सूचना का अधिकार : अर्थ एवं आवश्यकता

सूचना का अधिकार (Right to Information) एक ‘मौलिक अधिकार’ है जो विभिन्न अधिकारों तथा दायित्वों से अस्तित्व में आता है। वे हैं:-
  1. हर व्यक्ति का, सरकार बल्कि कुछ मामलों में निजी संस्थाओं तक से सूचनाओं का निवेदन करने का अधिकार है।
  2. सरकार का निवेदित सूचनाओं को उपलब्ध कराने का कर्तव्य है, बशर्ते उन सूचनाओं को सार्वजनिक न करने वाली सूचनाओं की श्रेणी में न रखा गया हो।
  3. नागरिकों द्वारा निवेदन किए बिना ही सामान्य जनहित की सूचनाओं को स्वयं अपनी पहल कर सार्वजनिक करने का सरकार का कर्तव्य है।
भारतीय संविधान विशिष्ट रूप से सूचना के अधिकार का उल्लेख नहीं करता लेकिन उच्चतम न्यायालय ने काफी पहले इसे एक ऐसे मौलिक अधिकारों के रूप में मान्यता दे दी थी जो लोकतांत्रिक कार्य संचालन के लिए जरूरी है। विशिष्ट रूप से कहें तो उच्चतम न्यायालय ने सूचना के अधिकार को भारतीय संविधान के 'अनुच्छेद 19(1गए)' द्वारा 'प्रत्याभूत बोलने व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' के अभिन्न अंग और अनुच्छेद 21 द्वारा प्रत्याभूत 'जीवन के अधिकार के एक आवश्यक अंग' के रूप में मान्यता दी है।
 
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सूचना तक पहुँच बनाने का अधिकार वस्तुतः इस तथ्य को दर्शाता है कि सूचनाएं जनता की धरोहर होती हैं, न कि उस सरकारी संस्था की जिसके पास ये मौजूद होती हैं। सूचना पर किसी विभाग या तत्कालीन सरकार का स्वामित्व नहीं होता। सूचनाओं को जन सेवकों द्वारा जनता के पैसे से एकत्रित किया जाता है, उनके लिए सार्वजनिक कोष से पैसा अदा किया जाता है और उन्हें जनता के लिए उन की धरोहर के रूप में संभाल कर रखा जाता है। इसका अर्थ है कि आपको सरकारी कार्यवाहियों, निर्णयों, नीतियों, निर्णय प्रक्रियाओं और यहां तक कि कुछ मामलों में निजी संस्थाओं व व्यक्तियों के पास उपलब्ध सूचनाएँ मांगने एवं पाने का अधिकार है।

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आधुनिक लोकतांत्रिक युग में राजनैतिक व्यवस्था के साथ-साथ शासन और प्रशासन के लोकतांत्रिकरण पर भी जोर दिया जा रहा है। इसके लिए प्रशासन को जनमत के अनुकूल होना आवश्यक है तभी प्रजातांत्रिक मूल्यों को प्राप्त किया जा सकता है। शासन प्रशासन को जनमत के अनुरूप बनाने के लिए कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को सही रूप से साकार करने के लिए शासन व प्रशासन के विभिन्न स्तरों पर जनता की भागीदारी आवश्यक ही नहीं अपरिहार्य है। जन भागीदारी के विभिन्न माध्यमों में सूचना का अधिकार अत्याधिक सशक्त माध्यम है।

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सूचना के अधिकार के माध्यम से शासन के नीतियों व कार्यक्रमों को आम जनता की पहुँच होती है इससे प्रशासन में पारदर्शिता का विकास होता है प्रशासन जनहित के प्रति उत्तरदायी व संवेदनशील होता है अब प्रशासन गोपनीयता की आड़ में अपने उत्तरदायित्वों के निर्वहन में लापरवाही नहीं वरत सकता है क्योंकि जनता के हाथ में सूचना का अधिकार रूपी हथियार प्रत्येक स्तर पर प्रशासन के गलत कृत्यों के लिए भय उत्पन्न करता है। सूचना का अधिकार प्रशासनिक कुशलता की वृद्धि में सहायक है, इससे प्रशासनिक कार्य पूरी तरह जनता की निगरानी में आ गए हैं, तब इन कार्यो को नियत समय पर पूरा करने की नैतिक बाध्यता प्रशासन पर लागू होती है। सूचना का अधिकार लोक कल्याण की प्राप्ति में सहायक है क्योंकि जन भागीदारी के इस हथियार के भय के कारण शासन व प्रशासन लोक-कल्याण की प्रभावी प्राप्ति के लिए सतर्कता पूर्वक प्रयास करते हैं। जिससे जनता का ज्यादा से ज्यादा हित पूरा होता है। साथ ही यह वह औषधि है जिसने जनता और प्रशासन की दूरी को कम किया है।

आज विश्व संचार क्रान्ति के दौर से गुजर रहा है। सूचना प्रौद्योगिकी ने सम्पूर्ण विश्व को एक वैश्विक गॉंव (Global Village) में परिवर्तित कर दिया है। इसका किस हद तक प्रजातांत्रिक प्रणाली में उपयोग हो पाया है? प्रजातांत्रिक प्रणाली में प्रशासन को दक्ष एवं प्रभावी बनाने में 'सूचना के अधिकार’ की महत्ता किस हद तक है?, यही इस शोध प्रबंध (Thesis) के अध्ययन का मुख्य विषय है। सूचना के अधिकार की औचित्यपूर्णता के सम्बन्ध में. हेराल्ड जे. लास्की और कर्ट आइनजर ने बताया है कि-’’जिन लोगों को सही सूचनायें प्राप्त नहीं हो रही हैं उनकी आजादी असुरक्षित है। उसे आज नहीं तो कल समाप्त हो ही जाना है”।

जनसूचना अधिकार से तात्पर्य सूचना के अधिकार अधिनियम के अधीन योग्य सूचनाएं प्राप्त करने से है जो किसी लोक प्राधिकारी द्वारा उसके नियंत्रण क्षेत्र से प्राप्त किया जा सकता है। 

सूचना का अधिकार : अर्थ एवं आवश्यकता

सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 से ही यह स्पष्ट है कि सूचना को अधिकार के रूप में प्राप्त किया जा सकता है । सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 की उद्धेशिका से ही इस अधिनियम का उद्धेश्य स्पष्ट हो जाता है। सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 की उद्धेशिका निम्नानुसार है:- प्रत्येक लोक प्राधिकारी के कार्यकरण में पारदर्शिता और उत्तरदायित्व के संवर्धन के लिए, लोक प्राधिकारियों के नियंत्रणाधीन सूचना तक पहुंच सुनिश्चित करने के लिए नागरिकों के सूचना के अधिकार की व्यवहारिक शासन पद्धति स्थापित करने, एक केन्द्रीय सूचना आयोग तथा राज्य सूचना आयोग का गठन करने और उनसे संबंधित या उनसे आनुषंगिक विषयों का उपबंध करने के लिए अधिनियम है।

भारत के संविधान ने लोकतंत्रात्मक गणराज्य की स्थापना की है और लोकतंत्र शिक्षित नागरिक वर्ग तथा ऐसी सूचना की पारदर्शिता की अपेक्षा करता है, जो उसके कार्यकरण तथा भ्रष्टाचार को रोकने के लिए भी और सरकारों तथा उनके परिकरणों को शासन के प्रति उत्तरदायी बनाने के लिए अनिवार्य है, और वास्तविक व्यवहार में सूचना के प्रकटन से संभवतः अन्य लोक हितो, जिनके अंतर्गत सरकारों के दक्ष प्रचालन, सीमित राज्य वित्तीय संसाधनों के अधिकतम उपयोग और संवेदनशील सूचना की गोपनीयता को बनाए रखना भी है, के साथ विरोध हो सकता है, और लोकतंत्रात्मक आदर्श की प्रभुता को बनाए रखते हुए इन विरोधी हितो के बीच सामंजस्य बनाना आवश्यक है, अतः अब यह समीचीन है कि ऐसे नागरिकों को, कतिपय सूचना देने के लिए, जो उसे पाने के इच्छुक है, उपबंध किया जाए ।

असामान्य नियम तथा उद्धेश्यपूर्ण निर्वचन नियम का आश्रय केवल तब लिया जा सकता है, जब परिनियम के सामान्य शब्द संदिग्ध है या किसी अबोधगम्य परिणाम को निर्दिष्ट करते है या यदि शाब्दिक रूप से पढ़े जायें, तो परिनियम के मूल उद्धेश्य को अकृत करेगें ।

यद्यपि विधि के सारभूत उपबन्धों के सही अर्थ तथा प्रभाव को अवधारित करने के लिए विधेयक के साथ संलग्न उद्धेश्यों और कारणों के कथन का प्रयोग अनुज्ञेय नहीं हो सकता है तथापि उनका प्रयोग पृष्ठभूमि तथा उस पूर्ववर्ती स्थिति को जिसकी वजह से विधान बनाना पड़ा हो, समझाने के सीमित प्रयोजन के लिए किया जा सकता है।

विधि का सुव्यवस्थित आधार - वाक्य यह है कि यद्यपि, परिनियम की प्रस्तावना अधिनियम के उपबन्धों के निर्वचन की कुंजी है, परन्तु विधानमण्डल का आशय स्वयं द्वारा ग्रहण की गई प्रस्तावना से आवश्यक रूप से एकत्र किया जाना नहीं है, बल्कि अधिनियम के उपबन्ध से एकत्र किया जाना है। जहां अधिनियम की भाषा स्पष्ट है, वहां प्रस्तावना मार्गदर्शक नहीं हो सकती किन्तु जहां अधिनियम के उपबन्धों का आशय और अर्थ स्पष्ट नहीं है वहां अधिनियम के उपबन्धों की व्याख्या करने के प्रयोजन के लिए विचार में प्रस्तावना से सहायता ली जा सकती है। यह एक सुस्थापित नियम है कि प्रस्तावना से संविधि के प्राथमिक उद्धेश्य पर प्रकाश पड़ता है । किन्तु यह संविधि के उपबन्धों पर अभिभावी प्रभाव नहीं रखती । यह एक मान्य नियम है संविधि का भाव एवं भाषा सुस्पष्ट वह प्रस्तावना अधिनियम के विस्तार क्षेत्र को बाधित नहीं कर सकता एवं जहां किसी अधिनियम का अर्थ स्पष्ट नहीं है वहां प्रस्तावना की सहायता से उसकी व्याख्या की जा सकती है।

अर्थान्वयन का सुपरिचित नियम है कि शब्दावली और वाक्यांश में सभी परिवर्तनो की उपधारणा जान-बूझकर की गई और पूर्व विद्यमान विधि को सीमित करने, विशेषित करने या विस्तार करने के साथ की जा सकती है, जैसा कि शब्दों का परिवर्तन लागू किया जाये। किसी एसे अर्थान्वयन को निवारित किया जाना चाहिए, जो अपवार (खण्ड) निर्मित करता है, जिससे धारा का प्रारम्भ अनावश्यक और व्यर्थ हो जाता है ।

जब तक कोई संविधि तार्किक रूप से त्रुटि पूर्ण तथा अवधारणात्मक तथा अंतर्निहित संदिग्धता ग्रस्त न हो, तब तक इसे इसका शाब्दिक अर्थ दिया जाना चाहिए। जब किसी संविधि में सरल और स्पष्ट शब्दो का प्रयोग किया गया हो, तब उसे प्रभावी बनाया जाना हो। निःसंदेह रूप से सामान्य रूप से किसी संविधि का निर्वचन करते समय निर्वचन के शाब्दिक नियम का पालन किया जाना चाहिए अतः न्यायालय को संविधि में न तो कुछ जोड़ना चाहिए न तो कुछ हटाना चाहिए। किसी संविधि के प्रत्येक शब्दों और पदों को उसके संदर्भ में समझा जाना है तथा उसे महत्व दिया जाना चाहिए, जिससे कि निर्रथक न हो । जब किसी अधिनियमिति की भाषा स्पष्ट एवं असंदिग्ध हो, तब उसमें शब्दो को जोड़ना अनुज्ञय नही होता है। शाब्दिक निर्वचन शब्दो से परे नही हो सकता है, जबकि क्रियान्वयन निर्वचन में संविधि के अक्षरो से कुछ विचलन हो सकता है । जब धारा को दिया गया स्पष्ट अर्थ अंसगतता या असामान्यता में परिणामित होता है, तब शाब्दिक अर्थ को निःसंदेह लागू किया जायेगा। यदि शाब्दिक निर्वचन असंगत परिणाम अग्रसर करता है, तो शाब्दिक निर्वचन की उपेक्षा की जानी चाहिए एवं प्रयोजनमूलक निर्वचन अपनाना चाहिए। किसी संविधि के प्रावधानो को निर्वचन करते समय न्यायालय को उसका अर्थ देने के लिए समर्थ होना चाहिए। जब किसी संविधि में विशेष शब्दो को परिभाषित किया गया हो, तब उसके सामान्य तथा साधारण अर्थ को ही प्राथमिकता दी जानी चाहिए । संविधान के साथ ही साथ संविधि के प्रावधानो को शाब्दिक अर्थ दिया जाना चाहिए। किसी संविधि के शाब्दिक निर्वचन अथवा सरल अर्थ को ऐसा नही होना चाहिए, जो असंगतता अथवा विलक्षण स्थिति को अग्रसर करे । निःसंदेह किसी संविधि का निर्वचन करते समय सामान्यतः शाब्दिक निर्वचन को लागू किया जाना चाहिए, परन्तु उस संविधि के प्रावधान निर्वचन के लिए सदेव इसी नियम का प्रयोग नही किया जाता है, परन्तु अपवादजनक परिस्थितियों मे इससे विचलित हुआ जा सकता है।

शाब्दिक निर्वचन के स्वर्णिम नियम का अनुप्रयोग करते समय एक व्यक्ति को यह ध्यान में रखना चाहिए कि उसे उस उद्धेश्य एवं प्रयोजन को विफल नही करना चाहिए, जिसके लिए अधिनियम अधिनियमित किया था ।
संदर्भात्मक निर्वचन का नियम यह अपेक्षा करता है कि न्यायालय को संविधि के प्रत्येक शब्दो का उस संविधि के उद्धेशिका, उसके अन्य प्रावधानो, समरूप संविधियों तथा उपचारित किये जाने के लिए आशयित रिष्टि को ध्यान
में रखते हुए इसके संदर्भ संविधि के शब्दो का परीक्षण करना है। परिनियम के अर्थान्वयन को न्याय हेतुक के परीक्षण को पुरा करना चाहिए।

परिनियम को पूर्ण रूप से और इसके पश्चात अध्याय कम, धारा कम और इसके पश्चात शब्दशः पढ़ा जाना चाहिए । इस प्रयोजन के लिए अधिनियम की योजना का उल्लेख किया जाना चाहिए । निर्वचन एक ऐसा ढंग है, जिसके द्वारा किसी शब्द या उपबंध के सही भाव या अर्थ को समझा जाता है। निर्वचन, जिसका परिणाम व्यापक अव्यवस्था में होता है, का निवारण किया जाना चाहिए । कानूनी प्रावधानो का निर्वचन संवेधानिक प्रावधानो के परिप्रेक्ष्य में किया जाना चाहिए।

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