जाति व्यवस्था का सम्पूर्ण विचार प्राप्त करने के लिए इसकी विशेषताओं का वर्णन किया जा सकता है

‘जाति’ शब्द एक पुर्तगाली शब्द ‘कास्टा’ से उत्पन्न हुआ है जिसका अर्थ नस्ल, कुल या समूह से लिया गया है। एक व्यक्ति एक जाति में पैदा होता है और स्थायी तौर पर उसी का सदस्य बना रहता है। 

जाति व्यवस्था की विशेषताएं

जाति-व्यवस्था का सम्पूर्ण विचार प्राप्त करने के लिए इसकी विशेषताओं का वर्णन किया जा सकता है –

1. समाज का खंडात्मक विभाजन –  जाति-व्यवस्था के अंतर्गत समाज के अनेक जातियों में विभक्त होता है। प्रत्येक जाति का अपना जीवन होता है, जिसकी सदस्यता जन्म के आधार पर निर्धरित होती है। व्यक्ति की प्रस्थिति उसके धन पर नहीं, अपितु उस जाति के परम्परागत महत्व पर निर्भर करती है, जिसमें उसे जन्म लेने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। जाति आनुवंशिक होती है। धन, पश्चाताप अथवा प्रार्थना की कोई माया उसकी जाति-स्थिति को नहीं बदल सकती। प्रस्थिति का निर्धारण व्यवसाय से नहीं, अपितु जन्म से होता है। 

मैकाइवर (MacIver) ने लिखा है, पूर्वी सभ्यता में वर्ग एवं प्रस्थिति का मुख्य निर्णायक तत्व जन्म हैतो पाश्चात्य सभ्यता में धन के निर्धरक तत्व के रूप में समान अथवा अधिक महत्व है तथा धन जाति की अपेक्षा कम अनमनीय तत्व है। जाति के विभिन्न सदस्यों के व्यवहार को नियमित एवं नियंत्रित करने हेतु जाति-परिषदें होती हैं। यह परिषद संपूर्ण जाति पर शासन करती है तथा सर्वाधिक शक्तिशाली संगठन होती है जो सभी सदस्यों को उनके उचित स्थानों पर रखती है। जाति की शासक संस्था को पंचायत कहा जाता है, जिसका शाब्दिक अर्थ है पांच सदस्यों की संस्था, परन्तु वास्तव में इस संस्था में अधिक व्यक्ति भी निर्णय के समय इकट्ठे हो सकते थे। यह जाति वर्जनाओं के विरुद्ध दोषों का निर्णय करती थी। इन वर्जनाओं में अधिकांशत: ऐसी बातें हुआ करती थीं जो दूसरी जाति के सदस्यों के साथ, खाने, पीने, हुक्का पीने तथा यौन सम्बन्धी बातें, जिनमें जाति से बाहर विवाह मना था, से सम्बिन्ध्त थीं। यह दीवानी एवं फौजदारी मामलों का निर्णय करती थी। 

पंचायत इतनी अधिक शक्तिशाली होती थी कि यह अंग्रेजी शासन-काल में सरकारी न्यायालयों के द्वारा निण्रीत मुकदमों का पुन: निर्णय किया करती थी। इसके द्वारा दिए गए मुख्य दंड (क) जुर्माना, (ख) अपने सजातियों को प्रीतिभोज, (ग) शारीरिक दंड, (घ) धर्मिक पवित्रता, यथा गंगा-स्नान आदि एवं (A) जाति बहिष्कार आदि हुआ करते थे।

यद्यपि आधुनिक समय में न्यायालयों के विस्तार एवं जाति पंचायत के स्थान पर ग्राम पंचायत की प्रतिस्थापना से जाति पंचायत की सत्ता कुछ कम हो गई है, तथापि अब भी जाति अपने सदस्यों के व्यवहार का नियंत्रित एवं प्रभावित करती है।

2. सामाजिक एवं धार्मिक सोपान – जाति-व्यवस्था का दूसरा महत्वपूर्ण लक्षण यह है कि इसमें सामाजिक श्रेष्ठता का एक सुनिश्चित क्रम होता है। प्रत्येक जाति का एक परम्परागत नाम, यथा वैश्य, ब्राम्हण आदि होता है, जो इसे दूसरी जातियों से विलग कर देता है। संपूर्ण समाज विभिन्न जातियों मं विभाजित होता है, जिनमें उच्च तथा निम्न का विचार होता है। इस प्रकार, भारत में सामाजिक सोपान के उच्चतम शिखर पर ब्राम्हणों का स्थान है। मनु के अनुसार, ब्राम्हण सारी सृष्टि का राजन है, क्योंकि उसकी उत्पत्ति ब्रंम्हाम्हा के सबसे पवित्र अंग ‘मुख’ से हुई है। ब्राम्हण के रूप में जन्म मात्र से कोई भी व्यक्ति सनातन नियम का साकार रूप समझा जाता है। ब्राम्हणों को भोजन कराना धर्मिक पुण्य प्राप्त करने का एक मान्य ढंग है। ब्राम्हण का सृष्टि की प्रत्येक वस्तु पर अधिकार है। सारा संसार इसकी सम्पत्ति है तथा दूसरे लोग उसकी छपा पर जीवित हैं। 

इस संबंध में विष्णु मनु से भी आगे हैं। वह लिखता है, देव तो अदृश्य देवता है ब्राम्हणों के सहारे संसार खड़ा है ब्राम्हणों की छपा से ही देव स्वर्ग में निश्चित होकर आराम करते हैं ब्राम्हण का कोई शब्द कभी गलत सिण् नहीं होता। ब्राम्हण प्रसन्न होकर जो कुछ कह दें, देव उसका अनुसमर्थन कर देंगे जब दृश्य देव प्रसन्न हैं तो अदृश्य देव भी निश्चित रूप से प्रसन्न होंगे।

ब्राम्हणों की इस उच्च स्थिति के मुकाबले में शूद्रों की स्थिति पूर्णतया हीन थी। वे सार्वजनिक मार्गो, कूपों, विद्यालयों, मंदिरों आदि का उपयोग नहीं कर सकते थे। दासता शूद्रों की स्थायी स्थिति थी। प्रथम तीन जातियों के सदस्य को शूद्र के साथ यात्रा नहीं करनी चाहिए। उनके स्पर्श मात्र से बिस्तर अथवा आसन दूषित हो जाता है। कुछ अपराधें के लिए शूद्रों को कठोर दंड दिया जाता था। 

इस प्रकार, कौटिल्य के अनुसार, यदि कोई शूद्र ब्राम्हण स्त्री की पवित्रता को भंग करता है तो उसे जीवित जला दिया जाएगा। यदि वह किसी ब्राम्हण को गाली देता है अथवा उस पर आक्रमण करता है तो उसे उसके दोषी अंग को काट दिया जाएगा।

3. भोजन एवं सामाजिक समागम पर प्रतिबन्ध – जाति-व्यवस्था का एक अन्य तत्व यह भी है कि उच्च जातियां अपनी रस्मी पवित्रता की सुरक्षा हेतु अनेक जटिल वर्जनाएं लगा देती हैं। प्रत्येक जाति अपनी उपसंस्कृति का विकास कर लेती है। इस प्रकार, भोजन एवं सामाजिक समागम पर अनेक प्रतिबन्धा होते हैं। किस जाति के सदस्य से कि प्रकार का भोजन स्वीकार किया जा सकता है, इस विषय पर विस्तृत नियम निर्धरित कर दिये जाते हैं। उदाहरणतया, ब्राम्हण किसी भी जाति से घी में पका हुआ भोजन तो स्वीकार कर सकता है, परन्तु वह किसी अन्य जाति से ‘कच्चा’ भोजन स्वीकार नहीं कर सकता।

उच्च जातियों द्वारा प्रतिपािकृत ‘दूषण’ का सिद्धान्त सामाजिक समागम पर अनेक प्रकार के प्रतिबन्ध लगा देता है। इस प्रकार, दूरी के बारे में प्रतिबन्ध हैं। केरल में नायर को नम्बूदरी ब्राम्हण के निकट आने की आज्ञा तो है, परन्तु वह उसे छू नहीं सकता तियान (Tiyan) के लिए यह आदेश है था कि वह ब्राम्हण से छत्तीस कदम दूर रहे, जबकि पुलयान (Pulayan) छियानवे कदम दूर रहता था। पुलयान को किसी भी हिन्दू जाति के निकट नहीं आना चाहिए। 

यदि निम्न जाति के लोग कूपों से पानी लेंगे तो कुएं भी दूषित हो जाएंगे। जाति के नियम इतने कठोर थे कि ब्राम्हण शूद्र के अहाते में स्नान भी नहीं कर सकता था। ब्राम्हण वैद्य शूद्र रोगी की नब्ज देखते समय उसका हाथ नहीं छूता था, बल्कि वह उसकी कलाई पर रेशमी वस्त्र बांधकर नब्ज देखता था, ताकि वह उसके चर्म को छूकर दूषित न हो जाए।,

4. अन्तर्विवाह  व्यक्ति जिस जाति में जन्म लेता था, वह आजीवन उसी जाति में रहता था। प्रत्येक जाति उपजातियों में विभक्त थी, और प्रत्येक उपजाति का यह विधन था कि वह अपने सदस्यों को अपनी उपजाति में ही विवाह की अनुमति दे। इस प्रकार प्रत्येक उपजाति अन्तर्विवाही समूह होता है, अन्तर्विवाह जाति-व्यवस्था का सार है। अन्तर्विवाह के नियम केवल कुछेक ही अपवाद हैं, जो अनुलोम (hypergamy) की प्रथा के कारण हैं। परन्तु प्रतिलोम विवाह (hypergamy) सहन नहीं किए जाते थे। अनुलोम के अतिरिक्त प्रत्येक व्यक्ति को अपनी ही उपजाति में विवाह करना होता है। इस नियम का उल्लंघन करने वाले व्यक्ति को जाति से निष्काषित कर दिया जाता है।

5. व्यवसाय के चयन पर प्रतिबन्ध – जाति-विशेष के सदस्यों से उसी जाति के व्यवसाय को अपनाने की आशा की जाती है। वे दूसरे व्यवसाय को नहीं अपना सकते थे। वंशानुगत व्यवसाय को त्यागना ठीक नहीं समझा जाता था। कोई जाति अपने सदस्यों को यह अनुमति नहीं देती थी कि वे मदिरा निकालने अथवा सफाई करने का अपवित्र पेशा अपनाएं। ऐसा प्रतिबन्ध न केवल अपनी जाति की ओर से था, परन्तु दूसरी जाति के लोग भी इसे ठीक नहीं समझते थे कि अन्य जाति के लोग उनके पेशे को अपनाएं। जो व्यक्ति ब्राम्हण के घर में उत्पन्न न हुआ हो, उसे पुरोहित का कार्य करने की अनुमति नहीं थी। परन्तु अभिलेखों से पता चलता है कि ब्राम्हण सभी प्रकार के कार्य किया करते थे। मराठा आंदोलन के दौरान एवं उसके उपरांत वे सैनिक बने। अकबर के शासनकाल में वे व्यापारी तथा खेतिहर बने। आजकल भी भले ही ब्राम्हण विभिन्न प्रकार के व्यवसाय करते हैं, तथापि पुरोहिताई केवल ब्राम्हणों का ही व्यवसाय है। 

इसी प्रकार आजकल क्षत्रिय एवं वैश्य अपने मूल व्यवसाय के अतिरिक्त भले ही अन्य कई व्यवसाय करते हैं, तथापि वे अधिकांशत: अपने मूल व्यवसाय में ही संलग्न हैं। थोड़े-बहुत अपवादों को छोड़कर प्रत्येक व्यवसाय प्रत्येक प्रकार के व्यक्ति के लिए खुला हुआ है। बेन्ज (Baines) ने लिखा है, जाति का व्यवसाय परम्परागत है, परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि उस जाति के सभी सदस्य अपनी आजीविका उसी व्यवसाय से कमाते हैं।

6. सिविल एवं धर्मिक अक्षमताएं – साधरणतया अशुद्ध जातियों को नगर की बाहरी सीमा पर रखा जाता है। दक्षिणी भारत में नगर अथवा ग्राम के कुछेक भागों में छोटी जातियों के लोग नहीं रह सकते। ऐसा उल्लिखित है कि मराठों और पेशवाओं के शासन-काल में पूना नगर के अन्दर तीन बजे दोपहर से नौ बजे प्रात:काल तक महार और मंग जातियों के सदस्यों को आने की अनुमति नहीं थी, क्योंकि उक्त समय में उनकी परछाई इतनी बड़ी होती थी कि दूर बैठा उच्च जाति का व्यक्ति भी अपवित्र हो सकता था। सारे भारत में शूद्र जाति के लोगों को उन कुओं से पानी भरने की आज्ञा नहीं थी, जहां से उच्च जाति वाले लोग पानी भरते थे। पब्लिक स्कूलों में चमार एवं महार जाति के बच्चों को प्रवेश नहीं मिलता था। शूद्र लोग वेदादि का अध्ययन नहीं कर सकते थे। 

स्वामी माध्वराव के काल में पेशवा सरकार ने यह नियम बनाया था कि चूंकि महार अतिशूद्र हैं, अतएव ब्राम्हण उनके विवाह संस्कार सम्पन्न न करवाएं। शूद्र मन्दिरों में प्रवेश नहीं कर सकते थे। ब्राम्हण को मृत्यु-दण्ड नहीं दिया जा सकता था। केद की स्थिति में उसके साथ दूसरों की अपेक्षा उदार व्यवहार किया जाता था।

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