सूरदास का जीवन परिचय, रचनाएं, भाव पक्ष, कला पक्ष, साहित्य में स्थान

सूरदास का जीवन परिचय

सूरदास (Surdas) का संबंध भक्ति काव्य से है। ईश्वर के प्रति प्रेम की अनुभूति को भक्ति कहते हैं। लेकिन संपूर्ण भक्ति काव्य एक-सा नहीं है। जो भक्त-कवि ईश्वर को निर्गुण-निराकार मानते थे और अवतारवाद में विश्वास नहीं रखते थे, वे निर्गुणमार्गी भक्त कवि कहलाए। 

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सूरदास का जीवन परिचय

महाकवि सूरदास का जन्म कब हुआ और वे कहाँ पैदा हुए, आज निश्चयपूर्वक यह कहना मुश्किल है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुमान के अनुसार सूरदास का जन्म सन् 1483 और मृत्यु सन् 1563 के आसपास र्हुइ  होगी। सन 1523 के आसपास वे वल्लभाचार्य के शिष्य बने। सूरदास कृष्णभक्ति काव्यधारा के महान भक्त कवि हैं। जन्म तिथि व जन्म स्थान के समान ही सूरदास के नाम को लेकर भी विद्वानों के मध्य काफी विवाद है। 

कुछ विद्वान सूरदास का जन्म मथुरा और आगरा के बीच स्थित रूनकता नामक ग्राम को मानते है। पर अधिकांश विद्वान चैरासी वैष्णव केी वार्ता जो सर्वाधिक प्रामाणिक ग्रंथ है, के आधार पर दिलली के पास स्थित सीही नामक ग्राम को मानते हैं। सूरदास जनमान्ध थे अथवा बाद मंे अन्धे हुए , इस विषय मंे भी विद्वानों में मतभेद है। वार्ता साहित्य में सूरदास को केवल जन्म से अन्धे ही नहीे अपितु आँखों में गड्डे तक नही वाला बताया है। इसके अतिरिक्त सूरदास के समकालीन कवि श्रीनाथ भट्ट ने संस्कृत मणिबाला ग्रंथ में सूर को जनमान्ध कहा है - जन्मान्धों सूरदासों भूत। इनके अतिरिक्त हरिराय एवं प्राणनाथ कवि ने भी सूर को जन्मान्ध बताया है।

सूरसारावली और साहित्य लहरी के एक एक पद के आधार पर विद्वानों ने सूर की जन्मतिथि निश्चित करने का प्रयत्न किया है। ‘‘सूरसारावली’ का पद है - 

गुरू परसाद होत यह दरसन सरसठ बरस प्रवीन।
शिवविधान तप कियो बहुत दिन तऊ पार नहिं लीन।।’’ 

 

इस पद के आधार पर समस्त विद्वान सूर सारावली की रचना के समय सूरदास की आयु 67 वर्ष निश्चित करते हैं। साहित्य लहरी के पद- मुनि मुनि रसन के रस लेख। श्री मुंशीराम शर्मा इस पद के आधार पर साहित्य लहरी का रचनाकाल संवत् 1627 मानते है। सूर सारावली के समय उनकी आयु 67 वर्ष मानी जाये तो सूर का जन्म विक्रम संवत् 1540 के आस पास माना जाना चाहिए। 

‘सूरसागर’ में सूरदास, सूर, सूरज, सूरजदास और सूरश्याम- उनके पाँच नामों का उल्लेख मिलता है। डॉ. ब्रजेश्वर वर्मा ने सूरज और सूरजदास आदि नामों को किसी दूसरे व्यक्ति का नाम बताया है। उन्होंने उनका सूरदास नाम ही वास्तविक माना है। अधिकांश विद्वान इसी मत के समर्थक हैं। 

विद्वानों के मध्य मतभेद का एक अन्य विषय है- सूरदास का अंधत्व। उन्हें जन्मांध मानने वालों में सूर निर्णयकार तथा आचार्य नंददुलारे वाजपेयी आदि विद्वान हैं। सूर निर्णयकार ने हरिराय के ‘भावप्रकाश’ को आधार बनाकर सूरदास को जन्मांध कहा है। कुछ विद्वान सूरदास को अंधा अवश्य मानते हैं, किंतु जन्मांध नहीं। सूरदास जनमान्ध थे अथवा बाद में अन्धे हुए , इस विषय में भी विद्वानों में मतभेद है।

सूरदास जी के संबंध में कोई विशेष जानकारी नहीं मिलती है। सूरदास कब पैदा हुए? इसका स्पष्ट उल्लेख किसी भी ग्रंथ में नहीं है। 

सूरदास की मृत्यु संवत् 1620 उनके स्वर्गवास की तिथि हो सकती है। कुछ विद्वान उनकी मृत्यु संवत् 1640 में गोवर्धन के निकट पारसोली ग्राम में मानते है।

सूरदास की प्रमुख रचनाएँ

सूरदास द्वारा लिखित निम्न कृतियाँ मानी जाती हैं - 1. सूर सारावली 2. साहित्य लहरी 3. सूर सागर 4. भागवत भाषा 5. दशम् स्कन्ध भाषा 6. सूरसागर सार 7. सूर रामायण 8. मान लीला 9. नाग लीला 10. दान लीला 11. भंवर लीला 12. सूर दशक 13. सूर साठी 14. सूर पच्चीसी 15. सेवाफल 16. ब्याहलो 17. प्राणप्यारी 18. दृष्टि कूट के पद 19. सूर के विनय आदि के पद 20. नल दमयंती 21. हरिवंश टीका 22. राम जन्म 23. एकादशी महात्म्य। कुछ आधुनिक आलोचकों ने सूरदास के तीन ग्रंथ ही प्रामाणिक माने हैं। ये तीन प्रसिद्ध हैं - 1. सूर सारावली 2. साहित्य लहरी 3.
सूरसागर। 

1. सूर सारावली - सूर सारावली में विषय की दृष्टि से कृष्ण के कुरूक्षेत्र से लौटने के बाद के समय से जुडे संयोग लीला, वसंत हिंडोला और होली आदि प्रसंग अभिव्यक्त हुए है।

2. साहित्य लहरी - साहित्य लहरी सूरदास की दूसरी प्रमुख रचना है। इसमें कुल 118 पद हैं। इसके पदों में रस, अलंकार, निरूपण एवं नायिका भेद तो है ही, साथ ही कुछ पदों में कृष्ण की बाल लीलाओं का वर्णन भी है। साहित्य लहरी में अनेक पद दृष्टिकूट पद है, जिनमें गुह्य बातों का दृष्टिकूटों के रूप में वर्णन किया गया है। 

कृष्ण की बाल लीलाओं के साथ ही नायिकाओं के अनेक भेद के साथ राधा का वर्णन भी है तो अनेक प्रकार के अलंकारों जैसे -दृष्टांत , परिकर, निदर्शना, विनोक्ति, समासोक्ति , व्यतिरेक का भी उल्लेख है।

3. सूरसागर - ऐसा माना जाता है कि इसमें सवा लाख पद थे, किन्तु वर्तमान में प्राप्त और प्रकाशित सूरसागर में लगभग चार से पाँच हजार पद संकलित है। सूरसागर की रचना का मूल आधार श्रीमद्भागवत है। इसमें सूरदास ने श्रीमद्भागवत् का उतना ही आधार ग्रहण किया है, जितना कि कृष्ण की ब्रज लीलाओं की रूपरेखाओं के निर्माण के लिए आवश्यक था। 

सूरसागर प्रबंध काव्य नहीं है। यह तो प्रसंगानुसार कृष्ण लीला से संबंधित उनके प्रेममय स्वरूप को साकार करने वाले पदों का संग्रह मात्र है। 

सूरसागर की कथा वस्तु बारह स्कन्धों में विभक्त है। इनमें दशम् स्कन्ध में ही कृष्ण की लीलाओं का अत्यंत विस्तार से वर्णन है। सूरसागर में आये पदों को विषय के अनुसार इन वर्गों में रखा जा सकता है-
  1. कृष्ण की बाल लीलाओं से संबंधित पद
  2. कृष्ण कीद प्रेम और मान लीलाओं से संबंधित पद
  3. दान लीला के पद
  4. मान लीला के पद और भ्रमर गीत
  5. विनय, वैराग्य, सत्संग एवं गुरू महिमा से संबंधित पद
  6. श्रीमद्भागवत के अनुसार रखे गये पद

सूरदास की काव्य भाषा 

सूरदास के काव्य में ब्रज भाषा अपने विविध गुणों के साथ उत्कृष्ट रूप में विद्यमान है। सूरदास की काव्यभाषा लोक व्यवहार की भाषा है। सूरदास के काव्य में प्रयुक्त ब्रजभाषा की सबसे बड़ी विशेषता उसकी कोमलता है। भाषा और भावों का ऐसा कोमल संबंध सूरदास के शब्द चयन और सटीक प्रयोग के कारण हो सका है। 

‘सूरसागर’ के पदों में यह भाषागत कोमलता सर्वत्र देखी जा सकती है।

सूरदास का भाव पक्ष

सूरदास की कविता को  भाव पक्ष की दृष्टि से मुख्यत: तीन भागों में विभक्त किया जा सकता है - (1) दैन्य भाव, (2) लीला गायन, (3) श्रृंगार चित्रण। इन तीनों पर अलग-अलग विचार करके आप सूरदास के भाव-पक्ष की विशेषताओं को अच्छी तरह समझ सकते हैं।

(1) दैन्य भाव - विनय के पदों में सूरदास ने अपनी दीनता और ईश्वर की महत्ता तथा उदारता का वर्णन किया है। चरण कमल बंदौ हरि राई में भगवान की महत्ता का पूरा उद्घाटन हुआ हैं। अपने विनय के पदों में सूरदास ने प्राय: ‘हौं हरि सब पतितन को नायक’, ‘प्रभु मैं सब पतितन को टीको’, ‘अब के नाथ मोहिं लेहु उधारि’ आदि जैसे दीनतासचू क भावों  के साथ भगवान की परम दयालुता का भाव व्यक्त किया हैं। इस प्रकार के पदों में कवि ने एक परम भक्त के रूप में अपनी मुक्ति की याचना की है। अपने आरंभिक जीवन में ही सूरदास ने दैन्यभक्ति से परिपूर्ण पदों की रचना की थी। 

महाप्रभु वल्लभाचार्य की प्रेरणा से वे सख्य उपासक बन गए। सख्य भाव का अर्थ है, सखा या मित्र भाव। 

(2) लीला गायन - कृष्ण की लीलाओं के गायन में सूरदास ने भागवत पुराण की कथा को ही आधार बनाया है। लेकिन इसे भागवत का अनुवाद नहीं कहा जा सकता। इसमें कवि ने अपनी मौलिक प्रतिभा का पूर्ण परिचय दिया है। लीला-गायन को भी अध्ययन की सुविधा के लिए तीन भावों  में विभाजित कर सकते हैं। इनमें पहला हैं कृष्ण के बाल सौंदर्य और उनकी शिशु-क्रीड़ाओं का वर्णन, दूसरा है, किशोर कृष्ण का नटखटपन और तीसरा है, ग्वाल-बाल और गोपियों के साथ नोंक-झोंक और छेड़-छाड़ का वर्णन।

कृष्ण के बाल रूप का चित्रण करते हुए सूरदास ने उनके पालने (झूले) से लेकर आंगन में विचरने घर की देहरी लाघने  तक की क्रीडा़ओं का अत्यंत विशद आरै विस्तृत वर्णन किया है। बाल जीवन की जितनी मनोदशाए  हा े सकती हैं, उसकी जितनी आकर्षक क्रियाएँ हो सकती हैं, सबका अत्यंत सहज-स्वाभाविक चित्र प्रस्तुत करने में सूरदास को अद्भुत सफलता मिली है। इन वर्णनों की धार्मिकता को देखकर बाद के काव्यशास्त्रियों ने वात्सल्य को (बच्चा ें के प्रति प्रेम भाव को) एक नया रस स्वीकार किया है। कृष्ण की किशोरावस्था के चित्रण में सूरदास ने उनके गाय चराने, ग्वाल-बालो  के साथ खले ने, उनसे झगडने, माँ यशोदा से उनकी शिकायत करने से लेकर मक्खन, दही आदि की चोरी का अत्यंत विस्तार से वर्णन किया है। 

इसी क्रम में राधा और ब्रज की गाेिपयों के साथ उनकी ताक-झाँक , नोक-झांके और तकरार भी आरंभ हो जाती है, जो आगे चलकर प्रगाढ़ प्रेम में बदल जाती है। इन सबका अत्यंत विस्तृत चित्रण सूरदास ने अत्यंत कौशल के साथ किया है।

(3) श्रृंगार चित्रण - कृष्ण और गोपियों के बीच गहन परिचय आगे चलकर प्रेम में परिवर्तित हो जाता है। वस्तुत: सूरदास का श्रृंगार चित्रण भी एक प्रकार से कृष्ण लीला का ही एक विशिष्ट अंग है। इसमें यमुना-स्नान में चीरहरण, वंशी-वादन, दान-लीला, मान- लीला, रास-लीला आदि के माध्यम से कृष्ण का राधा और गोपियों  के प्रति प्रेम का चित्रण हुआ है। यह प्रेम लोक-लाज और पारिवारिक मर्यादा की अवहेलना करते हुए स्वच्छंदता का परिचय देता है। इसमें मिलन के अत्यंत स्पष्ट वास्तविक रूपों  के बावजदू कहीं माँसलता आरै अश्लीलता का भाव पाठक में नही आने पाता है। अलौकिक प्रेम के रूप में इसको सूरदास ने एक नई  मर्यादा प्रदान की है।

श्रृंगार के संयोग पक्ष के चित्रण की भाँति ही उसके वियोग पक्ष के चित्रण में भी सूरदास को पूरी सफलता मिली है। इसके लिए उन्होंने भ्रमरगीर प्रसंग का आयोजन किया है, जो हिंदी साहित्य की एक विशिष्ट उपलब्धि मानी है। वियोग-वर्णन की द्रष्टि से ‘भ्रमरगीत’ की मार्मिकता का उद्घाटन करते हुए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है कि ‘वियोग की जितनी अंतर्दशाएँ हो सकती हैं, जितने ढंगों से उन दशाओं का साहित्य में वर्णन हुआ है और सामान्यत: हो सकता है, वे सब सूरदास के काव्य में मौजूद हैं।’  वियोग की इस गंभीरता का वास्तविक कारण है, एक लम्बा साहचर्यजन्य प्रेम। एक लम्बे समय की जान-पहचान से उत्पन्न प्रेम जिस प्रकार संयोग काल में हर सीमा को तोड़ देता हैं, उसी प्रकार वियोग-काल में  प्राणान्तक भी सिद्ध होता है। इस दशा को सूरदास ने अत्यंत मार्मिक ढंग से चित्रित किया है।

वियोग-वर्णन के साथ ही सूरदास के ‘भ्रमरगीत’ का एक दूसरा भी महत्वपूर्ण पक्ष है। इसके माध्यम से सूरदास ने उद्धव को निर्गुण ज्ञानमार्ग का प्रतिनिधि बनाकर निर्गुण का खडंन आरै सगुण का मण्डन भी कुशलतापूर्वक किया है। गोपियों  के पास पहुँच कर जब उद्धव ज्ञान का संदेश देना शुरू करते हैं तभी एक भँवरा वहाँ मंडराता हुआ आता है। गोपियाँ उस भँवरे को संबोधित कर उद्धव पर टीका-टिप्पणी करती हैं। इस प्रक्रिया में वे ज्ञान को निर्गुण और निराधार बताते हुए अपने लिए निरर्थक और  व्यर्थ सिद्ध करती हैं। गोपियों के हृदय का निश्छल प्रेम उनकी ग्रामीण सहज प्रकृति के साथ मिलकर एक तरफ गंभीरता का परिचय देता है, तो दूसरी तरफ अपने चुटीले व्यंग्य के कारण हास्य और विनोद की सृष्टि भी करती है। 

उनका सहज-सरल तर्क है कि ‘लरिकाई  को प्रेम कहौ अलि कैसे छूटै’ जो उद्धव को निरुत्तर कर उनके ज्ञान-गर्व को चूर कर देता है। इससे स्पष्ट है कि भ्रमरगीत प्रसंग की योजना के माध्यम से सूरदास ने एक ओर गोपियों की विरह-व्यथा का मार्मिक चित्र प्रस्तत किया है तो दूसरी ओर कबीर आदि के निर्गुण ज्ञान मार्ग का खण्डन करते हुए अपने सगुणोपासना के मार्ग का औचित्य भी सिद्ध किया है।

उपर्युक्त विवेचन-विश्लेषण से यह स्पष्ट है कि सूरदास सख्य भाव के उपासक थे, जिसके लिए उन्होंने कृष्ण लीला का गायन किया है। कृष्ण के वात्सल्य और श्रृंगार के चित्रण में भी वे अपने सख्य भाव की उपासना का ही परिचय देते हैं।

सूरदास की भाषा

सूरदास की संपूर्ण काव्य-रचना ब्रजभाषा में हुई  है। ब्रजभाषा की स्वाभाविक कोमलता मे  उन्होंने तद्भव शब्दों के साथ तत्सम शब्दों के समुचित मिश्रण द्वारा और अधिक वृद्धि की है। ग्राम संस्कृति में प्रचलित शब्दों, मुहावरों, लोकोक्तियों आदि के कुशल प्रयोग द्वारा उन्होंने  ब्रज के जीवन की लोकोन्मुख सस्ंकृति को  अत्यंत कुशलता से चित्रित किया है। अभिधा के साथ ही उसकी लक्षणा और व्यंजना जैसी शब्द-शक्तियों का सहज प्रयोग कर ब्रजभाषा जैसी एक सीमित क्षेत्र में बोली जाने वाली बोली को उन्होंने आने वाली कवि पीढ़ियां के लिए काव्य-भाषा का गारैव प्रदान किया। 

सूर के बाद तुलसीदास को छोड़कर लगभग चार सौ वशोर्ं तक बिहार, उत्तर प्रदेश, पंजाब, राजस्थान, मध्य प्रदेश आदि में प्राय: ब्रजभाषा को ही काव्य-भाषा के रूप में स्वीकार किया गया। 

भाषा की दृष्टि से हिंदी कविता के लिए सूरदास का यह महत्वपूर्ण योगदान माना जा सकता है।

सूरदास की शैली

काव्य-रूप की दृष्टि से समस्त सूर-काव्य गीति-शैली में लिखा गया है। उनके अधिकांश पद भारत में प्रचलित विभिन्न राग-रागनियों पर आधारित हैं। लय, तुक और टेक के सहारे सूरदास ने कुशल शब्द-विन्यास और कोमलकांत मधुर शब्दावली द्वारा अपने पदों में अद्भुत गेयता का समावेश किया है। फलस्वरूप भारत के शास्त्रीय संगीत में सूर-संगीत को आज सर्वाधिक प्रतिष्ठा प्राप्त हुई  है। संगीतात्मकता के साथ ही सूरदास ने वाक् चातुर्य (वाणी का चतुराई पूर्ण प्रयोग) द्वारा अपनी शैली को अत्यंत प्रभावशाली बनाने का प्रयास किया है।इस प्रकार की कथन प्रणाली के माध्यम से बार-बार दोहराए जाने वाले प्रसंगों और भावों को उन्होंने नवीनता प्रदान की है। 

वाक् चातुर्य के साथ ही सूरदास का अलंकार विधान भी अत्यंत स्वाभाविक और उच्च कोटि का है। गंभीर मनोदशाओं, विशेष रूप से सौंदर्य के चित्रण में उन्होंने उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, व्यतिरेक आदि अलंकारों का खुलकर प्रयोग किया है। सूरदास का अलंकार-विधान चमत्कार प्रदर्शन के लिए न होकर कथ्य को अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए हुआ है।

सूरदास के संरचना-शिल्प की, उनकी भाषा और शैली की संपूर्ण विशेषताओं को अत्यंत संक्षेप में रेखांकित करते हुए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है, ‘सूरदास जब अपने प्रिय विषय का वर्णन शुरू करते हैं तो मानो अलंकार शास्त्र हाथ जोड़कर उनके पीछे-पीछे दौड़ता है। उपमाओं की बाढ  आ जाती है, रूपकों की वर्षा होने  लगती है। संगीत के प्रवाह में कवि स्वयं बह जाता है। वह अपने को भूल जाता है। काव्य में इस तन्मयता के साथ इस शास्त्रीय पद्धति का निर्वाह विरल है। पद-पद पर मिलने वाले अलंकारों को देखकर भी कोई  अनुमान नहीं लगा सकता कि कवि जान-बूझकर अलंकारों का प्रयोग कर रहा है। पन्ने-पर-पन्ने पढ़ जाइए, केवल उपमाओ और रूपकों की छटा, अन्याेिक्तयो  की ठाट, लक्षणा और व्यजंना का चमत्कार - यहाँ तक कि एक ही चीज, दो-दो, चार-चार, दस-दस बार तक दुहराई  जाती है, फिर भी स्वाभाविक और सहज प्रवाह कहीं आहत नहीं हुआ है।’

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