गुप्त वंश की उत्पत्ति, प्रारम्भिक शासक, प्रशासनिक व्यवस्था

गुप्त वंश (Gupta dynasty) की स्थापना श्रीगुप्त ने की थी जो संभवतया वैश्य जाति से संबंधित थे। वे मूलत: मगध (बिहार) तथा प्रयाग (पूर्वी उ.प्र.) के वासी थे। उसके पुत्र घटोत्कच जिसने महाराजा की उपाधि धारण की थी, एक छोटा-मोटा शासक प्रतीत होता है, किन्तु उसके विषय में अधिक जानकारी उपलब्ध नहीं है।

गुप्त वंश की उत्पत्ति

‘गुप्त कौन थे’ इस सम्बन्ध में इतिहासकारों के अनेक मत हैं। काशी प्रसाद जायसवाल के अनुसार गुप्त सम्राट जाट और मूल रूप से पंजाब के निवासी थे। दशरथ शर्मा ने भी धारण गोत्र के कारण गुप्तों को जाट माना है क्योंकि धारण गोत्र जाटों में प्रचलित है। 

गौरी शंकर ओझा एवं डा0 पांथरी ने गुप्तों को क्षत्रिय बताया है। उनके अनुसार गुप्तों के वैवाहिक सम्बन्ध लिच्छवी और वाकाटकों के साथ थे, जो क्षत्रिय वंश के थे। बाद के अभिलेखों में गुप्तों को चन्द्रवंशी क्षत्रिय कहा गया है। 

हेमचन्द्र रायचैधरी ने गुप्तों को ब्राह्मण और शुंग वंश की महारानी धारिणी के वंश का माना है। अल्तेकर, एलन, आयंगर, रामशरण शर्मा, सत्यकेतु विद्यालंकर आदि विद्वानों के अनुसार गुप्त वैश्य थे, क्योंकि स्मृतियों के अनुसार
नाम के उत्तरांश में गुप्त शब्द जोड़ा जाना वैश्यों की विशेषता है तथा वैश्यों में अग्रवाल धारण गोत्र के हैं, जो गुप्तों का भी गोत्र था।

परमेश्वरी लाल गुप्त का मानना है कि जिस युग में गुप्तवंशी शासक हुए उस युग में वर्ण और जाति की अपेक्षा कर्म और गुण का महत्व अधिक था। गुप्त शासक किसी प्राचीन राजवंश या कुल से सम्बन्धित हों या न हों अथवा उनकी सामाजिक स्थिति कैसी भी रही हो वह सफल शासक सिद्ध हुए।

गुप्त वंश के प्रारम्भिक शासक

गुप्त शासकों के अभिलेख में वंशावली उपलब्ध हैं, उनके अनुसार गुप्त वंश की स्थापना श्री गुप्त ने की थी। अभिलेखों में गुप्त वंश के प्रारम्भिक शासक गुप्त तथा उसके पुत्र घटोत्कच को ‘महाराजा श्री’ उपाधि से सम्मानित किया गया है, जबकि तीसरे सम्राट चन्द्रगुप्त के लिए ‘महाराजाधिराज’ शब्द का प्रयोग किया गया है। महाराजा उपाधि परवर्ती गुप्त शासकों के अभिलेखों में छोटे सामन्तों के लिए प्रयुक्त हुयी है। अतः अधिकांश विद्वान मानते हैं कि प्रारम्भिक गुप्त शासक सामन्त अथवा छोटे जमींदार थे। रामशरण शर्मा ने इन्हें कुषाणों का सामन्त बताया है। परन्तु गुप्तों के उदय के समय महाराज शब्द का प्रयोग कौशाम्बी के मघों, भारशिवों तथा वाकाटकों में स्वतंत्र शासकों द्वारा किया जा रहा था। सम्भवतः प्रारम्भिक गुप्त शासक स्वतंत्र शासक रहे हों, परन्तु उनका राज्य बहुत बड़ा नहीं था। रोमिला थापर का मानना है कि यह धनी भूस्वामियों का परिवार था, जिसने धीरे-धीरे राजनीतिक सत्ता प्राप्त कर ली थी।

1. श्री गुप्त

गुप्त अभिलेखों में श्री गुप्त के शासन काल अथवा राज्य का कोई उल्लेख नहीं मिलता। चीनी यात्री ईत्सिंग ने श्री गुप्त नामक एक शासक का उल्लेख किया है, जिसने चीनी यात्रियों के लिए एक मन्दिर का निर्माण मृगशिखावन में कराया था और उसके खर्च के लिए चैबीस गाँव दान किए थे। इसे कुछ विद्वान गुप्त वंश का संस्थापक मानते हैं।
गुप्तों के मूल स्थान के विषय में विद्वानों में मतभेद हैं। 

गुप्त वंश के संस्थापक श्री गुप्त के समय पर भी अनेक विचार प्रचलित हैं। इतिहासकार राधाकुमुद मुखर्जी श्री गुप्त का समय 240 से 280 ई0 के मध्य मानते हैं। परन्तु विन्सेन्ट स्मिथ ने 319 को चन्द्रगुप्त प्रथम का प्रारम्भिक वर्ष मानते हुए श्री गुप्त का समय 277 से 300 ई0 के मध्य माना है, जिसे अधिकांश विद्वानों ने स्वीकार किया है।

2. घटोत्कच गुप्त

श्री गुप्त के बाद उसका पुत्र महाराज श्री घटोत्कच का नाम वंशावली में मिलता है। स्कन्दगुप्त के समय के सुपिया अभिलेख में घटोत्कच को ही गुप्त वंश का आदिराज कहा गया है। वाकाटकों के अभिलेखों में भी गुप्त वंश की वंशावली घटोत्कच से ही प्रारम्भ की गयी है। विद्वानों के अनुसार घटोत्कच ने लगभग 300 ई0 से 319 ई0 तक शासन किया होगा। गुप्त अभिलेखों में घटोत्कच के विषय में ज्यादा जानकारी नहीं मिलती है।

3. चन्द्रगुप्त प्रथम

चन्द्रगुप्त प्रथम इतिहासकारों के अनुसार गुप्त वंश का प्रथम स्वतंत्र शासक था। गुप्त वंश को एक साम्राज्य के रूप में स्थापित करने का कार्य उसने ही किया। अभिलेखों में चन्द्रगुप्त प्रथम के लिए महाराजाधिराज पदवी का प्रयोग हुआ है। समस्त अभिलेखों में इसी का उल्लेख मिलता है तथा उनके सामंतो में भी। उसने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की थी। उसका विवाह लिच्छवी वंश की राजकुमारी कुमारदेवी से हुआ था। चन्द्रगुप्त द्वारा ज़ारी की गई स्वर्ण मुद्राओं की श्रृंखला में इस घटना को वर्णित किया गया है। प्रतीत होता है कि इस वैवाहिक सम्बन्ध ने गुप्त सम्राट को वैधता, सम्मान तथा शक्ति प्रदान की। चन्द्रगुप्त का साम्राज्य मगध (बिहार), साकेत (आधुनिक अयोध्या) तथा प्रयाग (वर्तमान इलाहाबाद) तक विस्तृत था। उसकी राजधानी पाटलिपुत्र (वर्तमान पटना) थी। पूर्ववर्ती दोनों शासकों की अपेक्षा उसकी पदवी बड़ी है और उसके बड़े राज्य का शासक होने का प्रतीक लगती है। उसके सोने के सिक्के भी प्राप्त हुए हैं। इस आधार पर अधिकांश विद्वान उसे गुप्त वंश का वास्तविक संस्थापक मानते हैं।

4. समुद्रगुप्त

समुद्रगुप्त (सन् 335-375) चन्द्रगुप्त प्रथम का उतराधिकारी बना। समुद्रगुप्त ने युद्ध तथा विजय की नीति का अनुसरण किया एवं अपने साम्राज्य का अत्यधिक विस्तार किया। उसकी उपलब्धियों का सम्पूर्ण विवरण उसके राजदरबारी कवि हरिसेन द्वारा संस्कृत में लिखे गए वर्णन में लिपिबद्ध किया गया है। यह आलेख इलाहाबाद के निकट एक स्तंभ पर वर्णित है। यह समुद्रगुप्त द्वारा जीते गए वंशों तथा क्षेत्रों के नाम को बतलाती है। उसने हर जीते हुए क्षेत्र के लिए भिन्न नीतियाँ अपनाई थीं।

गंगा यमुना दोआब में उसने दूसरे राज्यों को बलपूर्वक सम्मिलित करने की नीति का अनुसरण किया। उसने नौ नागा शासकों को पराजित कर उनके राज्य को अपने साम्राज्य में मिलाया। तत्पश्चात् वह मध्य भारत के वन प्रदेशों की ओर बढ़ा जिनका उल्लेख ‘अतवीराज्य’ के रूप में मिलता है। इन कबायली क्षेत्रें के शासक पराजित हुए तथा दासत्व को बाध्य हुए। इस क्षेत्र का राजनीतिक द ष्टि से भी व्यापक महत्त्व हैं क्योंकि इससे दक्षिण भारत को मार्ग जाता था। इसने समुद्रगुप्त को दक्षिण की ओर कूच करने में सक्षम किया तथा पूर्वीतट को जीतते हुए, बारह शासकों को पराजित करते हुए वह सुदूर काँची (चेन्नई के निकट) तक पहुँच गया। समुद्रगुप्त ने राज्यों को बलपूर्वक अपने साम्राज्य में सम्मिलित करने के स्थान पर उदारता का परिचय दिया तथा उन शासकों को उनके राज्य वापस लौटा दिए। दक्षिण भारत के लिए राजनीतिक समझौते की नीति इसलिए अपनाई गई क्योंकि उसे ज्ञात था कि एक बार उत्तर-भारत में अपने क्षेत्र में लौटने के पश्चात इन राज्यों पर नियन्त्रण स्थापित रखना दुष्कर होगा। अत: उसके लिए इतना पर्याप्त था कि ये शासक उसकी सत्ता को स्वीकारें तथा उसे कर तथा उपहारों का भुगतान करें।

इलाहाबाद अभिलेख के अनुसार पाँच पड़ोसी सीमावर्ती प्रदेश तथा पंजाब एवं पश्चिम भारत के नौ गणतन्त्र समुद्रगुप्त की विजयों से भयभीत हो गए थे। उन्होंने बिना युद्ध किए ही समुद्रगुप्त को धन तथा करों का भुगतान करना तथा एवं उसके आदेशों का पालन करना स्वीकार कर दिया था। अभिलेख से यह भी ज्ञात है कि दक्षिण-पूर्वी एशिया के भी कई शासकों से समुद्रगुप्त को धनादि प्राप्त होता था।

मुख्य रूप से यह माना जाता है कि हालांकि उसका साम्राज्य एक विस्तृत भू-खण्ड तक फैला हुआ था, किन्तु समुद्रगुप्त का प्रत्यक्ष प्रशासनिक नियन्त्रण मुख्य गंगा घाटी में था। वह अपनी विजय का उत्सव अश्वबलि देकर मनाता था अश्वमेध एवं इस अवसर पर अश्वमेध प्रकार के सिक्के (बलि को वर्णित करते सिक्के) जारी करता था। समुद्रगुप्त केवल विजेता ही नहीं, बल्कि एक कवि, एक संगीतकार, तथा शिक्षा का महान संरक्षक था। संगीत के प्रति उसका प्रेम उसकी उन मुद्राओं से मुखरित होता है, जिसमें उसे वीणा बजाते हुए दिखाया गया है।

5. चन्द्रगुप्त द्वितीय

समुद्रगुप्त के बाद उसका पुत्र चन्द्रगुप्त द्वितीय उसका उत्तराधिकारी बना। उसे चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के नाम से भी जाना जाता है। उसने मात्र अपने पिता के साम्राज्य का विस्तार ही नहीं किया, बल्कि इस युग के अन्य वशों के साथ वैवाहिक संबंधों द्वारा अपनी स्थिति को भी सुद्ढ़ किया।उसने नागा राजकुमारी कुवेरनाग से विवाह किया तथा उसे प्रभावती नामक पुत्री भी थी। प्रभावती का विवाह दक्षिण में शासन कर रहे वाकाटक वंश के शासक रुद्रसेन द्वितीय से हुआ था। अपने पति की मृत्यु के उपरान्त कलावती ने अपने पिता की सहायता से अपने अवयस्क पुत्र के संरक्षक के रूप में शासन किया था। वाकाटक क्षेत्र पर नियंत्रण चंद्रगुप्त द्वितीय के लिए वरदान सिद्ध हुआ, क्योंकि अब वह अपने अन्य शत्रुओं पर और बेहतर तरीके से आक्रमण कर सकता था।

उसकी महानतम सैन्य उपलब्धि पश्चिमी भारत में 300 वर्षों से शासन कर रहे शासक साम्राज्य पर विजय रही। इस विजय के फलस्वरूप गुप्त साम्राज्य की सीमाएं भारत के पश्चिमी तट तक पहुंच गई मेहरौली, दिल्ली में स्थित एक लौह स्तंभ से हमें संकेत मिलते हैं कि उसके साम्राज्य में उत्तर-पश्चिम भारत तथा बंगाल के भी राज्य थे। उसने विक्रमादित्य की उपाधि धारणा की थी अर्थात् सूर्य के समान बलशाली। चंद्रगुप्त द्वितीय कला तथा साहित्य के संरक्षण के लिए विख्यात है। उसके दरबार में नवरत्न हुआ करते थे। संस्कृत के महान कवि तथा नाटककार कालिदास इनमें सर्वाधिक चर्चित रहे। चीनी बौद्ध तीर्थयात्री फाह्यान (सन् 404-411) ने उसके शासन काल में भारत की यात्रा की थी। उसने पांचवी शताब्दी के लोगों के जीवन का विवरण दिया है।

गुप्त वंश की प्रशासनिक व्यवस्था

मौर्ययुग में राजनीतिक शक्ति राजा के हाथों में ही केन्द्रित थी किन्तु गुप्त प्रशासन स्वभावतया विकेन्द्रित था। इसका तात्पर्य जागीरें अर्थात् स्थानीय शासक एवं छोटे मुखिया उनके साम्राज्य के बड़े हिस्से पर शासन करते थे। प्रतापी गुप्त शासकों ने महाराजाधिराज, परमेश्वर जैसी शानदार उपाधियां धारण की हुई थीं। इनके दुर्बल शासकों ने राजा अथवा महाराजा उपाधियों से अपने नाम को अलंकत किया। सामान्यतया राजपद वंशानुगत था। प्रशासन का मुख्य बिंदु राजा होता था। राजकुमार मंत्री तथा सलाहकार उसकी सहायता करते थे। राजकुमारों को भी क्षेत्रें का राज्यपाल नियुक्त किया जाता था। प्रान्त मुख्यत: देश, राष्ट्र अथवा भुक्ति के नाम से जाने जाते थे। उनका प्रधान ‘उपारिक’ कहलाता था। प्रान्त विभिन्न जिलों में विभक्त हुआ करते थे जिन्हें ‘प्रदेश’ अथवा ‘विषय’ कहा जाता था। ‘विषय’ का प्रधान ‘विषयपति’ के नाम से जाना जाता था। ‘विषय’ भी ग्रामों में विभक्त हुआ करते थे। ग्राम प्रमुख ‘ग्रामाध्यक्ष’ कहलाता था तथा ग्राम के वरिष्ठ नागरिकों की सहायता से ग्राम के विषयों की जिम्मेदारी निभाता था। गुप्त काल के दौरान कलाकार तथा व्यापारी नगर प्रशासन में सक्रिय भूमिका निभाते थे। मौर्यो की तुलना में गुप्त अधिकारी वर्ग कम बड़ा था। गुप्तों के अधीनस्थ उच्च स्तरीय केन्द्रीय अधिकारी कुमारअमात्य से संबोधित होते थे। महत्त्वपूर्ण पदाधिकारी, यथा-मंत्री, सेनापति सभी इसी संवर्ग से चयनित होते थे। प्रशासनिक पद मात्र वंशानुगत ही नहीं होते थे बल्कि प्राय: कई कार्यालय संयुक्त रूप से एक ही व्यक्ति द्वारा संचालित होते थे जैसे कि इलाहाबाद स्थित समुद्रगुप्त के आलेख का रचयिता, हरिसेन उसका उल्लेख ‘महादण्डनायक’ (युद्ध तथा शक्ति मंत्री) के रूप में प्राप्त होता है। प्राय: उच्च पदाधिकारियों का चयन शासक स्वयं करता था किन्तु पद वंशानुगत होने से प्रशासन पर शाही नियंत्रण दुर्बल हो गया था।

गुप्तकाल में भू-करों में व्यापक वृद्धि हुई। भू-कर अर्थात ‘बालि’, कुल उत्पादन का 1/4 से 1/6 हिस्से तक भिन्न होता था। गुप्त काल में हमें आलेख से दो नए कृषि करों का भी आभास होता है यथा ‘उपरिकर’ तथा ‘उद्रग।’ तथापि इनका यथार्थ स्वरूप स्पष्ट नहीं है। साथ ही कृषक वर्ग को सामन्तों की आवश्यकताओं को भी पूर्ण करना होता था। उन्हें गांव से शाही सैन्य बल को भोजन भी कराना होता था जिस गांव से वे गुजरते थे। ग्रामवासियों से बेगार कार्य भी लिया जाता था।अपने पिछले समय की तुलना में गुप्तकाल की न्यायिक व्यवस्था अत्यधिक उन्नत थी। अपने पिछले समय की तुलना में प्रथम बार दीवानी तथा अपराधिक विधि नियमों का स्पष्ट वर्गीकरण हुआ था। विभिन्न प्रकार की सम्पत्तियों से संबंधित विवाद दीवानी कानून के अन्तर्गत आए। उत्तराधिकार से संबंधित विस्त त नियमों की रचना इस युग में हुई। चोरी तथा व्यभिचार आपराधिक न्याय विधान के अन्तर्गत आए। राजा ने नियमों को मजबूत बनाया तथा ब्राह्मणों की सहायता से विषयों का निराकरण किया। कारीगरों तथा व्यापारियों के संगठन स्वनिर्मित नियमों द्वारा नियंत्रित होते थे।

हर्षवर्धन ने इसी पद्धति पर अपने साम्राज्य का संचालन किया, किन्तु उसके शासन काल में प्रशासन में विकेन्द्रीकरण की गति में प्रगति हुई तथा सामंत जागीरों की संख्या में भी वृद्धि हुई। हर्षवर्धन के शासन काल में अधिकारी तथा धार्मिक व्यक्तियों को भूमि के रूप में भुगतान किया जाता था। इसने सामंती प्रथा को प्रोत्साहन दिया जो कि हर्षोत्तर काल में असाधारण रूप से विकसित हुई।

हर्षवर्धन के शासन काल में कानून, न्याय एवं दंड व्यवस्था उतनी प्रभावी प्रतीत नहीं होती है। भारत में अपनी यात्रा के दौरान ह्वेनत्सांग को दो बार लूट लिया गया जबकि गुप्त काल के यात्री फाह्यान ने ऐसी किसी भी कठिनाई का उल्लेख नहीं किया है।

गुप्त वंश का सामाजिक जीवन

गुप्तकाल में समाज का तानाबाना एक परिवर्तन के दौर से गुजर रहा था। ब्राह्मणों की सर्वोच्चता में व द्धि हो रही थी। उन्हें न सिर्फ शासकों से बल्कि साधारण जनता से भी दान के रूप में भूखण्डों की प्राप्ति हो रही थी। भूखण्ड उन्हें प्रबन्ध के अधिकार तथा करों में छूट के सहित प्राप्त होते थे। अत: भू-स्वामी ब्राह्मणों के नए वर्ग का निर्माण हुआ। शासक का समर्थन प्राप्त होने की वजह से उनमें किसानों के शोषण की प्रव त्ति को जन्म लिया।

इस युग में हम जातियों में भी वृद्धि पाते हैं। सुदूर एवं विभिन्न क्षेत्रें में ब्राह्मणवादी सभ्यता के विस्तार के परिणामस्वरूप बड़ी संख्या में आदिवासी जनजातियां तथा कुछ विदेशी आक्रमणकारी, जैसे-हूण वंश, वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत ब्राह्मणवादी सामाजिक व्यवस्था में सम्मिलित हो गए। जहां विदेशी तथा जनजाति के मुखिया क्षत्रिय कहलाए वहीं साधारण जनजातियों को शूद्रों की स्थिति प्राप्त हुई। तथापि कुछ हद तक शूद्रों की स्थिति में इस युग में सुधार दिखलाई पड़ता है। उन्हें महाकाव्य तथा पुराण सुनने की अनुमति थी। वे घरेलू कर्मकाण्डों को भी कर सकते थे जो पूर्व में उनके लिए प्रतिबंधित थे। 

अस्पश्यों को चाण्डाल कहा जाता था। उनका निवास गांव से बाहर होता था तथा वे नाली साफ करना अथवा कसाईगीरी जैसे कार्य करते थे। चीनी यात्री फाह्यान के अनुसार जब वे जिलों अथवा व्यापारिक केन्द्रों में प्रवेश करते थे, तब वे अपने आने की घोषणा लकड़ी के टुकड़े को बजाकर करते थे जिससे कि अन्य उनसे छूकर भ्रष्ट न हो जाएं।

दासों का संदर्भ भी समकालीन धर्मशास्त्रों में मिलता है। नारद के अनुसार 15 प्रकार के दास हुआ करते थे। उनमें मुख्यत: ग हकार्य हेतु अर्थात् सफाई करने तथा झाडू लगाने हेतु दास थे। युद्ध के कैदी, कर्जदार, दास मां की कोख से जन्म लेने वाले सभी दास ही समझे जाते थे।

गुप्तकाल में स्त्रियों की सामाजिक स्थिति ठीक नहीं थी। स्त्रियों की अधीनता का मुख्य कारण पुरुषों पर उनकी पूर्ण निर्भरता रही। सम्पत्ति को पैत क रूप में पाने का अधिकार महिलाओं को नहीं था। तथापि स्त्रीधन अर्थात विवाह के समय प्राप्त उपहारों पर उसका पूर्णाधिकार था। कला में स्त्रियों का मुक्त चित्रण समाज में पर्दा प्रथा न होने का संकेत देते हैं। तथापि सती प्रथा का अस्तित्व अवश्य मिलता है। मध्य प्रदेश के एरान में अंकित एक उल्लेख (सन् 510) में प्रथम सती का प्रमाण मिलता है। बाणभट्ट के हर्ष चरित्र में रानी, अपने पति राजा प्रभाकरवर्धन की म त्यु पर सती हो जाती है। यहां तक कि हर्षवर्धन की बहन राजश्री भी सती प्रथा का पालन करने जा रही थी जब हर्षवर्धन ने उनकी जान बचाई।

गुप्त वंश की अर्थव्यवस्था

चौथी शताब्दी से आंठवी शताब्दी का काल एक महान कृषि विस्तार का युग था। भूमि का बड़े क्षेत्र पर जुताई प्रारंभ हुई तथा उच्च परिणाम प्राप्त करने हेतु उत्पादन के तत्कालीन उपलब्ध तरीकों में सुधार किए गए। इस सुधार का एक मुख्य कारण ब्राह्मणों तथा गैर धार्मिक कर्मिकों को विभिन्न क्षेत्रें में भूमि दान करने की परम्परा रही। इसने बिना काम वाली भूमि को भी कृषि के योग्य बना दिया। लौह वाले हल, गोबर की खाद, सिंचाई, तथा पिछड़े क्षेत्रें में पशुधन संरक्षण ने ग्रामीण सम्पन्नता में अपना सहयोग दिया। तथापि कर्ज से पीड़ित किसानों को इससे कोई लाभ नहीं हुआ।

गुप्त तथा गुप्तोत्तर युग में व्यापार तथा वाणिज्य के क्षेत्र में पतन हुआ। सन् 550 तक भारत के पूर्वी रोम साम्राज्य के साथ व्यापारिक संबंध थे, जब भारत मसालों तथा रेशम का निर्यात किया करता था। छठी शताब्दी के लगभग रोम नागरिकों ने रेशम के धागे बुनने की कला को सीख लिया। इस विशेष वस्तु के उत्पादन क्षेत्र में विदेशी व्यापार को इससे काफी ठेस पहुंची। हूणों द्वारा उत्तर पश्चिमी मार्ग पर अवरोध उत्पन्न करना भी इस पतन के घटकों में रहा। भारत ने इसकी क्षतिपूर्ति दक्षिण पूर्वी एशिया के साथ वाणिज्य संबंध बना कर करनी चाही किन्तु इससे भी अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने में सहायता प्राप्त नहीं हुई। निम्न व्यापार ने देश में सोने एवं चांदी की आपूर्ति पर भी असर डाला। इसका प्रमाण गुप्तकाल के पश्चात स्वर्ण की कमी से मिलता है।

गुप्त शासकों द्वारा बड़ी संख्या में स्वर्ण मुद्राएं प्रचलन में लाई गई थीं, जिन्हें दीनार कहते थे। किन्तु चन्द्रगुप्त द्वितीय के पश्चात् हर गुप्त शासक के शासन काल में स्वर्ण मुद्राओं में सोने की तुलना में मिश्र धातु की अधिकता रही। गुप्त वंश के उपरांत कुछ ही वंशों के समकालीन सिक्के प्राप्त हो पाए है। सिक्कों की अनुपलब्धता से यह समझा जा सकता है कि गुप्तों के पतन के पश्चात एक सीमित व्यापार वाली अपने में संपूर्ण अर्थव्यवस्था का उदय हुआ।

गुप्त वंश में साहित्य

कला तथा साहित्य के क्षेत्र में गुप्तकाल स्वर्ण युग माना जाता था। बड़ी संख्या में धार्मिक तथा अन्य साहित्य की रचना इस काल में हुई। रामायण तथा महाभारत दोनों महाकाव्य चौथी शताब्दी में पूरे हो गए। दोनों ही महाकाव्यों की विषयवस्तु में अधर्म पर धर्म की विजय है। राम तथा कृष्ण दोनों ही भगवान विष्णु के अवतार माने गए। गुप्तकाल से साहित्य में ‘पुराणों’ का स जन प्रारंभ हुआ। इन रचनाओं में हिन्दू देवी-देवताओं की कहानियां हैं तथा व्रत एवं कर्मकाण्डों और तीर्थ यात्रा द्वारा उन्हें प्रसन्न करने के तरीकों का विवरण है। इस काल में स जित मुख्य पुराण थे-’विष्णु पुराण,’ ‘वायु पुराण’ एवं ‘मत्स्य पुराण। शिव की आराधना के लिए ‘शिव पुराण’ की रचना हुई वहीं विष्णु के विभिन्न अवतारों का महिमामंडन ‘वाराह पुराण,’ ‘वामन पुराण’ तथा ‘नरसिम्हा पुराण’ में मिलता है। ये साधारण जन के लिए लिखे गए थे। गुप्त काल में कुछ विधि विषयक पुस्तकें ‘स्मति’ भी लिखी गई इनमें से नारद स्मृति सामान्य सामाजिक तथा आर्थिक नियमों तथा नियमावलियों पर प्रकाश डालती है।

गुप्तकालीन साहित्य की भाषा संस्कृत थी। संस्कृत के महानतम कवि, कालिदास पांचवीं शताब्दी में चन्द्रगुप्त द्वितीय के दरबार के मुख्य रत्न थे। उनके साहित्यिक कार्य बहुत ही लोकप्रिय हैं तथा कई यूरोपीय भाषाओं में उनका अनुवाद हुआ। उनकी कुछ चर्चित रचनाएं ‘मेघदूत’, ‘अभिज्ञान-शाकुन्तलम’, ‘रघुवंश’, ‘कुमार संभव’ तथा ‘ऋतुसंहार’ है। उनकी रचनाओं का मुख्य आकर्षण उच्च कुल के पात्रों द्वारा संस्क त का प्रयोग तथा साधारण लोगों द्वारा प्राक त भाषा का प्रयोग रहा। इस युग के अन्य चर्चित लेखक ‘शूद्रक’ जिन्होंने ‘मच्छकटिकम’ तथा ‘विशाखादत्त’ जिन्होंने ‘मुद्राराक्षस’ की रचना की।

सातवी शताब्दी में हर्षवर्धन के दरबारी कवि ने अपने संरक्षक की प्रशंसा करते हुए ‘हर्षचरित्र‘ का सृजन किया। अत्यधिक अलंकत भाषा में लिखी गई यह रचना बाद के लेखकों के लिए बन गई उदाहरण हर्षवर्धन के शासन काल के आरम्भिक इतिहास की जानकारी इसी पुस्तक से प्राप्त होती है। उसके द्वारा लिखित अन्य रचना है ‘कादम्बरी’। हर्षवर्धन स्वयं भी एक साहित्यिक सम्राट था। कहा जाता है कि उसने तीन नाटक लिखे-प्रिय दर्शिका, नागनन्द तथा रत्नावली।

दक्षिण भारत में सन् 550 से 750 तक तमिल में भक्ति साहित्य का स जन हुआ। अपने-अपने देवताओं की प्रशंसा में वैष्णव संतों (अल्वर) तथा श्शैव संतों (नयन्नर) ने गीतों का स जन किया। अल्वर संतों में सर्वाधिक चर्चित संत एक महिला ‘अन्दल’ थी। वैष्णव भजनों को बाद में ‘नलयिरा प्रबंधम्’ तथा शैव भजनों को ‘देवराम’ नामक संकलनों में संकलित कर लिया गया।

गुप्त वंश में कला तथा स्थापत्य कला

प्राचीन भारतीय कला मुख्यत: धर्म पर आधारित हेाती थी। गुप्त काल में भी बौद्ध धर्म ने कला को आश्चर्यजनक रूप से प्रभावित किया। सुल्तानगंज, बिहार में तांबे की बनी विशालकाय प्रतिमा पाई गई है। मथुरा एवं सारनाथ में महात्मा बुद्ध की आकर्षक प्रतिमाएं गढ़ी गई हैं। गुप्तकालीन बौद्ध कला का सबसे परिष्क त उदाहरण अजन्ता की गुफाओं में की गई चित्रकारी है। महात्मा बुद्ध एवं जातक कहानियों का वर्णन करते इन चित्रों का पक्का रंग चौदह शताब्दी उपरान्त भी फीका नहीं हुआ। अजन्ता की गुफाएं अब संयुक्त राष्ट्र द्वारा विश्व धरोहर स्थलों की सूची में सम्मिलित हो चुकी हैं।

गुप्तकाल में ही प्रथम बार भवन के आकार के मंदिर-निर्माण की शैली उत्तर भारत में विकसित हुई। इन मंदिरों को स्थापत्य कला में ‘नागर’ के नाम से जाना गया। इस प्रकार के दो मंदिर उत्तर प्रदेश में कानपुर में भितरगांव एवं झांसी में देवगढ़ में पाए गए हैं, जो क्रमश: ईट तथा पत्थरों द्वारा निर्मित है। इन मंदिरों में विष्णु की प्रतिमाएं केंद्र में मुख्य देव के रूप में स्थापित हैं।

गुप्तकालीन मुद्राएं भी कला का ही उत्क “ट उदाहरण थीं। उनकी बनावट सुंदर थी तथा सतर्कता से उन्हें गढ़ा जाता था। उन पर शासकों की गतिविधियों का आकर्षक ढंग से चित्रण होता था। समुद्रगुप्त द्वारा चलाई गई संगीतात्मक स्वर्ण मुद्राओं में उसे वीणा बजाते देखा जा सकता है। इस चित्रण में संगीत के प्रति उसका आकर्षण दिखाई देता है। जैसा कि ऊपर वर्णित है उसने अश्वमेध प्रकार की मुदाएं भी प्रचलन में लाई। भारतीय प्रायद्वीप में शिव तथा विष्णु की आराधना लोकप्रिय हो रही थी।

इन देवताओं की प्रतिमाओं को स्थापित करने के लिए सातवी तथा आठवी शताब्दी में पल्लव शासकों ने पत्थरों के मंदिरों का निर्माण कराया। सर्वाधिक प्रसिद्ध सात रथ मंदिर हैं; प्रत्येक मंदिर पत्थर के ठोस टुकड़े से बना हुआ है। यह चेन्नई से 65 किलोमीटर दूर महाबलीपुरम् में स्थित है एवं इसका निर्माण राजा नरसिंहवर्मन ने करवाया था। पल्लवों के शासन में सर्वाधिक उल्लेखनीय मन्दिर आठवी शताब्दी के कैलाशनाथ मंदिर है।

वातापी के चालुक्य भी मंदिर निर्माण में पीछे नहीं रहे तथा उन्होंने एहोल, बादामी तथा पत्तादकल में असंख्य मंदिरों का निर्माण कराया। सातवी, आठवीं शताब्दी में पत्तादकल में ही दस मंदिरों का निर्माण हुआ तथा विरुपोक्ष मंदिर का भी। मंदिरों की दक्षिण भारत की स्थापत्य कला को द्रविड़-कला का नाम मिला।

गुप्त काल के सिक्के
गुप्त काल के सिक्के

गुप्त वंश में धर्म

गुप्त शासकों ने भागवत पंथ को प्रश्रय दिया, किन्तु वे अन्य धर्मो के प्रति भी सहिष्णु थे। गुप्त काल तथा हर्षवर्धन के समय में भारत यात्रा पर आए चीनी तीर्थ यात्री क्रमश: फाहयान एवं ह्वेनत्सांग के यात्रा व त्तांतों से यह स्पष्ट होता है कि बौद्ध धर्म भी प्रगति कर रहा था। हर्ष ने शैव मत को मानने के बावजूद बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया था तथा वह इस धर्म का महान संरक्षक बन गया था। उसने महायान को लोकप्रिय बनाने के लिए कन्नौज में एक सभा का आयोजन किया था। उसके शासन-काल में नालन्दा बौद्ध धर्म की महायान शाखा का प्रमुख शिक्षा केंद्र बन कर उभरा। बाहर के देशों के विद्याथ्र्ाी भी इस विश्वविद्यालय में ज्ञानार्जन को आते थे। ह्वेनत्सांग के अनुसार सौ गांवों के राजस्व से यह संचालित होता था।

भागवत पंथ भगवान विष्णु तथा उनके अवतारों की पूजा-अर्चना पर आधारित था। इसमें वैदिक कर्मकाण्डों तथा बलि के स्थान पर भक्ति एवं अहिंसा पर बल दिया जाता था। नया पंथ उदारवादी था तथा निम्न जाति के लोग भी इसका अनुसरण करते थे। ‘भगवदगीता’ के अनुसार जब भी अधर्म होता है, भगवान विष्णु मानवरूप में जन्म लेते हैं तथा जगत की रक्षा करते हैं। इस प्रकार विष्णु के दस अवतारों को माना गया। हर अवतार के गुणों को लोकप्रिय बनाने के लिए पुराणों की रचना की गई थी। गुप्तकालीन मंदिरों में भगवान की प्रतिमाएं स्थापित होती थीं।

दक्षिण भारत में सातवी शताब्दी के पश्चात् अलवर तथा नयन्नर तमिल संतों ने भक्ति के सिद्धांत को लोकप्रिय बनाया। अल्वर संतों ने भगवान् विष्णु के रूप को तथा नयन्नर संतों ने भगवान शिव के रूप को जन-जन में लोकप्रिय बनाया। तंत्रवाद का उदय भी हम इस युग में देखते हैं। पांचवीं शताब्दी के पश्चात् ब्राह्मणों को नेपाल, असम, बंगाल, उड़ीसा तथा मध्य भारत एवं दक्कन के प्रदेशों में जनजातीय क्षेत्रें में भूखण्ड मिलने प्रारंभ हो गए। परिणामस्वरूप ब्राह्मणों के समाज में ये जनजातीय तथ्य सम्मिलित हो गए। ब्राह्मणों ने उनके देवी, देवताओं, कर्मकाण्डों को अपना लिया। यह ब्राह्मणवादी संस्क ति तथा जनजातीय परम्पराओं का सम्मिश्रण है, जिसने तंत्रवाद को जन्म दिया। इसमें लिंग अथवा जाति आधारित भेदभाव नहीं था तथा महिलाओं एवं शूद्रों को स्थान प्राप्त था। उन्होंने स्त्री को शक्ति तथा ऊर्जा का केंद्र बताया। तन्त्र के सिद्धांत ने शैव, वैष्णव, बौद्ध तथा जैन सभी धर्मों पर प्रभाव डाला। परिणामस्वरूप इन क्षेत्रें में देवी पूजन की प्रथा प्रारंभ हुई।

गुप्त वंश में विज्ञान तथा तकनीक

गुप्त काल में विज्ञान तथा तकनीक के क्षेत्र में प्रगति के बारे में जानकारी हमें इस काल में इन विषयों में रचित ग्रन्थों से हो जाता है। इन ग्रन्थों में सर्वाधिक चर्चित ग्रन्थ खगोल-विज्ञान पर आधारित ‘आर्यभट्टयम’ है, जो कि आर्यभट्ट द्वारा पाचवीं शताब्दी में लिखा गया था। आर्यभट्ट एक खगोल विज्ञानी तथा गणितज्ञ थे। उन्होंने ही प्रथम बार यह सिद्ध किया था कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है तथा सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाती है, जिसकी वजह से सूर्य ग्रहण होता है। उन्होंने ही ‘शून्य’ की खोज की थी तथा दशमलव प्रणाली का प्रयोग प्रथम बार किया था। एक अन्य विद्वान वराहमिहिर (छठी शताब्दी के उत्तरार्द्ध) महान खगोल शास्त्री थे, जिन्होंने खगोल विज्ञान पर कई पुस्तकों की रचना की। उनकी रचना ‘पंचसिद्धांन्ति’ में पांच प्रकार की खगोलीय पद्धतियां बतलाई गई हैं। एक सुप्रख्यात गणितज्ञ ब्रह्मगुप्त भी गुप्तकालीन थे।

गुप्त वंश में धातु विज्ञान में भी नई तकनीकों का आगमन हुआ। इस युग में निर्मित महात्मा बुद्ध की तांबे की विशालकाय मूर्ति उन्नत तकनीक का एक उदाहरण है। मेहरौली स्थित लौह स्तंभ भी धातु के क्षेत्र में गुप्त वंश की विकसित तकनीक का बखान करता है। खुले क्षेत्र में स्थापित होने के बावजूद भी पन्द्रह शताब्दियों उपरान्त भी इस स्तंभ में जंग नहीं लगी है। अजन्ता की गुफाओं में उकेरे गए पक्के रंग के चित्र रंगों के क्षेत्र में रंग बनाने की कला की व्याख्या करते हैं।

गुप्त काल की आर्थिक स्थिति

  1. भूमि अनुदान
  2. व्यापार
गुप्तकाल में लागे समद्धृ थे, सर्वत्र शान्ति थी और आय के स्त्रोत एकाधिक थे, नगरों में जीवन स्तर उत्कृष्ट था । कृषि- इस काल में कृषि, लोगों का मुख्य व्यवसाय था । शासन की आरे से भी इस ओर ध्यान दिया जाता था । भूमि को मूल्यवान माना जाता था, राजा भूमि का वास्तविक मालिक होता था । भूमि को उस समय उपज के आधार पर पांच भागों में विभक्त किया गया था-
  1. कृषि हेतु प्रयुक्त की जाने वाली भूमि ‘क्षेत्र‘ कहलाती थी, 
  2. निवास योग्य भूमि ‘वस्तु’ 
  3. जानवरों हेतु प्रयुक्त भूमि ‘चारागाह’, 
  4. बंजर भूमि ‘सिल’ 
  5. जंगली भूमि ‘अप्र्रहत’ कहलाती थी । 
कृषि से राजस्व की प्राप्ति होती थी, जो उपज का छठवां भाग होता था । भूमिकर को कृषक नगद (हिरण्य) या अन्न (मेय) के रूप में अदा करता था । गुप्त शासकों ने बड़े पैमाने पर भूमिदान भी किया था, जिससे राजकोष पर विपरीत प्रभाव पड़ा था ।

1. भूमि अनुदान- 

गुप्त काल में भूि म अनुदान की प्रथा प्रारम्भ की गयी । इसके अतंर्गत राज्य की समस्त भूमि राजा की मानी जाती थी । राज्य किसानों को अस्थायी तौर पर भूमि कृषि कार्य के लिये देता था । यह राज्य के कृपापर्यन्त चलता था, परन्तु आगे चलकर भूमिकर अनुदान का स्वरूप वंशानुगत हो गया तथा इसके साथ भूमि का क्रय-विक्रय प्रारम्भ हो गया । भूमि का क्रय-विक्रय राज्य के नियम के अनुसार होता था तथा राज्य की ओर से पुंजीकृत ताम्रपत्र प्रदान किया जाता था ।

इस व्यक्तिगत भू-स्वामित्व की प्रक्रिया का लाभ शक्तिशाली और समृद्ध व्यक्तियों ने लेना आरम्भ कर दिया । इसके अतिरिक्त राज्य की ओर से ग्राम दान की प्रथा भी प्रचलित थी । यद्यपि ग्राम दान अस्थायी रूप से प्रदान किया जाता था, परन्तु कृषक वर्ग इन ग्राम के स्वामियों मालगुजार के अधीन होते गये, इस प्रक्रिया ने सामन्ती प्रथा को जन्म दिया । ये सामन्त आगे चलकर जमींदार कहलाये ।

2. व्यापार- 

इस काल में व्यापार भी उन्नति की ओर था । वस्त्र व्यावसाय विकसित हो चुका था और मदुरा, बंगाल, गुजरात वस्त्रों के प्रमुख केन्द्र थे । इसके अतिरिक्त शिल्पी सोना, चांदी, कांसा, तांबा आदि से औजार बनाते थे । व्यापारियों का संगठन था और संगठन का प्रमुख आचार्य कहलाता था । आचार्य को सलाह देने हेतु एक समिति होती थी, जिसमें चार-पांच सदस्य होते थे । शक्कर और नील का उत्पादन बहुतायत से किया जाता था । शासन की ओर से वणिकों और शिल्पियों पर राजकर लगाया जाता था । कर के एवज में बेगार का भी प्रचलन था । एक व्यवसाय ‘‘पशुपालन’’ को भी माना जाता था । बैलों का उपयोग हल चलाने और समान को स्थानान्तरित करने में किया जाता था, इस काल में कपड़े को सिलकर पहनने का प्रचलन था ।

व्यापार, मिस्त्र, ईरान, अरब, जावा, सुमात्रा, चीन तथा सुदूरपूर्व बर्मा से भी होता था । रेशम के कपड़ों की मांग विदेशों में अत्यधिक थी । शासन की ओर से एक निश्चित मात्रा में सभी व्यापारियों पर ‘कर’ लगाया गया था, किन्तु वसूली में ज्यादती नहीं की जाती थी । व्यापार को चलाने हेतु व्यापारिक संगठनों का अपना नियम कानून था, जिससे व्यापारियों की सुरक्षा वरक्षा की जाती थी ।

गुप्त काल में कला

गुप्तकाल में मूतिर्कला का जितना विकास हअु ा उतना प्राचीन भारत में किसी भी काल में नहीं हुआ, इन्हें देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि कलाकार ने अपनी प्राचीन सम्पूर्ण शक्ति व युक्ति से मूर्ति को जीवंत कर दिया है । इसी प्रकार स्थापत्य एवं चित्रकला और पक्की मिट्टी की मूर्तिकला की श्रेष्ठता वर्तमान में भी स्वीकार की जाती है । यही वजह है कि गुप्तकाल को प्राचीन भारत का स्वर्ण काल कहते हैं । इस काल में कला सम्भवत: धर्म की अनुगामिनी थी । 
  1. वास्तुकला
  2. मूर्तिकला
  3. चित्रकला
  4. संगीत

1. वास्तुकला- 

गुप्तकाल में वास्तुकला को प्रात्े साहन आरै संरक्षण मिला, इस कला में नितांत नवीन शैली देखने को मिलती है । भवन, राजमहन, मंदिर, राजप्रसाद बड़े बनाये गये थे, दुर्भाग्य से इनके अवशेष कम मिलते हैं । ऐसा प्राकृतिक विपदा से कम और साम्राज्यवादी ताकतों के द्वारा विध्वंश किये जाने के कारण ज्यादा प्रतीत होता है । मोरहा भराडू में उत्खनन से गुप्तयुगीन भवनों के अवशेष मिले हैं, जो उत्कृष्ट शैली के हैं ।

इसी प्रकार इस काल में हिन्दू धर्म को प्रचार और संरक्षण मिलने के कारण वैष्णव और शैव मत के मंदिरों का बहुतायत से निर्माण कराया गया । गुप्तकालीन मंदिरों के निर्माण में प्रौद्योगिकी और तकनीकी सम्बन्धी विशेषताएं देखने को मिलती हैं । मंदिर आकार में छोटे, किन्तु पत्थरो से बनाये जाते थे, जिनमें चूने या गारे का प्रयोग नहीं किया जाता था । इसमें गर्भगृह बनाया जाता था, जहां पर देवता की स्थापना की जाती थी । मंदिरों के स्तम्भ-द्वार, कलात्मक होते थे, किन्तु भीतरी भाग सादा होता था । कालान्तर में इन मंदिरों के शिखर लम्बे बनने लगे थे, इसकी पुष्टि ‘बराहमिहिर’ एवे ‘मेघदूत’ से भी होती है, इन मंदिरों में छत्तीसगढ़ के सिरपुर का लक्ष्मण मंदिर, तिगवा (जबलपुर) का विष्णु मंदिर, भूसरा (नागौद) का शिव मंदिर, देवगढ़ का दशावतार मंदिर, उदयगिरि (विदिशा) का विष्णु मंदिर, दहपरबतिया (असम) का मंदिर, एरन (बीना स्टेशन) का बराह और विष्णु मंदिर, कानपुर के निकट भीरत गॉंव का मंदिर प्रमुख हैं ।

2. मूर्तिकला - 

गुप्त युग में हिन्दू, जैन, बौद्ध धर्म से सम्बन्धित ससुज्जित व कलात्मक मूर्तियां बड़े पैमाने पर बनीं, इन मूर्तियों की सादगी, जीवंतता व भावपूर्ण मुद्रा लोगों के आकर्षण का केन्द्र है । विख्यात इतिहासविद  वासुदुदेवशरण अग्रवाल का मत है कि ‘‘प्राचीन भारत में गुप्तकाल को जो सम्मान पा्रप्त है उनमें मूर्तिकला का स्थान पथ््र ाम है ।’’ मथुरा सारनाथ, पाटलिपत्रु मुर्तिकला के प्रसिद्ध केन्द्र थे । इन मूर्तियों में नग्नता का अभाव है और वस्त्र धारण कराया गया है । प्रभामण्डल अलंकरित है । चेहरे का भाव ऐसा प्रदर्शित किया गया है मानों तर्कपूर्ण विचारों की आंधी का जवाब हो, इसी प्रकार गुप्तकालीन बौद्ध मूर्तियां अपनी उत्कृष्टता के लिए चर्चित हैं । फाह्यान ने अपनी भारत यात्रा के दौरान 25 मीटर से भी ऊँची बुद्ध की एक ताम्रमूर्ति देखी थी । इस काल की मूर्तिकला की एक प्रमुख विशेषता यह थी कि केश घुँघराले बनाये गये साथ ही वस्त्र या परिध् ाान पारदर्शक होते थे ।

3. चित्रकला-

‘कामसूत्र ‘ में चौंसठ कलाओं में चित्रकला की गणना की गयी है । चित्रकला नि:संदेह वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर आधारित थी । अजंता की चित्रकला सर्वोत्तम मानी गयी है । आकृति और विविध रंगों के संयोजनों ने इसे और भी आकर्षक बना दिया है । मौलिक कल्पना, रंगों का चयन और सजीवता देखते ही बनती है । इन चित्रों में प्रमुख रूप से पद्यपाणि अवलोकितेश्वर, मूिच्र्छत रानी, यशोधरा राहुल मिलन, छतों के स्तम्भ खिड़की और चौखटों के अलंकरण सिद्धहस्त कलाकार की कृति प्रतीत होती है । बाघ की गुफाओं के भित्तिचित्र को भी गुप्तकालीन माना गया है, इन चित्रों में केश-विन्यास, परिधान व आभूषण आकर्षण के केन्द्र माने जाते हैं ।

4. संगीत- 

गुप्तकाल में नृत्य व संगीत को भी कला का एक अंग स्वीकार किया गया। समुद्रगुप्त को संगीत में वीणा का आचार्य माना जाता है । वात्स्यायन ने संगीत की शिक्षा को नागरिकों के लिए आवश्यक माना है । मालविकाग्निमित्रम् से ज्ञात होता है कि नगरों में संगीत की शिक्षा हेतु भवन बनाये जाते थे, उच्च कुल की कन्याएं नृत्य एवं संगीत की शिक्षा अनिवार्य रूप से लेती थीं ।

गुप्त वंश के उदय के समय उत्तर भारत

उत्तरी भारत में मौर्यों के बाद किसी एक राजवंश का साम्राज्य नहीं रहा। उत्तर भारत कई स्वतन्त्र राज्यों में विभक्त हो गया था, जिनमें राजतंत्रात्मक तथा गणतंत्रात्मक दोनों प्रकार के राज्य विद्यमान थे। उत्तरी पश्चिमी सीमा से बाह्य शक्तियां निरन्तर भारत में प्रवेश कर रहीं थीं। पश्चिमी और उत्तर भारत के कई क्षेत्रों में मालव, यौधेय और अजुर्नायन आदि गणतंत्रात्मक राज्य शक कुषाण आदि का सामना कर रहे थे । मगध में कुछ समय तक शंुग और कण्वों ने राज्य किया। उसके बाद उत्तरी भारत के बहुत बड़े क्षेत्र पर कुषाण वंश का अधिकार हो गया। विशाल क्षेत्र के बावजूद कुषाण साम्राज्य 100 वर्ष से अधिक नहीं रह सका। दक्कन में सातवाहन और उत्तर भारत में कुषाण वंश समाप्ति पर थे। राजनैतिक अस्थिरता के इस युग मे दक्कन में वाकाटकों ने सातवाहन का और पश्चिम में नागों तथा पूर्व में गुप्तों ने कुषाणों का स्थान ले लिया। पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक छोटे से क्षेत्र से उदय होकर गुप्त वंश शीघ्र ही एक महान शक्ति बन गया।

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