लोक वित्त की अवधारणा के अन्तर्गत लोक वित्त की परिभाषा, विचारधारा एवं सिद्धान्त आदि आते हैं । लोक वित्त की अवधारणा को और स्पष्ट करने हेतु सर्वप्रथम हमें इसके अर्थ के बारे में जानना होगा । परम्परागत् तौर पर लोक वित्त को राजस्व भी कहते हैं ,जिसका अर्थ है राजा का धन अर्थात् इसका तात्पर्य यह है कि राजा अपने कार्यों की पूर्ति हेतु किस प्रकार से धन की व्यवस्था करता है । लोक या सार्वजनिक शब्द से आशय जनता का प्रतिनिधित्व करने वाली संस्था से है । लोक वित्त के अन्तर्गत केन्द्रीय, राज्य और स्थानीय सरकारों के वित्त से संबंधित क्रियाओं का अध्ययन किया जाता है ।
लोक वित्त की अवधारणाओं में समय के साथ-साथ परिवर्तन होता आया है । इसका कारण यह है कि लोक वित्त के विषय क्षेत्र में समय के अनुसार व्यापक परिवर्तन हुए हैं । प्राचीन समय में लोक वित्त का क्षेत्र अत्यधिक सीमित था परन्तु वर्तमान समय में विशेषकर कल्याणकारी राज्य की स्थापना के पश्चात राज्य को मात्र सुरक्षा, कानून एवं व्यवस्था तक सीमित न रहते हुए स्वास्थ्य, शिक्षा, सामाजिक सुरक्षा, नागरिक सुविधायें जैसे जल, विद्युत आपूर्ति आदि कल्याणकारी कार्य करने होते हैं । भारत जैसे देशों में जहाँ कि आर्थिक नियोजन फलस्वरूप जन्य नियोजित विकास की प्रक्रिया में राज्य द्वारा प्रमुख रूप से विकास कार्यों में सक्रिय तथा प्रभावी भूमिका निभायी हैं एवं विभिन्न सरकारों द्वारा लोकवित्त के सार्वजनिक निवेश, सार्वजनिक ऋण तथा राजकोशीय नीतियों से संबंधित विभिन्न अवधारणाओं का प्रयोग नियोजन एवं विकास प्रक्रियाओं में किया गया है ।
लोक वित्त की अवधारणाओं को शासन व्यवस्था के विभिन्न स्वरूपों जैसे एकीकृत शासन प्रणालियों ने भी प्रभावित किया है । भारत में विशेषकर विकेन्द्रीकृत शासन व्यवस्था हेतु एवं स्थानीय संस्थाओं को अधिक स्वायत्त बनाने के लिए संविधान में 73वाँ तथा 74वाँ संशोधन करने से लोक वित्त की अवधारणाओं में नया परिवर्तन आया है ।
वैश्वीकरण तथा उदारीकरण के दौर में राज्य की भूमिका पुर्नपरिभाषित हुई है । वैश्वीकरण की इस प्रक्रिया में जहाँ बाजार प्रभावी भूमिका निभा रहा है वहीं राज्य की भूमिका में भी परिवर्तन आया है । राज्य अब नियन्त्रक की नहीं अपितु नियामक की भूमिका में आ गया है । उपरोक्त के कारण लोक वित्त की अवधारणाओं को एक नवीन दिशा मिली है ।
लोक वित्त का अर्थ
लोक वित्त के लिए ‘राजस्व’ शब्द का प्रयोग किया जाता रहा है। ‘राजस्व’ शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है: राजन् + स्वः, जिसका अर्थ होता है ‘राजा का धन’। राजतऩ्त्र में राजा समाज का प्रमुख होता था, ‘राजस्व’ वास्तव में राजा का धन होता था। राजा जो कर वसूल करता था वह उसकी सम्पत्ति मानी जाती थी और वह उसको मनमाने ढंग से व्यय कर सकता था। न तो उसे बजट बनाने की आवश्यकता थी, नहीं किसी के अनुमति की।
अंग्रेजी शब्द ‘Public Finance’ भी दो शब्दों से मिलकर बना है: Public तथा Finance। यहाँ ‘Public’ शब्द से तात्पर्य है: Public Authorities (सार्वजनिक सत्तायें अथवा सरकारें) तथा ‘Finance’ शब्द का अर्थ है: आय प्राप्त करना तथा व्यय करना।
लोक वित्त की परिभाषा
डाल्टन, ‘‘लोक वित्त सार्वजनिक अधिकारियों के आय तथा व्यय एवं इनके पारस्परिक समन्वय का अध्ययन है।’’
भारत के प्रमुख प्रोफेसर, फिन्डले सिराज के अनुसार, लोक वित्त का सम्बन्ध सार्वजनिक अधिकारियों द्वारा आय प्राप्त करने व व्यय करने के तरीके से है।’’
लोक वित्त के विभाग एवं क्षेत्र
- सार्वजनिक व्यय
- सार्वजनिक आय
- सार्वजनिक ऋण
- वित्तीय प्रशासन
- राजकोषीय नीति
- किन-किन मदों पर सरकारी व्यय होना चाहिए और किन पर नहीं अर्थात् सार्वजनिक व्यय का क्षेत्र ।
- सार्वजनिक व्यय कितने प्रकार के होते हैं अर्थात् सार्वजनिक व्यय का वर्गीकरण।
- सार्वजनिक व्यय करने में किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए अर्थात् सार्वजनिक व्यय के सिद्धान्त।
- सार्वजनिक व्यय का देश के उत्पादन तथा आर्थिक वितरण पर क्या प्रभाव पड़ता है अर्थात् सार्वजनिक व्यय के प्रभाव।
- सार्वजनिक आय के कौन-कौन से साधन हैं अर्थात् सार्वजनिक आय का वर्गीकरण।
- कर, जो कि सार्वजनिक आय का एक प्रमुख साधन है, कितने प्रकार के होते हैं, अर्थात् कर का वर्गीकरण।
- कर लगाने में किन-किन बातों पर ध्यान देना चाहिए अर्थात् करारोपण के सिद्धान्त।
- जनता की कर देने की शक्ति से क्या तात्पर्य हैं और यह किन-किन बातों पर निर्भर करती है अर्थात् करदेय क्षमता का अर्थ तथा उसके निर्धारक तत्व।
- किन कारणों से एक करदाता कर का भार किसी अन्य व्यक्ति पर डालने में सफल होता है अर्थात् कर विवर्तन के तत्व।
- सार्वजनिक आय का देश के उत्पादन तथा आर्थिक वितरण पर क्या प्रभाव पड़ता है अर्थात् सार्वजनिक आय के प्रभाव।
- किन-किन परिस्थितियों में सरकार के लिए ऋण लेना वांछनीय होगा अर्थात् सार्वजनिक ऋण का क्षेत्र।
- सार्वजनिक ऋण कितने प्रकार के होते हैं, अर्थात् सार्वजनिक ऋण का वर्गीकरण।
- किन दशाओं में ऋण लेना अधिक उपयुक्त होगा और किन दशाओं में कर लगाना अर्थात् ऋण और कर की तुलना।
- किन दशाओं में देश के भीतर से ऋण लेना अधिक उपयुक्त होगा और किन में विदेशों से अर्थात् आन्तरिक तथा वाह्य ऋण की तुलना।
- घाटे का वित्त प्रबन्ध क्या होता है, किस सीमा तक घाटे का वित्त प्रबन्ध किया जा सकता है और उसके क्या प्रभाव होते हैं अर्थात् घाटे के वित्त प्रबन्ध का अर्थ, सीमा तथा प्रभाव।
- ऋण की वापसी के कौन से तरीके हैं और उनमें से हर एक के क्या गुण व दोष है अर्थात् सार्वजनिक ऋण के शोधन के सिद्धान्त।
- ऋण के क्या प्रभाव होते हैं ?
- बजट किस प्रकार तैयार, पास तथा कार्यान्वित किया जाता है ?
- विभिन्न करों का एकत्रण किन-किन अधिकारियों तथा संस्थाओं द्वारा होता है ?
- व्यय विभागों का संचालन क्यों कर होता है ?
- सार्वजनिक लेखों के लिखने तथा उनके आडिट के लिए कौन-कौन से विभाग तथा अधिकारी होते हैं तथा उनके क्या-क्या अधिकार तथा उत्तरदायित्व हैं ? वेस्टेबल ने राजस्व के इस विभाग की आवश्यकता तथा महत्व पर विशेष बल दिया है। उनके अनुसार कोई भी वित्त की पुस्तक पूर्ण नहीं कही जा सकती, जब तक कि वह वित्तीय प्रशासन और बजट की समस्याओं का अध्ययन नहीं करती।
आधुनिक अर्थशास्त्रियों द्वारा स्वीकार किया जाने लगा है। यह बात
अब समान रूप से स्वीकार की जाती है कि विकसित अर्थव्यवस्थाओं की मुख्य
समस्या व्यावसायिक दशाओं में स्थिरता लाने की होती है जबकि अविकसित व अल्पविकसित अर्थव्यवस्था की मुख्य आर्थिक
समस्या तीव्र आर्थिक विकास है। इन दोनों ही समस्याओं के हल में राजकोषीय
नीति का सकरात्मक व महत्वपूर्ण योगदान होता है।