अनुक्रम
प्राचीन नागरी लिपि का प्रचार उत्तर भारत में नवीं सदी के अंतिम चरण से मिलता है, यह मूलत: उत्तरी लिपि है, पर दक्षिण भारत में भी कुछ स्थानों पर आठवीं सदी से यह मिलती है। दक्षिण में इसका नाम नागरी न होकर नंद नागरी है। आधुनिक काल की नागरी या देवनागरी, गुजराती, महाजनी, राजस्थानी तथा महाराष्ट्री आदि लिपियाँ इस प्राचीन नागरी के ही पश्चिमी रूप से विकसित हुई हैं और इसके पूर्वी रूप से केथी, मैथिली तथा बांग्ला आदि लिपियों का विकास हुआ है। इसका प्रचार सोलहवीं सदी तक मिलता है। नागरी लिपि को नागरी या देवनागरी लिपि भी कहते हैं।
वर्तमान समय में देश के विभिन्न क्षेत्रों, धर्मिकों, प्रांतवासियों आदि के द्वारा यदि यह लिपि अपना ली जाए, तो संपर्क लिपि के रूप में इसकी भूमिका महत्त्वपूर्ण हो जाएगी। यह नाम तर्क-संगत है, किंतु इसे पूर्णरूपेण अपनाया नहीं गया है।
देवनागरी लिपि का नामकरण
नागरी लिपि के आठवीं, नौवीं शताब्दी के रूप को ‘प्राचीन नागरी’ नाम दिया गया है। दक्षिण भारत के विजय नगर के राजाओं के दान-पात्रों पर लिखी हुई नागरी लिपि का नाम ‘नंदिनागरी’ दिया गया है। भाषाविज्ञानियों द्वारा देवनागरी लिपि के नामकरण के निम्नलिखित मत सामने आते हैं-- डॉ. धीरेंद्र वर्मा के मतानुसार मध्ययुग में स्थापत्य कला की एक शैली थी-नागर। इसमें सभी चिन्ह किसी न किसी रूप में चतुभ्र्ाुज से मिलते-जुलते हैं। इस प्रकार के प, म, ग, भ, झ आदि चिन्हों की शैली विशेष ‘नागर’ आधार पर इसे नागरी नाम दिया गया है।
- डॉ. वर्मा के द्वितीय मतानुसार प्राचीन समय में उत्तर भारत की विभिन्न राजधानियों में ‘नगर’ किसी प्रसिद्ध राजधनी का नाम रहा होगा और इसी राजधानी के आधार पर इस लिपि का नाम ‘नागरी’ पड़ा है। डॉ. वर्मा जी का प्रथम मत जहाँ कुछ ही चिन्हों पर आधारित है तो दूसरा मत पूर्ण काल्पनिक होने से स्वीकार्य नहीं है।
- कुछ विद्वानों की मान्यता है कि प्राचीनकाल में काशी को ‘देव नगर’ नाम से जाना जाता था। इस नगर में इस लिपि के उद्भव होने से इसे देवनागरी कहा गया है। यह मत तर्कसंगत नही लगता, क्योंकि काशी के निकट से प्राप्त प्रमाणों से प्राचीन प्रमाण अन्यत्र से मिले हैं। भारत के विभिन्न स्थानों से इस लिपि के प्रयोग के प्रमाण मिलने से यह मत भी वैज्ञानिक नहीं सिद्ध होता है।
- विद्वानों के एक वर्ग का मत है कि शिक्षा का केद्र ‘नगर’ रहा है। इसलिए लिपि का उद्भव नगर में हुआ। ‘नगर’ में उद्भव होने के कारण इसका नाम ‘नागरी’ लिपि पड़ा है। इस मत को भी पूर्णत: तर्कसंगत नहीं मान सकते हैं। क्योंकि प्राचीनकाल में, भारतवर्ष में गुरुकुलीय शिक्षा का प्रचलन था, जिसका केंद्र प्राय: नगर से दूर वनस्थली में होता था। नगरों में शिक्षा केद्र होने से भी इसे आधार नहीं बना सकते हैं।
- संस्कृत भाषा को ‘देववाणी’ भी कहते हैं। संस्कृत भी नागरी में लिखी जाती है। इसलिए नागरी में ‘देव’ जोड़ कर ‘देवनागरी’ नाम दिया गया है।
- कुछ भाषाविद् बुद्ध के ‘ललित विस्तर’ में आए नाम ‘नागलिपि’ से संबंधित बतलाते हुए नागरी नामकरण स्वीकार करते हैं।
- विद्वानों के एक वर्ग का मत है कि बिहार में स्थित पटना का नाम कुछ समय पूर्व पाटलिपुत्र और प्रचीन समय में ‘नगर’ था वहाँ के राजा चंद्रगुप्त को आदर से ‘देव’ नाम से फकारा जाता था। गुप्त काल में पटना में इस लिपि के प्रचलन के आधार पर चंद्रगुप्त नाम ‘देव’ और पटना नाम ‘नगर’ के संयुक्त नाम देवनगर से देवनागरी नाम बताया गया है। प्राचीनकाल में नागरी के प्रयोग का केद्र पटना ही रहा हो, ऐसा प्रमाण नहीं मिलता है। यह नामकरण कुछ तर्कपूर्ण लगता है, किंतु वैज्ञानिकता सिद्ध नहीं होती है।
- कुछ विद्वानों की मान्यता है कि इस लिपि को प्रांरभिक प्रयोग गुजरात के नागर ब्राह्मणों द्वारा किया गया है, जिसके नाम-आधार पर नागरी नाम दिया गया है। कल्पना-आधार पर नाम विश्लेषण वैज्ञानिक नहीं है।
- कुछ विद्वानों द्वारा इसे ‘हिंदी लिपि’ नाम दिया जाता है। यह नाम पूर्ण भ्रामक है, क्योंकि नागरी मात्र हिंदी की ही लिपि नहीं है वरन् संस्कृत, मराठी और नेपाली आदि भाषाओं की भी लिपि है। हिंदी भाषा और देवनागरी का पारस्परिक संबंध है, किंतु दोनों एक नहीं हैं। यह नाम पूर्णत: अवैज्ञानिक है।
- श्री आर. शाम शास्त्री के मतानुसार भारतवर्ष धर्म प्रधन देश है। देवों के इन प्रतीक समूह को एकत्र कर देने पर ‘देवनगर’ की संज्ञा दी जाती थी। इसी आधार पर चिन्हों का चयन कर विकसित लिपि का नाम ‘देवनागरी’ रखा गया है।
वर्तमान समय में देश के विभिन्न क्षेत्रों, धर्मिकों, प्रांतवासियों आदि के द्वारा यदि यह लिपि अपना ली जाए, तो संपर्क लिपि के रूप में इसकी भूमिका महत्त्वपूर्ण हो जाएगी। यह नाम तर्क-संगत है, किंतु इसे पूर्णरूपेण अपनाया नहीं गया है।
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