वायु चिकित्सा एवं प्राणायाम चिकित्सा क्या है?

मानव-जीवन का आधार प्राण है। प्राणों की सत्ता से ही जीवन की गतिविधियां हैं एवं शरीर में बल, स्फूर्ति, उद्यम, उत्साह और ओजस्विता है। यदि प्राणशक्ति का संरक्षण, पोषण और संवर्धन किया जाए तो शरीर को व्याधियों से मुक्त किया जा सकता है। शरीर के कण-कण में प्राणों का समावेश है। इनकी शक्ति का हरास होने से ही शरीर में रोगों की उत्पत्ति होती है, अतएव प्राकृतिक चिकित्सा में प्राणायाम-चिकित्सा को विषेश महत्व दिया गया है।

प्राणायाम का अभिप्राय है प्राणों की शक्ति का विस्तार। प्राणो का सम्बन्ध वायु से है। शरीर में प्राण की दो शक्तियां विषेश रूप से कार्य करती हैं-प्राण और अपान। प्राणशक्ति “वास के द्वारा वायु से आक्सीजन ग्रहण करती है और फेफड़ों में पहुंचा कर समस्त कोशिकाओं को शुद्ध वायु के द्वारा पुष्ट करती है और नि:ष्वास के द्वारा फेफड़ों के दूषित तत्त्व को बाहर निकालती है। अपान वायु का कार्य है-शरीर के अन्दर व्याप्त दूषित तत्त्वों को मल-मूत्र के रूप में बाहर निकालना और शरीर को शुद्ध रखना। प्राण तत्त्व का काम घनात्मक है और अपान तत्त्व का काम ऋणात्मक है। दोनों तत्त्व एक दूसरे के पूरक हैं। दूषित तत्त्वों के निर्गमन से जो स्थान रिक्त होता है, उसमें पोशक तत्व अपना स्थान ग्रहण करते हैं। 

वेदों में प्राणशक्ति का बहुत महत्व वर्णित है। प्राणो को संसार का स्वामी कहा गया है। यह चर-अचर सभी का स्वामी है। प्राण में ही सब कुछ प्रतिष्ठित है। प्राणो की नीरोगता का आधार है और उनकी अशक्तता विविध व्याधियों का कारण है।

प्राण के दो रूपों का वर्णन करते हुए कहा गया है कि एक अन्दर आता है ओर दूसरा बार जाता हे। प्राण रूप में अन्दर आकर यह रूधिर को स्वच्छ करता है और अपान रूप में दोशों के शरीर से बाहर निकालता है। प्राण को ही मातरिष्वा और वायु भी कहते हैं। इसको शरीर रूपी रथ को ढोने के कारण अनड्वान् (अनस्-गाड़ी, रथ, वह-ढोना) कहा जाता है।

प्राणायान-चिकित्सा यह योग-चिकित्सा है। इसमें पूरक, रेचक और दो कुम्भकों का समावेश है। “वास अन्दर लेने को ‘पूरक’ कहते हैं। “वास बाहर छोड़ने को ‘रेचक’ और अन्दर एवं बाहर रोकने को ‘कुम्भक’ (आभ्यन्तर कुम्भक और बाह्य कुम्भक) कहते हैं। “वास को जितना अधिक अन्दर रोका जायेगा, उतना ही अधिक रक्त शुद्ध होगा। इससे शरीर में अधिक शक्ति का संचार होगा और पाचन शक्ति बढ़ेगी। 

ऋग्वेद में प्राणशक्ति का बहुत महत्व वर्णित है। अथर्ववेद में कथन है कि वर्तमान, भूत और भविष्य सभी कुछ प्राण पर निर्भर है।  यदि मानव जीवन पर ध्यान दिया जाए तो मनुष्य का वर्तमान भूत और भविष्य प्राण-शक्ति पर ही निर्भर है। प्राणशक्ति  की उत्कृष्टता उसे नीरोगता, शौर्य और तेज देती है। उसका अभाव रोग, शोक, क्षय ओर निस्तेजस्कता का कारण है। इसका ही परिणाम मृत्यु है। प्राण स्वयं भेशज या ओषधि है। प्राण रोगों का उपचार है। अतएव अथर्ववेद का कथन है कि प्राण का सर्वोत्तम रूप भेशज तत्त्व है, यह जीवनीशक्ति प्रदान करता है।

संसार में जहॉं भी जीवनीशक्ति है, वहॉं प्राणतत्त्व का चमत्कार है। प्राण आग्नेय तत्त्व है। यही ज्योति, तेज, ऊर्जा और ऊश्मा देती है और इसका कार्य है दोशों को नश्ट करके शुद्धता प्रदान करना, तेज ऊर्जा और स्फूर्ति प्रदान करना। इसलिए इसे संसार का महाप्रभु विराट्, नियन्ता और प्रजापति कहा गया है। इसमें दोशों के नाषन और ऊर्जा-प्रदा की शक्ति है, अत: इसे सूर्य कहा गया है साथ ही शरीर में शान्ति, सौम्य, आह्लाद, प्रेम और माधुर्य की सृश्टि करता है, इसीलिए इसे चन्द्रमा भी कहा गया है।

प्राणायाम शरीर के अन्दर सभी दोशों को जलाकर शरीर को शुद्ध करता है, इसीलिए शरीर नीरोग और स्वस्थ रहता है। मनुस्मृति में इसको धौंकनी से उपमा देकर समझाया है कि जिस प्रकार धौंकनी की सहायता से अग्नि को प्रदीप्त करके सुवर्ण आदि धातुओं को शुद्ध किया जाता है, उसी प्रकार प्राणायाम के द्वारा शरीर के सारे दोशों को नश्ट किया जाता है।

ऋग्वेद के अनेक मंत्रों में वायु को भेशज, विश्व भेशज, अमृत आदि कहा गया है। वायु को अमृत का निधि कहा गया है और इसे दीर्घायु का साधन माना है। शुद्ध वायु का सेवन, घर में शुद्ध वायु का निर्बाध प्रवेश, शुद्ध वायु में लम्बे “वास लेना, प्रदूषण-रहित स्थान में निवास, पर्वतों पर रहना या समुद्र तट पर निवास करते हुए अतिषुद्ध वायु का सेवन दीर्घायुश्य का साधन है। इन्हीं बातों को वेद के अनेक मंत्रों में कहा गया है। वायु से प्राण या जीवनी शक्ति प्राप्त होती है। वायु भेशज है। यह हृदय को शक्ति देता है और मनुष्य को दीर्घायु करता है। वायु शरीर में ओषधि का काम करता है और शरीर के दोशों को निकाल बाहर करता है। वायु मनुष्य का रक्षक, पिता, पोशक, भार्इ, सहायक और मित्र भी है। इससे ज्ञात होता है कि शुद्ध वायु का सेवन पालक, पोशक और सहायक मित्र तुल्य है। यदि इसका सदोपयोग किया जाता है तो मनुष्य दीर्घायु होता है। वायु मनुष्य की आत्मा है। यह प्राणों से भी प्रिय है। इसको शरीर में और घर में अत्यन्त आदरणीय अतिथि के रूप में स्थान देना चाहिए। ऋग्वेद में स्पष्ट उल्लेख है कि जिस घर में शुद्ध वायु का अबाध प्रवेश है, वह घर शुद्ध है और उसमें रहने वाला व्यक्ति सबसे अधिक सुरक्षित है, अर्थात् वह सभी प्रकार के रोगों से सर्वथा मुक्त रहता है।1

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