बंदिश का अर्थ, परिभाषा, उद्देश्य एवं महत्व

पाँच ललित कलाओं में संगीत कला को सर्वश्रेष्ठ स्थान प्राप्त है। संगीत का मूल आधार लय और स्वर है जिसके माध्यम से कलाकार अपने सूक्ष्म से सूक्ष्म भावों को अभिव्यक्त करता है। जिस भांति निर्गुण ब्रह्म की उपासना सर्वसाधारण के लिए सम्भव न होने के कारण ईश्वर को सहज रूप में पहचानने और जानने के लिए सगुण ब्रह्म की उपासना का मार्ग अपनाया गया, उसी प्रकार लय और स्वर से संतुलित संगीत के सहज आनन्द को प्राप्त करने के लिए संगीत में सगुण ब्रह्मा के सदृश रचना की सृष्टि की गई होगी। 

रचना रहित संगीत सर्वसाधारण तो क्या, विद्वानों तक के लिए भी पूर्ण आनन्द प्रदान करने में समर्थ नहीं है अर्थात् संगीत के सहज आनन्द की सृष्टि मूल रूप से रचना पर निर्भर करती है। यही कारण है कि प्राचीन काल से आधुनिक काल तक भारतीय लोक एवं शास्त्रीय संगीत में ही नहीं वरन् संसार के प्रत्येक देश के संगीत में रचनाओं का किसी न किसी रूप में अथवा अर्थ में प्रयोग हुआ है।

भारतीय संगीत का इतिहास विभिन्न रूप की रचनाओं से भरपूर है। जिसमें वैदिक काल में सामगान-स्तुतिगान-गांध्र्वगान, प्राचीन काल में ध्रुवगान- जातिगान-गीतिगान, मध्य काल में प्रबन्ध्, ध्रुपद-ध्मार, शब्द-कीर्तन, कव्वाली तथा आधुनिक काल में ठुमरी, टप्पा, ख़्याल, तराना आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। प्राचीन काल के शास्त्रों में रचना को गीत, मध्य काल में प्रबन्ध् एवम् आधुनिक काल में बंदिश अथवा गत के नाम से सम्बोध्ति किया है। आदि काल से ही भारतीय संगीत में बंदिश का अत्यन्त महत्व रहा है। जिस प्रकार वाणी रहित मनुष्य मूक है उसी प्रकार बंदिश रहित संगीत का अस्तित्व भी लगभग मूक के समान हो जाता है। संगीत को पूर्णत्व प्रदान करने के लिए बंदिश एक आवश्यक सामग्री ही नहीं वरन् संगीत रूपी शरीर में प्राणवायु के सदृश है।

संगीत का मुख्य उद्देश्य पूर्ण भावाभिव्यक्ति है एवं कोई भी सौदर्य विधान रूप या आकर के बिना परिलक्षित नहीं हो सकता। सम्भवत: इसी कारण परम्परागत बंदिशों को भारतीय संगीत का आधार स्तम्भ कहा जाता है। बंदिश संगीत को एक सतह अथवा आधार प्रदान करती है। इस आधार के अभाव में कलाकार स्वरों के भंवर जाल में खो जायेंगे। बंदिश के द्वारा योजनाबद्ध ढंग से संगीत को विविध रूप में परिवर्तित किया जा सकता है। अत: चाहे लोक संगीत हो या शास्त्रीय संगीत का कोई भी घटक हो- गायन, वादन अथवा नृत्य, बंदिश के बिना सौन्दर्यानुभूति के स्तर को प्राप्त नहीं किया जा सकता। 

बंदिश का अर्थ

भारतीय संगीत में बंदिशों का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। चाहे वह बंदिश के रूप में उत्तर भारतीय संगीत में हो अथवा पल्लवी के रूप में दक्षिण भारतीय संगीत में। वर्तमान समय में ध्रुपद, धमार, ख़्याल, टप्पा, ठुमरी, दादरा आदि सभी गेय रचनाओं को बंदिश की संज्ञा दी जाती है। भारतीय संगीत के इतिहास में ‘बंदिश’ के विभिन्न पर्यायवाची रूप- गीत, रचना, निबद्ध, प्रबन्ध्, वस्तु, रूपक, चीज़, गत इत्यादि प्राप्त होते हैं।

प्राचीन व मध्यकालीन संगीत ग्रन्थों में गेय रचना को सामान्य रूप से ‘गीत’ कहा गया है। जिस की व्यााख्या सर्वप्रथम पं. शारंगदेव ने ‘संगीत रत्नाकार’ में इस प्रकार की है।

रंजक: स्वरसन्दर्भो गीतभित्यभिध्ीयते।
गांध्र्वगान मित्यस्य भेदद्वयमुदीरिंतम्।।

भावार्थ-मन को रंजन करने वाले स्वर-समुदाय को गीत कहते हैं, जिसके ‘गान्ध्र्व’ एवम् ‘गान’ दो नामिक भेद हैं। संगीत रत्नाकार में गीत शब्द का लगभग कोई दस बार प्रयोग हुआ है जो कि सब जगह एक ही अर्थ में नहीं वरन् विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त हुआ दिखाई देता है। उनमें से कुछ अर्थ इस प्रकार हैं। गाया गया, नाद सामान्य, गायन, धुन, स्वर विधएं, देशी संगीत का सम्पूर्ण स्वर पक्ष, छन्दक आदि सात गीत, चौदह प्रकरण गीत, प्रबंध, सालग सूड प्रबंध्, शुद्ध सूड प्रबन्ध् और आलप्ति गायन-वादन-नृत्य रूप संगीत आदि। इस प्रकार संगीत रत्नाकर में ‘गीत’ शब्द व्यापक अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।

शब्दकोष’ में भी गीत को ‘स्वर-ताल के ढंग से गाए जा सकने वाला वाक्य’ कहा गया है।

बंदिश शब्द मूलत: फारसी भाषा का शब्द है जो कि अपने इसी रूप में फारसी से उर्दू में और तत्पश्चात् उर्दू से संगीत की व्यवहारिक शब्दावली में ग्रहण कर लिया गया है। ‘बंदिश’ शब्द प्राचीन प्रबन्ध् का ही पर्याय है। जिस प्रकार प्रबन्ध् का अर्थ है सुन्दर, श्रेष्ठ व व्यवस्थित रचना, उसी प्रकार बंदिश अर्थात् बन्ध्न राग, स्वर, ताल, लय एवं शब्दों का।

बंदिश का शाब्दिक अर्थ है-’बंदिश’ (संज्ञा स्त्री.) 
  1. बाँध्ने की क्रिया या भाव
  2.  पहले से किया हुआ प्रबन्ध्
  3. गीत, कविता आदि की शब्द योजना।

डॉ. सुभद्रा चौध्री अनुसार, ‘‘संगीत में प्रयुक्त होने वाले प्रबन्ध् शब्द में यह अर्थ अन्वित है क्योंकि यहाँ भी धतु और अंगों की सीमा में बाँध् कर जो रूप बनता है, वह प्रबन्ध् कहलाता है। प्रबन्ध् के लिए आज जो शब्द प्रचलित है, ‘बंदिश’ उसमें भी बन्ध् धतु का आभास मिलता है।’’

प्रो. भगवत शरण शर्मा के शब्दों में, ‘‘प्रबन्ध् का शाब्दिक अर्थ है प्र+बंध् या प्रकृष्ट रूपेण बन्ध्: अर्थात् वह गेय रचना, जिसमें धतुओं और अंगों को भली भांति और सुन्दर रूप में बांध गया हो।’’

इस प्रकार प्रबन्ध् व बंदिश का शब्दार्थ विभिन्न स्थानों में प्राय: एक सा मिलता है। भाषा की दृष्टि से यदि विभिन्न शब्दकोषों में बंदिश के अर्थ देखें तो ज्ञात होता है कि वह प्रबन्ध् के अर्थों के समान ही है। जो कि इस प्रकार हैं- 

बंदिश-(स्त्री.) बाँधने की क्रिया या भाव, पहले से किया हुआ प्रबंध्, रोक, रूकावट।

मानक हिन्दी कोष

बाँधने की क्रिया या भाव, कविता के चरणों, वाक्य आदि में होने वाली शब्द योजना, रचना प्रबन्ध् जैसे गीत, गज़ल की बंदिश, कोई महत्त्वपूर्ण का करने से पहले किया जाने वाला आयोजन या आरम्भिक व्यवस्था।

संक्षिप्त हिन्दी शब्द सागर

बंदिश-संज्ञा, स्त्री
  1. बाँधने की क्रिया या भाव, रोक, प्रतिबंध्
  2. प्रबन्ध्, रचना, योजना, षडयंत्र

राजपाल पर्यायवाची कोष

बंदिश - (स्त्री.) बाँधने की क्रिया, रूकावट, वाक्यों आदि में होने वाली शब्द योजना, बन्दोबस्त, प्रबंध्, व्यवस्था, आयोजन, रोक, प्रतिबंध्, नियंत्रण, नन्दिता, अंकुश, परिरोध्, बन्दी।

संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ में बंदिश शब्द में बद्ध, बंध्, बन्ध्ू इत्यादि संज्ञाएं बंदिश के लिए प्राप्त होती हैं। यथा-
बद्ध (वि) (बन्ध् + क्त) बंध हुआ, जकड़ा, बंद किया हुआ, जुड़ा हुआ। बन्ध्- बन्ध्ना, पकड़ना, लगाना

बन्ध्- ;बन्ध् + ध्द्ध बंध्न, जंजीर, सम्बन्ध्, विशेष प्रकार की पद्य रचना। उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट होता है कि प्रबन्ध् तथा बंदिश संगीत की व्यवहारिकता में समानार्थिक शब्द हैं।

डॉ. सुभद्रा चौध्री ने बंदिश का अर्थ पूर्व रचित गीत बताया है, क्योंकि इसकी रचना साधरणत: कलाकार द्वारा गायन-वादन के मध्य में तत्काल ही नहीं हो जाती, अपितु उसे पहले से कंठस्थ होती है।

भातखण्डे जी ने ‘क्रमिक पुस्तक मालिका’ में रागों की बंदिशों के लिए ‘चीज़’ शब्द का प्रयोग किया है। चीज़ शब्द का अर्थ हिन्दी भाषा में इस प्रकार है- ‘‘--- चीज़ (संज्ञा पु.) (1) पदार्थ, वस्तु, द्रव्य (2) अलंकार, गहना (3) गीत (पं.) विलक्षण बात। महत्त्वपूर्ण वस्तु या बात।’’

पुराने घरानेदार उस्ताद या गुरू सम्पूर्ण बंदिश के लिए ‘अस्थाई (स्थाई) शब्द का भी प्रयोग करते हैं।

इस के अतिरिक्त गायन, वादन एवं नृत्य की बंदिशों अथवा उनके निबद्ध रूप को रचना भी कहा जाता है। साधरण वस्तु से लेकर सृष्टि एवं ब्रह्माण्ड तक के लिए रचना शब्द का प्रयोग होता है। रचना शब्द का अर्थ विशाल शब्द सागर में इस प्रकार दिया गया है- ‘‘-रचना (संज्ञा स्त्री) (स) (1) रचने या बनाने की क्रिया या भाव निर्माण। बनाव (2) बनाने का ढंग अथवा कौशल (3) रची या बनाई वस्तु। स्थाप्ति करना (4) साहित्यिक कृति निर्माण करना। बनाना (5) विधन करना। निश्चित करना। ग्रन्थ आदि लिखना। (6) कल्पना से प्रस्तुत करना। रूप खड़ा करना (7) सँवारना। अनुष्ठान करना। ढालना। उत्पन्न करना (8) क्रम से रखना (9) रंगना। रंजित करना।’’

वर्तमान समय में जहाँ एक ओर सभी गीत प्रकार को बंदिश कहा जाता है वहीं दूसरी ओर तंत्र पर आधरित वादनीय रचनाओं को मुख्य रूप से ‘गत’ की संज्ञा दी जाती है। ऐसा नहीं है कि वादन युक्त रचनाओं को बंदिश नहीं कहा जाता परन्तु ‘गत’ शब्द का प्रयोग वाद्यों की निजी विशेषता के आधर पर किया जाता है। यदि किसी रचना के लिए ‘गत’ शब्द प्रयुक्त होता है तो वह नि: संदेह ही वाद्यों पर बजाने वाली रचना होगी क्योंकि उसमें किसी वाद्य विशेष के बोल ही समाहित होंगे। स्वर, लय, ताल, छन्दोबद्धता व वाद्य विशेष के बोलों युक्त रचना को ‘गत’ कहा जाता है।

‘गत’ शब्द ‘गति’ का अपभ्रंश है। ‘गति’ का अर्थ है- चाल, मार्ग, प्रवाह का सामन्जस्य आदि। गत में एक प्रवाह दिखाई देता है, जैसे-दिर दा दिर दा रा दा दा रा अर्थात् इसे हम छन्दबद्ध रूप भी कह सकते हैं। गुरू, लघु, द्रुत मात्रओं के आधार पर गत का रूप स्पष्ट होता है, जिससे ताल के खण्डात्मक एवम् लयात्मक स्वरूप का बोध् होता है।

गत शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के ‘गति’ शब्द से स्वीकार की जाती है। सांगीतिक अर्थ में -स्वरों की नियमबद्ध सुनियोजित रचना जिसका प्रस्तुतिकरण निबद्ध रूप में किया जाए उसे ‘गत’ कहते हैं। विभिन्न शब्दकोषों गत का अर्थ निम्नलिखित है-

‘संस्कृत शब्दार्थ कौस्तुभ’ में स्वर्गीय चतुर्वेदी द्वारका प्रसाद शर्मा तथा पंतारिण् ाीश झा व्याकरण वेदान्ताचार्य ने गत का अर्थ-गया हुआ, बीता हुआ, गुज़रा हुआ, मृत, मरा हुआ। आया हुआ, पहुँचा हुआ। अवस्थित। गिरा हुआ। कम किया हुआ। सम्बन्ध्ी, विषय का बताया है। श्याम सुन्दर दास जी द्वारा लिखित ‘हिन्दी शब्द सागर’ के तृतीय भाग में गत का अर्थ-
  1. गया हुआ। बीता हुआ। जैसे गत वर्ष
  2. मरा हुआ, मृत। जैसे-गत होना-मरना।
  3. रहित, हीन, खाली।
  4. अवस्था, दशा, हालत। जैसे गत बनाना, दुर्दशा करना।
  5. रूप, रंग, वेश, आकृति। जैसे-तुमने अपनी ये क्या गत बना रखी है।
  6. काम में लाना, सुगति उपयोग। जैसे-ये आम रखे हैं। इनकी गत कर डालो।
  7. दुर्गति, दुर्दशा नाश। जैसे तुमने इस कविता की गत कर डाली।
  8. मृतक का क्रिया कर्म।
  9. नृत्य में शरीर का विशेष संचालन और मुद्रा। जैसे-मोर की गत।
  10. संगीत के बाजों के कुछ बोलों का क्रमबद्ध मिलान। जैसे-सितार पर भैरवी की गत बजा रहे हैं।

आधुनिक हिन्दी शब्द कोष

गत- संबंध रखने वाला, बीता हुआ लुप्त
गति-एक स्थान से दूसरे स्थान की ओर बढ़ने की क्रिया, चलते रहने की स्थिति, अवस्था, देश, प्रयत्न की सीमा, एक मात्र सहारा।

अपभ्रंश हिन्दी कोष

गत्त- (गात्र, प्रा. गत) शरीर, नियम आदि।

इस प्रकार कुछेक शब्द कोषों में गत को गति एवं गत की संज्ञा भी दी गई है। यद्यपि इन शब्दों का संगीत में प्रयुक्त गत शब्द से सीध संबंध् नहीं है परन्तु फिर भी इन शब्दों में निहित अर्थ से सांगीतिक गत का तात्पर्य भी लिया जा सकता है।

वस्तुत: बंदिश ही गत व गत ही बंदिश है, क्योंकि दोनों ही सांगीतिक रचनाओं का बोध् करवाते हैं।

मानक अंग्रेजी-हिन्दी कोष में composition का शाब्दिक अर्थ है- (1) एकत्रीकरण, संचयन, संकलन, जमाव, संघटन (2) रचना, निर्माण , निबन्ध्न , बनावट, समासीकरण (3) वाक्य रचना, वाक्य-गठन (4) साहित्य-सर्जन, काव्य रचना (5) ग्रन्थ करण, प्रणयन, रचना, लेखन (6) गीत-रचना, गायन, गायकी (7) टाइप बैठाना (8) मानसिक अवस्था, दिमाग़ी हालत, मन: स्थिति (9) क्रम से लगाना, व्यवस्था देना (10) संयोजित पदार्थ, यौगिक (11) मिश्रण मिलावट (12) संगीत, पद, गीत, कविता, कहानी आदि (13) संहित, संयोजन आदि।

बृहत् अंग्रेजी हिन्दी कोष में Composition को निम्न प्रकार से वर्णित किया गया है-
  1. संयोजन, संरचना, गठन।
  2. संयोजित पदार्थ, संरचना, कृति।
  3. घटक
  4. बनावट
  5. अक्षरयोजन
  6. निबंध्
  7. शमन
  8. समझौता
उपर्युक्त अवतरणों के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि भारतीय संगीत के इतिहास में कालानुसार बंदिश तथा रचना के लिए विभिन्न समानार्थक शब्द अस्तित्व में रहे हैं। परन्तु वर्तमान समय में मुख्य रूप से गायन युक्त रचनाओं के लिए ‘बंदिश’ एवं वादन युक्त रचनाओं के लिए ‘गत’ शब्द का प्रयोग होता है। इसी प्रकार चाहे अंगे्रजी में बंदिश के लिए composition शब्द का प्रयोग होता है परन्तु फिर भी सांगीतिक दृष्टि से यह दोनों समान अर्थ में प्रयुक्त होते हैं।

बंदिश की परिभाषा

‘बंदिश’ शब्द के विभिन्न अर्थों के आधर पर यह कहना अनुचित न होगा कि बंदिश स्वर, ताल तथा पद के संयोजन से रचित माधुर्य एवं लालित्यपूर्ण कलात्मक रचना है। स्वरबद्ध तथा तालबद्ध वह रचना जो शास्त्रीय संगीत के अनुसार राग नियमों पर आवलम्बित हो, बंदिश कहलाती है। शास्त्रीय संगीत में इन नियमों का पालन करते हुए ही कलाकार एक सौन्दर्यात्मक रचना की परिकल्पना कर सकता है। 

विभिन्न शास्त्रकारों एवं संगीतकारों ने बंदिश को निम्न अनुसार परिभाषित किया है भरत मुनि के अनुसार ‘गांध्र्वमिति तज्ज्ञेयं स्वरतालपदात्मक्। अर्थात् स्वर, ताल, पद युक्त संग्रह संगीत है। ये स्वर ताल और पद ही आज की बंदिश के मूल तत्त्व हैं। गांध्र्व, बंदिश का प्राचीन पर्याय ही है। संगीत का प्रयोजन भाव की अभिव्यक्ति है शब्द कहने का ढंग (पुराने गायकों की भाषा में ‘कहन’ ) राग, ताल और लय का सुगठित रूप बंदिश है। बंदिश रूपी सुन्दरी की हडिड्याँ शब्द है राग उसका माँस है, त्वचा है। सुरीलापन उसकी कान्ति है और ताल उसके शरीर का आकार है और लय उसकी अटखेलियाँ हैं।

शास्त्रीय संगीत के लिए उपयुक्त गेय शब्द रचना करने की प्रक्रिया को ‘बंदिश’ कहा जाता है। राग विस्तार में ताल की सहायता से सबको एक साथ बाँध् रखने का कार्य, बंदिश का विशिष्ट भाग ‘मुखड़ा’ ही करता है। 

पं. दिनकर कैकिणी के अनुसार- Bandish gives the definition of a raga or a particular thought in that raga इसी मत का समर्थन करते हुए श्री एम. आर. गौतम का कथन है, "Bandish potrays nutshell the cardinal feature of the raga in which it is compound, it is succinct summing up of the attractive musical climax of Raga, In short Bandish is condensed essence of Raga सुश्री प्रभा अत्रे ने रागों का तथा विशिष्ट रचना प्रकार का स्वरूप स्पष्ट करने वाली शब्द, ताल, स्वर में बद्ध की गयी रचना को बंदिश कहा है।

In music a composition (Bandish) of raga depicts Raga's character in a nutshell.

In Indian Music 'Bandish' is at once the essence, the distilled spirit of the Raga and foundation on which the huge structure of the Raga can be erected. It is like an equation that gives immediate and direct access to the beauty of a Raga

स्वर ताल और पद में सुबद्ध और सुनियोजित रचना को बंदिश कहते हैं। बंदिश वह दर्पण है जिसमें राग के स्वरूप और चलन को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। प्रबन्ध् को आज की बंदिश का प्राचीन पर्याय कहा जा सकता है। पंडित शारंगदेव ने प्रबन्ध् को पुरूष रूप माना है और इसके चार धतु तथा छह अंग बताए हैं। चार धतु इस प्रकार है-उद्ग्राह, मेलापक ध्रुव तथा आभोग। प्रबन्ध् की इन धतुओं के समान हम आज की बंदिश के स्थायी, अन्तरा, संचारी आभोग को मान सकते हैं। स्वर, ताल और पद ही आज की बंदिश के प्रमुख सर्जक तत्त्व हैं।

बंदिश उस रचना को भी कहते हैं जिसमें ऐसी शब्द पदावली होती है जो कुछ पूर्व नियोजित स्वरों की सहायता से विशिष्ट आकृति बंध् में बंध् गयी है। सुव्यवस्थित ढंग से बंध्ी रचना बंदिश कहलाती है। स्वर, लय और शब्द के उचित समन्वय से उत्कृष्ट बंदिश तैयार होती है। वैसे अगर देखा जाए तो संगीत में किसी भी सांगीतिक रचना को बंदिश ही कहा जाता है।

बंदिश एक प्रकार से कलाकार की कला वस्तु या कला स्वरूप की रूप रेखा है। इसे ही राग की प्रतिज्ञा या statement कहना चाहिए। गायक इस पर ही अपना ध्यान केन्द्रित करता है उसे ही अपना सर्वस्व समर्पित करता है और उसकी मूलाकृति से एक रूप हो जाता है। प्रस्तुतिकरण के समय कुछ अनुशासन, कोई रीत, कुछ सौष्ठव होता ही है और इस से जो स्वर लहरियाँ निर्मित होती हैं वे शब्द के साथ कुछ ऐसी घुल मिल जाती हैं कि उससे राग की विशुद्ध आकृति बन जाती है। इस प्रकार बंदिश को राग का ढांचा भी कहा जा सकता है। जिस प्रकार भवन निर्माण के लिए नींव महत्त्वपूर्ण होती है, उसी प्रकार बंदिश राग के विस्तार की आधार शिला के रूप में कार्य करती है। उसके ढांचे में बढ़त, सृजन, विस्तार आदि की क्षमता होती है। वह अपने मौलिक रूप में कलाकृति के दृष्टिकोण से सुन्दर व परिपूर्ण होती है। परन्तु उसकी सुन्दरता उसकी बढ़त अथवा विस्तार से अधिक स्पष्ट होती है। 

एक बंदिश प्रस्तुत करने की समग्र अभिव्यक्ति या पूर्ण कृति पर दृष्टिपात करें तो वह असंख्य तारों से बनी हुई प्रतीत होती है। बंदिश रूपी कलाकृति अनेक स्वरमयी तारों में सूत्र की गई होती है, जिसमें प्रत्येक स्वर का तेज समय-समय पर परिवर्तित होता रहता है। इस प्रकार बंदिश कलाकार से नवनिर्मित विस्तार की अपेक्षा करती है। जिसमें राग के विशिष्ट रस संचार भाव के नियमों, ताल के विभाग, मात्र, सम, खाली इत्यादि के संकेतों एवं शब्दों के स्पष्ट उच्चारण आदि सिद्धांतों का पालन करना अनिवार्य है।

बंदिश एक दृष्टि से मर्यादा एवं स्वतंत्र, इन परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले तत्त्वों का विलक्षण समन्वय है। नई-नई रागात्मक कलाकृति के सौन्दर्य हेतु एक ही राग के अनेक नए रूप दर्शाने का बंदिश एक उत्तम साधन है। अत: बंदिश की तुलना मानव आत्मा से की जा सकती है। आत्मा को शरीर के अनेक बन्ध्न होते हुए भी वह स्वतंत्र एवं स्वच्छंद होती है। उसी प्रकार बंदिश भी राग, ताल व शब्दों के बन्ध्न होते हुए भी मुक्त होती है। कलाकार उसे निजी कल्पनानुसार व्यक्त करता है। परिणामस्वरूप एक बंध्न युक्त रचना स्वतन्त्र रूप में प्रस्तुत होती है।

बंदिश का उद्देश्य

संगीत का मूलभूत उद्देश्य आनंदानुभूति के द्वारा चित्त को एकाग्र करते हुए जन रंजन से भाव भंजन तक की यात्र है। इसी बृहत्तर उद्देश्य की पूर्ति के लिए वाग्गेयकारों द्वारा विभिन्न प्रकार की बंदिशों की रचना की जाती है क्योंकि बंदिश संगीत की उद्देश्य पूर्ति का प्रमुख साधन है व इसके द्वारा हमें गीत, वाद्य व नृत्य की विषय-वस्तु प्राप्त होती है। विषय एवं बंदिश दोनों का एक पारस्परिक सम्बन्ध् है। जिस प्रकार किसी भी वस्तु विशेष के रचनात्मक गुणों से उसका मूल स्वरूप प्रतिबिम्बित होता है। उसी प्रकार बंदिश और विषय से व्यक्ति के अन्दर मूल भावनाओं का आंकलन होता है। कोई भी व्यक्ति विशेष बंदिश के चयन से पूर्व बंदिश की विषय-वस्तु पर अपना ध्यान केन्द्रित करता है क्योंकि विषय बंदिश का मूल तत्त्व है एवं विषय बंदिश को आधार प्रदान करता है। लेकिन बंदिश के विषयों में भी प्राचीनकाल से अब तक अनेक परिवर्तन आए हैं। 

वस्तुत: भारतीय शास्त्रीय संगीत सभ्यता एवं संस्कृति का प्रधान परिचायक है और भारत ही क्यों प्रत्येक देश का संगीत वहाँ के समाज के मनोभावों एवं विचारों का संचित प्रतिबिम्ब होता है। जैसे-जैसे मानव संस्कार परिष्कृत हुए, सभ्यता एवं संस्कृति में परिवर्तन हुए वैसे ही सांगीतिक विषयों में भी परिवर्तन आता गया, क्योंकि समाज के मनोभावों तथा विचारों के साथ ही संगीत का स्वरूप भी बदलता रहा और उसी के साथ ही उसका विषय भी परिवर्तित होता गया।

प्राचीन काल में संगीत मुख्य रूप से धर्म एवं अध्यात्म से जुड़ा हुआ था। संगीत को धार्मिक स्वरूप प्रदान करने का श्रेय इसी युग के विद्वानों को दिया जाता है। प्राचीन सभ्यता के सभी चरणों में धार्मिक संगीत की स्वरलहरियां अवश्य विद्यमान रही, लेकिन प्राचीन काल के पश्चात् मध्यकाल में भारत पर विदेशियों के आक्रमण से राजनीतिक उथल-पुथल होने के कारण वीर रस से सम्बिन्ध्त विषय को लेकर भी बंदिशो की रचना हुई। इन्हीं आक्रमणों के विरूद्ध देश के कोने-कोने से भक्ति रस का स्रोत प्रवाहित होने लगा। जिसके अन्तर्गत तुलसीदास, मीरा, सूरदास, स्वामी हरिदास, चैतन्य महाप्रभु, कबीर, गुरू नानक देव जी, रहीम, जयदेव, रविदास आदि भक्त कवियों ने संगीत के माध्यम से भक्ति प्रधन विषय को जनसाधरण में प्रवाहित किया। 

इसी के साथ कुछेक संगीतज्ञों एवं कवियों ने राजाश्रय प्राप्त करने के लिए राजा महाराजाओं की प्रशंसा से सम्बिन्ध्त विषय पर आधरित बंदिशों की भी रचना की।

मध्य युग भारतीय संगीत का स्वर्णिम युग था। जिस में विभिन्न विषयों पर आधरित अनेक सौन्दर्यमय बंदिशों का सृजन हुआ जो कि विभिन्न रसों एवं भावों पर आधरित थीं।

वर्तमान समय में कलाकारों द्वारा ईश्वर भक्ति, Íतु वर्णन, राध-कृष्ण की लीला, सांसारिक परम्पराएँ, प्रकृति वर्णन, देवी-देवताओं, गुरू भक्ति आदि अनेक प्रकार के प्रसंग को लेकर बंदिशें प्रस्तुत की जाती हैं जो कि लगभग मध्यकालीन बंदिश-विषयों के अनुरूप ही हैं।

कई बार बंदिशों के विषय वाग्गेयकार या गायक, कलाकार, रचनाकार के व्यक्तित्व या उनके विचारों एवं व्यवहारों आदि पर निर्भर करता है क्योंकि प्रत्येक कलाकार की आत्माभिव्यक्ति या भावों को प्रकट करने का ढंग अलग-अलग होता है। कुछ लोग क्लिष्ट या मनोवैज्ञानिक विचारधारा के अनुसार अपनी बंदिशों की रचना करते हैं एवं उनके विषय का चयन करते हैं। वहीं कुछ लोग अपने सादे सरल व्यवहार के अनुसार अपनी बंदिशों के लिए विषय का चयन करते हैं। अत: यह कहा जा सकता है कि प्राचीन से आधुनिक काल तक बंदिशों का विषय कुछ भी रहा हो, इनका मुख्य उद्देश्य भावाभिव्यक्ति एवं रसानुभूति ही है। पूर्ण रूप से राग नियमों पर आधारित बंदिश भी अर्थहीन है अगर उससे रसानुभूति नहीं होती। 

इस कथन का समर्थन करते अभय दुबे कहते हैं, ‘‘ किसी बंदिश की रचना, चयन या प्रस्तुति के समय यह ध्यान रखना आवश्यक है कि वह बंदिश रसपूर्ण हो।’’

बंदिश का महत्व

प्रत्येक ललित कला में सुन्दर रचना की कामना करना प्रांरभ से ही कलाकारों और कला पारखियों की प्रकृति का स्वाभाविक गुण धर्म रहा है। वास्तुकला जैसी स्थूल कला से लेकर संगीत जैसी सूक्ष्म ललित कला के निरन्तर विकास के लिए यही श्रेष्ठ ‘रचना’ की कामना ही प्रेरणा स्त्रेत का कार्य करती रही है और इसी के परिणाम स्वरूप प्रत्येक कला में सुव्यवस्थित, सुनियोजित सार्थक व चित्ताकर्षक रचनाओं की महत्त्व व सम्मान मिलता रहा है। वैदिक मन्त्रें के उच्चारण से लेकर वर्तमान समय तक भारतीय संगीत विकास के विभिन्न पड़ावों से गुज़रा है। जिसमें समयानुसार अनेक प्रकार के सांगीतिक रूप भारतीय संगीत से जुड़ते रहे परन्तु प्राचीनकाल से लेकर आधुनिक काल तक बंदिश की महत्ता ज्यों की त्यों बनी हुई है।

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