बहिर्विवाह से तात्पर्य है कि एक व्यक्ति जिस समूह का सदस्य है उससे बाहर विवाह करे। रिवर्स लिखते हैं, बहिर्विवाह से बोध होता है उस विनिमय का जिसमें एक सामाजिक समूह के सदस्य के लिए यह अनिवार्य होता
है कि वह दूसरे सामाजिक समूह से अपना जीवन साथी ढूँढ़े।
हिन्दुओं में बहिर्विवाह के नियमों के अनुसार एक
व्यक्ति को अपने परिवार, गोत्र, प्रवर, पिण्ड एवं जाति के कुछ समूहों के बाहर विवाह करना चाहिए। जनजातियों
में एक ही टोटम को मानने वाले लोगों को भी परस्पर विवाह करने की मनाही है। गोत्र, प्रवर एवं पिण्डों के नियमों
की सदैव अनिश्चितता रही है।
इस सन्दर्भ में प्रभु ने लिखा है, अपने उत्पत्ति के समय से लेकर प्रत्येक युग में बहिर्विवाह के नियमों से सम्बिन्ध्त इन तीन शब्दों ‘गोत्र’, ‘प्रवर’ और ‘पिण्ड’ के वास्तविक अर्थों और अवधरणाओं में इतना अधिक परिवर्तन संकलन और रूपान्तर हुआ है कि इनके मौलिक अर्थों के सम्बन्ध् में निश्चित रूप से कुछ भी कहना असम्भव सा हो गया है।
बहिर्विवाह के स्वरूप
हिन्दुओं में प्रचलित बहिर्विवाह के स्वरूपों का हम यहाँ संक्षेप में उल्लेख करेंगे-1. गोत्र बहिर्विवाह
हिन्दुओं में सगोत्र विवाह निषिद है। गोत्र का सामान्य अर्थ उन
व्यक्तियों के समूह से है जिनकी उत्पत्ति एक ही ऋषि पूर्वज से हुई हो। ‘सत्याषाढ़ हिरण्यकेशी श्रोतसूत्रा’ के अनुसार
विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अित्र, वशिष्ठ, कश्यप और अगस्त्य नामक आठ ऋषियों की सन्तानों को गोत्र के नाम से पुकारा गया। छान्दोग्य उपनिषद् में गोत्र शब्द का प्रयोग परिवार के अर्थ में हुआ है। गोत्र शब्द के तीन
या चार अर्थ हैं गौशाला, गाय का समूह, किला तथा पर्वत, आदि। इस प्रकार एक घेरे या स्थान पर रहने वाले लोगों
में परस्पर विवाह वर्जित था।
गोत्र का शाब्दिक अर्थ गौ + त्र अर्थात् गायों को बांधने का स्थान (गौशाला या बाड़ा)
अथवा गोपालन करने वाला समूह है। जिन लोगों की गायें एक स्थान पर बंधती थीं। उसमें नैतिक संबंध बन जाते
थे और सम्भवत: वे रक्त सम्बंधी भी होते थे। अत: वे परस्पर विवाह नहीं करते थे। विज्ञानेश्वर ने गोत्र का अर्थ
स्पष्ट करते हुए कहा है कि वंश-परंपरा में जो नाम प्रसिद्ध होता, उसी को गोत्र कहते हैं।
इस प्रकार एक गोत्र के
सदस्यों द्वारा अपने गोत्र से बाहर विवाह करना ही गोत्रा बहिर्विवाह कहलाता है। गोत्रा बहिर्विवाह का प्रारम्भ कब और केसे हुआ इस बारे में निश्चितता से कुछ भी नहीं कहा जा सकता।
कापड़िया
का मत है कि वैदिक काल में सगोत्रा विवाह निषिदद नहीं थे क्योंकि इस समय गान्ध्र्व विवाह एवं स्वयंवर की प्रथा
का प्रचलन था जिनमें गोत्र सम्बन्धी निषेधें का बना रहना असम्भव था। धर्मशास्त्रों में द्विजों को कलियुग में सगोत्रा
विवाह से बचने को कहा गया । इसका अर्थ है उस समय सगोत्रा विवाह पर प्रतिबन्ध् नहीं थे। आर्य भारत में ईरान
से आये थे और ईरान में गोत्रा बहिर्विवाह का नियम नहीं था।
डॉ. अल्टेकर का मत है कि ईसा के 600 वर्ष पूर्व सगोत्रा
विवाह पर निषेध् नहीं था। मनु ने भी सगोत्र विवाह को पाप नहीं माना। सर्वप्रथम गृहसूत्र साहित्य में सगोत्रा विवाह
को पाप नहीं माना। सर्वप्रथम गृहसूत्र साहित्य में सगोत्र विवाह की मनाही की गयी। बौधयन धर्मसूत्र में तो कहा
गया है कि यदि अज्ञानवश भी सगोत्र कन्या से विवाह हो जाता है तो उसका पालन माता की तरह किया जाए।
स्मृतिकारों ने सगोत्रा विवाह करने वालों के लिए अनेक दण्ड, प्रायश्चित एवं जाति से बहिष्कृत करने की व्यवस्था
की है। ऐसे व्यक्ति को चाण्डाल की संज्ञा दी गयी है।
2. सप्रवर बहिर्विवाह
प्रभु का मत है कि प्राचीन समय में अग्नि पूजा और हवन का प्रचलन था।
हवन के लिए अग्नि प्रज्वलित करते समय पुरोहित अपने प्रसिद्ध ऋषि पूर्वजों का नामोच्चारण करता था। इस प्रकार
समान पूर्वज और समान Íषियों के नाम उच्चारण करने वाले व्यक्ति अपने को एक ही प्रवर से संम्बध मानने लगे।
एक प्रवर के व्यक्ति अपने को सामान्य Íषि पूर्वजों से संस्कारात्मक एवं आध्यात्मिक रूप से सम्बिन्ध्त मानते हैं
अत: वे परस्पर विवाह नहीं करते।
कपाड़िया लिखते हैं, प्रवर संस्कार अथवा ज्ञान के उस समुदाय की ओर संकेत
करता है जिससे एक व्यक्ति सम्बिन्ध्त होता है। प्रवर आध्यात्मिक दृष्टि से परस्पर सम्बिन्ध्त लोगों के समूह की
ओर संकेत करता है न कि रक्त सम्बिन्ध्यों की ओर।
प्रवर पहले केवल ब्राह्मणों के ही होते थे, किन्तु बाद में क्षित्रय एवं वैश्यों ने भी अपना लिये। शूद्रों के कोई प्रवर नहीं थे। ऐसी मान्यता है कि धर्मसूत्र काल व मनु के समय में सप्रवर विवाह पर कठोर नियन्त्राण नहीं था। पी.बी. काणे का मत है कि सप्रवर विवाह निषेध तीसरी शताब्दी से प्रारम्भ हुए और नवीं शताब्दी तक चलते-चलते तो इनका रूप कठोर हो गया। वर्तमान समय में यज्ञों के प्रचलन एवं महत्त्व में कमी आ जाने के कारण प्रवर जैसी कोई संस्था नहीं है। हिन्दू विवाह अधिनीयमों द्वारा ‘सप्रवर’ विवाह सम्बंधी निषेधें को समाप्त कर दिया गया है।
प्रवर पहले केवल ब्राह्मणों के ही होते थे, किन्तु बाद में क्षित्रय एवं वैश्यों ने भी अपना लिये। शूद्रों के कोई प्रवर नहीं थे। ऐसी मान्यता है कि धर्मसूत्र काल व मनु के समय में सप्रवर विवाह पर कठोर नियन्त्राण नहीं था। पी.बी. काणे का मत है कि सप्रवर विवाह निषेध तीसरी शताब्दी से प्रारम्भ हुए और नवीं शताब्दी तक चलते-चलते तो इनका रूप कठोर हो गया। वर्तमान समय में यज्ञों के प्रचलन एवं महत्त्व में कमी आ जाने के कारण प्रवर जैसी कोई संस्था नहीं है। हिन्दू विवाह अधिनीयमों द्वारा ‘सप्रवर’ विवाह सम्बंधी निषेधें को समाप्त कर दिया गया है।
3. सपिण्ड बहिर्विवाह
सप्रवर और सगोत्रा बहिर्विवाह के नियम पितृपक्ष के
सम्बिन्ध्यों में विवाह की स्वीकृति नहीं देते। सपिण्ड विवाह निषेध् के नियम मातृ एवं पितृ पक्ष की कुछ पीढ़ियों
में विवाह पर रोक लगाते हैं। कर्वे सपिण्डता का अर्थ बताती हैं स + पिण्ड (together + ball of rice, a body)
अर्थात् मृत व्यक्ति को पिण्डदान देने वाले या उसके रक्त कण से सम्बिन्ध्त। स्मृति में सपिण्ड करते हैं
- वे सभी व्यक्ति सपिण्डी हैं जो एक पिण्डदान करते हैं
- मिताक्षरा के अनुसार सभी जो एक ही शरीर से पैदा हुए हैं सपिण्डी हैं।
रामायण एवं महाभारत
काल में सपिण्डता का नियम एक स्थान पर निवास करने वाले पितृपक्षीय लोगों पर लागू होता था। मध्ययुगीन
टीकाकारों के अनुसार पिता की ओर से सात व माँ की ओर से पाँच पीढ़ियों में विवाह नहीं किया जाना चाहिए।
दायभाग के प्रवर्तक जीमूतवाहन पिण्ड का अर्थ जौ या चावल के आटे से बने गोलों से लेते हैं जो मृत व्यक्ति को
नदी के किनारे या जलाशय के पास श्राद या मृत्यु के समय तर्पित किये जाते हैं और यह तर्पण का अिध्कार एक
ही पूर्वज की सन्तानों को ही है।
इस प्रकार के पिण्डों का तर्पण करने वाले सपिण्डी माने जाते हैं और वे परस्पर
विवाह नहीं कर सकते। कितनी पीढ़ियों के लोगों को सपिण्डी कहें इस बात में मतभेद है। वशिष्ठ ने पिता की ओर
से सात व माता की ओर से पाँच, गौतम ने पिता की ओर से आठ व माता की ओर से छ: पीढ़ियों तक के लोगों
से विवाह करने पर प्रतिबन्ध् लगाया है। गौतम ने तो सपिण्ड विवाह करने वाले को प्रायश्चित करने एवं जाति से
बहिष्कृत करने की बात कही है।
किन्तु सदैव ही सपिण्डता के नियमों का पालन नहीं हुआ है। कृष्ण ने अपने मामा की लड़की रुक्मणी तथा अर्जुन ने भी अपने मामा की लड़की सुभद्रा से विवाह किया था। कृष्ण ने अपने पिता की ओर से पांचवीं पीढ़ी की लड़की सत्यभामा से भी विवाह किया था। कपाड़िया लिखते हैं कि पांचवीं, छठी और सम्भत: चौथी पीढ़ी में विवाह की परम्परा यादव कुल में भी थी। देवण भट्ट तथा माध्वाचार्य ने अपने मामा की लड़की से विवाह का समर्थन किया था। कर्नाटक व मैसूर के ब्राह्मणों में बहन की लड़की तथा दक्षिण भारत में मामा की लड़की से विवाह करने की प्रथा आज भी प्रचलित है।
किन्तु सदैव ही सपिण्डता के नियमों का पालन नहीं हुआ है। कृष्ण ने अपने मामा की लड़की रुक्मणी तथा अर्जुन ने भी अपने मामा की लड़की सुभद्रा से विवाह किया था। कृष्ण ने अपने पिता की ओर से पांचवीं पीढ़ी की लड़की सत्यभामा से भी विवाह किया था। कपाड़िया लिखते हैं कि पांचवीं, छठी और सम्भत: चौथी पीढ़ी में विवाह की परम्परा यादव कुल में भी थी। देवण भट्ट तथा माध्वाचार्य ने अपने मामा की लड़की से विवाह का समर्थन किया था। कर्नाटक व मैसूर के ब्राह्मणों में बहन की लड़की तथा दक्षिण भारत में मामा की लड़की से विवाह करने की प्रथा आज भी प्रचलित है।
हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 ने सपिण्ड बहिर्विवाह को मान्यता प्रदान की है। माता एवं
पिता दोनों पक्षों से तीन-तीन पीढ़ियों के सपिण्डियों में परस्पर विवाह पर रोक लगा दी गयी है। फिर भी यदि किसी
समूह की प्रथा अथवा परम्परा इसे निषिद नहीं मानती है तो ऐसा विवाह भी वैध् माना जायेगा।
4. ग्राम बहिर्विवाह
उनरी भारत में प्रमुखत: पंजाब एवं दिल्ली के आस-पास यह
नियम है कि एक व्यक्ति अपने ही गाँव में विवाह नहीं करेगा। पंजाब में तो उन गाँवों में भी विवाह करने की मनाही
है जिनकी सीमा व्यक्ति के गाँव की सीमा को छूती हो। इस प्रकार के विवाह का कारण गाँव की जनसंख्या का
सीमित होना, उसमें एक ही गोत्र, वंश अथवा परिवार के सदस्यों का निवास होना, आदि रहे हैं। सगोत्राी एवं
सपिण्डियों से विवाह के निषेध् के कारण ही ऐसे विवाह प्रचलन में आये। गाँवों में इस प्रकार के विवाह को खेड़ा
बहिर्विवाह के नाम से जानते हैं।
5. टोटम बहिर्विवाह
इस प्रकार के विवाह का नियम भारतीय जनजातियों में प्रचलित
है। टोटम कोई भी एक पशु, पक्षी, पेड़-पौधें अथवा निर्जीव वस्तु हो सकती है जिसे एक गोत्रा के लोग आदर एवं
श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं, उससे अपना आध्यात्मिक सम्बन्ध् जोड़ते हैं एक गोत्रा कास एक टोटम होता है और एक
टोटम को मानने वाले परस्पर भाई-बहन समझे जाते हैं। अत: वे परस्पर विवाह नहीं कर सकते। कुछ लोग दिशा बहिर्विवाह का पालन करते हैं। जिस दिशा में उनकी कन्या का विवाह होता है उसी दिशा से वे
पुत्र-वधु प्राप्त नहीं करते हैं।
उत्तरी भारत में एक कहावत प्रचलित है ‘पूर्व की बेटी पश्चिम का बेटा’ अर्थात्
लड़कियाँ पूर्व दिशा के गाँव से प्राप्त की जाती हैं।
बहिर्विवाह के लाभ
- वेस्टरमार्वफ का मत है कि बहिर्विवाह का प्रचलन अगम्यगमन (incest) अर्थात् निकट सम्बिन्ध्यों में यौन सम्बंधी को रोकने के लिए हुआ।
- प्राणीशास्त्राीय दृष्टि से ऐसा माना जाता है कि बहिर्विवाह से उत्पन्न सन्तानें शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से उत्तम होती हैं क्योंकि एक ही पीढ़ी में विवाह करने पर बच्चों में शारीरिक दोष आने की सम्भावना रहती है।
- बहिर्विवाह के कारण विभिन्न समूहों में सामाजिक एवं सांस्कृतिक सम्पर्वफ बढ़ता है और भेद-भाव तथा संघर्ष की सम्भावना समाप्त हो जाती है।
- बहिर्विवाह के कारण परिवार में सुख-शन्ति एवं पे्रम का वातावरण बना रहता है। यदि परिवार में ही विवाह की छूट दे दी जाय तो परिवार का वातावरण तनाव एवं संघर्षमय हो जायेगा।
- समनर एवं केलर ने अन्तर्विवाह को रूढ़िवादी एवं बहिर्विवाह का प्रगतिवादी बताया है। पी. वी. काणे ने लिखा है, बहिर्विवाह के द्वारा एक पीढ़ी को अपने दोष दूर करने का अवसर मिल जाता है, क्योंकि इसके द्वारा रक्त के संयोग हमेशा नवीन रूप ग्रहण करते हैं।
बहिर्विवाह से हानियाँ
- इससे विवाह का क्षेत्र संकुचित हो जाता है, अत: विवाह-साथी चुनाव में कठिनाई आती है। ब्लण्ट ने बताया कि पिता की ओर से सात व माँ की ओर से पाँच पीढ़ियों को छोड़कर विवाह करने से करीब 2, 121 सम्भाव्य सम्बिन्ध्यों से विवाह वर्जित हो जाता है।
- विवाह का दायरा सीमित होने से योग्य वर नहीं मिल पाते फलस्वरूप दहेज की समस्या पैदा होती है।
- दहेज न जुटा पाने के कारण योग्य लड़की को आयोग्य, बूढ़े एवं कुरूप के साथ भी ब्याहना पड़ता है इस कारण से बेमेल विवाह बढ़ते हैं। इस प्रकार के विवाह विधवाओं की समस्या को भी जन्म देते हैं।