययय के बीज सामंजस्य अथवा संतुलन स्थापित करना होता है। दोनो की समस्याएँ एक सी है तथा दोनो का उददेश्य अपनी आय तथा व्यय से अधिकतम सतोश प्राप्त करना होता है। निजी व्यय इसलिए होता है ताकि ‘अधिकतम संतुष्टि’ की प्राप्ति हो सके और सार्वजनिक व्यय इसलिए किया जाता है ताकि उससे ‘अधिकतम् सामाजिक लाभ’ उपलब्ध हो सके। इसलिए अतिरिक्त देश की आर्थक स्थिति में किसी भी प्रमुख परिवर्तन का प्रभाव व्यक्ति तथा सरकार दोनो की वित्तीय स्थिति पर पड़ता है। फिर भी लोक वित्त तथा निजी वित्त की प्रकृति, उद्देश्य, सिद्धान्त व्यवस्था तथा प्रशासन आदि में आधारभूत एवं मौलिक भेद हैं जिनकी क्रमबद्ध विवेचना है।

1. आय तथा व्यय के समायोजन में अंतर - सामान्यतया व्यक्ति अपनी आय के अनुसार व्यय करता है। वह पहले आय को देखता है फिर उसी अनुसार अपने व्यय को निर्धारित करता है। इसके विपरीत, सरकार पहले अपना व्यय निश्चित कर लेती है फिर उस व्यय के अनुसार आय के साधन जुटाने की व्यवस्था करती है।

परन्तु दोनो की वित्त व्यवस्थाएँ अनेके व्यावहारिक कठिनाईयों के कारण सदैव ही उपरोक्त सिद्धान्तों के अनुसार नहीं चल पाती है। कभी-कभी व्यक्ति को कुछ विशेष अवसरों पर अपनी आय के अधिक व्यय करना पड़ता है। जैसे-विवाह, त्यौहारों एवं अन्य सामाजिकक उत्सवों के अवसर पर व्यक्ति का व्यय बढ़ जाने पर वह अतिरिक्त कार्य करके, आराम का त्याग कर, कठिन परिश्रम करके अपनी आय को बढ़ाने के लिए प्रयास करता है। इसी तरह कभी-कभी सरकारें भी अपनी आय के अनुसार ही व्यय को समायोजित करती है। इसके अतिरिक्त सदैव यह आवश्यक नही है कि सरकार अपने व्यय के अनुरूप आय को प्राप्त करने में सफल ही हो जाए। कभी-कभी सरकार को अपनी खर्चों में कटौती भी करनी पड़ती है। इस सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त करते हुए प्रो0 फिण्डले शिराज कहते है कि निजी वित्त तथा लोक वित्त में अंतर केवल मात्रा का है प्रकृति का नहीं।

2. उद्देश्यों में भिन्नता  - 
  1. व्यक्ति सदैव अपने हित की भावना से प्रेरित होकर कार्य करता है जबकि सरकार के कार्यों का उद्येश्य सामाजिक कल्याण को अधिकतम् करना होता है। इस सम्बन्ध में डी0 मार्कों का कथन है कि ‘‘निजी-वित्त व्यवस्था में व्यक्तियों की, उनकी इच्छाओं की पूर्ति करने सम्बन्धी क्रियाओं का ही अध्ययन किया जाता है जबकि लोक-वित्त में सकरार की उत्पादन क्रियाओं का जो सामूहित इच्छाओं की पूर्ति के लिए की जाती है, का अध्ययन किया जाता है।’’
  2. व्यक्ति व्यय करते समय प्राय: सम-सीमांत उपयोगिता नियम को पालन करने का प्य्रास करता है ताकि वह अपनी निश्चित आय से अधिकतम् संतुष्टि प्राप्त कर सकें। परन्तु सरकार के लि ऐसा पाना संभव नहीं हो पाता क्योकि सरकार को अधिकांशत: अपना व्यय राजनीतिक आधार पर करना पड़ता है भले ही उससे मिलने वाली उपयोगिता कितनी ही कम क्यों न हो। इस तरह, सरकार के सामाने व्यय के चुनाव की स्ंवत्रंता बहुत सीमित होती है। जबकि व्यक्ति अपना व्यय अपनी इच्छा एवं अभिरूचि के अनुरूप निश्चित कर सकता है।
    सामान्यता व्यक्ति अपने वर्तमान एवं तत्कालीन आवश्यकताओं को संतुष्ट करने का प्रयास करता है और उसी के अनुरूप व्यय करता है जबकि सरकार वर्तमान एवं भविश्य के हितों को ध्यान में रखकर अपने व्यय को निर्धारित करती है। डाल्टन ने इस सम्बन्ध में कहा है कि राज्य ने केवल वर्तमान के लिए बल्कि भावी पीढ़ियों के लिए भी एक प्रन्यासी होता है, राज्य अमर है जबकि व्यक्ति मरणशील है। इसलिए व्यक्ति प्राय: शीघ्र लाभ प्राप्त करने को उत्सुक रहता है।
3. आय के साधनों में लोच-सम्बन्धी अन्तर - सरकार की आय तथा उसके प्राप्त करने के साधन निजी आय एवं उसके साधनों की अपेक्षा अधिक लोचपूर्ण होते हैं। सरकार अपनी आय को पुराने करों की दर में वृद्धि करके, नए कर लगाकर, नोट छापकर, आंतरिक एवं वाह्मा ऋण प्राप्त करके तथा लाभ कमाने वाले उद्योगों का राष्ट्रीकरण करके बढ़ सकती है। कोई व्यक्ति उपरोक्त साधनों का प्रयोग नहीं कर सकता।

इस सम्बन्ध में कुछ विद्धानों का मत है कि सरकार अपनी आय को सीमा से अधिक नहीं बढ़ा सकती। वह एक सीमा के बाद मनमाने ढंग से कर को नहीं बढ़ा सकती, नोट को नहीं छाप सकती तथा बाह्म ऋण भी नहीं प्राप्त कर सकती। सरकारी वित्त व्यवस्था केवल युद्ध या आपातकालीन परिस्थितियों मे अधिक लोचपूर्ण बनायी जा सकती है। जैसे-जैसे सरकार की आय बढ़ती है। वैसे-वैसे व्यक्तियों की व्यक्तिगत आय कम होती जाती है। इस सम्बन्ध में श्रीमती हिक्स का विचार है कि सरकार अपनी आय बढ़ानें के बजाय उस अनुपात को बदल सकती है। जिसमें देश की सम्पूर्ण आय सरकार तथा नागरिकों के बीच बंटी रहती है।

4. बजट की प्रकृति में अंतर - एक व्यक्ति के बजट का अतिरेक होना उस व्यक्ति की कुशलता एवं दूरदर्शिता का प्रमाण समझा जाता है कि जबकि सरकार के बजट में अतिरेक का होना वित्त मंत्री की अकुशलता को प्रदर्शित करता है। सरकार के अतिरेक बजट का अर्थ है-’उच्च स्तरीय कराधान तथा निम्न स्तरीय व्यय। ये स्थितियाँ एक जन हितकारी सरकार के लिए उचित नहीं समझी जाती है। जहाँ अधिक कर देना देश की जनता के लिए कष्टकारी होता है वही सरकार द्वारा सार्वजनिक हित के कार्यक्रमों पर कम व्यय करना असंतोश पैदा करता है। सार्वजनिक वित्त में बजट का संतुलित होना ही उचित समझा जाता है। कभी-कभी घाटे का बजट भी उपयुक्त होता है। इस सम्बन्ध में फिन्ढले शिराज का कथन है,’’ यदि किसी सरकार का बजट अतिरेक बतलाता है तो इससे देश के वित्त मंत्री की अकुशलता का परिचय मिलता है। सरकारी बजट का संतुलित होना ही उचित समझा जाता है और कभी-कभी घाटे का बजट बनाना भी युक्तिपरक होता है।’’

5. गोपनीयता का अंतर - प्रत्येक व्यक्ति अपनी आय तथा व्यय सम्बन्धी बातों का विवरण अन्य लोगो पर प्रकट नहीं करना चाहता और उसे गुप्त रखने का प्रयास करता है। इसके विपरीत सरकारी बजट में पूर्णरूपेण पारदर्शिता रहती है। सरकार अपने बजट को समाचार पदो एवं अन्य प्रचार माध्यमों के द्वारा प्रसारित करती है ताकि जनता उसके बारे में भली भॉति जान सके तथा टीका-टिप्पणी कर सके।

6. अवधि में अंतर - सरकार एक निश्चित अवधि, सामान्यता एक वर्श की अवधि के लिए आय-व्यय का बजट तैयार कती है परन्तु व्यक्तिगत अर्थ प्रबंधन में कोई व्यिक्त् अथवा परिवार ऐसी किसी निश्चित अवधि के लिए अपने आय-व्यय का लेखा तैयार नहीं करता। सरकार की योजनाएँ अत्यधिक विस्तृत होती है जबकि व्यक्ति की योजनाएँ बहुत लघु स्तर की होती है।

7. राज्य का अपेक्षाकृत अधिक प्रभुत्व - राज्य का प्रभुत्व व्यक्ति की अपेक्षा अधिक होता है अर्थात् राज्य अधिक शक्तिशाली होता है। यद्यपि व्यक्ति और राज्य के स्त्रोत कुछ अंश तक एक जैसे है, यथा- दोनों ही अपनी आय प्राप्त कर सकते है। दोनो ही दूसरों से दान ले सकते है और दोनो ही ऋण ले सकते है, फिर भी राज्य शक्तिशाली होने के कारण व्यक्तियों की सम्पत्ति कर अपना अधिकार जमा कर सकता है और आवश्यकता पड़ने पर उसको हड़प भी सकता है। परन्तु, एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति की सम्पत्ति को हड़प नहीं सकता है।

इसके अतिरिक्त सरकार का नागरिकों पर प्रभुत्व होने के कारण वह अपने नागरिकों को ऋण देने के लिए विवश कर सकती है, जबकि एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को ऋण देने के लिए बाध्य नहीं कर सकता।

8. विचारपूर्ण व्यय - व्यक्तिगत व्यय प्राय: आदतों, रीति-रिवाजों तथा उस सामाजिक वर्ग की आर्थिक एवं व्यावसायिक परिस्थितियों से प्रभावित होता है जिसका कि वह सदस्य होता है। इसके विपरीत, सार्वजनिक व्यय का आकार व स्वरूप सरकार द्वारा पूर्ण निश्चित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए सोच-समझ कर बनाई गयी नीतियों पर निर्भर करता है।

इस प्रकार लोक वित्त एवं निजी व्यवस्था में अनेक अंतर पाए जाते है परनतु कुछ विद्धानों का मत है कि दोनो में कोई मौलिक अंतर नही है। इन दोनो में मात्र अंश का ही अंतर है। यदि अंतर है तो मात्र इता कि एक का सम्बन्ध केन्द्र, राज्य तथा स्थानीय निकायों के आय-व्यय से है तो दूसरे का सम्बन्ध निजी व्यिक्यों तथा परिवारों के आय-व्यय से है।

1 Comments

  1. Kya is prakar ke blogs par copy right aate hai..?

    ReplyDelete
Previous Post Next Post