योग क्या है वर्तमान में इसकी योग उपयोगिता ?

योग एक आध्यात्मिक विद्या है किन्तु आधुनिक समय में योग का उन्नयन एवं विकास स्वास्थ्य योग विज्ञान के रूप में हो रहा है। आज योग को स्वास्थ्य के क्षेत्र में असीम सफलता प्राप्त हो रही है और लोग इससे पूर्णरूप से प्रभावित एवं लाभान्वित हो रहें हैं। योग और आयुर्वेद के अनुसार मनुष्य और पर्यावरण का आपस में सामंजस्य का ह्रास होने से ही स्वास्थ्य की हानि होती है जिससे अनेक रोग जन्म लेते है। इन रोगों को दूर करने में योग पूर्णरूप से सक्षम होता है जिससे यौगिक चिकित्सा की उपयोगिता बढ़ रही है लोग उसे सहर्ष स्वीकार कर रहे है।

वस्तुत: योग के विषय में रुचि जागरण का कारण आधुनिक समाज में मानसिक तनाव की वृद्धि तथा तज्जन्य रोगों की दर में वृद्धि होना ही है, क्योंकि मानसिक तनावजन्य समस्याओं के समाधान में आधुनिक चिकित्सा विज्ञान असफल रहा है; और इस सन्दर्भ में योगाभ्यास से लाभ होने की सम्भावना व्यक्त की गयी है। इसी सम्भावना से आकर्षित होकर बड़ी संख्या में सम्पूर्ण विश्व के लोग योग में रुचि लेने लगे है।  

योग की उत्पत्ति

योग के उद्भव का अर्थ योग के प्रारम्भ अथवा उत्पन्न होने से लिया जा सकता है योग का प्रारम्भ आदी काल से ही है सृष्टि के आदि ग्रन्थ के रूप मे वेदो का वर्णन आता है। वेद वह ईश्वरी ज्ञान है। जिसमे मानव जीवन के प्रत्येक पक्ष पर प्रकाश डाला गया है तथा जीवन को सुखमय बनाते हुए जीवन के चरम लक्ष्य मुक्ति के मार्ग को समझाया गया है। इस मुक्ति के मार्ग के साधन के रूप मे योग मार्ग का उल्लेख किया जाता हो सर्वपथम ऋग्वेंद में कहा गया है-

यञजते मन उत यृञजते धियों विप्रा विप्रस्थ बृहतो विपश्रिचत:।।

अर्थात जीव (मनुष्य) को परमेश्वर की उपासना नित्य करनी उचित है वह मनुष्य अपने मन को सब विद्याओं से युक्त परमेश्वर में स्थित करें। यहॉ पर मन को परमेश्वर में स्थिर करने का साधन योगाभ्यास का निर्देश दिया गया है अन्यत्र यजुर्वेद में पुन:कहा गया- 

योगे योगें तवस्तंर वाजे वाजे हवामहे। सखाय इन्द्रमूतये।।

अर्थात बार-बार योगाभ्यास करते और बार-बार शारीरिक एंव मानसिक बल बढाते समय हम सब परस्पर मित्रभाव से युक्त होकर अपनी रक्षा के लिए अनन्त बलवान, ऐष्वर्यषाली ईश्वर का ध्यान करते है तथा उसका आवाहन करते है । योग के उदभव अथवा प्रथम वक्ता के याजवल्वय स्मृति में कहा गया है- 

हिरण्यगर्यो योगास्थ वक्ता नास्य:पुरातन:।

अर्थात हिरण्यगर्म ही योग के सबसे पुरातन अथवा आदि प्रवक्ता है। महाभारत में भी हिरण्यगर्म को ही योग के आदि के रूप मे स्वीकार करते हुए कहा गया- सांख्यस्य वक्ता कपिल: परमर्शि:स उच्यते।  हिरण्यगर्यो योगस्य वक्ता नास्य:पुरातन:। 

अर्थात साख्य के वक्ता परम ऋषि मुनिवर कपिल है योग के आदि प्रवक्ता हिरण्य गर्भ है। हिरण्यगर्भ को वेदो में स्पष्ट करते हुये कहा गया है कि हिरण्यगर्भ परमात्मा का ही एक विश्लेषण है अर्थात परमात्मा को ही हिरण्यगर्म के नाम से पुकारा जाता है।

इससे स्पष्ट होता है कि योग के आदि वक्ता परमात्मा (हिरण्यगर्भ) है जहॉ से इस बात का ज्ञान का उदभव हुआ तथा वेदो के माध्यम से इस विद्या का प्रादुर्भाव संसार में हुआ। योग के प्रसिद्व ग्रन्थ हठ प्रदीपिका के प्रारम्भ में आदिनाथ शिव को योग के प्रर्वतक के रूप में नमन करते हुये कहा गया है- 

श्री आदिनाथ नमोस्तु तस्मै येनोपदिष्य

अर्थात उन भगवान आदिनाथ को नमस्कार है जिन्होने हठयोग विद्या की शिक्षा दी । कुछ विद्वान योग के उद्भव को सिन्धु घाटी सभ्यता के साथ भी जोडते है तथा इस सभ्यता के अवशेषो मे प्राप्त विभिन्न आसनों के चित्रों एंव ध्यान के चित्रों से यह अनुमान करते है कि योग का उद्गम इसी सभ्यता के साथ हुआ है।

वर्तमान समय में योग की उपयोगिता

वर्तमान में निम्नलिखित दृष्टिकोणों पर योग चिकित्सा की ओर ध्यान गया है-
  1. योग के द्वारा मानसिक तनाव का निदान
  2. कुछ मनोदैहिक रोग हेतु योगाभ्यास
  3. योग का सौन्दर्यवर्धन हेतु प्रयोग
  4. योग का दवाओं के स्थान पर प्रयोग
इस प्रकार वर्तमान में योग का स्वास्थ्यकारक तथा चिकित्सा विज्ञान के रुप में उपयोगिता सिद्ध हो रही है। मनुष्य को स्वस्थ तभी कहा जा सकता है जब वह शारीरिक, मानसिक, आध्यात्मिक, बौद्धिक और सामाजिक रुप से सुखावह स्थिति को प्राप्त करता है तो वह स्वस्थ कहलाता है।

वर्तमान में इन सब में असामंजस्य उत्पन्न हो गया है जिससे लोग अनेकानेक व्याधियों से ग्रस्त हो रहे है जिसको सुधार कर योग उन्हें पूर्णता प्रदान करने में सक्षम होता है। स्वामी अखिलानन्द के शब्दों में- ‘‘जब तक व्यक्ति योग के आदर्श को जीवन में धारण नहीं करता, तब तक उसके मानसिक तनाव एवं कुण्ठाओं के स्थायी उपचार की कोई संभावना नहीं है और जब तक व्यक्ति के जीवन का चरम लक्ष्य सुखवाद एवं इन्द्रिय भोग रहेगा तब तक उसमें मानसिक द्वन्द्व, तनाव एवं कुण्ठाएँ बनी रहेंगी।’’ कथनानुसार योग की प्रासंगिकता स्पष्ट हो रही है जो अखिलानन्द जी के अनुसार योग के आदर्श को जीवन में धारण करता है उसका जीवन अवश्य सुखमय एवं शान्तिपूर्ण होता है। यदि योग की महत्ता को समझा जाये और उसे जीवन का अंग बनाया जाये तो अवश्य ही नीरसपूर्ण जीवन से मुक्ति प्राप्त हो सुखमय रह सकेंगे।

महर्षि पतंजलि द्वारा प्रणीत योग सूत्र में अष्टांगो की उपयोगिता सम्पूर्ण मानव-समाज के लिए है। जिनमें से यौगिक चिकित्सा के रुप में नानाविध आसन, प्राणायाम, बन्ध, मुद्रा तथा क्रियाओं का अभ्यास कराया जाता है। इनके अभ्यास से नाड़ी शोधन रक्तसंवहन आदि का उपचार होता है जिससे स्वास्थ्य को लाभ मिलता है।

महर्षि पतंजलि द्वारा अष्टांगो में सर्वप्रथम यम-नियम आते है जिनकी उपयोगिता सम्पूर्ण मानव समाज के लिए है। सभी अवस्थाओं में यम-नियम का पालन कर मानव में प्रेमभाव, भाईचारा की भावना का विकास कर विश्व बन्धुत्व का भाव विकसित करती है।

यम के अतंर्गत अहिंसा प्राणीमात्र की रक्षा को सुनिश्चित करता है और किसी भी रुप में हिंसा को निरुत्साहित करता है। सत्य, सामाजिक कर्त्तव्य वचनबद्धता एवं आपसी विश्वास को पुष्ट करता है। अस्तेय श्रम की कमाई पर बल देता है तथा चोरी, छीना-झपटी, शोषण आदि को निरस्त करता है। ब्रह्मचर्य विपरीत लिंग के शील की रक्षा का प्रतिपादन करता है। अपरिग्रह उचित रीति से धन कमाने व आवश्यकता से अधिक जमा न करने का विधान प्रस्तुत करता है। इस तरह यम का नैतिक अनुशासन व्यक्ति को आत्मानुशासन के साथ सामाजनिष्ठ बने रहने का प्रशिक्षण देता है और समाज के संगठन एवं निर्माण के कार्य को गम्भीर रुप से क्रियान्वित करता है। इसी प्रकार नियम के अंतर्गत शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान का अनुशासन व्यक्तिगत उत्कर्ष के साथ सामाजिक उत्थान को सुनिश्चित करता है। इस तरह योग व्यक्ति के संग समाज की भी समस्याओं के निदान में पूर्णतया सक्षम है।

योग चिकित्सा के बारे में घेरण्ड द्वारा घेरंड संहिता में प्राप्त होता है-  वातसारं परं गोप्यं देह निर्मलकारकम्। सर्व रोगक्षयकरं देहानलविवर्द्धकम्।। 

वातसार धौति का वर्णन करते हुए उससे शरीर की निर्मलता, रोगों का क्षय एवं शरीर में जठराग्नि के प्रदीप्त होने की बात कही गयी है। यह पहला श्लोक घेरंड संहिता में स्पष्ट रुप से योग के चिकित्सा पक्ष पर दृष्टि डालता है।

योग के तीसरे अंग के रुप में आसन है जिसका प्रचार-प्रसार वर्तमान में उसकी उपयोगिता को सिद्ध कर रहा है। ऐसे अनेक आसनो का प्रयोग किया जा रहा है जो स्वास्थ्य की दृष्टि से हमें लाभान्वित कर हमारे दैनिक जीवन में संतुलन स्थापित करते है। इन आसनों के अभ्यास से अन्त:स्त्रावी ग्रन्थियों की कार्यक्षमता में वृद्धि चयापचयात्मक प्रभाव, शरीर क्रिया-संबंधी प्रभाव और मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ते है।

आसन जिनके नाम पशु पक्षियों के नाम पर, विशेष वस्तुओं के नाम पर, वनस्पतियों और योगीयों के नाम पर आधारित है। इनका स्वाभावानुसार लाभ भी भिन्न-भिन्न प्राप्त होता है जिनमें से पद्मासन शांति और सुख का बोध कराने एवं अलौकिक आनंद का अनुभव कराने में सक्षम है। शवासन के प्रयोग से सहज ही शांति प्राप्त होती है। मन और शरीर को आराम मिलता है। पादहस्त आसन के अभ्यास से पीठ, पेट और कंधे की पेशियाँ मजबूत होती हैं और रक्त संचार सुचारू रूप से कार्य करता है।

सूर्यनमस्कार यह विभिन्न आसनों में श्रेष्ठ माना गया है। कहा गया है कि यह अकेला ऐसा आसन है जिसके अभ्यास से साधक को सम्पूर्ण योग का लाभ प्राप्त होता है। ‘‘सूर्य नमस्कार’’ करने से पांचों तत्वों में संतुलन बना रहता है जिसके अभ्यास से शरीर निरोग और स्वस्थ होकर तेजस्वी हो जाता है। ‘सूर्य नमस्कार’ स्त्री, पुरुष, बाल, युवा और वृद्ध सभी के लिए उपयोगी है।

आसनों के अभ्यास से स्मृति शक्ति में वृद्धि होती है। मानसिक रूप से होने वाले थकान में कमी आती है अर्थात् आसन मानसिक तनाव कम कर व्यक्तित्व में सुधार करता है। आसनाभ्यास साधारण व्यायाम से भिन्न है। सामान्य व्यायाम तीव्र मांसपेशियां क्रिया है। जिसमें शक्ति का अधिक क्षय होता है। व्यायाम का प्रभाव मांसपेशियों पर ही पड़ता है।

भावनात्मक रूप से उसका कोई सरोकार नहीं है। स्पष्ट है कि आसन स्थिर और सुखावह होते है, जिनके द्वारा शरीर की निम्नतम शक्ति क्षय होती है तथा अधिकतम पुनर्वासन व्यायाम हो जाता है। इसलिए आसनों का शरीर पर क्रियात्मक प्रभाव अधिक होता है तथा मांसपेशियों की अनावश्यक वृद्धि नहीं होती।

आसनों के अभ्यास से मनुष्यों में स्थिरता आती है। उन्हें आरोग्य एवं शारीरिक स्फूर्ति प्राप्त होती है। आसनाभ्यास से शरीर पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित होता है और अंग-प्रत्यंग के क्रियाशील होने से अरोग्य बढ़ता है जिससे स्वास्थ्य लाभ मिलता हैं। योगाचार्य शशांक त्रिपाठी जी के अनुसार ‘‘आसनों के अभ्यास से जो स्थिरता आती है उसका दैनिक जीवन में भी महत्व होता है जिससे हम अपने जीवन में आने वाली कठिनाइयों के निदान में भी समर्थ होते है।’’

अत: आसन जो योग के अभ्यास का महत्वपूर्ण अंग है। यह केवल भौतिक शरीर-संवर्धन मात्र नहीं वरन् ऐसे मार्ग है जो शारीरिक-मानसिक विश्रान्ति प्रदान करते है। आज इसी कारण भौतिक युग में भी इसकी महत्ता बनी हुयी है और दैनिक जीवन के इन आसनों के अभ्यास तनाव को कम करने में उपयोगी सिद्ध हो रहा है। जिसका प्रभाव केवल शारीरिक व्यायाम के रूप में ही नहीं मानसिक रूप से भी पड़ता है। किन्तु इन आसनों का उचित अभ्यास न करने से हानि भी हो सकती है। अत: इसे किसी उचित एवं जानकार गुरु के सानिध्य अथवा निर्देशन में ही करना चाहिए।

आसनों के साथ प्रयोग होने वाली मुद्राओं का भी महत्वपूर्ण स्थान है। जैसे ज्ञान मुद्रा- इस मुद्रा के प्रयोग से शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक रूप से प्रभावित होते है और हमें यह सभी स्तर पर लाभ पहुँचाता है। इस मुद्रा का प्रयोग सिद्धासन में देखा जाता है। इसके पश्चात् आत्मांजलि मुद्रा- इसके प्रयोग से शांति का प्रचार-प्रसार किया जाता है एवं स्वयं के लिए भी शांति का अनुभव होता है इसका प्रयोग सूर्यनमस्कार के प्रणाम आसन में देखा जाता है। जिसे सभी आसनों में सबसे महत्वपूर्ण माना गया है। आत्मांजलि मुद्रा को आध्यात्मिक मुद्रा के रूप में भी माना गया है। ध्यानी मुद्रा इस का प्रयोग ध्यान के लिये करते है इसे आध्यात्मिक मुद्रा के अंतर्गत माना गया है। इस मुद्रा का प्रयोग पद्मासन में देखा जाता है। इस प्रकार ऐसी अनेक मुद्रायें है जिनका प्रयोग विभिन्न आसनों के साथ होता है जो हमें शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक लाभ पहुँचाने में समर्थ है।

ध्यानाभ्यास से शरीर एवं मन दोनों पर व्यापक प्रभाव पड़ता है। ध्यानाभ्यास कई प्रकार से किया जा सकता है ये विधियाँ क्रमशः एक दूसरे से भिन्न होती है। ध्यानाभ्यास से व्यक्ति के व्यक्तित्व में मौलिक सुधार होते है। उसके शरीर में अनेक जैविक और मानसिक परिवर्तन आते है जिसका प्रभाव पूर्ण रूप से स्वास्थ्य पर पड़ता है। इसके प्रभाव से मानसिक तनाव में कमी, सहिष्णुता में वृद्धि, काम करने की क्षमता का विकास एवं योग्यता में वृद्धि होती है। व्यसन अपराध आदि अवगुणों में कमी आती है जिससे मनुष्य सामाजिक रूप से प्रभावी बनता है। इस प्रकार ध्यानाभ्यासी व्यक्तियों की संख्या में वृद्धि होती है और समाज में सत्त्वगुण की लहर फैलने लगती है और युग कल्याण की भावना प्रबल होती है। ध्यानाभ्यासी व्यक्तियों के प्रभाव से आपराधिक प्रवृत्ति में कमी आती है जो स्वस्थ समाज का स्वप्न साकार करता है।

ध्यानाभ्यास से चित्तोद्वेग में कमी, आत्मचैतन्यता तथा व्यक्तित्व में सम्पूर्णता का विकास होते देखा गया। इस प्रकार के अभ्यास से लोगों में शारीरिक तथा मानसिक काम करने की क्षमता में वृद्धि होती पायी गयी ध्यानाभ्यासी समुदायों के सर्वेक्षण से पाया गया है कि यदि किसी समाज/समुदाय में दस (10) प्रतिशत भी लोग ध्यान का नियमित अभ्यास करने लगें। तो उसका उस पूरे समाज/समुदाय पर गुणान्तकारी प्रभाव पड़ता है और उस समाज में सामाजिक दोष कम हो जाते हैं।

उपर्युक्त योगांगों से विभिन्न लाभ होते है जो स्वास्थ्य के साथ-साथ समाजोपयोगी भी होते है। ये स्वस्थ शरीर के साथ स्वस्थ समाज का भी निर्माण करने में सक्षम होते है। आसन की भाँति प्राणायाम की भी वर्तमान में शारीरिक स्वास्थ्य हेतु उपयोगिता है यह एक महत्वपूर्ण योगाÁ है। प्राणायाम अभ्यासी लोगों के श्वास-निरोधक शक्ति में वृद्धि पायी गयी है तथा उनका रक्तचाप भी उचित रुप से कार्य करता है।

‘प्राण’ पाँच भागों में विभक्त होकर शरीर के लिए आवश्यक तत्वों का ग्रहण, पाचन, उत्सर्जन और रक्त के रूप में हमारे सम्पूर्ण शरीर में शक्ति का संचार करता है।

इस शक्ति संचार के कारण नाड़ी शोधन का कार्य सुचारु रुप से होता है जो शरीर को स्वस्थ बनाता है और मानसिक शक्तियों को ऊर्जा प्रदान कर उन्हें ऊध्र्वगामी बनाता है। यदि शारीरिक दृष्टि से देखा जाय तो हृदय के सम्पूर्ण क्रिया-कलाप प्राणशक्ति द्वारा संचालित होते है। यह प्राणशक्ति पर आधारित है। सर्वज्ञात है कि हृदय शरीर का सबसे महत्वपूर्ण अंग है और हृदय का कार्य दो सूक्ष्म-नाड़ियों पर आधारित है- शिरा और धमनी शिरा जो कि अशुद्ध रक्त को एकत्र कर हृदय मे लाती है और हृदय द्वारा शुद्ध किये गए रक्तों को धमनियों द्वारा सम्पूर्ण शरीर में ले जाती है। हृदय शिराओं द्वारा लाए गए अशुद्ध रक्त को फेफड़ों में भेजता है। जब हम खुली हवा में श्वास लेते है तो प्राणवायु (आक्सीजन) रक्त को शुद्ध करता है और प्रश्वास द्वारा मनुष्य रक्त में घुली हुई अशुद्धि अर्थात कार्बनडाइआक्साइड को बाहर उत्सर्जित करते है।

श्वसन क्रियाओं के द्वारा ही हृदय के महत्वपूर्ण कार्यों का सुसंचालन होता है। श्वसन क्रिया के नियमन में गड़बड़ी होने से लोग मुख्यत: किसी बीमारी के चपेट में आ जाते है। जैसे- अस्थमा, हृदयाघात आदि किन्तु प्राणायाम की क्रिया द्वारा स्वस्थ रहा जा सकता है। इसे जीवनदायिनी भी कहते है।

श्रीमती सोनिका श्रीवास्तव जी से साक्षात्कार के समय यह ज्ञात हुआ कि ‘‘शारीरिक स्वास्थ्य हेतु योग में अलग से क्रियाएँ नहीं की जाती वरन् योगाभ्यास से स्वत: ही स्वास्थ्य की ओर उन्मुख हो स्वास्थ्य जीवन का लाभ प्राप्त होता है।’’

योग जहाँ आध्यात्मिकता की ओर उन्मुख कर उस परमात्मा के द्वार तक ले जाता है तो वहीं आज इसे एक चिकित्सा के रुप में प्रचारित कर लोगों को स्वयं स्वस्थ रह कर स्वस्थ समाज का निर्माण करने के लिए प्रेरित कर रहा है। जो वर्तमान में देखा भी जा रहा है कि लोग स्वास्थ्य लाभ हेतु कितने जागरुक है इसका प्रभाव देश में ही नहीं वरन् पूरे विश्व में दृष्टव्य हो रहा है। पूरा विश्व भारत की इस अमूल्य निधि का लाभ उठाकर स्वस्थ हो सौन्दर्य पाना चाहता है। आज सभी योग के प्रति सजग है। कोई भी इसके प्रभाव से अछूता नहीं रह गया है।

योग को चिकित्सा के रुप में प्रसारित करने वाले प्रथम स्वामी कुवल्यानन्द जी थे जिन्होंने सन् 1924 में पहली बार योग का चिकित्सा सम्बन्धी वैज्ञानिक प्रयोग प्रस्तुत किया जिसकी सराहना प्रख्यात नोबेल पुरस्कार सम्मानित वैज्ञानिक सर जगदीश चन्द्र बोस ने भी की थी। गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर ने चिकित्सा जगत में इस प्रकार के प्रथम प्रयोग को नयी उपलब्धि के रुप में बताया था। उनके पश्चात् सन् 1970 में कृष्णमाचार्य ने भी योगाभ्यास को लेकर विशेष कार्य किये। कृष्णमाचार्य जी ने विभिन्न रोगों के लिये विशेष अध्ययन प्रस्तुत किये थे।

कृष्णामाचार्य के शिष्य बी.के.एस. अयंगर का भी इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान रहा। सन् 1980 के पश्चात् वह प्रथम योगाचार्य थे जिन्होंने योग को देश में ही नहीं वरन विदशों में भी ऊँचाई तक पहुँचाया। कहते है वायलिन वादक यहूदी मेनहिन एवं महरानी एलीजाबेथ उनके शिष्यों में से एक थे।

स्वामी सत्यानंद सरस्वती ने भी सन् 1964 में बिहार मे योग विद्यालय की स्थापना की थी। स्वामी सत्यानंद जी का उद्देश्य प्राचीन पद्धतियों का आधुनिक परिवेश के लिए समायोजन करना था। उनके द्वारा योग को जनसाधारण के लिए अनुकुल बना उसकी उपयोगिता से परिचित कराना था।

बी.के.एस. अयंगर के योग की विशेषता थी-शरीर के विभिन्न भागों को तनाव एवं खिचांव देकर शरीर की मांसपेशियों को सहजता देना एवं उसके द्वारा योगाभ्यासों को उनकी पूर्णता तक पहुँचाना। शरीर पर पूर्ण संतुलन एवं स्थिरता प्रदान करने में सक्षम हठयोग के क्षेत्र में श्री अयंगर का योगदान अत्यन्त महत्वपूर्ण रहा। योगाभ्यासों का उनका क्रम 300 सप्ताह में विभाजित है जिसके नियमित अभ्यास से शरीर को आश्चर्यजनक रुप से सन्तुलित किया जा सकता है। साथ ही उन्होंने विभिन्न रोगों पर अपनी पद्धति का सफल प्रयोग भी किया।

योग की वर्तमान में उपयोगिता विभिन्न क्षेत्रों में दृष्टव्य होती है जिससे मनुष्य स्वयं के व्यक्तिगत जीवन को स्वस्थ कर समाजोत्थान में सहयोगी हो सकता है। इस क्रम में यदि स्वामी विवेकानन्द जी की बात करें तो अतिशयोक्ति न होगी वह भी एक योगी थे जिन्होंने अपना सर्वस्व समाजोत्थान के लिए लगा दिया और समाज को अवश्यम्भावी लाभ दिया। योग में अनेक ऐसी क्रियायों का अभ्यास कराया जाता है जिससे हमारा शारीरिक एवं बौद्धिक क्षमता का विकास होता है साथ ही यह हमारी भावनात्मक क्रिया पर भी प्रभाव डालता है जिससे हम भावनात्मक रुप से भी प्रबल होते है। योग के अन्तर्गत ओम् शब्द आदि मंत्रों का बहुत महत्व है जिसके उच्चारण के ध्वनि से मानसिक उतार-चढ़ाव को नियन्त्रित कर सकते है जिससे हमारी चेतना प्रभावित होती है और भावनात्मक रुप से भी प्रभाव पड़ता है। मंत्र का ध्यान या उच्चारण करने से स्मृति शक्ति भी प्रभावित होती है। किसी भी दृश्य को देखकर, सुनकर और बोले गए शब्दों द्वारा स्मृति शीघ्र प्रभावित होती है। इससे व्यक्ति आसानी से एकाग्र होता है। उच्चारण करने से उत्पन्न तरंगे दिमाग पर प्रभाव डालती है जो कि स्मृति क्षमता को बढ़ाने में सहयोगी होती है। एकाग्रता के अभ्यास द्वारा भी स्मृति क्षमता प्रभावित हो सिद्ध होती है।

योग के द्वारा भावनात्मक का विकास तो करते ही है शैक्षिक स्तर पर भी इसका प्रभाव दृष्टव्य होता है। आज प्रतियोगिता से पूर्ण इस युग में जहाँ वयस्क एवं किशोर भयाक्रांत है वहीं बच्चे भी इससे अछूते नहीं रह गये है। उन पर भी इस बोझ का दबाव दिखता है जिस कारण वे आत्महत्या जैसे घृणित कार्य कर बैठते है। अत: इस प्रकार के बोझ से उत्पन्न तनाव को कम करने में योग सहायक सिद्ध होता है। इस ओर भी यौगिक चिकित्सा का ध्यान गया ही है। किन्तु शिक्षा से तनाव उत्पन्न होने का कारण क्या है? इसे बेंगलुरु के नेशनल इंस्टीटयूट ऑफ मेंटल हेल्थ (निम्होस, 1999) के अनुसार- ‘‘इन आत्महत्याओं के पीछे मुख्य कारण माता-पिता द्वारा बच्चों की हर मांग को पूरा करना बच्चों की उपलब्धियों को दूसरों से तोलना आदि हैं इससे बच्चा आत्मकेन्द्रित व आत्मलीन युवा के रूप में बड़ा होता है। उसे हर चीज अपने हाथ में लगती है लेकिन असफलता मिलने पर घोर निराशा में डूब जाता है जो आत्महत्या का मुख्य कारण है।’’ कथनानुसार तात्पर्य यह है कि बच्चे के मानसिक विकास में माता-पिता सहायक होते है बच्चों की हर बात को पूरा कर देना उपलब्धि प्राप्त करने पर उनकी तुलना किसी अन्य विद्याथ्र्ाी से करना जिससे वह गर्व से भर जाता है और अगले मनुष्य को अपने से कमतर आँकने लगता है किन्तु जब उसे असफलता प्राप्त होती है तब वह निराशाजनक हो जाता है और अपनी इस प्रकार की विफलता स्वीकार्य नही कर पाता जिस कारण हताशा से वशीभूत हो वह आत्महत्या जैसा कृत्य कर बैठते है जो उचित नहीं। अत: माता-पिता को सदैव मित्र की भाँति व्यवहार करने का प्रयास करना चाहिए जिससे बच्चा अपनी बातों को उनके समक्ष रख सकें एवं उसके उत्पन्न समाधान का निदान हो सकें।

मनुष्य चिंता से ग्रस्त हो ऐसी अनेक विकृतियों में फंस जाता है कि उससे निजात पाना अवश्यम्भावी होता है जिसमें योग के आसन, प्राणायाम आदि अष्टांगों का अभ्यास सहायक है वस्तुत: चिंता एक ऐसी दशा है जिसे मनुष्य स्वयं जन्म देता है जिस कारण उसकी कार्य की क्षमता भी प्रभावित होती है। यहाँ तक की उसके व्यवहार में परिवर्तन आ जाते है। कहते है चिंता, चिता के समान है अर्थात् चिंता हमें यम के द्वार तक ले जाती है अत: चिंता मुक्त होने में यौगिक चिकित्सा कार्यरत है और यह इस कार्य हेतु भी सक्षम है जिससे मनुष्य तनाव, चिंता से मुक्त जीवन व्यतीत कर सकें।

आज मानसिक विकृति, चिंता आदि के साथ-साथ उच्चरक्तचाप ने भी छुपे हुये शत्रु की तरह शरीर में अपना घर बना लिया है और अन्य की भाँति योग इसके उपचार में भी पूर्णतया सहायक है। इसे शवासन या अन्य विश्रान्तिदायक आसनों के प्रयोग से उच्च रक्तचाप को कम कर उससे धीरे-धीरे छुटकारा पाया जा सकता है और मानव जीवन को स्वस्थ बनाकर खुशहाल जीवन से नाता जोड़ा जा सकता है। इस प्रकार योग जीवन के हर पहलू से जुड़ा हुआ है। जो किसी भी प्रकार की समस्या का निदान करने में पूर्णतया सक्षम होता है किन्तु यह तुरन्त प्रभाव न करके धीरे-धीरे ही प्रभावित करती है स्वास्थ्य लाभ अवश्य ही पहुँचाती है। योग इन सभी के निदान में सहायक होती है और अवश्यम्भावी प्रभाव छोड़ती है।

वर्तमान में मोटापे की समस्या मुख्य रूप से उभर रही है जो दिन-प्रतिदिन एक गम्भीर रोग का रूप लेती जा रही है। इस रोग का कारण वर्तमान समय की जीवन शैली है जो पूर्णत: अव्यवस्थित होती जा रही है। बाहर का दूषित भोजन और कार्य स्थल पर अधिक समय तक बैठे रहने से अनेकों समस्या उत्पन्न हो जाती है जिससे मनुष्य अनेकानेक बीमारियों की भाँति मोटापे की समस्या से भी घिरता जा रहा है। जिससे उबरने के लिए नृत्य की तरह योग भी उपयोगी है। योग में कई ऐसे आसन है जो इस तरह की बीमारियों को दूर करने में सहायक है। पहले सप्ताह पवन मुक्तासन करें दूसरे सप्ताह उसके साथ भुजंगासन और शलभासन सम्मिलित करें इसी प्रकार तीसरे सप्ताह मकरासन का भी अभ्यास करें आदि प्रत्येक सप्ताह आसनों का अभ्यास करें साथ ही प्राणायाम भी करें। इसमें आहार का भी ध्यान रखना अतिआवश्यक है। प्रोटीन युक्त भोजन, तली-भुनी चीजों से दूर रहने से भी आप मोटापे जैसी समस्या से निजात पा सकते है।

योग में आहार-विहार का भी महत्वपूर्ण स्थान है आसनों, प्राणायाम के अभ्यास के साथ भोजन पर भी ध्यान रखा जाय तो वह स्वास्थ्य लाभ पहुँचाने में सहयोगी है। वर्तमान में योग का प्रचार-प्रसार आसन, प्राणायाम और ध्यान इन त्रितली के रूप में ही हो रहा है जो स्वास्थ्य के लिए लाभकारी एवं उपयोगी है। किन्तु उसके समग्र रूप को अपना लिया जाय तो वह हमारे साथ समाजोत्थान हेतु भी पूर्ण रूप से उपयोगी होगी।

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