लोक व्यय अर्थव्यवस्था के किन-किन क्षेत्रों को प्रभावित करता है?

इसमें आप लोक व्यय के अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों पर पड़ने वाले प्रभावों से परिचित हो सकेंगे। जिससे उत्पादन, बृद्धि, वितरण और स्थिरीकरण पर पड़ने वाले प्रभावों को शामिल किया गया है। लोक व्यय का उत्पादन पर अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रभाव डालता है। प्रत्यक्ष प्रभावों के साथ परोक्ष रूप से भी प्रभावित करता है। बृद्धि को तीव्र बनाने में लोक व्यय अत्यधिक उपयोगी है। आय का समान वितरण तथा स्थिरीकरण की दशा में लोक व्यय को सरकारों द्वारा एक उपकरण के रूप में अपनाया जाता है। 

अत: इन पक्षों पर लोक व्यय के प्रभावों की उपेक्षा नहीं की जा सकती। उत्पादन, वृद्धि, वितरण तथा स्थिरीकरण पर पड़ने वाले लोक व्यय के प्रभावों का विश्लेषण से आप लोक व्यय की अर्थव्यवस्था के लिए उपयोगिता का अनुमान लगा सकते है। 

लोक व्यय से प्रभावित ये सभी पक्ष आपस में गहरा अन्तसम्बन्ध रखते है, जिसे इसके माध्यम से आप भंली भांति समझ सकेंगे।

लोक व्यय के प्रभाव

प्राचीन काल में लोक व्यय राज्य के क्रिया कलापों को संचालित करने का एक उपकरण था लेकिन वर्तमान में लोक व्यय न केवल राज्य के क्रिया कलापों को चलाने के साथ-साथ सरकारों को चलाने का भी एक महत्वपूर्ण उपकरण बन गया है। राष्ट्रों की अर्थव्यवस्थाओं की प्रकृति के अनुसार लोक व्यय का प्रभाव अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग स्तर पर पाया जाता है। इसीलिए लोक व्यय वर्तमान में महत्वपूर्ण स्थान बनाये हुए है। सरकारों का मुख्य ध्यान लोक आगम की अपेक्षा लोक व्यय पर केन्द्रित किया जा रहा है। अर्थव्यवस्था का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है जो लोक व्यय के प्रभाव से अछूता रहता हो।

आपको यहां पर ध्यान देने की अत्यन्त आवश्यकता है कि लोक व्यय के प्रभाव दो रूपों में पड़ते है प्रथमत: प्रभाव आपको स्पष्ट रूप से दिखाई देते है तथा द्वितीयत: प्रभावों पर आम जनता की नजर पहुॅचना अधिक आसान नहीं है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि द्वितीयत: प्रभाव प्रथमत: प्रभावों से कमजोर है। लोक व्यय का कोई भी प्रभाव एक दूसरे से कितना प्रबल व निर्वल है यह इस बात पर निर्भर करता है कि प्रभावित होने वाला क्षेत्र कितना संवेदनाील क्षेत्र है? लोक व्यय के प्रभावों की विवेचना आगे के शीर्षकों के अन्तर्गत भंली भांति रूप से स्पष्ट की जा सकती हैं।

1. लोक व्यय का उत्पादन पर प्रभाव

आपको यहां पर लोक व्यय के उत्पादन पर पड़ने वाले प्रभावों की प्रवृत्ति से परिचित किया जायेगा। लोक व्यय का उत्पादन पर पड़ने वाले प्रभावों का प्राचीन काल में भी महत्वपूर्ण स्थान रहा तथा वर्तमान में भी लोक व्यय अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। अर्थव्यवस्था की प्रकृति किसी भी प्रकार की हो या उसका आकार कैसा भी क्यों न हो? लोक व्यय के बिना उत्पादन सम्बन्धी अनेक निर्णयों को ले पाना सम्भव नहीं है।

लोक व्यय के उत्पादन पर पड़ने वाले प्रभाव से सम्बन्धित एक महत्वपूर्ण तथ्य पर विचार करना आपके लिए अत्यन्त उपयोगी होगा कि अर्थव्यवस्था के संसाधनों पर स्वामित्व अधिकार की स्थिति क्या है? संसाधनों पर निजी स्वामित्व तथा अधिकार है तो लोक व्यय का प्रभाव उत्पादन पर अलग दिशा में होगा और यदि संसाधनों पर सरकार का स्वामित्व तथा अधिकार है तव लोक व्यय का उत्पादन पर प्रभाव अत्यन्त तीव्र तथा गहन होता है। इसके साथ आर्थिक नियमों की भांति उत्पादन केवल आर्थिक संसाधनों पर ही निर्भर नहीं करता बल्कि सामाजिक, धार्मिक तथा राजनैतिक पर एक बड़ी सीमा तक निर्भर रहता है। उत्पादन से जुड़ा एक अन्य अहम तत्व मानवीय व्यवहार है जो लोक व्यय से काफी प्रभावित होता है। सरकारों का दायित्व है कि वह अपनी जनता की मूल भूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए हरदम प्रयास करें। इस मूल भूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सरकार को ऐसे आवश्यक उत्पादन को अपने हाथों में लेना होता है। ऐसी स्थिति में उत्पादन के सभी साधनों को एकत्रित एवं समायोजित करने के लिए लोक व्यय को एक उपकरण के रूप में अपनाना होता है। सामाजिक आर्थिक सेवाओं के उत्पादन पर भी सरकार को भारी मात्रा में व्यय करना होता है जैसे स्वास्थ सुविधाऐं, शिक्षा व्यवस्था, परिवहन सेवाएं, सुरक्षा व्यवस्था, सिचांई योजनाएं, न्यायालय व्यवस्था, जलकल व्यवस्था आदि पर भारी मात्रा में लोक व्यय का सहारा लिया जाता है।

आपको सामान्य रूप से समझाया जा सकता है कि इन उत्पादनों पर लोक व्यय का प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। लोक व्यय जितना अधिक होगा उत्पादन का स्तर भी उतना ही ऊंचा होगा। सरकार कुछ उत्पादन कार्य को स्वयं अपने हाथ में नहीं लेती है लेकिन उत्पादन में वृद्धि करने के लिए निजी व्यक्तियों को प्रोत्साहन हेतु लोक व्यय का सहारा लेती है। यह लोक व्यय जनता में उत्पादन बढ़ाने हेतु प्रेरणा पैदा करता है।

लोक व्यय का उत्पादन पर पड़ने वाले प्रभाव को प्रो0 डाल्टन के इस कथन से भंली भांति समझाा जा सकता है- ‘‘जब सरकार स्वास्थ्य, मकानों और सामाजिक सुरक्षा पर व्यय करती है या बच्चों को नि:शुल्क शिक्षा प्रदान करती है तो यह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण विनियोग होता है जो भौतिक पूंजी के स्थान पर मानवीय पूंजी का निर्माण करता है।’’ प्राचीन काल की अपेक्षा वर्तमान सरकारों द्वारा लोक व्यय का उत्पादन पर प्रभाव इस दिशा में बढ़ता जा रहा है।

लोक व्यय उत्पादन पर कार्य निवेश तथा बचत के माध्यम से भी प्रभाव डालता है। आपको शायद यह ज्ञात हो कार्य करने की क्षमता निवेश का स्तर तथा बचत करने की क्षमता एवं स्तर उत्पादन के स्तर तथा गुण्वत्ता दोनों पर ही प्रभाव डालता है। लोक व्यय कार्य, निवेश तथा बचत की क्षमताओं एवं स्तर को सीधे तौर पर प्रभावित करता है। इस सम्बन्ध में यह ध्यान रखना होता है कि सरकार द्धारा किये जाने वाला लोक व्यय कही लोगों के मध्य कार्य निवेश तथा बचत को विपरीत रूप से प्रभावित नहीं कर रहा है, ऐसी स्थिति में उत्पादन भी बढ़ने के स्थान पर घटना प्रारम्भ होता है। लोक व्यय में वृद्धि होने पर आर्थिक क्रियाओं का विस्तार होता है जिससे उत्पादन में बृद्धि होना स्वाभाविक है।सरकार को चाहिए कि लोक व्यय को उत्पादन कार्यों पर ही करना चाहिए। अपव्यय तथा अनुत्पादक कार्यों पर किये जाने वाले लोक व्यय का उत्पादन पर प्रभाव वांछित दिशा में नहीं पड़ सकता है। लोक व्यय का उत्पादन पर पड़ने वाले प्रभाव को एक अन्य दिशा में भी देखा गया है यदि लोक व्यय वर्तमान उत्पादन क्रिया के लिए किया गया है या भविष्य की उत्पादन योजनाओं के लिए। दोनों ही दिशाओं में लोक व्यय का उत्पादन पर अलग-अलग स्तर पर प्रभाव पड़ता है।

लोक व्यय से उत्पादन के साधन वर्तमान से भविष्य की ओर हस्तान्तरित होते हैं। जब सरकार द्वारा पूंजीगत वस्तुओं के उत्पादन के लिये किसी कार्य योजना पर बल देती है तब संसाधनों का हस्तातरण भविष्य की ओर होता है और विकास की प्रक्रिया आगे बढ़ती जाती है परिणाम स्वरूप अर्थव्यवस्था में उत्पादन शक्ति का विकास होता है। साधनों के इस हस्तान्तरण के लिये भारी उद्योग एवं बहुउद्देशीय नदी घाटी परियोजनाओं को प्राथमिकता दी जाती हैं। इन भारी उद्योग एवं परियोजनाओं पर निजी क्षेत्र की अपेक्षा लोक सत्ताओं द्वारा सही ढंग से कुशलतापूर्ण कार्य किया जा सकता है क्योंकि इस का सम्बन्ध सामूहिक लोक कल्याण एवं राष्ट्र निमार्ण से होता है।

विकासशील देशों में राज्य आर्थिक विकास की गति को तीव्र करने के लिये व्यक्तियों , निजी संस्थाओं को ऋण व अनुदान आदि देता है ताकि ये सब मिलकर अपने - अपने क्षेत्र में साधनों का सदुपयोग कर उत्पादन के स्तर को बढ़ा सके ।साधनों के हस्तान्तरण के सम्बन्ध में इस बात को स्पष्ट किया जा सकता है कि जब साधनों को मानवीय संसाधनों के विकास की ओर हस्तान्तरित किया जाता है तब उत्पादन के स्तर में अनुकूल असर दिखाई देने लगता है इस सन्दर्भ में डाल्टन का कहना है कि “जब सरकार स्वस्थ्य, मकानों और सामाजिक सुरक्षा पर व्यय करती है या बच्चों को निशुल्क शिक्षा प्रदान करती है तो यह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण विनियोग होता है जो भौतिक पूंजी के स्थान पर मानवीय पूंजी का निर्माण करता है।”

प्राचीन अर्थशास्त्रीयों का विचार था कि साधनों के हस्तान्तरण से आर्थिक विकास नहीं किया जा सकता है उनका विश्वास था कि आर्थिक क्षेत्र में सरकारी हस्तक्षेप कम से कम होना चाहिए।यहां यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि राज्य द्वारा साधनों का हस्तान्तरण लाभप्रद हो या हानिप्रद ? इस प्रश्न का उत्तर देश की परििस्थ्तियों पर निर्भर करता है । उदाहरण के लिये सुरक्षा व्यय को ही लें। आज प्रत्येक देश बाह्म आक्रमण से अपने को सुरक्षित रखना चाहता है। शीत - युद्ध की आशंका से भी देश अपनी स्थिति को सुदृढ़ करना चाहते है कुछ लोग यहां यह भी कह सकते हैं कि यदि सुरक्षा - व्यय में कमी करके इसे विकास कार्यों में लगाया जाता तो देश प्रगति कर सकता था, परन्तु हमेशा यह कथन सत्य नहीं है । यदि देश में हमेशा शान्ति व सुरक्षा बनी रहे, तो इससे देश का निरन्तर विकास होगा देश उत्तरोत्तर आर्थिक प्रगति करता रहेगा। इस प्रकार सुरक्षा सम्बन्धी व्यय पूर्ण रूप से आवश्यक एवं उत्पादक है। 

परन्तु यहां इस बात को भी ध्यान में रखना होगा कि सुरक्षा- व्यय एक सीमा से आगे न बढ़े। यदि विश्व के सभी राष्ट्र इस बात के लिये सहमत हो जाते हैं कि 'सुरक्षा परिषद' के ही 'समान विश्व' सेना का गठन कर दिया जाये, जो सब देशों की सुरक्षा के लिये उत्तरदायी होगा, यदि इसके बाद भी कोई राष्ट्र अपनी सुरक्षा के लिये व्यय करता है, तो ऐसा सुरक्षात्मक व्यय अनुत्पादक होगा । संक्षेप में, कहा जा सकता है कि यदि सरकार सार्वजनिक व्यय के सिद्धान्तों को ध्यान में रखते हुए राजनीतिक स्वार्थों से अलग होकर सार्वजनिक व्यय करे तो प्रत्येक प्रकार का सार्वजनिक व्यय उत्पादक हो सकता है।

2. लोक व्यय का वृद्धि पर प्रभाव

आपको यहॉ पर गम्भीरता से विचार करना होगा कि लोक व्यय का वृद्धि पर पड़ने वाले प्रभाव का सवाल विकासशील या पिछड़े देशों से मुख्य रूप से जुड़ा हुआ है। विकासशील तथा पिछड़े देश पूंजी की कमी के कारण बेरोजगारी तथा गरीबी की समस्या का सामना कर रहे है। लोक व्यय तथा वृद्धि के सम्बन्ध में लेविस के इस कथन पर ध्यान देना अत्यन्त आवश्यक है- ‘‘अर्द्धविकसित देशों में विकास कार्यक्रमों को इस प्रकार लागू करना चाहिए कि अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों का विकास समान रूप से एक साथ हो, ताकि उद्योग और कृषि, उत्पादन और उपभोग तथा उत्पादन और निर्यात में उचित सन्तुलन बना रहे।’’

उक्त कथन के आधार पर आप समझ सकते है कि लोक व्यय का वृद्धि के क्षेत्र में महत्वपूर्ण प्रभाव पाया जाता है। केवल उत्पादन बढ़ाने से वृद्धि की कल्पना नहीं की जा सकती इसके लिए अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों के महज सन्तुलन स्थापित करना अत्यन्त आवश्यक है।सभी अर्थशास्त्री इस मत से सहमत है कि लोक व्यय आर्थिक बृद्धि पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालता है। वृद्धि को बनाये रखने के लिए बजट में लोक व्यय की वृद्धि बनाये रखने के साथ नयी नयी विकास मदों पर उसका आवंटन करके आर्थिक बृद्धि को तेज किया जा सकता है। वर्तमान में लोक व्यय आर्थिक वृद्धि के लिए एक आवश्यक एवं महत्वपूर्ण कारगर उपाय है।

3. लोक व्यय का वितरण पर प्रभाव

लोक व्यय के उत्पादन तथा वृद्धि पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन करने के बाद अब आप लोक व्यय का वितरण पर पड़ने वाले प्रभावों को भंली भांति समझ सकेंगे। सामान्य रूप से कर व्यवस्था में आवश्यक परिवर्तन एवं सुधार करके ही आय तथा धन के असमान वितरण को कम करने का प्रभाव सरकारों द्वारा किया जाता रहा है। वर्तमान में ऐसा लगता है कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं में असमान वितरण की समस्या को दूर करने का सरकारी प्रयास सरकारी कार्यो के संचालन का एक उपकरण बनता जा रहा है। किसी भी अर्थव्यवस्था में धन के समान वितरण की कल्पना करना अर्थव्यवस्था तथा सरकार दोनों के लिए ही एक टेढ़ी खीर सिद्ध होगा।

विकसित देशों में असमान वितरण की समस्या को कम करने के लिए प्रगतिशील करों के प्रयोग को वरीयता दी जाती है। लेकिन यदि निर्धनों पर से कर के भार को हटा लिया जाय तो इसे केवल एक अनुदान के ही रूप में समझ लिया जाय क्योंकि करों को हटाने से किसी भी देश में गरीबी एवं बेरोजगारी को दूर नही किया जा सकता है।यहां पर लोक व्यय के प्रभावों पर ध्यान केन्द्रित किया जाय तो विकासशील देशों में प्रगतिशील कर प्रणाली के समान या कही अधिक लोक व्यय, आय के असमान वितरण को कम करने में सहायक होता है। प्रगतिशील सरकारें लोक व्ययों को गरीबी दूर करने के एक उपाय के रूप में अत्यधिक ओर से अपना रही है।

यहां एक तथ्य यह भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है कि लोक व्यय किसी भी वर्ग या मद पर किया जाय लेकिन उसका अन्तिम प्रभाव गरीब तथा बेरोजगारों पर अनुकूल रूप से अवश्य पड़ता है। अर्थव्यवस्था में उत्पादन एवं बाजार व्यवस्था में गरीबों का योगदान कम नहीं आंका जा सकता है। लेकिन लोक व्यय को अमीरों पर व्यय करने से उसका प्रभाव गरीबों तक पहुॅचने में काफी समय लगता है। वही दूसरी ओर सरकार द्धारा लोक व्यय को गरीब वर्ग पर सीधे करके असमान वितरण पर अनूकूल प्रभाव डाला जाता है। प्राय: सभी प्रगतीशील सरकारें इस उपाय का प्रयोग करती रही है। सार्वजनिक निर्माण कार्यो एवं नवीन विकासात्मक कार्यों पर लोक व्यय द्धारा वितरण व्यवस्था में वांछनीय सुधार लाने का प्रयास सरकारों द्वारा किया जाता है।

लोकतांत्रिक सरकारों द्वारा गरीबों के कल्याण के चलायी जाने वाली विभिन्न विकासात्मक तथा गैर-विकासात्मक योजनाऐं पर भारी मात्रा में लोक व्यय किया जाता है जिससे गरीबों की क्रय शक्ति में वृद्धि होती है जिससे उनकी आय में सुधार के साथ-साथ अर्थव्यवस्था में मांग व पूर्ति शक्तियों के मध्य सामन्जस्य स्थापित करने में सहायता मिलती है। लोक व्यय का वितरण पर कई तरह से प्रभाव डाला जाता है। अत: लोक व्यय के वितरण पर एक तरफा पड़ने वाले प्रभावों का मापन करना इतना सरल कार्य नहीं है लेकिन महत्वपूर्ण आवश्यक है।

लोक व्यय का वितरण पर पड़ने वाले प्रभावों के सम्बन्ध में प्रो0 पीगू का मत है कि कोई भी कार्य जो गरीबों की वास्तविक आय के कुल भाग में वृद्धि करता हो सामान्यतया आर्थिक कल्याण में वृद्धि करता है।लोक सत्तायें अपने राज्य के नागरिकों को एक आवश्यक न्यूनतम जीवन स्तर का आश्वासन देती हैं तथा इसके लिये राजकोशीय निति के अन्तर्गत लोक व्यय का इस प्रकार से प्रयोग करती है कि राज्य में व्याप्त बढ़ती आय तथा सम्पत्ति की अवांछनीय विसमता को दूर किया जा सके । लोक व्यय की वह पद्धति अधिक उत्तम मानी जाती है जो आय की असमानता को कम करने की क्षमता रखती हो लोक व्यय के द्वारा वितरण को प्रभावित करने के लिये इस विधि का प्रयोग किया जाता है जो वितरण को अलग-अलग रूपों में प्रभावित करती है ।
  1. आनुपातिक लोक व्यय के द्वारा वितरण को प्रभावित किया जाता है । इस प्रणाली के अन्तर्गत समाज के व्यक्तियों को उनकी आय के अनुपात में ही लोक व्यय से सम्बन्धित लाभ या सुविधाऐं उपलब्ध कराई जाती है। जैसे मकान भत्ता में तीन प्रतिशत की वृद्धि कर दी जाये।
  2. प्रतिगामी व्यय के द्वारा समाज के लोगों को प्राप्त आय की तुलना में कम अनुपात में लोक व्यय के द्वारा सुविधायें उपलब्ध करायी जाती है। विकासशील तथा पिछड़े देशों में गरीवो के लिये आवश्यक सुविधायें उपलब्ध कराने के लिये अमीर वर्ग के लिये इस प्रतिगामी लोक व्यय की रीत को अपनाया जाता है क्योंकि अमीर वर्ग को उनसे प्राप्त आय की अपेक्षा उन्हें कम अनुपात में लोक व्यय की सुविधायें प्राप्त हो पाती हैं।
  3. प्रगतिशील लोक व्यय समाज में आय की अपेक्षा अधिक मा़त्रा में सुविधायें उपलब्ध कराता है। निर्धनों को उपलब्ध होने वाली सार्वजनिक सेवायें उनकी आय से अधिक मात्रा में उपलब्ध करायी जाती है। विकासशील तथा पिछड़े देशों में व्याप्त गरीबी, अशिक्षा, बेराजगारी जेसी समस्याओं के समाधान हेतु प्रगतिशील लोक व्यय अत्यन्त ही सार्थक सिद्ध होता है। लोक व्यय का वितरण पर पड़ने वाले प्रभावों के सम्बन्ध में निम्न तथ्य भी अत्यन्त उपयोगी है निर्धन वर्ग के लिए नि:शुल्क व्यवस्था- सार्वजनिक व्यय की नीति में यह व्यवस्था की जानी चाहिए कि निर्धन वर्ग के लिए शिक्षा, चिकित्सा एवं बच्चों के लिए पौश्टिक भोजन की नि:शुल्क व्यवस्था होनी चाहिए।
उपादान- सरकार उत्पादकों और वितरकों को उपादान प्रदान करके यह व्यवस्था कर सकती है कि निर्धन और मध्यम वर्ग के लोगों के लिए खाद्यान्न, वस्त्र एवं मकानों की उचित रियायती दरों पर उपलब्ध कराया जाये।

नकद अनुदान- कुछ विशिष्ट वर्गो को दिये जाने वाले नकद, अनुदान धन की वितरण व्यवस्था को सन्तुलित बनाने में योगदान देते है। इनमें वृद्धावस्था के लिए पेंशन, बीमारी भत्ता, बेरोजगारी भत्ता, मातृत्व भत्ता, विधवाओं के लिए पेंशन अपंगों के लिए सहायता इत्यादि का उल्लेख किया जा सकता है। पिछड़े क्षेत्रों पर अधिक व्यय- देश में धन के वितरण की असमानता को कम करने के लिए यह भी आवश्यक है कि सरकार द्वारा अविकसित एवं पिछडे क्षेत्रों के विकास पर पर्याप्त ध्यान देना चाहिए। इससे वहां के लोगों के जीवन स्तर में सुधार होता है और आर्थिक क्रियाओं में वृद्धि को प्रोत्साहन मिलता है।

लघु एवं कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहन- यदि सरकार विभिन्न वित्तीय सहायता एवं प्रेरणाओं द्वारा लघु और कुटीर उद्योगों को प्रोत्साहित करती है, तो उससे भी सम्पत्ति के वितरण में सुधार होता है। उचित वेतन, मजदूरी एवं भत्ते- सरकार को यह देखना चाहिए कि वेतन भोगी वर्ग को उचित वेतन, मजदूरी एवं भत्ते मिलें। इसके लिए सरकार को निश्चित रूप से व्ययों में वृद्धि करनी होगी। दूसरी ओर निजी उपक्रमों में इस प्रभाव से उद्योगपतियों से कर्मचारी वर्ग के आय का उचित प्रवाह होता रहता है। लोक व्यय का वितरण पर प्रभाव के सम्बन्ध में लुट्ज का यह कथन अत्यन्त ही उपयागी है। "सार्वजनिक धन के वितरण की स्थायी नीति अपनाने से देश को हानि होगी और यदि इसी उद्देश्य से व्यय किया जाये तो सरकार का अधिकांश व्यय अनुत्पादक माना जाएगा।'' इस सम्बन्ध में ब्यूहलर ने स्पष्ट किया कि धन के वितरण की असमानताओं को कम करने के लिये सरकार को गरीबों पर अधिक व्यय करके तथा धनी वर्ग पर अधिक करारोपण की रीति को कुछ समय तक लागू करना होगा । 

आपको यहां पर लोक व्यय तथा वितरण के समबन्ध में कीन्स के विचार को ही ध्यान में रखना होगा। कीन्स के अनुसार निर्धनों में धनी व्यक्तियों की अपेक्षा उपभोग पर व्यय करने की अधिक प्रव्रत्ति पायी जाती है और इसी कारण जब धनी वर्ग से धन ले कर गरीबों पर व्यय किया जायेगा तो देश में व्यय के धन की मात्रा बढ़ेगी जिससे उत्पादन तथा रोजगार में वृद्धि होगी।

लोक व्यय के प्रभावों की सीमाएं

आपनें इसमें प्रारम्भ में लोक व्यय के उत्पादन, वितरण आदि पर पड़ने वाले प्रभावों को अध्ययन किया। लेकिन इस संदर्भ में आपको यह भी ध्यान रखना होगा कि जिन प्रभावों के उददेश्यों को ध्यान में रखकर सरकार लोक व्यय करती है वे प्रभाव पूर्ण रूप से प्रभावी नहीं हो पाते है। जनता का व्यवहार तथा गैर आर्थिक क्रियाकलाप लोक व्यय के प्रभावों को कम करने में सफल हो जाते हैं। इसके साथ सरकारी योजनाओं तथा क्रियाकलापों का उचित क्रियान्वयन नहीं हो पाने से भी लोक व्यय के प्रभाव सीमित हो जाते है। एक अन्य महत्वपूर्ण सीमा यह भी देखने को मिलती है कि यदि सरकारी लोक व्यय से प्राप्त उद्देश्यों को एक निश्चित समय सीमा में नहीं रखा गया अर्थात समय तत्व को ध्यान में नही रखा गया तो लोक व्यय के प्रभाव एक बड़ी सीमा तक प्रभावित होते है। सामान्यत: यह प्रभाव नकारात्मक या प्रतिकूल रूप में ही परिचलित होते है। अनावश्यक राजनीतिक हस्तक्षेप तथा प्राकृतिक आपदाओं आदि कारणों से भी लोक व्यय के प्रभाव पूर्ण रूप से दिखाई नहीं देतें है।

संदर्भ -
  1. भाटिया, एच0एल (2006)-(Public Finance) , विकास पब्लिशिंग हाउस प्रा0 लि0 जंगपुरा, नई दिल्ली।
  2. पंत, जे0सी0 (2005)-राजस्व ,लक्ष्मीनारायण अग्रवाल, पुस्तक प्रकाशक एवं विक्रेता, अनुपम प्लाजा, संजय प्लेस, आगरा।
  3. वाष्र्णेय, जे0सी0 (1997)-राजस्व, साहित्य भवन पब्लिकेशन हास्पीटल रोड, आगरा।
  4. सिंह, एस0के0 (2013)-लोक वित्त के सिद्धान्त तथा भारतीय लोक वित्त, साहित्य भवन पब्लिकेशन, आगरा।

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