जाति व्यवस्था की प्रमुख विशेषताएं

भारत में जाति व्यवस्था का अध्ययन तीन परिप्रेक्ष्यों में किया गया है: भारतशास्त्रीय (Indological), समाज-मानवशास्त्रीय (socio-anthropological) तथा समाज-शास्त्रीय (sociological)। भारतशास्त्रीयों ने जाति का अध्ययन धर्म ग्रंथीय (scriptual) दृष्टिकोण से किया है, समाज मानवशास्त्रियों ने सांस्कृतिक दृष्टिकोण से किया है तथा समाजशास्त्रयों ने स्तरीकरण के दृष्टिकोण से किया है।

भारतशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य में भारतशास्त्रियों ने जाति प्रथा की उत्पत्ति, उद्धेश्य एवं इसके भविष्य के विषय में धर्मग्रन्थों का सहारा लिया है। उनका मानना है कि वर्ण की उत्पत्ति विराट पुरुष-ब्रम्हा-से हुई है तथा जातियां इसी वर्ण व्यवस्था के भीतर खण्डित (fissioned) इकाइयां हैं जिनका विकास अनुलोम और प्रतिलोम विवाह प्रभाओं के परिणामस्वरुप हुआ। इन इकाइयों या जातियों को वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत एक दूसरे के सम्बन्ध में अपना-अपना दर्जा (तंदा) प्राप्त हुआ। चारों वर्णों द्वारा किए जाने वाले धार्मिक कृत्य व संस्कार (rituals) स्तरीकृत (statusbound) हैं जिनका उल्लेख ई.सी. 800 वर्ष पूर्व रचित पुस्तक “ब्रम्हाण” में मिलता है, जबकि प्रत्येक जाति पालन किए जाने वाले रीति-रिवाजों तथा नियमों का स्पष्ट उल्लेख “स्मृतियों” में मिलता है। 

कालान्तर में जाति सम्बन्धों को क्षेत्र, भाषा तथा मतों में अन्तर ने भी प्रभावित किया है। भारतशास्त्रियों के अनुसार जाति की उत्पत्ति का उद्देश्य श्रम का विभाजन करना था। जैसे-जैसे लोगों ने समाज में चार समूहों अथवा क्रमों व वर्गों में विभाजन स्वीकार करना प्रारम्भ किया, वे अधिक कठोर होते गए और जाति की सदस्यता तथा व्यवसाय वंशानुगत होते गए। सामाजिक व्यवस्था में ब्रम्हाणों को सर्वश्रेष्ठ स्थान दिया गया क्योंकि ऐसा विश्वास किया जाता है कि ब्रम्हाणों को नियमों की व्याख्या करने तथा उन्हें लागू कराने का दैवी-अधिकार (divine right) प्राप्त है। 

इस प्रकार जाति व्यवस्था में कठोरता का समावेश कर्म,/(कृत्य) तथा धर्म,/(कर्तव्य व दायित्व) में विश्वास के कारण होता गया जिससे स्पष्ट है कि जाति रुढ़ियों, परम्पराओं व नियमों (dogmas) में विश्वास के पीछे धर्म ही निश्चित रुप से प्रेरक शक्ति रहा है। जाति के भविष्य के विषय में भारतशास्त्री मानते हैं कि क्योंकि जातिंया दैवीय रचना हैं, अत: इनका अस्तित्व बना रहेगा।

हट्टन, रिज़्ले, होबेल, क्रोबर, आदि सामाजिक मानवशास्त्रियों ने सांस्कृतिक दृष्टिकोण को चार दिशाओं में स्पष्ट किया है: संगठनात्मक (Organisation), संरचनात्मक (Structual), संस्थात्मक (Institutional), तथा सम्बन्धात्मक (Relational)। हट्टन आदि की संगठनात्मक एवं संरचनात्मक विचारधारा के अनुसार जाति प्रथा केवल भारत में ही पाई जाने वाली अद्वितीय व्यवस्था है। दोनों विचारों (संगठनात्मक व संरचनात्मक) में अन्तर केवल इतना है कि प्रथम विचार जाति व्यवस्था की उत्पत्ति पर केन्द्रित है और दूसरा विचार जाति व्यवस्था के विकास एवं संरचना में आने वाले परिवर्तन की प्रक्रियाओं से सम्बद्ध है। 

रिजले एवं क्रोबर जैसे विद्वानों का संस्थात्मक दृष्टिकोण जाति को केवल भारत के प्रसंग में ही अनुकूल नहीं मानता, बल्कि प्राचीन मिश्र, ममयकालीन यूरोप और वर्तमान दक्षिण संयुक्त राज्य अमेरिका में भी इसे अनुकूल मानता है। सम्बन्धात्मक दृष्टिकोण वाले विद्वानों का मानना है कि जाति जैसी स्थितियां सेना, व्यापार-प्रबन्ध, फैक्टीं आदि में भी पाई जाती है तथा समाज में जाति व्यवस्था की उपस्थिति या अनुपस्थिति समूहों में गतिशीलता की उपस्थिति या अनुपस्थिति से सम्बद्ध होती है। यदि गतिशीलता सामान्य होगी तो जाति व्यवस्था नहीं होगी किन्तु यदि इसमें रुकावट हो तो जाति व्यवस्था होती है।

जाति व्यवस्था की प्रमुख विशेषताएं

जाति की संरचना का अध्ययन इसकी प्रमुख विशेषताओं के विश्लेषण द्वारा किया जा सकता है। बूगल ने जाति के तीन तत्व बताये हैं वंशानुगत विशेषज्ञता, श्रेणीबद्धता, एवं आकर्षक व विरोध होकार्ट ने धार्मिक क्रिया-कलापों की पवित्रता और अपवित्रता पर बल दिया है, जबकि रिजले ने अन्तर्विवाह (endogamy) तथा वंशानुगत पेशे (occupation) पर बल दिया है।

इस अन्तर को ध्यान में रखते हुए यह माना जा सकता है कि एक इकाई के रुप में जाति की ये विशेषताएं हैं: वंशानुगत सदस्यता, अन्तर्विवाह, निश्चित व्यवसाय, तथा जाति समितियां, जबकि व्यवस्था के रुप में जाति की विशेषताएं हैं: श्रेणीक्रम, खानपान पर प्रतिबन्ध, तथा शारीरिक व सामाजिक दूरियों पर प्रतिबन्ध। 

हम जाति की इन व्यवस्था की विशेषताओं की अलग-अलग विवेचना करेंगे।

  1. किन्ही भी दो जातियों की एक समान प्रस्थिति नहीं होती। 
  2. एक जाति का दूसरी जाति से सम्बन्ध का स्तर उंचा या नीचा होता है।
  3. जाति श्रेणीक्रम व्यवस्था में प्रत्येक जाति का निश्चित या अनुमानित स्तर या प्रस्थिति का निर्धारण करना यदि असम्भव नहीं तो मुश्किल अवश्य है। 
  4. जाति में व्यक्ति की सदस्यता उसके जन्म से निर्धारित होती है। प्रत्येक जाति का अन्य जातियों की तुलना में क्योंकि एक निश्चित दर्जा (rank) होता है, अत:व्यक्ति की उच्च व निम्न प्रस्थिति इस पर निर्भर करती है कि जिस जाति में उसका जन्म हुआ है उसकी कर्मकांडीय प्रस्थिति क्या है। वास्तव में, एक परम्परानिष्ठ हिन्दू के जीवन का प्रत्येक पहलू उसके जन्म पर अठका होता है। उसके घरेलू संस्कार व रीति-रिवाज, उसकी मन्दिर आदि में पूजा, उसकी मित्र मण्डली, और उसका व्यवसाय, सभी कुछ उस जाति के स्तर पर आधारित होते हैं जिसमें उसने जन्म लिया है।
  5. प्रत्येक जाति के सदस्यों को अपनी ही जाति या उपजाति में विवाह करना होता है। इस प्रकार अन्तर्विवाह जाति समूहों के बीच एक स्थायी बाध्य स्थिति है।
  6. प्रत्येक जाति का निश्चित वंशानुगत पेशा होता है। 

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