अनुलोम विवाह और प्रतिलोम विवाह किसे कहते है।

जब एक उच्च वर्ण, जाति, उपजाति, कुल एवं गोत्र के लडके का विवाह ऐसी लड़की से किया जाय जिसका वर्ण, जाति, उपजाति, कुल एवं वंश के लडके से नीचा हो तो ऐसे विवाह को अनुलोम विवाह कहते हैं। दूसरे शब्दों में इस प्रकार के विवाह में लड़का उच्च सामाजिक समूह का होता है और लड़की निम्न सामाजिक समूह की। 

उदाहरण के लिए, एक ब्राह्मण लडके का विवाह क्षत्रिय या वैश्य लड़की से होता है तो इसे हम अनुलोम विवाह कहेंगे। वैदिक काल से लेकर स्मृति काल तक अनुलोम विवाह का प्रचलन रहा है। 

मनुस्मृति में लिखा है एक ब्राह्मण को अपने से निम्न तीन वर्णों क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र की कन्या से क्षत्रिय को अपने से निम्न दो वर्णों वैश्य एवं शूद्र कन्या से और वैश्य अपने वर्ण के अतिरिक्त शूद्र कन्या से भी विवाह कर सकता है, किन्तु मनु पाणिग्रहण संस्कार करने की स्वीकृति केवल सवर्ण विवाह के लिए ही देते हैं। 

याज्ञवल्क्य ने भी ब्राह्मण को चार, क्षत्रिय को तीन, वैश्य को दो, एवं शूद्र को एक विवाह करने की बात कही है। मनु ने एक अन्य स्थान पर शुद्र कन्या से द्विज लडके का विवाह अनुचित भी बताया है। ऐसे विवाह से द्विज का वर्ण दूषित हो जाता है, उसके परिवार का स्तर गिर जाता है। और उसकी सन्तान को शूद्र की स्थिति प्राप्त होती है। ऐसे विवाह से उत्पन्न सन्तान को मनु ‘पार्षव’ ;एक जीवित शुद्ध की संज्ञा देते हैं तथा उसे सम्पत्ति में भी कोई अधिकार नहीं होता है। 

प्राचीन समय में अनुलोम विवाह का विस्तार वर्णों तक था, किन्तु जब वर्ण अनेक जातियों एवं उपजातियों में बंट गये और उनमें रक्त शुधता एवं ऊँच-नीच की भावना पनपी तथा जैन एवं बौध धर्म का उदय हुआ तो कुलीन विवाह (Hypergamy) का प्रचलन हुआ। 

कुलीन विवाह का तात्पर्य है एक जाति अथवा उपजाति में विवाह करने पर वधु के लिए वर उच्च कुल या गाँव से प्राप्त किया जाता है। कुलीन विवाह का सर्वाधिक प्रचलन बंगाल में रहा है जहाँ उच्च कुल के लडके का विवाह निम्न कुल की कई लड़कियों से होता था। डॉ. राधकृष्णन् का मत है कि भारत में अनुलोम विवाहों का प्रचलन दसवीं शताब्दी तक रहा है।

रिजले का मत है कि प्रारम्भ में अन्तर्वर्ण विवाहों का प्रचलन इण्डो-आर्यन प्रजाति में िस्त्रायों की कमी पूरी करने के लिए हुआ और जैसे ही उनकी आवश्यकता की पूर्ति हो गयी उन्होंने ऐसे विवाहों पर प्रितबन्ध् लगा दिया।

प्रतिलोम विवाह

अनुलोम विवाह का विपरीत रूप प्रतिलोम विवाह है। इस प्रकार के विवाह में लड़की उच्च वर्ण, जाति, उपजाति, कुल या वंश की होती है और लड़का निम्न वर्ण, जाति, उपजाति, कुल या वंश का। इसे परिभाषित करते हुए कपाड़िया लिखते हैं, एक निम्न वर्ण के व्यक्ति का उच्च वर्ण की स्त्री के साथ विवाह प्रतिलोम विवाह कहलाता था।

उदाहरण के लिए, यदि एक ब्राह्मण लड़की का विवाह किसी क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र लडके से होता है तो ऐसे विवाह को हम प्रतिलोम विवाह कहेंगे। इस प्रकार के विवाह में स्त्री की स्थिति निम्न हो जाती है। 

हिन्दू विवाह अधिनियम, 1949 एवं 1955 के हिन्दू विवाह अधिनियम में अनुलोम एवं प्रतिलोम विवाह दोनों को ही वैध माना गया है।

अनुलोम विवाह के प्रभाव व हानियां 

1. उच्च कुलों में लड़कों की कमी-जो कुछ सामाजिक दृष्टि से ऊँचा माना जाता है उस कुल के लड़कों से नीचा समझा जाने वाले कुल के लोग अपनी कन्या का विवाह करना चाहते हैं, परिणामस्वरूप ऊँचे कुल की लड़कियों के लिए वर का अभाव हो जाता है और उन्हें अविवाहित ही रहना पड़ता है। 

2. नीच कुलों में लड़कियों की कमी-नीच कुल के सभी लोग जब अपनी कन्या का विवाह उच्च कुल में कर देते हैं तो नीच कुल में लड़कों के लिए कन्या का अभाव हो जाता है, और कई लड़कों को अविवाहित ही रहना पड़ता है। 

3. बहुपति एवं बहुपत्नी विवाह का जन्म-ऊँचे कुल के लडके से नीचे कुल के सभी लोग अपनी कन्या का विवाह करना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में उच्च कुल में बहुपत्नी विवाह का प्रचलन होगा, दूसरी ओर नीचे कुल में लड़कियों का अभाव होने पर बहुपति विवाह का प्रचलन होगा। 

4. वर-मूल्य प्रथा-जब नीचे कुल वाले उच्च कुल के लड़कों को वर के रूप में प्राप्त करना चाहते हैं तो लड़कों का अभाव हो जाता है। ऐसी स्थिति में वर-मूल्य प्रथा प्रचलन बढ़ जाता है। 

5. बेमेल विवाह-अनुलोम विवाह के कारण ऊँचे कुल में लड़की का विवाह कभी-कभी प्रौढ़ या वृद व्यक्ति के साथ भी कर दिया जाता है। बंगाल एवं बिहार में उच्च कुलों के कई लड़कों के तो सौ तक पत्नियाँ होती हैं जिन्हें याद रखने के लिए रजिस्टर रखना होता है। कई  बार तो वधु की आयु वर की पुत्री के बराबर होती है। 

6. बाल-विधवाओं में वृद्धि-अनुलोम विवाह के कारण उच्च कुल के पुरुषों के कई  पत्नियाँ होती हैं। ऐसे व्यक्ति की मृत्यु हो जाने पर समाज में बाल-विधवाओं की संख्या बढ़ जाती है। 

7. बाल-विवाह का प्रचलन-अनुलोम विवाह में प्रत्येक पिता यह चाहता है कि उसकी कन्या का विवाह उच्च कुल के लडके से हो अत: ज्योंही कोई  योग्य वर मिला कि कन्या का विवाह कर दिया जाता है। कई बार तो चार-पाँच वर्ष से कम आयु की कन्याओं का भी विवाह कर दिया जाता है। 

8. कन्या-मूल्य का प्रचलन-अनुलोम विवाह के कारण नीच कुलों में कन्याओं का अभाव हो जाता है जिसके फलस्वरूप कन्या-मूल्य का प्रचलन होता है।

9. सामाजिक बुराइयाँ-अनुलोम विवाह प्रथा में समाज में रूढ़िवादिता तथा सामाजिक पारिवारिक एवं वैयक्तिक जीवन में अनेक समस्याओं को जन्म दिया है। निम्न कुल की लड़कियों का देर तक विवाह न होने पर समाज में भ्रष्टाचार व नैतिक पतन की समस्या पैदा होती है। कई कन्याएँ तो जब उनके माता-पिता द्वारा वर-मूल्य नहीं जुटाया जाता तो वे सामाजिक निन्दा से तंग आकर आत्महत्या तक कर लेती हैं।

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