हिंदू विवाह के 8 प्रकार क्या हैं?

विवाह, समाज द्वारा मान्यता प्राप्त एक सामाजिक संस्था है। इसके द्वारा दो अलग लिंग के लोगों को एक साथ रहने, यौन संबंध स्थापित करने, बच्चों को जन्म देने तथा उनका लालन-पोषण करने का अधिकार प्राप्त हो जाता है।समाज द्वारा अनुमोदित स्त्री-पुरूष के संयोग को विवाह कहते हैं, जिससे स्त्री- पुरुष को काम- इच्छा की सन्तुष्टि के लिए समाज द्वारा स्वीकृति प्रदान की जाती है । 

विवाह की परिभाषा 

विद्वान भी इसकी परिभाषा के बारे में एक मत नहीं हैं ।

बोर्गाडस के अनुसार, ‘‘विवाह स्त्री-पुरूष को पारिवारिक जीवन में प्रवेश कराने की एक संस्था है।‘‘ 

वेस्टरमार्क ने अपनी पुस्तक हिस्ट्री आफ हयूमन मैरज में कहा है, ‘‘ विवाह एक पुरुषों का स्त्रियों के साथ होने वाला वह सम्बन्ध हैं जिसे प्रथा या कानून स्वीकार करता है और विवाह करने वाले व्यक्तियों में और उनसे उत्पन्न सम्भावित बच्चों के बीच में एक-दूसरे के प्रति होने वाले अधिकारों और कर्तव्यों का समावेश होता है।‘‘

मजुमदार तथा मदन के अनुसार, ‘‘विवाह एक बन्धन अथवा धार्मिक संस्कार के रूप में स्पष्ट होने वाली वह सामाजिक मान्यता हैं जो दो विषम लिंगी व्यक्तियों को यौन संबंध और उससे सम्बंधित सामाजिक- आर्थिक सम्बन्धों में सम्मिलित होने का अधिकार प्रदान करती हैं।‘‘ 

उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर यह कहा जा सकता हैं कि स्त्री-पुरुष दोनों ही मिलकर एक परिवार का
निर्माण करते हैं। उनका यह मिलन सामाजिक स्वीकृति है और इसे ही विवाह कहा जाता है, जिसमें एक-दूसरे के प्रति अधिकारों तथा कर्तव्यों की एक व्यवस्था पाई जाती है।

हिंदू विवाह के प्रकार

हिन्दू धर्मशास्त्रकारों ने विवाह के आठ प्रकारों यथा ब्रह्म, दैव, आर्ष, प्रजापत्य, आसुर, गन्धर्व, राक्षस और पैशाच की चर्चा की है जो किसी न किसी रूप में समाज में प्रचलित थे। इनमें से प्रथम चार प्रशस्त और अन्य चार निन्दित कहे गये हैं। विवाह के आठ प्रकारों में ब्रह्म विवाह को ही सर्वोत्तम बताया गया है। 

1. ब्राह्म विवाह

यह विवाह सभी प्रकार के विवाह में श्रेष्ठ माना गया है। ब्राह्म विवाह को परिभाषित करते हुए लिखा है, वेदों के ज्ञाता शीलवान वर को स्वयं बुलाकर, वस्त्र एवं आभूषण आदि से सुसज्जित कर पूजा एवं धार्मिक विधि से कन्या दान कराना ही ब्राह्म विवाह है।

2. दैव विवाह

गौतम एवं याज्ञवल्क्य ने दैव विवाह के लक्षण का उल्लेख इस प्रकार किया है-वेदों में दक्षिणा देने के समय पर यज्ञ कराने वाले पुरोहित को अलंकारों से सुसज्जित कन्या दान ही ‘दैव’ विवाह है। इसद्कर्म में लगे पुरोहित को जब वस्त्र और आभूषणों से सुसज्जित कन्या दी जाती है तो इसे दैव विवाह कहते हैं।

प्राचीन समय में यज्ञ और धार्मिक अनुष्ठानों का अधिक महत्त्व था। जो ऋषिअथवा पुरोहित इन पवित्र धार्मिक कार्यों को सम्पन्न कराता यजमान उससे अपनी कन्या का विवाह कर देता था। इस प्रकार के विवाह से सम्पन्न सन्तान सात पीढ़ी ऊपर की एवं सात पीढ़ी नीचे के व्यक्तियों का उद्धार करा देती है। 

कुछ स्मृतिकारों ने इस प्रकार के विवाह की आलोचना की है क्योंकि कई बार वर एवं वधू की आयु में बहुत अन्तर होता था। वर्तमान समय में इस प्रकार के विवाह नहीं पाये जाते। अल्टेकर लिखते हैं कि दैव विवाह वैदिक यज्ञों के साथ-साथ लुप्त हो गये।

3. आर्ष विवाह

इस प्रकार के विवाह में विवाह का इच्छुक वर कन्या के पिता को एक गाय और एक बैल अथवा इनके दो जोड़े प्रदान करके विवाह करता है। गौतम ने धर्मसूत्र में लिखा है, आर्ष विवाह में वह कन्या के पिता को एक गाय और एक बैल प्रदान करता है। याज्ञवल्क्य लिखते हैं कि दो गाय लेकर जब कन्यादान किया जाय तब उसे आर्ष विवाह कहते हैं। गाय और बैल का एक युग्म वर के द्वारा धर्म कार्य हेतु कन्या के लिए देकर विधिवत् कन्यादान करना आर्ष विवाह कहा जाता है। आर्ष का सम्बन्ध ऋषि शब्द से है। जब कोई ऋषि किसी कन्या के पिता को गाय और बैल भेंट के रूप में देता है तो यह समझ लिया जाता था कि अब उसने विवाह करने का निश्चय कर लिया है। 

कई आचार्यों ने गाय व बैल भेंट करने को कन्या मूल्य माना है, किन्तु यह सही नहीं है, गाय व बैल भेंट करना भारत जैसे देश में पशुधन के महत्त्व को प्रकट करता है। बैल को धर्म का एवं गाय को पृथ्वी का प्रतीक माना गया है जो विवाह की साक्षी के रूप में दिये जाते थे। कन्या के पिता को दिया जाने वाला जोड़ा पुन: वर को लौटा दिया जाता था। 

इन सभी तथ्यों के आधार पर स्पष्ट है कि आर्ष विवाह में कन्या मूल्य जैसी कोई बात नहीं है। वर्तमान में इस प्रकार के विवाह प्रचलित नहीं हैं।

4. प्रजापत्य विवाह 

प्रजापत्य विवाह भी ब्राह्म विवाह के समान होता है। इसमें लड़की का पिता आदेश देते हुए कहता है तुम दोनों एक साथ रहकर आजीवन धर्म का आचरण करो। याज्ञवल्क्य कहते हैं कि इस प्रकार के विवाह से उत्पन्न सन्तान अपने वंश की तरह पीढ़ियों को पवित्र करने वाली होती है। वशिष्ठ और आपस्तम्ब ने प्रजापत्य विवाह का कहीं उल्लेख नहीं किया है। 

डा. अल्टेकर का मत है कि विवाह के आठ प्रकार की संख्या को पूर्ण करने हेतु ही इस पद्धति को पृथक रूप दे दिया गया।

5. असुर विवाह 

कन्या के परिवार वालों एवं कन्या को अपनी शक्ति के अनुसार धन देकर अपनी इच्छा से कन्या को ग्रहण करना असुर विवाह कहा जाता है। याज्ञवल्क्य एवं गौतम का मत है कि अधिक धन देकर कन्या को ग्रहण करना असुर विवाह कहलाता है। कन्या मूल्य देकर सम्पन्न किये जाने वाले सभी विवाह असुर विवाह की श्रेणी में आते हैं। कन्या मूल्य देना कन्या का सम्मान करना है साथ ही कन्या के परिवार की उसके चले जाने की क्षतिपूर्ति भी है। कन्या मूल्य की प्रथा विशेषत: निम्न जातियों में प्रचलित है, उच्च जातियाँ इसे घृणा की दृष्टि से देखती हैं। 

स्मृतिकारों ने तो कन्या मूल्य देकर प्राप्त की गयी स्त्री को ‘पत्नी’ कहने से भी इन्कार किया है। इस प्रकार के दामाद के लिए ‘विजामाता’ शब्द का प्रयोग किया गया है। 

केकेयी, गन्धारी और माद्री के विवाहों में उनके माता-पिता की कन्या मूल्य के रूप में बहुत अधिक धनराशि दिये जाने का उल्लेख मिलता है।

6. गान्धर्व विवाह

कन्या और वर की इच्छा से पारस्परिक स्नेह द्वारा काम और मैथुन युक्त भावों से जो विवाह किया जाता है, उसे गान्धर्व विवाह कहते हैं। याज्ञवल्क्य पारस्परिक स्नेह द्वारा होने वाले विवाह को गान्धर्व विवाह कहते हैं। गौतम कहते हैं, इच्छा रखती हुई कन्या के साथ अपनी इच्छा से सम्बन्ध स्थापित करना गान्धर्व विवाह कहलाता है। प्राचीन समय में गान्धर्व नामक जाति द्वारा इस प्रकार के विवाह किये जाने के कारण ही ऐसे विवाहों का नाम गान्धर्व विवाह रखा गया है। 

वर्तमान में हम इसे प्रेम-विवाह के नाम से जानते हैं जिसमें वर एवं वधु एक-दूसरे से प्रेम करने के कारण विवाह करते हैं। इस प्रकार के विवाह में धार्मिक क्रियाएँ सम्बन्ध स्थापित करने के बाद की जाती हैं। 

कुछ स्मृतिकारों ने इस प्रकार के विवाह को स्वीकृत किया है तो कुछ ने अस्वीकृत। बौधायन धर्मसूत्र में इसकी प्रशंसा की गयी है। वात्स्यायन ने अपने कामसूत्र में इसे एक आदर्श विवाह माना है। दुष्यन्त का शकुन्तला के साथ गान्धर्व विवाह ही हुआ था।

7. राक्षस विवाह

मारकर, अंग-छेदन करके, घर को तोड़कर, हल्ला करती हुई, रोती हुई कन्या को बलात् अपहरण करके लाना ‘राक्षस’ विवाह कहा जाता है। याज्ञवल्क्य लिखते हैं, ‘राक्षसो युद्ध हरणात्’ अर्थात् युद्ध में कन्या का अपहरण करके उसके साथ विवाह करना ही राक्षस विवाह है। इस प्रकार के विवाह उस समय अधिक होते थे जब युद्धों का महत्त्व था और स्त्री को युद्ध का पुरस्कार माना जाता था। 

महाभारत काल में इस प्रकार के विवाह के अनेक उदाहरण मिलते हैं। भीष्म ने काशी के राजा को पराजित किया और उसकी लड़की अम्बा को अपने भाई विचित्रवीर्य के लिए उठा लाया। श्रीकृष्ण का रुक्मणी एवं अर्जुन का सुभद्रा के साथ भी इसी प्रकार का विवाह हुआ था। 

राक्षस विवाह में वर एवं वधु पक्ष के बीच परस्पर मारपीट एवं लड़ाई-झगड़ा होता है। इस प्रकार के विवाह क्षत्रियों में अधिक होने के कारण इसे ‘क्षात्र-विवाह’ भी कहा जाता है। आजकाल इस प्रकार के विवाह अपवाद के रूप में ही देखने को मिलते हैं।

8. पैशाच विवाह

सोयी हुई उन्मत्त, घबराई हुई, मदिरापान की हुई अथवा राह में जाती हुई लड़की के साथ बलपूर्वक कुकृत्य करने के बाद उससे विवाह करना पैशाच विवाह है। इस प्रकार के विवाह को सबसे निकृष्ट कोटि का माना गया है। वशिष्ठ एवं आपस्तम्ब ने इस प्रकार के विवाह को मान्यता नहीं दी है, किन्तु इस प्रकार के विवाह को लड़की का दोष न होने के कारण कौमार्य भंग हो जाने के बाद उसे सामाजिक बहिष्कार से बचाने एवं उसका सामाजिक सम्मान बनाये रखने के लिए ही स्वीकृति प्रदान की गयी है।

विवाह के प्रकार

विवाह के प्रकारों को पति और पत्नी की संख्या के आधार पर निश्चित करते हैं। दुनियाभर के समाजों में विवाह के दो प्रकार प्रचलित हैं - 
  1. एक विवाह और 
  2. बहु विवाह ।  

1. एक विवाह 

एक विवाह से तात्पर्य है, एक समय में एक व्यक्ति एक ही स्त्री के विवाह करता है। वे विवाह भी आते हैं जिनमें एक पत्नी की मृत्यु हो जाने के बाद या विवाह विच्छेद की स्थिति में दूसरी स्त्री से विवाह किया जाता है। एक विवाह या बहुविवाह का सम्बन्ध व्यक्ति से न होकर समाज से होता है। 

2. बहुविवाह 

बहुविवाह तीन प्रकार का होता है जो निम्नानुसार है -

1. बहुपति विवाह -  इस विवाह में एक ही समय में एक स्त्री एक से अधिक पुरुषों से विवाह करती है। इसे बहुपति विवाह कहते हैं।

2. बहुपत्नी विवाह -  जब एक ही समय में एक पुरुष एक से अधिक स्त्रियों से विवाह करता है तो इसे बहुपत्नी विवाह कहते हैं। पिछले दिनों में हमारे देश में राजा-महाराजा एक ही समय में कई स्त्रियों से विवाह करते थे। राजा दशरथ की तीन रानियां थी। मुसलमानों में तो एक व्यक्ति एक ही समय में अधिकतम चार स्त्रियों से विवाह कर सकता है।

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