सार्वजनिक ऋण किसे कहते हैं सार्वजनिक ऋण के स्रोतों को या वर्गीकरण निम्न 8 आधारों पर किया जा सकता है

जब सार्वजनिक आय की तुलना में सार्वजनिक व्यय अधिक होता है तथा इस सार्वजनिक व्यय की पूर्ति सार्वजनिक ऋण लेकर की जाती है, जिसे सार्वजनिक ऋण कहते हैं।

सरकार जब सार्वजनिक व्यय सम्बन्धी आवश्यकता की पूर्ति करारोपण के द्वारा नहीं कर पाती है। तथा घाटे की वित्त व्यवस्था का भी सहारा नहीं ले पाती है। ऐसे समय वहाँ सरकार सार्वजनिक व्यय तथा सार्वजनिक आय के बीच के अन्तर को लोगों से उधार लेकर ऋण के माध्यम से पूरा करने का प्रयास करती है। यही सार्वजनिक ऋण है। इस तरह सार्वजनिक ऋण का अर्थ सरकार द्वारा लिए जाने वाले ऋण से है। सरकार द्वारा अपने देश के अन्दर तथा दूसरे देशों से लिये गये ऋण को लोक या सार्वजनिक ऋण कहते हैं। सार्वजनिक ऋण या तो आन्तरिक हो सकता है अथवा विदेशी सरकारों या अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं से लिया जा सकता है।

सार्वजनिक ऋण की परिभाषा

फिन्डले शिराज के अनुसार, “राष्ट्रीय ऋण वह ऋण है जिसमें राज्य अपनी प्रजा या अन्य देशों के वासियों का देनदार होता है।”

अन्य शब्दों में, प्रत्येक सरकार अपने व्यय को पूरा करने के लिए कई प्रकार के ऋण लेती है, इन ऋणों को ही सार्वजनिक ऋण कहते है।

सार्वजनिक ऋण के प्रकार या वर्गीकरण

सार्वजनिक ऋण के स्रोतों को या वर्गीकरण निम्न 8 आधारों पर किया जा सकता है:

1. स्रोत के आधार पर
  1. आन्तरिक ऋण: आन्तरिक ऋण वे ऋण हैं जो किसी देष के अन्दर उस देष की जनता अथवा बैंक आदि वित्तीय संस्थाओं से प्राप्त किये जा सकते है।
  2. विदेशी ऋण: विदेशी तथा अन्तर्राश्ट्रीय संस्थाओं से जो ऋण प्राप्त किये जाते है उन्हें विदेशी ऋण कहते है।
2. उपयोग के आधार पर
  1. उत्पादक ऋण: उत्पादक ऋण वे ऋण होते है जिन्हें उत्पाद कार्यों में लगाया जाता है।
  2. अनुत्पादक ऋण:अनुत्पादक ऋण वे ऋण होते है जिनके व्यय से न तो आय प्राप्त होती है और न उत्पादन क्षमता में वृद्धि होती है।
3. प्रकृति के आधार पर
  1. ऐच्छिक ऋण: ये ऋण जनता अपनी इच्छानुसार सरकार को प्रदान करती है। सरकार ऋण की शर्तों के अनुसार इनका ब्याज सहित भुगतान कर देती है।
  2. अनैच्छिक ऋण: युद्ध अथवा संकट की अवस्था में सरकार लोगों को ऋण देने के लिये मजबूर कर सकती है। इन ऋणों को लोग अपनी इच्छा से नहीं देते, इसलिये ये ऋण अनैच्छिक ऋण कहलाते है
4. अवधि के आधार पर
  1. अल्पकालीन ऋण: जो ऋण सरकार एक वर्ष तक की अवधि के लिये लेती है उन्हें अल्पकालीन ऋण कहते है।
  2. दीर्घकालीन ऋण: ये ऋण दस वर्श से अधिक समय के लिये जाते है।
5. भुगतान के आधार पर
  1. प्रतिदेय अथवा शोध्य ऋण - प्रतिदेय ऋण वे ऋण होते हैं जिनका एक निश्चित अवधि के बाद भुगतान का चयन सरकार द्वारा किया जाता है। प्रो. जे.के. मेहता के अनुसार, ‘‘प्रतिदेय ऋण वे ऋण हैं, जिसको सरकार द्वारा एक भावी तिथि पर भुगतान करने का वचन दिया जाता है।’’
  2. अप्रतिदेय अथवा अशोध्य ऋण - अप्रतिदेय ऋण वे ऋण होते हैं जिनके मूलधन के भुगतान की कोई तिथि नहीं होती किन्तु ब्याज के भुगतान की गारण्टी सरकार द्वारा दी जाती है। इस ऋण को सार्वकालिक ऋण अथवा बेमियादी ऋण भी कहते हैं। दूसरे शब्दों में, शोध्य ऋण वे होते हैं, जिनका भुगतान सरकार को ब्याज सहित एक निश्चित अवधि तक कर देना पड़ता है। इसके विपरीत अशोध्य ऋणों के सम्बन्ध में ऐसा कोई वादा सरकार नहीं करती। इस प्रकार अशोध्य ऋणों में सरकार केवल ब्याज का भुगतान करती है और मूलधन के भुगतान की चिन्ता नहीं करती है।
6. ब्याज के आधार पर - ब्याज के आधार पर भी लोक ऋण को दो भागों में विभाजित किया जाता है-
  1. ब्याज सहित ऋण  - जिस ऋण की अदायगी में मूलधन के साथ ब्याज का भुगतान भी किया जाता है उसे ब्याज सहित ऋण कहते हैं। सामान्य रूप से ऋणों की यही प्रकृति होती है।
  2. ब्याज रहित ऋण - जिस ऋण की अदायगी के समय केवल मूलधन की वापसी की जाती है तथा ब्याज का भुगतान नहीं किया जाता है ऐसे ऋण को ब्याज रहित ऋण कहते हैं। ऋण लेते समय ही यह निश्चित कर लिया जाता है कि इस ऋण पर ब्याज नहीं लिया जाएगा। कुछ विशेष परिस्थितियों में अन्तर्राष्ट्रीय वित्त संस्थाओं द्वारा इस प्रकार के ऋण दिए जाते हैं।
7. विपणन के आधार पर- 
  1. विपणन योग्य और विपणन अयोग्य ऋण - विक्रय योग्य अथवा विपणन योग्य ऋण वे हैं, जिनमें सरकारी प्रतिभूतियों को स्वतन्त्रतापूर्वक खरीदा व बेचा जाता है। आजकल अधिकांश ऋण इसी श्रेणी के हैं। ऐसे ऋण जिन्हें उन सरकारी प्रतिभूतियों के आधार पर प्राप्त किया गया हो, जिन्हें खुले बाजार में बेचा जा सकता है, जैसे - डाकखाने के बचत पत्र। परन्तु कुछ ऋण विपणन योग्य नहीं होते।
8. मात्रा के आधार पर - 
  1. सकल ऋण एवं शुद्ध ऋण - किसी समय विशेष में सरकार के जितने ऋण होते हैं, उन सबके योग को सकल ऋण कहा जाता है। यदि सरकार ऋणों का भुगतान करने के लिए कोई विशेष कोष एकत्र करती है तो उस कोष को कुल ऋण राशि में से निकाल कर जो कुछ शेष बचत है वह शुद्ध ऋण कहलाता है।

सार्वजनिक ऋण में वृद्धि के कारण 

वर्तमान में प्रायः सब देशों में लोक ऋण की मात्रा में बृद्धि हुई है, विशेष रूप से विकासशील देशों में लोक ऋण की मात्रा तीब्र गति से बढ़ी है। लोक ऋण में बृद्धि के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं: 
  1. कल्याणकारी राज्य होने से सरकार के कार्यक्षेत्र में बृद्धि होने से उसके व्यय में भारी बृद्धि हुई है। साथ ही सरकारों को युद्ध तथा युद्ध की तैयारी पर भारी व्यय करना पड़ता है, जो अनुत्पादक व्यय होता है। इस व्यय की पूर्ति हेतु सरकार को ऋण लेना पड़ता है।
  2. आजकल सामान्यतया सरकारों द्वारा घाटे के बजट बनाए जाते हैं और बजट प्रस्तुत करते समय जिस व्यय को बिना पूर्ति के छोड़ दिया जाता है, बाद में उसकी पूर्ति लोक ऋण से की जाती है। 
  3. सम्प्रति, कल्याणकारी राज्यों की स्थापना से तथा लोगों के आर्थिक कल्याण में बृद्धि करने के लिए सरकार को सार्वजनिक निर्माण कार्यों पर भारी व्यय करना होता है, जैसे - सड़कें, रेल, बाँध, नहरें, स्वास्थ्य एवं शिक्षा आदि। इसकी वित्तीय व्यवस्था काफी अंशों में ऋणों से की जाती है।
  4. योजनागत् आर्थिक विकास की विभिन्न परियोजनाओं की वित्तीय व्यवस्था के लिए बड़ी मात्रा में धन की आवश्यकता होती है। इसकी व्यवस्था लोक ऋण द्वारा की जाती है, जिससे लोक ऋण में बृद्धि होती है। 
  5. देश में मुद्रा-प्रसार एवं आर्थिक मन्दी के कारण अर्थव्यवस्था में अस्थिरता पैदा हो जाती है, जिसका देश पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। अतः यह आवश्यक हो जाता है कि देश में आर्थिक स्थिरता रहे। मन्दी को दूर करने के लिए सरकारी व्यय लोक ऋण द्वारा की जाती है। इस प्रकार उपर्युक्त कारणों से स्पष्ट है कि लोक ऋण की मात्रा में बहुत अधिक बृद्धि हुई है।

सार्वजनिक ऋण और निजी ऋण के में अंतर

सार्वजनिक तथा व्यक्तिगत ऋणों के बीच अनेक समानतायें हैं, पर साथ ही कुछ असमानतायें भी हैं। जिन्हें निम्न प्रकार लिखा जा सकता है:

1. सार्वजनिक ऋण और निजी ऋण में समानतायें - 

(i) उद्देश्य - व्यक्तिगत तथा सार्वजनिक दोनों ही ऋण आकस्मिक समय में लिए जाते हैं। जब किसी कारण से आय की मात्रा व्यय की तुलना में कम पड़ जाती है, तभी व्यक्ति तथा सरकार द्वारा ऋण लिये जाते हैं।

(ii) ऋण की सीमा - व्यक्ति तथा सरकार दोनों की ही ऋण लेने की एक निश्चित सीमा होती है, जिसके बाद उन्हें ऋण नहीं प्राप्त होता है। यह सीमा उनकी ऋण तथा ऋण के ब्याज के भुगतान करने की क्षमता पर निर्भर करती है। यह बात दूसरी है कि व्यक्ति की ऋण क्षमता तथा साख दोनों कम होती है जबकि सरकार की क्षमता तथा साख दोनों अधिक होती है पर एक सीमा के बाद सरकार को भी उसी प्रकार ऋण नहीं मिल पाता है, जिस प्रकार व्यक्ति को।

(iii) भुगतान का दायित्व - दोनों ही ऋणो में ऋण के ब्याज तथा मूलधन के भुगतान के दायित्व के सम्बन्ध में समानता रहती है। दोनों के भुगतान के ढंग में अन्तर हो सकता है।

(iv) कोष का स्थानान्तरण - सार्वजनिक तथा व्यक्तिगत दोनों ही ऋणों में एक प्रयोग से दूसरे प्रयोग में कोष का हस्तान्तरण होता है। व्यक्तिगत ऋण की स्थिति में हम यह पाते हैं कि ऋण से प्राप्त कोष का प्रयोग किसी साधन को प्राप्त करने के लिए किया जाता है, इस प्रकार एक प्रयोग के लिए दूसरे प्रयोग का त्याग करना पड़ता है। यही बात सार्वजनिक ऋण के भी सम्बन्ध में ठीक है। क्योंकि इसमें भी सरकार इस कोष के द्वारा कोई साधन प्राप्त करती है तथा इसमें व्यक्तिगत प्रयोग का त्याग करके सार्वजनिक प्रयोग में कोष को लगाया जाता है।

(v) ऋण का प्रयोग - व्यक्तिगत ऋण के सम्बन्ध में ऋणी यथा सम्भव प्रयास करता है कि ऋण का प्रयोग लाभप्रद उपयोगों में हो अन्यथा दायित्व का भुगतान नहीं किया जा सकता, ठीक यही बात सार्वजनिक ऋणों के भी सम्बन्ध में सही है, सरकार को भी यही प्रयास करना चाहिए।

2. सार्वजनिक ऋण और निजी ऋण में असमानतायें - एक व्यक्ति की भाँति सरकार को भी ऋण लेना पड़ता है, लेकिन सरकार एवं जनता के द्वारा लिए गए ऋणों के उपयोग एवं ऋण की व्यवस्था में कुछ मौलिक अन्तर पाए जाते हैं, जो इस प्रकार है -

(i) ऋण का उद्देश्य - एक व्यक्ति अपने परिवार के हितों के लिए अथवा अपने निजी लाभ के लिए ऋण लेता है जबकि सरकार देश के कल्याण के लिए ऋण लेती है। कभी-कभी सरकार मुद्रा प्रसार की स्थिति को भी नियन्त्रित करने के लिए देश के लोगों से ऋण लेती है। सामान्यतया सरकार द्वारा लिए गए अधिकांश ऋण उत्पादक होते हैं, जबकि व्यक्तिगत ऋण उत्पादक तथा अनुत्पादक दोनों ही प्रकार के हो सकते हैं।

(ii)  ब्याज की दर - सरकार की साख अधिक होने के कारण उसे कम ब्याज पर उधार मिल जाता है जबकि व्यक्तिगत ऋण प्रायः ऊँची ब्याज की दरों पर ही उपलब्ध हो पाता है।

(iii)  ऋण की मात्रा, अवधि तथा जमानत - एक व्यक्ति की तुलना में सरकार अपनी ऊँची साख के कारण बड़ी मात्रा में तथा लम्बे समय के लिए ऋण ले सकती है और सरकार को जमानत देने की भी आवश्यकता नहीं पड़ती। इसके विपरीत, व्यक्तिगत ऋणों की मात्रा एवं अवधि अपेक्षाकृत कम होती है और ऋण लेने के लिए प्रायः जमानत अथवा उचित धरोहर का होना आवश्यक समझा जाता है।

(iv) ऋण प्राप्ति के रूप तथा स्रोत - सरकार अपने देश के नागरिकों तथा विभिन्न संस्थाओं से ऋण लेने के साथ-साथ आवश्यकता पड़ने पर विदेशों से भी ऋण ले सकती है। इसके अलावा सरकार स्वयं भी ऋण का स्रोत उत्पन्न कर सकती है जबकि एक व्यक्ति या तो बैंक से अथवा अपने मित्रों एवं रिश्तेदारों से या साहूकार से ऋण ले सकता है। व्यक्ति के ऋण सम्बन्धी साधन अत्यन्त सीमित होते हैं और उसे प्रायः आन्तरिक ऋण ही उपलब्ध हो सकता है।

(v) अनिवार्यता - सरकार के पास राजसत्ता होती है। अतः वह आन्तरिक ऋण तो अपने अधिकारों का प्रयोग कर ले सकती है, जैसे आयकर दाताओं पर अनिवार्य बचत योजना लागू कर सरकार ने उनसे ऋण लिया था। किन्तु एक व्यक्ति इस प्रकार किसी शक्ति या अधिकार से ऋण नहीं ले सकता।

(vi) ऋण भार - व्यक्ति जब ऋण लेता है तो उसका भार उसी व्यक्ति पर पड़ता है या अधिकतम उसके परिवार के सदस्यों पर पड़ता है किन्तु सरकार द्वारा लिए गए ऋण का भार पूरे देश के लोगों पर पड़ता है क्योंकि ऋण चुकाने के लिए सरकार लोगों पर कर लगाती है। यही नहीं सार्वजनिक ऋण का भार वर्तमान पीढ़ी के साथ-साथ भावी पीढ़ी पर भी पड़ता है।

(vii) साख का अन्तर - सरकार की साख अधिक होने से सरकार को सरलता से तथा कम ब्याज पर ऋण मिल जाता है। इसी कारण सरकार द्वारा जारी ऋणपत्र हाथों-हाथ बिक जाते हैं, क्योंकि लोग सरकार को ऋण देना सुरक्षित विनियोग समझते हैं। किन्तु एक व्यक्ति को इतनी सरलता से ऋण नहीं मिलता साथ ही उसे ऊंची दर का ब्याज भी देना पड़ता है।

(viii) ऋण का लाभ से सम्बन्ध - जब व्यक्तिगत ऋण व्यय किया जाता है तो इससे ऋणदाता को कोई लाभ प्राप्त नहीं होता किन्तु जब सरकार ऋण की राशि व्यय करती है तो देश के नागरिकों को लाभ प्राप्त होता है। इस लाभ में वे व्यक्ति भी शामिल होते हैं जो सरकार को ऋण नहीं देते हैं।

(ix) ऋण का परिशोधन - सरकार ऋण का भुगतान करने से इन्कार कर सकती है अथवा अपने ढंग से भुगतान करने का निर्णय ले सकती है किन्तु एक व्यक्ति लिए हुए ऋण का भुगतान करने से इन्कार नहीं कर सकता और यदि वह ऐसा करता है तो उस पर कानूनी कार्यवाही की जा सकती है। किन्तु सरकार भी अपनी साख को दृष्टि में रखते हुए ऋण का भुगतान करने से इन्कार नहीं करती।

(x) अवधि का अन्तर - व्यक्ति प्रायः अल्पावधि के लिए ऋण लेता है अथवा यह कुछ ही वर्षों के लिए होता है। इसके विपरीत, सरकार दीर्घकालीन योजनाओं के लिए दीर्घकालीन ऋण लेती है, जो 20-25 वर्ष या उससे भी अधिक की अवधि की हो सकती है।

(xi) गोपनीयता - व्यक्तिगत ऋण सामान्यतया गोपनीय रखे जाते हैं, जबकि सार्वजनिक ऋणों को गोपनीय नहीं रखा जाता। व्यक्ति अपनी साख व प्रतिष्ठा बचाए रखने के लिए ऐसा करता है। अधिकाधिक ऋणभार पड़ने पर भी वह अपनी स्थिति को छिपाए रखता है। इसके विपरीत, सरकार समय-समय पर ऋणों के लिए आँकड़ों को प्रकाशित करती रहती है, जिससे देश के नागरिकों के सामने स्थिति स्पष्ट रहे।

(xii) आवश्यकता का अन्तर- कोई ऋण तभी लेता है जब उसको धन की आवश्यकता होती है, परन्तु सरकार बहुत बार धन प्राप्त करने के दृष्टिकोण से नहीं वरन् अर्थव्यवस्था को प्रभावित करने के लिए तथा उसमें आवश्यक परिवर्तन की दृष्टि से भी ऋण लेती है। यथा स्फीतिकाल में व्यक्तियों के पास क्रयशक्ति कम करने के उद्देश्य से सरकार जनता से ऋण लेती है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि निजी ऋण एवं सार्वजनिक ऋण में अन्तर होता है।

सन्दर्भ -
  1. Shapiro, E. (1996), “Macroeconomic Analysis”, Galgotia Publications, New Delhi.
  2. Branson, W.A. (1989), “Macroeconomics: Theory and Policy”, 3rd Edition, Harper and Row, New York.
  3.  Gupta, S.B. (1994), “Monetary Economics”, S. Chand and Co., Delhi.
  4. Ackley, G. (1978), “Macroeconomics: Theory and Policy”, Macmillan, New York.

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