स्वामी दयानंद सरस्वती का शिक्षा दर्शन / शैक्षिक विचार

स्वामी दयानंद सरस्वती

स्वामी दयानंद सरस्वती शिक्षा को एक प्रक्रिया मानते हैं। उनके अनुसार यह प्रक्रिया गर्भावस्था से प्रारम्भ होती है और जीवन-पर्यन्त चलती रहती है। उन्होंने शिक्षा को आन्तरिक शुद्धि के रूप में माना है। यह शुद्धि आचरण, विचार तथा कर्म में प्रदर्शित होती है। एक स्थान पर स्वामी जी ने शिक्षा के अर्थ को स्पष्ट करते हुए लिखा है कि ‘शिक्षा सत्य आचरण की योग्यता है।’ इस योग्यता की प्राप्ति के लिए शुभ गुणों को प्राप्त करना परमावश्यक है। 

इस सम्बन्ध में स्वयं स्वामी दयानंद ने लिखा है- ‘‘शिक्षा वह है, जिससे मनुष्य-विद्या आदि शुभ गुणों को प्राप्त करें और अविद्या आदि दोषों को त्याग कर सदैव आनन्दमय जीवन व्यतीत कर सके।’’

भारत की जिन महान विभूतियों ने अपने स्वतन्त्र चिन्तन द्वारा इस देश की शिक्षा के स्वरूप को रूपान्तरित करने एवं शिक्षा-प्रणाली को नवीन दिशा देने का प्रयास किया है, उनमें स्वामी दयानंद सरस्वती का नाम स्वर्ण अक्षरों में अंकित है। भारतीय संस्कृति एवं हिन्दू धर्म के प्रबल समर्थक होने के कारण उन्होंने समकालीन शिक्षा पद्धति की तीक्ष्ण आलोचना की है। उनका कथन था कि यह पद्धति, पाश्चात्य संस्कृति से संतृप्त होने के कारण भारतीय संस्कृति एवं भारतीय धर्म को समूल नष्ट करने का प्रयास कर रही है। अंग्रेजी शिक्षा के उपासक बनकर, इस देश के निवासी अपनी प्राचीन परम्पराओं से दूर होते जा रहे थे। इस शिक्षा में चरित्र-निर्माण का कोइर् स्थान न होने के कारण भारतीयों के चरित्र का निरन्तर पतन हो रहा था। स्वामी जी ने घोषित किया कि यदि देश को पतनोन्मुख होने से रक्षा की जानी है, तो भारतीय शिक्षा को पुन: प्राचीन भारतीय संस्कृति एवं आदर्शों पर आधारित करना पड़गे ा।

स्वामी दयानंद सरस्वती ने भारत के लिए एक नवीन शिक्षा-योजना का निर्माण किया। इस योजना का आदर्श है- राष्ट्र एवं मानव का उत्थान। इसीलिए यह योजना व्यावसायिक धारणाओं से परे है और राष्ट्र एवं मानव के सम्पूर्ण जीवन की पूर्णता, व्यापकता एवं विशालता पर आधारित है। इस योजना द्वारा ऐसी राष्ट्रीय शिक्षा का सूत्रपात करने का प्रयास किया गया है, जो भारतीय संस्कृति, आदर्शों, आवश्यकताओं एवं वर्तमान परिस्थितियों के अनुकूल हो।

इस विषय में स्वयं स्वामी दयानंद ने यह विचार बद्ध व्यक्त किया है- ‘‘स्वस्थ मस्तिष्क के सब व्यक्ति इस बात से सहमत होंगे कि शिक्षा का अधिकतम लाभ तभी उठाया जा सकता है, जब उसे राष्ट्रीय चरित्र एवं स्वरूप में ढाल दिया जाय। वस्तुत: शिक्षा के स्वरूप को इस प्रकार निर्धारित किया जाना चाहिए कि वह उन प्राकृतिक बन्धनों को, जो भारतीयों को, एक सूत्र में बाँधते हैं, और अधिक दृढ़ बनाएँ एवं उनमें समान राष्ट्रीयता का विकास करे।

स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपनी शिक्षा-योजना में प्राचीन एवं आधुनिक भारतीय आदर्शों का सुन्दर समन्वय किया है, शिक्षा को अन्धविश्वासों, आर्थिक विषमताओं, धार्मिक संकीर्णताओं एवं जाति-पाँति के बन्धनों से पृथक् रखकर, सब वर्णों के पुरुषों एवं स्त्रियों को शिक्षा प्राप्त करने का समान अधिकार प्रदान किया है। इस योजना के कारण ही उनको वैदिक शिक्षा-पद्धति, शिक्षा-प्रसार एवं जीवनोन्नति के प्रवर्तक एवं मार्गदर्शन पर प्रतिष्ठित किया जाता है। 

अत: भारतीय शिक्षा को उनके योगदान एवं उनके शिक्षा-दर्शन का मूल्यांकन, डा0 मणि के शब्दों में उपस्थित करना पूर्णतया युक्तियुक्त प्रतीत होता है- ‘‘हमारे देश की शिक्षा को स्वामी दयानंद का योगदान वास्तव में अत्यन्त प्रभावपूर्ण एवं महत्त्वपूर्ण है, हालांकि उनका कार्य-क्षेत्र मुख्यत: आध्यात्मिक, धार्मिक एवं सामाजिक था। उन्होंने अनिवार्य रूप से शिक्षा के माध्यम द्वारा सामाजिक सुधार का समर्थन किया। उन्होंने किसी भेदभाव के बिना पुरुषों एवं स्त्रियों दोनों के हित के लिए जनसाधारण की शिक्षा का अनुमोदन किया।

स्वामी दयानंद वैदिक-धर्म और संस्कृति के मूल स्तम्भ थे। उनको अपने समय के लोगों की दयनीय दशा को देखकर बहुत दु:ख हुआ। उन्होंने उनको इस दशा से मुक्त करने के लिए अपनी शिक्षा-योजना को आश्रम धर्म पर आधारित किया। यद्यपि बालक की औपचारिक शिक्षा का प्रारम्भ उपनयन संस्कार से होता है, तथापि अनौपचारिक रूप में वह गर्भावस्था में ही शुरू हो जाती है। अत: स्वामी जी ने माता-पिता के लिए सात्विक आहार को उचित बताया। साथ ही, उन्होंने माता-पिता के आचार-विचार की शुद्धता पर बल दिया। उन्होंने माता को महत्वपूर्ण शिक्षक माना है। उनका कहना है कि माता अपने बालक को पाँचवें वर्ष तक शिक्षा प्रदान करे और पिता आठवें वर्ष तक। इसके उपरान्त बालक को विद्यालय या आचार्यकुल में भेज देना चाहिए।

स्वामी दयानंद का प्लेटो के सन्दर्भ में कहना है- ‘‘वास्तव में जिस राज्य में पालन-पोषण और शिक्षा की उत्कृष्ट योजना का अनुसरण होता है, वहाँ के निवासी सद्-स्वभाव वाले होते हैं। सद्शिक्षा के कारण उनकी और अधिक उन्नति होती है। उनमें सन्तानोत्पत्ति के गुणों की वृद्धि होती है। इस प्रकार उस राज्य की बहुमुखी प्रगति होती है।’’

वेद तथा अन्य शास्त्रों में वर्णित शिक्षा विषयक मन्तव्यों को माना जा सकता है। वेदों में शिक्षा के जो मौलिक सूत्र यत्र-तत्र उपलब्ध होते हैं, उनका ही पल्लवन कालान्तर में ब्राह्मण और उपनिषदादि ग्रन्थों में किया गया है। तैत्तिरीयोपनिषद् में उल्लिखित शिक्षावल्ली का प्रकरण इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है जिसमें विद्या समाप्ति के पश्चात् आचार्य द्वारा अन्तेवासी को दिये गये दीक्षान्त-उपदेश को अत्यन्त प्रभावशाली भाषा में प्रस्तुत किया गया है। सत्य एवं धर्म का आचरण करने के साथ-साथ विद्यार्थी से यह अपेक्षा की गई है कि वह अपने अवशिष्ट जीवन में स्वाध्याय एवं प्रवचन के कार्य को सदा चलाता रहेगा। गहृस्थ में दीक्षित होने के उपरान्त उसे दान देने में कभी संकोच नहीं करना है। सबसे बड़ी बात जो इस उपदेश में कही गयी है वह है- यान्यस्माकं सुचरितानि तानि त्वयोपास्यानि, नो इतराणि। आचार्यों के सदाचार का ही अनुकरण शिष्य को करना है, न कि उनके दुराचरण का। 

मनुस्मृति में अध्ययन-अध्यापन विषयक प्रकरण को अत्यन्त विस्तार से उपनिबद्ध किया गया है। यहाँ वेदाध्ययन को द्विजों का चरम पुरूषार्थ कहा गया है। अन्य शास्त्रों में श्रम करने और वेद के अध्ययन की अवहेलना करने वाले को द्विजाति से बहिष्कृत समझा जाना चाहिए यो अनधीत्य द्विजो वेदान् अन्यत्र कुरूते श्रमम्। स जीवन्नेव शूद्रत्वम् आशु गच्छति सान्वय:।। 

महर्षि दयानंद के आविर्भाव से पूर्व भारत में शिक्षा की व्यवस्था सन्तोषप्रद नहीं थी। यद्यपि ग्रामों, कस्बों और नगरों में पुराने ढंग की पाठशालाएँ विद्या का केन्द्र बनी हुई थÈ, किन्तु राज्य की ओर से जनसामान्य को सुशिक्षित करने की कोई सुचारू व्यवस्था नहीं थी। इसी बीच भारत पर अंग्रेजी राज्य का शिकंजा जोरों से कस दिया गया। जब कलकत्ता में संस्कृत कॉलेज की स्थापना करने का विचार ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासकों ने किया तो राजा राममोहन राय ने इस प्रस्ताव का विरोध करते हुए तत्कालीन गर्वनर जनरल लॉर्ड एम्हस्र्ट को एक पत्र लिखा जो ‘ए लैटर अॉन इंग्लिश एज्यूकेशन’ शीर्षक से उनकी ग्रन्थावली में संकलित किया गया है। इस पत्र में राजा राममोहन राय ने अत्यन्त विस्तार में जाकर संस्कृत के पठन-पाठन से होने वाली हानियों को गिनाया है और शासकों पर इस बात के लिए जोर दिया है कि वह संस्कृत की शिक्षा में अनावश्यक द्रव्य व्यय न करें अपितु भारत के शिक्षार्थियों के लिए अंग्रेजी भाषा की शिक्षा को सुलभ करें, जिससे उनके सोचने का तौर-तरीका बदल सके।

तत्कालीन भारत सरकार ने लार्ड मैकाले की शिक्षा-नीति को लागू करना स्वीकार कर लिया। शिक्षा के इस मसौदे में यह स्पष्ट कहा गया था कि नवीन शिक्षा की यह प्रणाली इस देश में एक एसे े वर्ग को उत्पन्न करेगी जो रंग-रूप, आकार-प्रकार में चाहे हिन्दुस्तानी ही रहेगा, किन्तु विचार, व्यवहार और मानसिकता की दृष्टि से पूर्णतया अंग्रेज बन जाएगा।

मैकाले की कूटनीति ने अल्पकाल में ही अपने जौहर दिखाए और बंगाल का शिक्षित भद्रलोक अपने धर्म एवं संस्कृति को तिलांजलि देकर ईसाइयत को ग्रहण करने लगा। व्योमेशचन्द्र बनजÊ (कांग्रेस के प्रथम अध्यक्ष), माईकेल मधुसूदन दत्त, कालीचरण बनजÊ, पादरी लालबिहारी दे तथा रामचन्द्र बोस जैसे प्रबुद्ध बंगालियों का ईसाई बन जाना पाश्चात्य शिक्षा का परिणाम था।

महर्षि दयानंद को भारतीय शिक्षा-पद्धति के मौलिक तत्वों को पुन: स्थापित करने के लिए कितना अधिक परिश्रम करना पड़ा होगा। उनकी स्वयं की शिक्षा-दीक्षा प्राचीन पद्धति से हुई थी तथापि वे चाहते थे कि इस देश में शिक्षा-व्यवस्था को स्थापित करते समय शिक्षा की प्राचीन प्रणाली के साथ-साथ पश्चिमी शिक्षा के उपादेय तत्वों का उसमें समावेश कर लिया जाए।

महर्षि दयानंद के शिक्षा-विषयक विचारों को जानने के लिए सत्यार्थ प्रकाश के द्वितीय तथा तृतीय समुल्लासों का अध्ययन आवश्यक है। इनमें उन्होंने बालकों के लालन-पालन तथा मनोवैज्ञानिक दृष्टि से उनका मार्गदर्शन करने विषयक अनके सूत्र उल्लिखित किये हैं। तृतीय समुल्लास में संस्कृत के शास्त्रीय शिक्षण की सम्पूर्ण विधि का निर्देश करने के साथ-साथ वे यह बताते हैं कि आदर्श पाठविधि में किन-किन ग्रन्थों को समाविष्ट किया जाना चाहिए और किन ग्रन्थों को पाठविधि से पृथक् रखा जाना चाहिए। महर्षि दयानंद कन्याओं की शिक्षा को बालकों की शिक्षा के तुल्य महत्व देते थे। वे लड़कियों के लिए आयुर्वेद, गणित, इतिहास, भूगोल, गृहशास्त्र (जिसके अन्तर्गत पाकशास्त्र भी समाविष्ट है) आदि का ज्ञान आवश्यक मानते थे।

महर्षि दयानंद ने अपने शिक्षा विषयक सिद्धान्तों को कार्यरूप देने की दृष्टि से अपने जीवनकाल में कुछ योजनाओं को मूर्तरूप दिया। सर्वप्रथम उन्होंने संस्कृत पाठशालाएँ स्थापित की। काशी, कासगंज (जिला एटा), छलेसर (जिला अलीगढ़) फर्रूखाबाद तथा मिर्जापुर में ऐसी पाठशालाएँ स्थापित की गईं। इन संस्कृत पाठशालाओं में छात्रों को नि:शुल्क शिक्षा दी जाती थी तथा उनके भोजन, पस्तके तथा वस्त्रों की भी व्यवस्था की जाती थी। इन पाठशालाओं के अध्यापन कार्य में स्वामीजी ने अपने शिष्यों तथा सहपाठियों को नियोजित किया।

कालान्तर में संस्कृत के प्रख्यात विद्वान् के रूप में ख्याति अर्जित करने वाले महामहोपाध्याय प0ं शिवकुमार शास्त्री को काशी की संस्कृत पाठशाला में 25 रूपये मासिक वेतन पर अध्यापक के रूप में रखा गया था, किन्तु पाठशालाओं के संचालन के इस प्रयोग में स्वामीजी को सफलता नहीं मिली। उस समय न तो आर्षपाठविधि के अनुसार अध्यापन कराने वाले विद्वान् उपलब्ध हो सके और न पौराणिक संस्कारों से युक्त छात्र आर्ष पाठविधि से पढ़ने में रूचि दिखलाते थे। फलत: स्वामीजी ने इन पाठशालाओं को बन्द कर दिया।

महर्षि दयानंद ने जिन शिक्षा-सिद्धान्तों की स्थापना की, उनका परिगणन निम्न प्रकार किया जा सकता है। वे शिक्षा द्वारा छात्र में धार्मिक, चारिित्रक एवं नैतिक गुणों का धारण कराया जाना आवश्यक मानते हैं। इसीलिए विद्यारम्भ के पहले उपनयन तथा वेदारम्भ संस्कारों की विधि तथा व्याख्या लिखते समय वे छात्रों में उन गुणों का आधान कराने का दायित्व चरित्रवान् आचार्य पर डालते हैं। उनके अनुसार आचार को ग्रहण कराने के कारण ही ‘आचार्यं’ शब्द की सार्थकता है। यों तो वे बालक के सम्यक् चरित्र निर्माण में माता-पिता की भूमिका को स्वीकार करते हैं, किन्तु गुरूकुल में प्रविष्ट होने के पश्चात् शिष्य के व्यक्तित्व के सर्वतोमुखी विकास का दायित्व आचार्य पर आ जाता है। छात्र का मानसिक और बौद्धिक विकास तभी सम्भव है जब उसको अपने शारीरिक बल को विकसित करने का अवसर मिले। इस प्रकार शरीर, मन एवं आत्मा के सर्वविध विकास के लिए महर्षि दयानंद ने ब्रह्मचर्य पालन पर अत्यधिक जोर दिया है।

महर्षि दयानंद के शिक्षा-विषयक आदर्शों में गुरू और शिष्य का सम्बन्ध पिता-पुत्रवत् माना गया है। उनकी यह धारणा है कि शिक्षा के माध्यम के रूप में मातृभाषा का प्रयोग सर्वथा मनोवैज्ञानिक तथा लाभप्रद है। इस दृष्टि से उन्होंने संस्कृत के साथ-साथ हिन्दी के अध्ययन पर जोर दिया तथा शिक्षण-संस्थाओं में अध्ययन-अध्यापन के माध्यम के लिए हिन्दी (जिसे वे आर्यभाषा कहना अधिक उचित समझते थे) के प्रयोग को प्रोत्साहित किया। महर्षि दयानंद के विचारानुसार प्रत्येक नागरिक के बालक-बालिका को समान रूप से शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार प्राप्त है। धनी की ही भाँति निर्धन के पुत्र-पुत्री को शिक्षित होने की सभी सुविधाएँ राज्य की ओर से दी जानी चाहिए। इसलिए वे अनिवार्य शिक्षा के समर्थक थे। 

गुरूकुलीय छात्रावासों में बालकों के भोजन-पान, रहन-सहन, वóाच्छादन आदि में किसी प्रकार के भेदभाव के वे खिलाफ थे। राजा और रंक के बालक समान दिनचर्या का पालन करते हुए शिक्षा ग्रहण करे, यह उनका दृढ़ विश्वास था। मातृभाषा और राष्ट्रभाषा के समर्थक होने पर भी ऋषि दयानंद विदेशी भाषाओं को सीखने के विरोधी नहीं थे। यदि साधन और सुविधाएँ उपलब्ध हों तो हमें ज्ञानोपार्जन के लिए अधिकाधिक भाषाओं का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए, यह उनकी निश्चित मान्यता थी। जीविका निर्वाह की दृष्टि से वे कला-कौशल, औद्योगिक एवं तकनीकी शिक्षा के समर्थक थे। उन्होंने स्वयं जर्मनी के प्रो0 वाइज से पत्राचार कर एक योजना बनाई थी, जिसके अन्तर्गत भारत के छात्रों को कलाकौशल की शिक्षा प्राप्त करने के लिए यूरोप भेजे जाने का प्रावधान था।

उपर्युक्त विवेचना से यह स्पष्ट है कि महर्षि दयानंद का शिक्षा-दर्शन भारत की परिस्थितियों के लिए सर्वथा अनुकूल तथा आचरणीय है। कालान्तर में डी0 ए0 वी0 विद्यालयों तथा गुरूकुलों की स्थापना इन्ही आदर्शों को मूर्तिमान् करने के लिए की गई।

सत्यार्थ प्रकाश नामक अपने प्रमुख ग्रन्थ के द्वितीय एवं तृतीय समुल्लास में स्वामी दयानंद ने इस विषय को लिया है। अथ शिक्षां प्रवक्ष्याम: के साथ दूसरे ‘तथा अथाध्ययनाध्यापनविधिं व्याख्यास्याम:’ के साथ तृतीय समुल्लास का आरम्भ होता है। इन दोनों अध्यायों में शिक्षा-विषयक भारत की प्राचीन वैदिक परिपाटी का विवेचन करते हुए स्वामीजी ने ब्रह्मचर्य आश्रम में अध्ययन, स्वाध्याय एवं प्रवचन, अध्ययन समाप्ति के पश्चात् दीक्षान्त अनुशासन, संस्कृत के शास्त्रीय अध्ययन की पाठविधि, ग्राह्य एवं त्याज्य पुस्तकें, स्त्री शिक्षा, वदे ो के पठनाधिकार का विवेचन आदि विषय लिये हैं। उनके संस्कारविधि तथा ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका जैसे ग्रन्थों में भी प्रसंगोपात्त शिक्षा विषय की चर्चा हुई है। ‘संस्कृतवाक्यप्रबोध’ लिखकर उन्होंने बालकों की संस्कृत सम्भाषण क्षमता को बढ़ाने में सहायता दी तो ‘व्यवहारभानु’ द्वारा बालकों के आचार-व्यवहार, शिष्टाचार तथा सामान्य कत्तव्यों का निर्देशन किया।

अपने शिक्षा-विषयक विवेचन के आरम्भ में भी स्वामीजी ने ‘मातृमान् पितृमानाचार्यवान पुरूषो वेद।’ इस आर्ष सूत्र को लिखकर बालकों के जीवन-निर्माण में माता-पिता तथा आचार्य के दायित्व को सर्वोपरि ठहराया है। सोलह संस्कारों की विधि तथा विवेचना में लिखा गया उनका ग्रन्थ ‘संस्कारविधि’ इस तथ्य को स्पष्ट करता है कि न केवल जन्म के पश्चात् अपितु गर्भधारण की अवस्था में ही पुंसवन तथा सीमन्तोन्नयन संस्कारों के द्वारा गर्भस्थ बालक की निर्माणावस्था आरम्भ होती है और उसके शारीरिक एवं मानसिक विकास की प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। इस संस्कार विज्ञान को पाश्चात्य शैली में युजेनिक्स कह सकते हैं और यह शिक्षा का एक पूरक विज्ञान है।

बालक की शिक्षा का आरम्भ माता से होता है। माता की गोद उसकी प्रथम पाठशाला है, घर का वातावरण उसे निरन्तर प्रभावित करता है। इसलिए स्वामीजी ने मातृमान् का अर्थ करते हुए लिखा- ‘‘प्रशस्ता धार्मिकी माता विद्यते यस्य स मातृमान्।’’ उनकी दृष्टि से गर्भाधान से लेकर शिक्षा के पूरा होने तक माता की भूमिका अपरिहार्य एवम् अनिवार्य है। उनके अनुसार माता अपने बालक को वर्णोच्चारण की शिक्षा देती है, उन्हें सद्व्यवहार और सदाचार का पाठ पढ़ाती है। शिष्टाचार तथा सभ्यता की प्रारम्भिक शिक्षा बालक अपने माता-पिता से सीखते हैं।

इस प्रसंग में स्वामीजी का कथन है कि जब पाँच वर्ष के लड़का-लड़की हों तो देवनागरी अक्षरों का अभ्यास करावें अन्य देशीय भाषाओं के अक्षरों का भी। इसके पश्चात जिनसे अच्छी शिक्षा, विद्या, धर्म, परमेश्वर, माता-पिता, आचार्य, विद्वान्, अतिथि, राजा-प्रजा, कुटुम्ब, बन्धु, भगिनी, भृत्य आदि के साथ कैसे-कैसे वर्त्तना, इन बातों के मन्त्र, श्लोक, सूत्र, गद्य, पद्य भी अर्थसहित कण्ठस्थ कराएँ।

महर्षि दयानंद इस तथ्य से सुपरिचित थे कि बालकों में तार्किक चिन्तन, विवेक, वैज्ञानिक बुद्धि जैसे मानसिक गुणों के विकास में माता का प्रमुख योगदान रहता है। मध्यकाल में अशिक्षा तथा वैज्ञानिक दृष्टि के अभाव के कारण जनसमाज में भूत-प्रेत आदि के अनेक मूढ़ विश्वास प्रचलित रहे तथा इन्हें जाने-अनजाने में बालकों में भी संक्रमित किया जाता रहा। फलत: आगे चलकर जहाँ बालकों के सर्वविध विकास में बाधा आती रही वहाँ वे कदर्य, भीरू तथा अन्धविश्वास के शिकार बनते रहे।

बालकों के समक्ष भूत-प्रेतादि की काल्पनिक कथाएँ प्राय: कही जाती हैं, जिन्हें बीजरूप में वे ग्रहण करते हैं तथा आगे चलकर इनसे कभी मुक्त नहीं हो पाते। स्वामीजी इस विषय में अत्यन्त सावधान थे। उन्होंने इस प्रसंग में स्पष्ट लिखा-जिसको शंका, कुसंग, कुसंस्कार होता है उसको भय और शंकारूप भूत, प्रेत, पिशाच, शाकिनी, डाकिनी आदि अनेक भ्रमजाल दु:खदायक होते हैं।

इस प्रसंग में उन्होंने भूत, प्रेत आदि संस्कृत शब्दों के अर्थ स्पष्ट कर दिया है कि इनके वास्तविक अर्थों को न समझकर जो मिथ्या योनियों की कल्पना की गई है, वह सर्वथा अवांछनीय है। इसके साथ ही स्वामीजी ने बालकों के जन्म-पत्र बनाने, उसके आधार पर फलादेश बनाने तथा ज्योतिषियों के मिथ्या प्रपंच में पड़कर बालकों को अन्धविश्वास का शिकार बनाने से भी सावधान किया है। बालकों को यह स्पष्ट बताना चाहिए कि ज्योतिष और गणित में जो कुछ वैज्ञानिक सत्यता है उससे फलित ज्योतिष के फलादेश आदि का कुछ सम्बन्ध नहीं है।

महर्षि दयानंद बालमनोविज्ञान के अद्भुत ज्ञाता थे वे बालकों को कठोर दण्ड दिये जाने का समर्थन नहीं करते, किन्तु दण्ड की सर्वथा उपेक्षा को भी अस्वीकार करते थे। उन्होंने यह माना कि अत्यधिक लाड-प्यार से बच्चा बिगड़ता है जबकि समझाने-बुझाने पर न मानने की स्थिति में बालक का उचित ताड़न अनुचित नहीं है। उनका सर्वाधिक जोर बालकों को नैतिक शिक्षा तथा अनुशासन प्रदान कराने में है। इसके लिए वे वाचिक तथा क्रियात्मक शिक्षण पर जोर देते हैं।

स्वामी दयानंद सरस्वती का शिक्षा दर्शन

सबके लिए अनिवार्य शिक्षा

बालकों की अनिवार्य शिक्षा का समर्थन कर स्वामीजी ने यह दायित्व भी माता-पिता को सौंपा है। वे चाणक्य के उस प्रसिद्ध श्लोक को उद्धृत कर यह स्पष्ट कर देते हैं कि जिन माता-पिता ने अपने बच्चों को प्रशिक्षित नहीं किया उन्होंने उनके प्रति शत्रुवत् आचरण किया है, क्योंकि इस प्रकार शिक्षा से हीन बालक शिष्ट एवं सभ्य पुरुषों की सभा में उचित सम्मान एवं स्थान प्राप्त नहीं कर सकता। माता-पिता के दायित्व का उल्लेख करने के पश्चात ऋषि दयानंद बच्चों को गुरूकुल में भेजने का संकेत करते हैं। इस प्रसंग में वे लिखते हैं- इसमें राज-नियम और जाति-नियम होना चाहिए कि पाँचवें अथवा आठवें वर्ष से आगे कोई अपने लड़कों और लड़कियों को घर में न रख सके, पाठशाला में अवश्य भेज दे, जो न भजेे वह दण्डनीय हो। 

इस अध्ययन का आरम्भ वे उपनयन संस्कार से मानते हैं। जो बालक को पितृ-ऋण तथा आचार्य-ऋण से उऋण होने का सन्देश देता है।

गुरूकुलवास ही इस तथ्य की स्वीकृति है कि बालक के सर्वविध विकास में परिपाश्र्व एवं पर्यावरण का कितना महत्व है। नगर और बस्ती के कोलाहल से सर्वथा दूर, प्रकृति के क्रोड में विचरण करने वाला वह अन्तवे ासी अब केवल अपने शिक्षकों का सान्निध्य पाकर सर्वतोभावेन अध्ययन के लिए स्वयं को समर्पित कर देता है। यहाँ उसे एक ऐसा स्वच्छ निर्मल वातावरण मिलता है जो उसके सर्वविध विकास में सहायक होता है।

गुरूकुल में रहकर वह जिस प्रकार के पठन-पाठन क्रम को अपनाता है उसका विस्तार से उल्लेख करने के साथ-साथ स्वामीजी ने विद्यार्थियेां के खान-पान, रहन-सहन तथा उनकी दिनचर्या का भी मनुस्मृति के आधार पर विवेचन किया है। अध्ययन की यह अवधि पर्याप्त लम्बी होती थी। अध्ययन की समाप्ति पर आचार्य का शिष्य के प्रति जो आदेश और अनुशासन है उसे स्वामीजी ने तैत्तिरीय उपनिषत् के आधार पर प्रस्तुत किया है। इसमें जहाँ सत्याचरण, धर्माचरण, स्वाध्याय में निरत रहने का उपदेश है वहाँ यह तथ्य अत्यन्त स्पष्टता से अंकित कर दिया गया है कि शिष्य को चाहिए कि वह अपने आचार्य के प्रशस्त कर्मों एवं आचरणों का ही अनुकरण करे, उनके सुचरितों को ग्रहण करना उसके लिए श्रेयस्कर है। ऐसा न हो कि वह उनके किसी ऐसे चरित्र या विचार को ग्रहण कर ले जो उसके विकास की धारा को ही अवरूद्ध कर दे।

स्त्री शिक्षा पर जोर देना स्वामी दयानंद की शिक्षा विषयक मान्यताओं की एक अन्य विशिष्टता है। जीवनरूपी रथ के स्त्री और पुरूष दो ही पहिए हैं, इसलिए स्त्री को शिक्षा से वंचित रखना जीवन के सन्तुलित विकास में व्यवधान उपस्थित करना है। ऋषि दयानंद के अनुसार कन्याओं के पाठ्यक्रम में कुछ ऐसे विषयों का समावेश किया जाना चाहिए जो उन्हें आदर्श गृहिणी एवम् आदर्श माता बनाने में उपयोगी सिद्ध हों। वे शिक्षा में किसी प्रकार के भेदभाव के विरूद्ध थे। गरीब और अमीर, राजा और प्रजा सभी के बालकों को शिक्षा में समान अवसर तथा विकास के समान साधन उपलब्घ कराये जाने चाहिए।

संक्षेप में स्वामी दयानंद के शिक्षा-विषयक विचारों को निम्न बिन्दु में सूत्रबद्ध किया जा सकता है-
  1. विद्याभ्यास के साथ-साथ चरित्र-निर्माण तथा व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास विद्यार्थी का लक्ष्य होना चाहिए। ऐसा समग्र शिक्षण गुरूकुल में ही सम्भव है जो नगरों और बस्तियों के भीड़-भाड़वाले वातावरण से सर्वथा असम्पृक्त होता है।
  2. पाठ्य पुस्तकों के चयन में अतिरिक्त सावधानी रखनी चाहिए। साक्षात् कृतधर्मा, तत्वद्रष्टा ऋषियों के बनाये ग्रन्थ शिक्षा का मुख्य आधार होने चाहिए।
  3. संस्कृत तथा मातृभाषा के अतिरिक्त यथा सुविधा और यथाशक्ति अन्य देशीय भाषाओं का अध्ययन किया जाना चाहिए।
  4. शास्त्र शिक्षण के साथ-साथ कला-कौशल, उद्योगों तथा प्राविधिक विषयों को सिखाने की व्यवस्था की जानी चाहिए ताकि छात्र अपने भावी जीवन में जीविकोपार्जन के लिए परावलम्बी न हो।
  5. शिक्षा का माध्यम मातृभाषा रहे। इससे विभिन्न विद्याओं को ग्रहण करने में विद्यार्थियों को सुगमता रहती है।
  6. सहशिक्षा को निरूत्साहित करना ही नहीं अपितु उसका पूर्ण बहिष्कार उचित है।
  7. कन्या-शिक्षण को बालकों की शिक्षा के तुल्य महत्व दिया जाना चाहिए।
  8. शिक्षा के क्षेत्र में राजा और रंक, गरीब और अमीर का भेदभाव अवांछनीय है। प्रत्येक छात्र को अपनी योग्यता के अनुसार शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार मिलना चाहिए।
  9. शिक्षा द्वारा स्वाभिमान, स्वदेश-प्रेम, ईश्वरभक्ति, स्वावलम्बन तथा श्रेष्ठ नागरिक निर्माण के उद्दे्श्यों की पूर्ति होनी चाहिए।
  10. शिक्षा का दायित्व माता-पिता का है और आचार्य को भी उसमें अपना समान दायित्व अनुभव करना चाहिए।

शिक्षा का उद्देश्य

वैदिक कालीन शिक्षा का मात्र यह उद्देश्य नहीं था कि मनुष्य को आजीविका के योग्य या अन्य शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने में सक्षम बना दिया जाए, अपितु आत्मा में निहित शक्तियों का विकास करते हुए प्रथम अभ्युदय की प्राप्ति और तदनन्तर नि:श्रेयस तक पँहुचाना शिक्षा का उद्देश्य था। शिक्षा के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए महर्षि दयानंद सरस्वती कहते हैं कि वही शिक्षा है, जिससे विद्या, सभ्यता, धर्मात्मा, जितेन्द्रियादि की वृद्धि हो और अविद्यादि से निवृत्ति मिले। महर्षि विद्या को यथार्थ का दर्शन कराने वाली और भ्रम से रहित मानते हैं।

अथर्ववेद में ब्रह्मचारी को दो समिधाओं वाला बताया गया है। प्रथम समिधा भोग की प्रतीक है और द्वितीय समिधा ज्ञान की। ज्ञान और भोग इन दोनों समिधाओं के द्वारा पूर्णता प्राप्त करना ब्रह्मचारी का उद्देश्य है। कहने का आशय यह है कि केवल भोग या केवल ज्ञान से मनुष्य जीवन सफल नहीं हो सकता इसलिए भारतीय वैदिक शिक्षा जीवन के दोनों रूपों में सामंजस्य स्थापित करके मनुष्य को पूर्णता तक पहुँचाती है।

शिक्षा का उद्दे्श्य क्या होना चाहिए, व्यक्ति विशेष और परिस्थितियों व स्थान के अनुसार अलग हो सकते हैं। शिक्षा अर्जित करने पर ज्यादातर लोगों का मुख्य उद्दे्श्य अच्छा व्यक्ति बनना होता है। यद्यपि वर्तमान में शिक्षा का व्यावसायीकरण कर दिया गया है। शिक्षा का लक्ष्य चरित्रवान् तथा सुयोग्य व्यक्ति का निर्माण करना है।

धन अर्जित कर लेना ही शिक्षा नहीं है। असामाजिक प्राणी भी अपने जीवन यापन के लिए खाने का बन्दोबस्त कर लेता है। लेकिन वह समाज में सभ्य नहीं हो पाते हैं। एक शिक्षित व्यक्ति समाज को बहुत तरीके से मदद करता है और उसे सुगम बनाता है।

व्यक्तिगत शक्तियों का विकास करना ही शिक्षा का उद्दे्श्य नहीं होता क्योंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। व्यक्तित्व का विकास समाज के अनुसार होना चाहिए जिसमें हमें सामाजिक मूल्यों एवं सिद्धान्त का अपने शिक्षा में स्थान जरूर देना चाहिए।

शिक्षा प्रणाली एवं पठन-पाठन विधि

उन्नीसवÈ सदी के मध्य भाग में दो प्रकार के शिक्षणालय विद्यमान थे, एक पुरानी परिपाटी की पाठशालाएँ और मदरसे जिनमें संस्कृत, अरबी ओर फारसी की पढ़ाई होती थी और पुराने धार्मिक साहित्य का पठन-पाठन होता था। नये ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा को इनमें कोई स्थान नहीं था। दूसरे प्रकार के शिक्षणालय ईसाई मिशनरियों और अंग्रेजी सरकार द्वारा स्थापित किए गये थे जिनमें अंग्रेजी भाषा शिक्षा की माध्यम थी और अंग्रेजी साहित्य की पढ़ाई पर विशेष जोर दिया जाता था। ये दोनों ही प्रकार के शिक्षणालय भारत की प्रगति के लिए सर्वदा अनुपयुक्त थे। पुरानी पाठशालाओं ओर मदरसों में शिक्षा प्राप्त करने वाले विद्यार्थी आधुनिक युग के ज्ञान-विज्ञान, नये चिन्तन एवं प्रगति से सर्वथा अपरिचित रहते थे, और अंग्रेजी स्कूलों, कालेजों में पढ़े हुए लोग अपनी संस्कृति से विमुख होते जाते थे। उनमें हीन भावना विकसित हो जाती थी, और वे अंग्रेजी शासन को अपने देश के लिए वरदान समझने लगते थे। इस काल में भारत के नव जागरण के जो अनेक आन्दोलन चल रहे थे, उनके नेता भी अंग्रेजी शिक्षा के समर्थक थे, और ऐसे ही स्कूल व कालेज स्थापित करने में तत्पर थे, जिनमें अंग्रेजी को प्रमुख स्थान प्राप्त हो।

उन्नीसवÈ सदी के पूर्वार्द्ध के प्रमुख भारतीय सुधारक राजा राममोहन राय थे, जिन्होंने धार्मिक सुधार तथा सामाजिक बुराईयों को दूर करने के प्रयोजन से ब्रह्मसमाज की स्थापना की थी। अंग्रेजी सरकार द्वारा प्रारम्भ की गयी पाश्चात्य ढंग की शिक्षा को वे भी भारतीयों को लिए उपयोगी मानते थे, और उन्होंने उसके प्रसार के लिए कार्य भी किया था। वे तथा इस युग के अन्य सुधारक यह सोच भी नहीं सकते थे कि एक ऐसी शिक्षा पद्धति भी हो सकती है जिसके अनुसार शिक्षा प्राप्त कर भारतीय विद्यार्थी जहाँ नये ज्ञान-विज्ञान से पूर्ण परिचय प्राप्त कर सके,ं वहाँ साथ ही अपनी भाषा, अपनी संस्कृति और अपने धर्म का भी उन्हें पूरा-पूरा ज्ञान रहे और भारतीयता के प्रति उनकी आस्था में न केवल कमी न आये अपितु उसमें वृद्धि हो। ऐसी शिक्षा प्रणाली का प्रतिपादन आधुनिक युग में केवल महर्षि दयानंद सरस्वती द्वारा ही किया गया।

महर्षि दयानंद द्वारा प्रतिपादित पाठ्य विषय में संस्कृत भाषा, वेद-वेदांग तथा दर्शनशास्त्रों को प्रमुख स्थान दिया गया है साथ ही चिकित्सा शास्त्र, राजनीति शास्त्र, युद्ध विद्या, शिल्प विद्या, भौतिक विज्ञान, गणित, ज्योतिष आदि के अध्ययन को भी समुचित महत्व प्राप्त है। अंग्रेजी भाषा से परिचय की भी महर्षि ने उपेक्षा नहीं की। वे यह मानते थे कि बचपन में देवनागरी अक्षरों के साथ-साथ अन्य देशीय भाषाओं (जिनमें अंग्रेजी भी अन्तर्गत हो सकती है) का भी ज्ञान कराना प्रारम्भ कर दिया जाए। परन्तु किसी विदेशी भाषा को पढ़ना एक बात है, और उसे शिक्षा का माध्यम बनाना उससे भिन्न बात है। भारत की विदेशी सरकार द्वारा जिस पद्धति का सूत्रपात किया गया हे उसके मुख्य दोष ये थे कि उसमें अंग्रेजी भाषा की शिक्षा को प्रमुख स्थान प्राप्त था, वही भाषा शिक्षा की माध्यम थी, और भारत की आधुनिक तथा प्राचीन भाषाओं तथा उनके साहित्य की उसमें उपेक्षा की गयी थी।

महर्षि दयानंद द्वारा प्रतिपादित शिक्षा-पद्धति में इनमें से कोई भी दोष नहीं था। इसी प्रकार पुरानी परम्परा की पाठशालाओं तथा मदरसों में केवल प्राचीन भाषाएँ पढ़ाई जाती थीं और केवल उस साहित्य का वहाँ अध्यापन होता था जिसका निर्माण मुख्यतया मध्य युग में हुआ था। संस्कृत की पाठशालाओं में अर्थसहित वेदों के पढ़ाने का तो प्रश्न ही क्या, व्याकरण तक के लिए उन ग्रन्थों का आश्रय लिया जाता था जो ऋषिकृत न होकर बाद के समय के पण्डितो द्वारा लिखे गये थे। जिस नये ज्ञान-विज्ञान का आधुनिक युग में पश्चिमी यूरोप में विकास हो रहा था, पाठशालाओं और मदरसों के विद्यार्थी उससे सर्वथा अपरिचित रहते थे।

महर्षि दयानंद द्वारा जो पाठ्यक्रम निर्धारित किया गया, उसमें संस्कृत भाषा, वैदिक वाड़्मय तथा प्राचीन शास्त्रों के अध्यापन के साथ-साथ नये ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा की भी सुचारू रूप से व्यवस्था की गयी है।9 महर्षि दयानंद की शिक्षा प्रणाली में चरित्र के निर्माण पर अत्यधिक जोर दिया गया है। ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण कर विद्याभ्यास करने के लिए प्रवृत्त होने का प्रयोजन ही यह है, कि बालिकाएँ और बालक अपने शरीर को नीरोग तथा बलवान्, मन को शुभ संकल्प वाला और आत्मा को समुन्नत बनाने के लिए प्रयत्न करते रहें। शिक्षणालयों की स्थापना जो नगरों और गा्र मों से दूर एकान्त स्थान पर किये जाने की व्यवस्था महर्षि ने की है, उसका प्रयोजन भी यही है कि छात्रों पर जनसमाज के दूषित वातावरण का प्रभाव न पड़े, और उनके चरित्र में कोई दोष न आने पाए। इसीलिए अध्यापकों और अध्यापिकाओं के लिए विद्वान् होने के अतिरिक्त सदाचारी होने की बात भी आवश्यक रखी गयी है। महर्षि के शब्दों मे, ‘‘जो अध्यापक पुरूष वा स्त्री दुष्टाचारी हों उनसे शिक्षा न दिलावें। किन्तु जो पूर्ण विद्यायुक्त होवे वे ही पढ़ाने और शिक्षा देने योग्य हैं।’’

गुरुकुल शिक्षा प्रणाली

महर्षि दयानंद सरस्वती के मन्तव्यानुसार बालकों और बालिकाओं के आठ वर्ष के होने जाने पर उनकी शिक्षा के सम्बन्ध में माता-पिता का कर्तृत्व समाप्त हो जाता है, न केवल शिक्षा के सम्बन्ध में, अपितु, उनके चरित्र-निर्माण, भरण-पोषण तथा भविष्य के विषय में भी। अब यह उत्तरदायित्व गुरूजनों, मानव तथा राज्यसंस्था पर आ जाता है। आठ वर्ष की आयु हो जाने पर बालकों और बालिकाओं को विद्याध्ययन के लिए उन शिक्षणालयों में भेज दिया जाना चाहिए, जिन्हें महर्षि ने ‘पाठशाला’, ‘गुरूकुल’ और ‘आचार्यकुल’ नाम से कहा है। 

इस आयु से बालक-बालिकाओं को आचार्यों या गुरूजनों द्वारा शिक्षा दी जानी है, और विद्याभ्यास के काल (जिसकी न्यूनतम अवधि पुरुषों के लिए पच्चीस साल की आयु तक और óियों के लिए सोलह साल की आयु तक है) में उन्हें ही अपने शिष्यों की शारीरिक, मानसिक और आत्मिक उन्नति के लिए यत्न करना है। आचार्य वर्ग के संरक्षण में रहते हुए छात्र किस प्रकार का जीवन व्यतीत करें, उन्हें कौन-सी विद्याएँ पढ़ायÈ जाएँ, पठन-पाठन विधि क्या हो- इन सब बातों पर महर्षि ने अपने ग्रन्थों में विशद् रूप से प्रकाश डाला है।

वस्तुत:, महर्षि द्वारा प्रतिपादित सामाजिक व्यवस्था का मूल आधार यह शिक्षा प्रणाली ही है। उसे ही गुरूकुल शिक्षा प्रणाली कहा जाता है। इसकी मुख्य विशेषताएँ हैं- 

1. बालक-बालिकाओं को शिक्षा के लिए गुरूकुलों में भेजना माता-पिता के लिए अनिवार्य होना चाहिए। इस बात पर महर्षि ने बहुत जोर दिया है।

उन्होंने लिखा है- ‘‘इसमें राजनियम (राजकीय कानून) और जातिनियम (जनता का समर्थन) होना चाहिए कि पाँचवें अथवा आठवें वर्ष से आग े कोई अपने लड़के और लड़कियों को घर में न रख सके। पाठशाला में अवश्य भेज देना चाहिए, जो न भेजे वह दण्डनीय हो।’’

‘‘नौवें वर्ष के आरम्भ में द्विज अपनी सन्तानों का उपनयन करके आचार्यकुल में अर्थात् जहाँ पूर्ण विद्वान् और पूर्ण विदुषी स्त्री शिक्षा और विद्यादान करने वाली हों वहाँ लड़के और लड़कियों को भेज दें।’’

राजा को योग्य है कि सब कन्या और लड़कों को उक्त समय से उक्त समय तक ब्रह्मचर्य में रखकर विद्वान कराना। जो कोई इस आज्ञा को न माने तो उसके माता-पिता को दण्ड देना, अर्थात् राजा की आज्ञा से आठ वर्ष पश्चात लड़का और लड़की किसी के घर में न रहने पावें किन्तु आचार्यकुल में रहें। जब तक समावर्तन का समय न आवे तब तक विवाह न होने पावे।’’

शिक्षा के लिए बालक-बालिकाओं को अनिवार्य रूप से गुरूकुलों में भेजना महर्षि की दृष्टि में केवल वांछनीय ही नहीं है, अपितु उसके लिए सबको बाध्य करना भी आवश्यक है। केवल उपदेश या प्रेरणा से यह नहीं कराया जा सकता। इसके लिए जातिनियम और राजनियम के प्रयोग का महर्षि ने प्रतिपादन किया है। राजकीय कानूनों का उल्लंघन किया जा सकता है, यदि लोकमत उनके साथ न हो और यदि जनता स्वंय उनका पालन करने के लिए कटिबद्ध न हो। इसी कारण महर्षि ने राजनियम के साथ-साथ जातिनियम को भी अनिवार्य गुरूकुल शिक्षा के लिए आवश्यक माना है।

2. महर्षि दयानंद सरस्वती बालक-बालिकाओं या स्त्री-पुरुषों की सह-शिक्षा के प्रबल विरोधी हैं। उन्होंने लिखा है कि ‘‘लड़के और लड़कियों की पाठशाला दो कोस एक दूसरे से दूर होनी चाहिए। जो वहाँ अध्यापिका और अध्यापक पुरुष व भृत्य, अनुचर हों वे कन्याओं की पाठशाला में सब स्त्री और पुरूष की पाठशाला में पुरूष रहें। स्त्रियो की पाठशाला में पाँच वर्ष का लड़का और पुरुषों की पाठशाला में पाँच वर्ष की लड़की भी न जाने पावे अर्थात् जब तक व े बह्म्र चारी या ब्रह्मचारिणी रहे तब तक स्त्री व पुरुष का दर्शन, स्पर्शन, एकान्त सेवन, भाषण, विषयक था परस्पर क्रीड़ा, विषय का ध्यान और संग इन आठ प्रकार के मैथुनों से अलग रहें और अध्यापक लोग उनको इन सब बातों से बचावें जिससे उत्तम विद्या, शिक्षा, शील, स्वभाव, शरीर और आत्मा से बलयुक्त होके आनन्द को नित्य बढ़ा सके।

महर्षि ने जिन शिक्षणालयों (गुरूकुलों) का निरूपण किया है, वे कन्याओं और बालकों के पृथक्-पृथक् होंगे, उनके बीच की दूरी दो कोस (चार मील के लगभग) होगी, और कन्या गुरूकुलों में सब शिक्षक, कर्मचारी व सेवक स्त्रियाँ होंगी, और पुरूषों के गुरूकुलों में पुरूष। महर्षि ने केवल कक्षा में पढ़ते समय बालकों और बालिकाओं के एक साथ पढ़ने का ही विरोध नहीं किया है, अपितु यह भी कहा है कि कन्या गुरूकुलों में कोई भी पुरूष (पाँच वर्ष से अधिक आयु का) न जाने पाए। इसी प्रकार बालकों के गुरूकुल में कोई भी स्त्री न जाने पाए, जिससे कि वे पूर्ण ब्रह्मचर्य के साथ जीवन बिता सके।

3. गुरूकुलों के सब विद्यार्थियों को एक समान भोजन, वस्त्र, निवास, शिक्षा आदि दी जानी चाहिए। महर्षि के शब्दों में ‘‘सब को तुल्य वस्त्र, खान-पान, आसन दिये जाएँ, चाहे वह राजकुमार वा राजकुमारी हो और चाहे दरिद्र की सन्तान हो।’’

महर्षि की यह व्यवस्था गुरूकुल शिक्षा प्रणाली की आधारशिला है, और इसी द्वारा सच्चे अर्थों में ‘सबको समान अवसर’ तथा ‘सामाजिक न्याय’ के आदर्श क्रियान्वित किये जा सकते हैं। गुरूकुलों में सब विद्यार्थी एक साथ निवास करेंगे, सबके निवास स्थान, शय्या आदि एक सदृश होंगे, सबके वस्त्र एक जैसे होंगे, सबको भोजन एक जैसा मिलेगा, सबका रहन-सहन एक समान होगा और सबको समान शिक्षा दी जाएगी। गुरूकुलों में द्विज और शूद्र, ऊँच और नीच, छूत और अछूत, धनी और निर्धन, पूँजीपति और मजदूर, राजकीय पदाधिकारी और चपरासी की सन्तान में किसी प्रकार का कोई भेद नहीं किया जाएगा।

4. गुरूकुलों से नगर और ग्राम दूर होने चाहिए। महर्षि के शब्दों में, ‘‘पाठशालाओं से एक योजन अर्थात् चार कोस दूर गा्र म व नगर रहे।ं ‘‘ महर्षि की दृष्टि में विद्यााभ्यास के काल में विद्यार्थियों को शहरों और ग्रामों के वातावरण से दूर रखना आवश्यक है, ताकि वे नागरिक जीवन के आकर्षणों से मुक्त रहते हुए अपना सारा ध्यान विद्याध्ययन में लगा सके।ं

शहरों और गाँवों में अनके प्रकार के आकर्षण होते हैं, वहाँ की प्रमोदशालाएँ, विलासमय जीवन तथा सुख भोग किशोर वय के बालक-बालिकाओं को आकृष्ट कर उन्हे विद्याभ्यास से विमुख कर सकते हैं। अत: महषिर् ने यह व्यवस्था की है कि गुरूकुल शहरों और नगरों से दूर एकान्त स्थान पर स्थापित किये जाने चाहिए। परन्तु महर्षि को यह अभिप्रेत नहीं था, कि विद्यार्थी संसार तथा उसकी समस्याओ से सर्वथा अपरिचित रहे और नागरिक जीवन के सम्पर्क में कदापि न आएँ। गुरूकुलों के विद्यार्थी भ्रमण करने के लिए नगरों व ग्रामों में जा सकते हैं, परन्तु ऐसे समय अध्यापक उनक े साथ रहने चाहिएँ, ताकि वे किसी प्रकार की कुचेष्टा न कर सके।ं 16 अध्यापकों के साथ भ्रमण के लिए जाने पर विद्यार्थी संसार से परिचित भी हो जाएँगें और शहरों के जीवन के बुरे प्रभाव भी उन पर नहीं पड़ने पाएँगे।

5. गुरूकुल में प्रवेश पाने के पश्चात् बालकों व बालिकाओं का अपने माता-पिता से कोई सम्पर्क नहीं रहना चाहिए। महर्षि के शब्दों में ‘उनके माता-पिता अपने सन्तानों से वा सन्तान अपने माता-पिताओं से न मिल सके और न किसी प्रकार का पत्र वयवहार एक-दूसरे से कर सके जिससे संसारी चिन्ता से रहित होकर केवल विद्या बढ़ाने की चिन्ता रक्खे।’

6. गुरूकुलों में विद्यार्थियों का जीवन तपस्यामय होना चाहिए और उन्हे ब्रह्मचर्य व्रत का अविकल रूप से पालन करना चाहिए। महर्षि ने ब्रह्मचर्य और तप पर बहुत जोर दिया है। ‘‘जो मनुष्य इस ब्रह्मचर्य को प्राप्त होकर लोप नहीं करते वे सभी प्रकार के रोगों से रहित होकर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त होते हें। ब्रह्मचर्य के पालन के लिए यह आवश्यक है कि ब्रह्मचर्य और ब्रह्मचारिणी मद्य, मांस, गन्ध, माला, रस, स्त्री और पुरूष का संग, प्राणियों की हिंसा, अंगों का मर्दन, बिना निमित्त उपस्थेन्द्रिय का स्पर्श, आँखों में अंजन, जूते और छत्र को धारण, काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, शोक, ईष्र्या, नाच, गान और बाजा बजाना, द्यूत, छल, स्त्रियों की कथा, निन्दा, मिथ्या-भाषण, स्त्रियों का दर्शन, आश्रय, दूसरे की हानि आदि कुकर्मों को सदा छोड़ देना चाहिए।

ब्रह्मचारी और ब्रह्मचारिणी के लिए यह आवश्यक है कि वे उन बातों से दूर रहें, जिनसे विद्याभ्यास में विध्न पड़ता है। महर्षि के शब्दों में ‘‘जो विद्या पढ़ने-पढ़ाने के विध्न हैं, उन्हें छोड़ देना चाहिए, जैसे-कुसंग अर्थात् दुष्ट विषयी जनों का संग, मद्यादि सेवन, बाल्यावस्था में विवाह अर्थात् पच्चीसवें वर्ष से पूर्व पुरूष और सोलह वर्ष से पूर्व स्त्री का विवाह हो जाना, पूर्ण ब्रह्मचर्य न होना, सर्वोपरि विद्या का लाभ न समझाना, इधर-उधर व्यर्थ घूमते रहना आदि।

गुरूकुलों में विद्यार्थियों का जीवन लोभरहित, पवित्र, संतुष्ट और भक्तिमय होना चाहिए किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि मनुष्य निरूद्यमी हो जाए और पुरूषार्थ करना छोड़ दे। ब्रह्मचर्य में वीर्य रक्षा को महर्षि बहुत महत्व देते हैं। उनके अनुसार, ‘‘जिसके शरीर में सुरक्षित वीर्य रहता है तब उसको आरोग्य, बुद्धि, बल की वृद्धि होती है। जिसके शरीर में वीर्य नहीं होता वह नपुंसक, महाकुलक्षणी और जिसको प्रमेह रोग होता है वह दुर्बल, निस्तेज, निर्बुद्धि, उत्साह, साहस, धैर्य, बल, पराक्रमादि गुणों में रहित होकर नष्ट हो जाता है।

7. गुरूकुल में विद्याभ्यास करते हुए छात्र-छात्राओं के प्रति उनके गुरुजनों के व्यवहार के सम्बन्ध में महर्षि मानते हैं कि गुरूओं का अपने शिष्यों के साथ वही सम्बन्ध होना चाहिए, जो माता-पिता का सन्तान के साथ होता है। आठ वर्ष की आयु में जब माता-पिता अपनी सन्तान को गुरुकुल भजे देते हैं, तो उनका स्थान गुरु व अध्यापक ले लेते हैं और बालक-बालिकाओं की देखभाल उसी प्रकार से करते हैं, जैसे कि माता-पिता द्वारा की जाती है। गुरु-शिष्य का सम्बन्ध उसी प्रकार का है, जैसा कि पिता-पुत्र का होता है। परन्तु गुरुओं को शिष्यों का लाड-चाव नहीं करना चाहिए। महर्षि का यह मत केवल गुरुओं के लिए ही नहीं है। माता-पिता को भी सन्तान का लाड-चाव न कर उनकी ताड़ना करना चाहिए। 

महर्षि के शब्दों में ‘‘जो माता-पिता और आचार्य सन्तान और शिष्यों का ताड़न करते हैं वे अपने सन्तान और शिष्यों को अपने हाथ से अमृत पिलाते हैं और जो लाडन करते हैं वे उन्हें विष पिलाकर नष्ट करते हैं। परन्तु माता-पिता तथा अध्यापक ईर्ष्या, द्वेष से ताड़न न करें, किन्तु ऊपर से भय प्रदान और भीतर से कृपा दृष्टि रक्खें।

शिष्यों के हित की दृष्टि से कभी-कभी यह आवश्यक हो जाता है कि उन्हें कुमार्ग से हटाने के लिए ताड़ना का आश्रय लिया जाए। 

8. गुरूकुलों में जो व्यक्ति अध्यापन का कार्य करें उन्हें न केवल विद्वान ही होना चाहिए, अपितु यह भी आवश्यक है कि वे धार्मिक तथा सदाचारी भी हों। महर्षि के शब्दों में ‘‘जो अध्यापक पुरुष या स्त्री दुष्टाचारी हो, उनसे शिक्षा नहीं दिलवानी चाहिए, किन्तु जो पूर्ण विद्यायुक्त धार्मिक हों वे ही पढ़ाने और शिक्षा देने योग्य हैं।’’

जिस शिक्षणालय में ये सब विशेषताएँ हों, वही गुरूकुल या आचार्यकुल कहा जा सकता है। एसे े शिक्षणालयों में ही राजनियम और जातिनियम द्वारा अनिवार्य रूप से सभी बालक-बालिकाओं को विद्या प्राप्ति के लिए भेजा जाना चाहिए।

पठन-पाठन विधि

महर्षि दयानंद सरस्वती के मन्तव्य के अनुसार बच्चों को अक्षर ज्ञान तो माता-पिता द्वारा घर पर ही करवा दिया जाना चाहिए, देवनागरी अक्षरों का भी और अन्य देशीय भाषाओं के अक्षरों का भी। इस दशा में जब कोई बालक या बालिका शिक्षा के लिए गुरुकुल में प्रवेश करेगा, तब उसे देवनागरी लिपि और आर्यभाषा (हिन्दी) का तो प्रारम्भिक ज्ञान होगा ही, पर साथ ही कम से कम एक विदेशी भाषा से भी उसका कुछ परिचय हो चुका होगा। गुरूकुल में आकर सबसे पूर्व छात्र-छात्राओं को संस्कृत भाषा का अध्ययन प्रारम्भ करना होगा। संस्कृत के अध्यापन करने के लिए महर्षि ने पाणिनी मुनिकृत ‘शिक्षा’ और अष्टाध्यायी का आश्रय लेना समुचित माना है। उनकी दृष्टि में व्याकरण का समुचित रूप से ज्ञान हो जाने पर वैदिक एवं लौकिक शब्दों का भली-भाँति बोध हो सकता है। एक बार संस्कृत व्याकरण का समुचित अध्ययन कर लेने का यह परिणाम होगा, कि वैदिक तथा लौकिक संस्कृत के शब्दों का यथार्थ अभिप्राय समझने और साहित्य का अनुशीलन करने में कोई कठिनाई नहीं होगी। 

संस्कृत व्याकरण की शिक्षा के लिए महर्षि के अनुशीलन ने सारस्वत, चन्द्रिका, कौमुदी, मनोरमा आदि व्याकरण ग्रन्थों को उतना उपयोग नहीं माना, जितना कि पाणिनी मुनि के व्याकरण को। उनके अनुसार पाणिनी की शिक्षा तथा अष्टाध्यायी और पतंजलि के महाभाष्य से जितना बोध तीन वर्षों में प्राप्त किया जा सकता है, उतना सारस्वत आदि से पचास वर्षों में भी संभव नहीं है।

व्याकरण के अध्ययन के लिए महर्षि ने तीन वर्ष का समय माना है। फिर निरूक्त और निघण्टु (छह या आठ माह), छन्द (चार माह), मनुस्मृति, वाल्मीकीय रामायण और महाभारत के चुने हुए अंश (एक वर्ष), मीमांसा, वैशेषिक, न्याय, योग, सांख्य और वेदान्त तथा दस उपनिषद् (दो वर्ष) और फिर ऐतरेय, शतपथ, गोपथ और साम इन चार ब्राह्मणों तथा चारों वेदों (छह वर्ष) का अध्ययन किया जाए। इन सबके अध्ययन में तेरह वर्ष का समय अपेक्षित होगा। परन्तु गुरूकुलों की शिक्षा संस्कृत व्याकरण, कल्प, “ाड़दर्शन, ब्राह्मण, आरण्यक और वैदिक संहिताओं तक ही सीमित नहीं हैं। आयुर्वेद (चिकित्साशास्त्र), धनुर्वेद (युद्धविद्या तथा राजनीतिशास्त्र), गान्धर्ववेद (संगीत-शास्त्र), अथर्ववेद (पदार्थविद्या तथा शिल्पविद्या), ज्योतिषशास्त्र (अंकगणित, बीजगणित, भूगोल, खगोल और भूगर्भ विद्या) और यन्त्रकला की शिक्षा के लिए भी उसमें स्थान है। 

महर्षि ने आयुर्वेद के लिए चार वर्ष, धनुर्वेद के लिए दो वर्ष, और गान्धर्व वेद आदि के लिए स्थूल रूप से दो वर्ष का समय रखा है। इस प्रकार गरूुकुल मं े शिक्षा का कुल समय इक्कीस साल के लगभग का है, जिसमें से तेरह वर्ष संस्कृत भाषा, वेद, वेदांग तथा अन्य शास्त्रों के अध्ययन में लगाये जाएंगे और आठ साल का समय गणित, पदार्थ विद्या (भौतिक विज्ञान) राजनीति आदि के अध्ययन में व्यतीत होगा। रामायण और महाभारत इतिहास के ग्रन्थ हैं। शिक्षा में उन्हें भी स्थान दिया गया है, जिससे इतिहास का अध्ययन ही अभिप्रेत है। यह तो सर्वथा स्पष्ट है कि महर्षि द्वारा प्रतिपादित पाठ्यक्रम में उन विषयों या विद्याओं को भी समुचित स्थान दिया गया है, जिन्हें आधुनिक प्रचलित भाषा में सामाजिक विज्ञान और भौतिक विज्ञान कहा जाता है। वेदशास्त्रों और धार्मिक साहित्य, चिकित्सा शास्त्र, राजनीतिशास्त्र, गणित, भूगोल आदि का भी सब छात्र-छात्राओं को अध्ययन करना चाहिए।

महर्षि दयानंद द्वारा निर्धारित पठन-पाठन विधि में जिन बहुत सी विद्याओं का उल्लेख है, क्या सब छात्र-छात्राओं को उन सबकी शिक्षा दी जाए या विद्यार्थी अपनी रूचि और आवश्यकतानुसार उनमें से कतिपय अध्ययन कर सकें इस प्रश्न पर मतभेद संभव है। परन्तु सत्यार्थ प्रकाश में स्पष्ट रूप से कहा है कि ‘‘पुरुषों को व्याकरण, धर्म और व्यवहार की विद्या न्यून-से-न्यून अवश्य पढ़नी चाहिए वैसे स्त्रियों को भी व्याकरण, धर्म, वैद्यक, गणित, शिल्पविद्या तो अवश्य ही सीखनी चाहिए। क्योंकि इनके सीखे बिना सत्या-सत्य का निर्णय, पति आदि के अनुकूल वर्तमान, यथायोग्य सन्तानोत्पत्ति, उनका पालन-वर्धन और सुशिक्षा करना, घर के सब कार्यों को जैसा चाहिए वैसा करना, कराना, वैद्यक विद्या से औषधवत् अन्न पान बनाना और बनवाना नहीं कर सकतीं, जिनसे घर में रोग कभी न आवे और लोग सदैव आनन्दित रहे। शिल्पविद्या के जाने बिना घर का बनवाना, वस्त्र-आभूषण आदि का बनाना, बनवाना, गणितविद्या के बिना सबका हिसाब समझना-समझाना, वेदादि शास्त्र विद्या के बिना ईश्वर और धर्म को न जान के अधर्म से कभी न बच सके।

यह स्पष्ट है कि महर्षि के मत में स्त्रियों के लिए वैद्यक, गणित और शिल्प विद्या की शिक्षा प्राप्त करना उपयोगी है और ये सभी बालिकाओं को पढ़ाई जानी चाहिए चाहे उनका गुरूकुल में विद्याध्ययन का काल केवल आठ वर्ष (आठ वर्ष की आयु से सोलह वर्ष की आयु तक, जबकि वे समावर्तन के अनन्तर गृहास्थाश्रम में प्रवेश कर सकती हैं) ही क्यों न हो। आठ वर्षों में ही उन्हें संस्कृत, व्याकरण तथा धर्म के अतिरिक्त गणित, वैद्यक और शिल्पविद्या भी सीखनी होगी। यह तभी संभव है, जबकि इनकी शिक्षा, संस्कृत व्याकरण आदि के साथ-साथ दी जाएं, पौर्वापर्यं रूप से नहीं। इससे पठन-पाठन विधि में विभिन्न विद्याओं के लिए समय का जो निर्देश दिया है, उसके अभिप्राय को समझने में कुछ सहायता अवश्य मिलती है।

महर्षि ने पाठ्यक्रम में आर्ष ग्रन्थों के अध्यापन पर अत्यधिक बल दिया है। उन्होंने बहुत से ऐसे ग्रन्थों के अध्यापन का निषेध किया है जो ऋषिकृत या आर्ष नहीं है। इनमें सब तन्त्रग्रन्थ, पुराण, उपपुराण, रघुवंश, किरातार्जुनीय आदि काव्य तुलसीकृत रामायण आदि भी अन्तर्गत हैं। महर्षि ने स्वयं यह प्रश्न उठाया है कि ‘‘क्या इन ग्रन्थों में कुछ भी सत्य नहीं?’’ इस प्रश्न के उत्तर में उनका मानना है कि ‘‘कुछ सत्य है किन्तु इसके साथ बहुत सा असत्य भी है इससे ‘विषसम्पृक्तान्नवत् त्याज्या:’ जैसे अत्युत्तम अन्न विष से युक्त होने के कारण छोड़ने के योग्य होता है उसी प्रकार ये ग्रन्थ हैं।’’

महर्षि के मत में इनमें बहुत से एसे े अंश हैं जो या तो सत्य नहीं हैं और या अन्य दृष्टियों से किशोरवय बालक-बालिकाओं को पढ़वाने के अयोग्य हैं। रघुवंश सदृश काव्यों में श्रृंगार रस की भी सत्ता है, जिसका आस्वादन ब्रह्मचर्य आश्रम में अनुचित माना जा सकता है। तुलसी कृत रामायण में पुराणों पर आधारित अनेक ऐसी कथाएं दी गई हैं जिन्हें सत्य व युक्ति संगत नहीं माना जा सकता है। स्मृति-ग्रन्थों तक में अनेक ऐसे प्रक्षिप्त श्लोक हैं, जिनका अभिप्राय सत्य सनातन वैदिक धर्म के अनुरूप नहीं है। इस दशा में यदि गुरुकुलों में उनके अध्यापन का महर्षि ने विरोध किया, तो इनका युक्तियुक्त कारण था। 

दूसरी सदी ईस्वी पूर्व में जब बौद्ध धर्म के विरूद्ध प्रतिक्रिया होकर वैदिक धर्म का पुनरूत्थान हुआ तो उसमें अनेक एसे े तत्वों का समावेश हो गया, जो पुरातन वैदिक मान्यताओं के अनुरूप नहीं थे। अनेक प्रकार के अन्धविश्वास एवं अनैतिक तत्व भी भारत के धर्म में समाविष्ट होने लग गये। तन्त्र ग्रन्थों तथा पुराणों आदि में ये तत्व विद्यमान हैं और इनका प्रभाव इस युग के काव्य ग्रन्थों पर भी है। इसलिए महर्षि का कहना है कि बालक-बालिकाएँ इन्हें न पढ़,े ताकि इनका कुप्रभाव उनके अविकसित मनों पर न पड़ सके। 

किशोर आयु के व्यक्ति श्रृंगार रस आदि की ओर सुगमता से आकृष्ट हो जाते हैं। इससे उनकी शिक्षा पर अवांछनीय प्रभाव पड़ सकता है। इसीलिए महर्षि ने इनका निषेध किया है।

शिक्षा का महत्व

महर्षि दयानंद सरस्वती ने अपने ग्रन्थों में शिक्षा को बहुत अधिक महत्व दिया है। उनके मत में व्यक्ति, समाज और राज्य की उन्नति तथा सुख-समृद्धि उसी दशा में सम्भव है, जब सब óी-पुरूष सुशिक्षित हों, सबको धर्म-अधर्म और कर्तव्य-अकर्तव्य का समुचित ज्ञान हो और विद्या तथा विज्ञान को सबके हित-कल्याण के लिए प्रयुक्त किया जाए। मनुष्य के लिए वास्तविक आभूषण उसकी विद्या व ज्ञान ही है, सोने-चाँदी के आभूषण नहीं। महर्षि के शब्दों में, ‘‘सोने-चाँदी, माणिक, मोती, मूँगा आदि रत्नों से युक्त आभूषणों के धारण करने से मनुष्य की आत्मा सुभूषित कभी नहीं हो सकती, क्योंकि आभूषणों के धारण करने से केवल देहाभिमान, विषयासक्ति और चोर आदि का भय तथा मृत्यु भी सम्भव है। संसार में देखने में आता है कि आभूषणों के योग से बालकादिकों की मृत्यु दुष्टों के हाथों से होती है।’’

‘‘सन्तानों को उत्तम विद्या, शिक्षा, गुण, कर्म और स्वभावरूप आभूषणों को धारण कराना माता, पिता, आचार्य और सम्बन्धियों का मुख्य कर्म है। जिन पुरूषों का मन विद्या के विलास में तत्पर रहता सुन्दरशील स्वभावयुक्त, सत्य भाषणादि नियम-पालन युक्त और जो अभिमान, अपवित्रता से रहित, अन्य की मलीनता के नाशक, सत्योपदेश, विद्या दान से संसारी जनों के दु:खों के दूर करने से सुभूषित, वेद-विहित कर्मों से पराये उपकार करने में रहते हैं वे नर और नारी धन्य हैं।’’

शिक्षा के महत्व को यजुर्वेद भाष्य (20/78) में महर्षि दयानंद ने इस प्रकार प्रकट किया है- ‘‘पशु भी सुशिक्षा पाये हुए उत्तम कार्य सिद्ध करते हैं, क्या फिर विद्या की शिक्षा से युक्त मनुष्य लोग सब उत्तम कार्य सिद्ध नहीं कर सकते।’’

‘‘विद्वान पुरूष और विदुषी स्त्रियों का मुख्य कर्तव्य यही है जो पुत्र और पुत्रियों को ब्रह्मचर्य और सुशिक्षा से विद्वान विदुषी सुन्दर शीलयुक्त नित्य किया करें।’’ (19/39)

‘‘पिता, पितामह और प्रपितामहों को योग्य है कि अपने कन्या और पुत्रों को ब्रह्मचर्य, अच्छी शिक्षा और धर्मोपदेश से संयुक्त करके विद्या और उत्तमशील से युक्त करे। ‘‘ 

‘‘माता-पिता और आचार्य का यही परम धर्म है जो सन्तानों के लिए अच्छी विद्या और अच्छी शिक्षा की प्राप्ति कराना।’’ (12/45)

वदे भाष्य में कितने ही स्थानो पर महर्षि ने शिक्षा के महत्व का प्िर तपादन किया है। मानव समाज के हित-कल्याण तथा उन्नति के लिए जो भी विचार महर्षि ने प्रस्तुत किए हैं, उन सबको क्रियात्मक रूप देने के लिए उन्होनं े उत्तम शिक्षा का ही आश्रय लिया है।

महर्षि दयानंद के विचार में मनुष्य के तीन शिक्षक होते हैं- माता, पिता और आचार्य। इनसे समुचित शिक्षा प्राप्त करके ही कोई व्यक्ति सुयोग्य, विद्वान्, धर्मात्मा तथा सदाचारी हो सकता है। शिक्षा पढ़ाना आचार्यों (अध्यापकों) का कार्य है। ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा उन्हÈ द्वारा प्रदान की जाती है। परन्तु बच्चों के प्रशिक्षण तथा उनकी शक्तियों के विकास का सूत्रपात माता-पिता द्वारा किया जाता है। महर्षि के शब्दों में ‘‘वह कुल धन्य! वह सन्तान बड़ा भाग्यवान्! जिसके माता और पिता धार्मिक विद्वान् हों। जितना माता से सन्तानों को उपदेश और उपकार पहुँचता है उतना किसी से नहीं। जैसे माता सन्तानों पर प्रेम और उनका हित करना चाहती है उतना अन्य कोई नहीं करता।’’

महर्षि दयानंद यह मानते हैं कि सन्तान की शिक्षा गर्भाधान के समय से ही प्रारम्भ हो जाती है। इसीलिए गर्माधान के समय पति-पत्नी दोनों के शरीर स्वस्थ होने चाहिएँ, दोनो प्रसन्न हों, दोनां े में परस्पर प्रीति हो और उन्हे किसी प्रकार का शोक न हो। गर्भावस्था में óी प्रसन्नचित्त रहे, स्वास्थ्यप्रद भोजन करे तथा अपने विचारों को शुद्ध रखे। सन्तान पर इसका प्रभाव बहुत अच्छा पड़ेगा।

सन्तान के उत्पन्न हो जाने पर उसकी प्रथम शिक्षिका उसकी माता होती है। माता को चाहिए कि सन्तान को सभ्य बनाने का यत्न करे, उसे ऐसी शिक्षा दे जिससे वह किसी अंग से कोई कुचेष्टा न कर पाए। जब वह कुछ-कुछ बोलने व समझने लगे, तब उसे शुद्ध उच्चारण करना सिखाए और यह भी शिक्षा दे कि परिवार में सब छोटों, बड़ों, मान्यजनों, विद्वानों तथा राजपुरूषों से किस प्रकार बोला जाए, उनके साथ कैसा व्यवहार किया जाए।

‘‘जैसे सन्तान जितेन्द्रिय, विद्याप्रिय और सत्संग में रूचि करे वैसा प्रयत्न करते रहे। व्यर्थ क्रीड़ा, रोदन, हास्य, लड़ाई, हर्ष, शोक, किसी पदार्थ में लोलुपता, ईष्र्याद्वेषादि न करें। सदा सत्यभाषण, शौर्य, धैर्य, प्रसन्नवदन आदि गुणों की प्राप्ति जिस प्रकार हो कराना चाहिए।’’

ये सब बाते बहुत छोटी आयु में ही बच्चों को सिखानी चाहिए और यह कार्य प्रधानतया माता का है। परन्तु पिता को भी उसके काम में हाथ बँटाना चाहिए। जब बच्चा कुछ बड़ा हो जाए, तो उसे अक्षराभ्यास प्रारम्भ करा देना चाहिए।

महर्षि दयानंद के विचार में जब बच्चे की आयु पाँच वर्ष की हो जाए, तब उसे देवनागरी अक्षरों का अभ्यास कराना शुरू कर देना उचित है। देवनागरी के साथ-साथ अन्य देशीय भाषाओं के अक्षरों का ज्ञान बचपन में ही करा देना चाहिए। पर छोटी आयु में अक्षराभ्यास की अपेक्षा दूसरो के प्रति समुचित व्यवहार, सदाचरण और धर्म का ज्ञान कराना अधिक उपयोगी है। इस प्रयोजन से बच्चों को अच्छे-अच्छे श्लोक व पद्य आदि कण्ठस्थ कराने चाहिए।

महर्षि दयानंद के अनुसार बालकों और बालिकाओं की शिक्षा का प्रारम्भ माता और पिता द्वारा इसी ढंग से किया जाना चाहिए पाँच वर्ष की आयु तक माता बच्चे की शिक्षिका होती है, फिर छठे वर्ष से आठवें वर्ष तक पिता को सन्तान का शिक्षक होना चाहिए। शिक्षा कार्य में माता-पिता का कर्तृत्व बच्चे की आठ वर्ष की आयु हो जाने पर समाप्त हो जाता है। इसके पश्चात् उसकी शिक्षा आचार्य द्वारा की जाती है। 

महर्षि ने शिक्षाविषयक अपने विचारों का प्रतिपादन शतपथ ब्राह्मण के इस वचन से प्रारम्भ किया है- ‘‘मातृमान पितृमानाचार्यवान् पुरूषो वेद।’’

शिक्षा में विज्ञान का स्थान

महर्षि दयानंद सरस्वती ने जिस पठन-पाठन विधि का प्रतिपादन किया है, उसमें विज्ञान की शिक्षा को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। उन्होंने लिखा ह ै कि ‘‘अथर्ववेद कि जिसको शिल्पविद्या कहते हैं उसको पदार्थ गुण विज्ञान, क्रियाकौशल, नानाविध पदार्थों का निर्माण, पृथ्वी से लेकर आकाशपर्यन्त की विद्या को यथावत् सीख के अर्थ अर्थात् जो ऐश्वर्य को बढ़ाने वाला है उस विद्या को सीख के दो वर्ष में ज्योतिषशास्त्र सूर्यसिद्धान्तादि जिसमें बीजगणित, अंक, भूगोल, खगोल और भूगर्भ विद्या हैं इसको यथावत् सीखें। तत्पश्चात् सब प्रकार की हस्तक्रिया यन्त्रकला आदि को सीखें।’’

वदे भाष्य में भी महर्षि ने अनेक स्थानो पर विज्ञान पढ़न-े पढ़ाने और शिल्प की शिक्षा पर जोर दिया है। ऐसे कुछ उद्धरण निम्नलिखित हैं- ‘‘इस संसार में विद्वानों कों चाहिए कि जो उन्होंने अपने पुरूषार्थ से शिल्पक्रिया प्रत्यक्ष कर रक्खी है उनको सब मनुष्यों के लिए प्रकाशित करें कि जिससे बहुत मनुष्य शिल्पक्रियाओं को करके सुखी हों।’’

‘‘मनुष्य लोग जैसे-जैसे विद्वानो के संग से विद्या को बढ़ावें वैसे-वैसे विज्ञान में रूचि वाले होवें।’’

‘‘मनुष्यों को चाहिए कि धर्मात्मा अध्यापक और उपदेशकों से विद्या और सुशिक्षा अच्छे प्रकार ग्रहण करके विज्ञान की वृद्धि सदा किया करें।’’

‘‘विद्वान् लोग अग्नि विद्या को आप धार के दूसरों को सिखावें।’’

‘’विचारशील पुरूषों को यह अवश्य जानना चाहिए कि जहाँ-जहाँ मूर्तिमान् लोक हैं वहाँ-वहाँ पवन और बिजली अपनी व्याप्ति से वर्तमान हैं। जितना मनुष्यों का सामथ्र्य है उतने तक इनके गुणों को जानकर पुरूषार्थ से उपयोग लेकर पूर्ण सुखी हों।’’

‘‘विद्वानों को चाहिए कि जैसे पदार्थों की परीक्षा से अपने आप पदार्थ विद्या को जाने वैसे ही दूसरो के लिए भी उपदेश करे।ं

महर्षि का यह मन्तव्य था कि विज्ञान और शिल्पविद्या का उपयोग कर आर्थिक उत्पादन में वृद्धि करनी चाहिए और देश-विदेश में दूर-दूर तक व्यापार के लिए जा-आकर अपने देश को समृद्ध बनाना चाहिए। यह तभी सम्भव है जबकि देश के शिल्पी व कारीगर विभिन्न पदार्थ विज्ञानों में निष्णात होकर यािन्त्रक शक्ति का उपयोग कर सके और भूि म, समुद्र तथा आकाश में चलने वाले ऐसे यानों का निर्माण करें जिन्हें चलाने के लिए वायु, अग्नि तथा विद्युतशक्ति का उपयोग किया जाए। इसीलिए महर्षि ने विज्ञान की शिक्षा पर बहुत ध्यान दिया है।

स्त्री शिक्षा

महर्षि दयानंद सरस्वती का आविर्भाव इस देश मे ऐसे समय हुआ था, जब शूद्र और स्त्री की शिक्षा पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा हुआ था। उस युग में स्त्री शिक्षा की कल्पना करना परम्परा और धर्माचार्यों का विरोध करने के साथ-साथ एक आश्चर्य था। इसलिए महर्षि की शिक्षा व्यवस्था की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता स्त्री शिक्षा है। उनका स्पष्ट अभिमत था कि जब तक स्त्रियाँ विदुषी नहीं होतÈ, तब तक उत्तम शिक्षा भी नहीं बढ़ती। अत: सब कन्याओं को पढ़ाने के लिये पूर्ण विद्या वाली स्त्रियों को नियुक्त करके सब बालिकाओं को पूर्ण विद्या और सुशिक्षा से युक्त करे, वैसे ही बालकों को भी किया करे। 

महर्षि ने मनुष्य को पूर्ण ज्ञानवान् बनाने के लिए तीन शिक्षक स्वीकार किये हैं, उनमें से माता को प्रथम और महत्वपूर्ण शिक्षक माना है। वे कहते हैं कि वह कुल धन्य, वह सन्तान बड़ा भाग्यवान, जिसके माता और पिता धार्मिक, विद्वान् हों। आगे वे कहते हैं कि जितना माता से सन्तानों को उपदेश और उपकार पहुँचता है, उतना किसी से नहीं। ऋग्वेद के एक मन्त्र की व्याख्या में व े स्त्री को एक वेद, दो वेद, तीन वेद, चार वेद और चार उपवेद, वेदांगों का उपदेश करने वाली तथा परमात्मा के निमित्त प्रयत्न करने वाली बतलाते हैं।

महर्षि दयानंद सरस्वती ने यह प्रतिपादित किया है, कि स्त्रियों को भी पुरुषों के समान ही शिक्षा दी जानी चाहिए। जैसे-राजनियम और जातिनियम द्वारा आठ वर्ष की आयु हो जाने पर बालकों के लिए गुरुकुलों में रहकर विद्याभ्यास करना अनिवार्य हो, वैसे ही बालिकाओं के लिए भी हो। लड़कियों के लिए पृथक पाठशालाएँ हों, जहाँ सब अध्यापिकाएँ व भृत्य स्त्रियाँ ही हों। लड़कियों को भी अर्थ सहित गायत्री मन्त्र का उपदेश किया जाए।

महर्षि दयानंद ने स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि ‘‘सब स्त्री और पुरुष अर्थात् मनुष्य मात्र को पढ़ने का अधिकार है।’’

‘‘ब्रह्मचय्र्येण कन्या युवानं विन्दते पतिम्’’ के इस मन्त्र को उद्धृत कर महर्षि कहते हैं कि ‘‘जैसे लड़के ब्रह्मचर्य सेवन से पूर्ण विद्या और सुशिक्षा को प्राप्त हो के युवती, विदुषी, अपने अनुकूल प्रिय सदृश स्त्रियों के साथ विवाह करते हैं वैसे (कन्या) कुमारी (ब्रह्मचर्येण) ब्रह्मचर्य सेवन से वेदादि शास्त्रों को पढ़ पूर्ण विद्या और उत्तम शिक्षा को प्राप्त युवती हो के पूर्ण युवावस्था में अपने सदृश प्रिय विद्वान् (युवानम्) पूर्णयुवावस्थायुक्त पुरूष को (विन्दते) प्राप्त होवे। इसलिए स्त्रियों को भी ब्रह्मचर्य और विद्या का ग्रहण अवश्य करना चाहिए।’’ ‘‘क्या स्त्री लोग भी वेदों को पढ़े?’’ यह प्रश्न उठाकर महर्षि ने इसका उत्तर इस प्रकार दिया है- ‘‘अवश्य, देखो श्रौत सूत्रादि में ‘इमं मन्त्रं पत्नी पठेत्’ अर्थात् स्त्री यज्ञ में इस मन्त्र को पढ़े। जो वेदादि शास्त्रों को न पढ़ी होवे, तो यज्ञ में स्वरसहित मन्त्रों का उच्चारण और संस्कृत भाषण कैसे कर सके। 

भारतवर्ष की स्त्रियों में भूषणरूप गागÊ आदि वेदादि शास्त्रों को पढ़ के पूर्ण विदुषी हुई थीं, यह शतपथबा्र ह्मण में स्पष्ट लिखा है। भला जो परूु “ा विद्वान् और स्त्री अविदुषी और विदुषी óी और पुरूष अविद्वान् हो, तो नित्यप्रति देवासुर संग्राम घर में मचा रहे, फिर सुख कहाँ? इसलिए जो स्त्री न पढ़े तो कन्याओ की पाठशाला में अध्यापिका क्यों कर हो सके तथा राजकार्य न्यायाधीशत्वादि गृहाश्रम का कार्य जो पति को स्त्री और óी को पति प्रसन्न रखना, घर के सब काम स्त्री के आधीन रहना, इत्यादि काम बिना विद्या के अच्छे प्रकार कभी ठीक नहीं हो सकते।’’

स्त्रियों की स्थिति पुरूषों के समकक्ष होनी चाहिए और उन्हें भी किन कारणों से विद्याभ्यास करना चाहिए-

इसका इससे स्पष्ट व युक्तियुक्त प्रतिपादन सम्भव नहीं है, स्त्रियों को अध्यापिका का कार्य भी करना है, न्यायाधीश के पद पर नियुक्त होकर न्याय भी करना है और घर के काम भी उन्हीें के अधीन रहते हैं। शिक्षा के बिना इनका ठीक प्रकार से सम्पादन वे कर नहीं सकतÈ। पारिवारिक सुख-शान्ति के लिए भी पति-पत्नी का समान रूप से शिक्षित होना आवश्यक है। प्राचीन समय में आर्य स्त्रियाँ सुशिक्षित होती थ, इसे महर्षि ने इस प्रकार स्पष्ट किया है- ‘‘देखों! आर्यावर्त के राजपुरूषों की स्त्रियाँ धनुर्वेद अर्थात् युद्धविद्या भी अच्छे प्रकार जानती थ, क्योंकि जो न जानती होतÈ तो कैकये ी आदि दशरथ आदि के साथ युद्ध में क्यों कर जा सकते और युद्ध कर सकते।’

स्त्रियों को किन विद्याओं की शिक्षा अवश्य दी जानी चाहिए, इस सम्बन्ध में महर्षि का यह मत है कि ‘‘जैसे पुरूषों को व्याकरण, धर्म और व्यवहार की विद्या न्यून से न्यून अवश्य पढ़नी चाहिए वैसे स्त्रियों को भी व्याकरण, धर्म, वैद्यक, गणित, शिल्पविद्या तो अवश्य ही सीखनी चाहिए। क्योंकि इनके सीखे बिना सत्यासत्य का निर्णय, पति आदि के अनुकूल वर्तमान यथायोग्य सन्तानोत्पत्ति, उनका पालन वर्धन और सुशिक्षा करना, घर के सब कार्यों को जैसा चाहिए वैसा करना कराना, वैद्यक-विद्या से औषधवत् अन्न पान बनाना और बनवाना नहीं कर सकतÈ जिससे घर में रोग कभी न आवे और सब लोग सदा आनन्दित रहे। शिल्पविद्या के जाने बिना घर का बनवाना, वस्त्र आभूषण आदि का बनाना बनवाना, गणित विद्या के बिना सबका हिसाब समझना-समझाना, वेदादि शास्त्रविद्या के बिना ईश्वर और धर्म को न जाने के अधर्म से कभी न बच सके।’’

महर्षि दयानंद सरस्वती के अनुसार स्त्रियों को कम-से-कम शिक्षा अवश्य ही प्राप्त करनी चाहिए, उसमें व्याकरण, धर्म, चिकित्साशास्त्र, गणित और शिल्पविद्या अन्तर्गत हैं। जो स्त्री इन सबकी शिक्षा प्राप्त करें, वह समाज में अपनी समुचित स्थिति प्राप्त किए बिना कैसे रह सकती है। महर्षि का मत है, कि पुरूष और स्त्री तब विवाह करें, जबकि वे ब्रह्मचर्य आश्रम में रहकर चारों वेदों या कम-से-कम एक वेद का साँगोपाँग अध्ययन कर चुके। उनके अपने शब्द इस प्रकार हैं- ‘‘जब यथावत् ब्रह्मचर्य में आचार्यानुकूल वर्त्तकर, धर्म से चारों वेद, तीन या दो अथवा एक वेद को सांगोपाँग पढ़ के जिसका ब्रह्मचर्य खण्डित न हुआ हो वह पुरूष व स्त्री गृहाश्रम में प्रवेश करें।

महर्षि के मत में वेदों का अध्ययन जैसे पुरूषों के लिए आवश्यक है, वैसे ही स्त्रियों के लिए भी है। दोनों के लिए बह्म्र चर्य आश्रम में रहकर आचार्य के पथ-प्रदर्शन में विद्याध्ययन करना आवश्यक है, तभी वे विवाह के अधिकारी होते हैं।

वदे भाष्य में भी महर्षि दयानंद सरस्वती ने अनेक स्थानो पर स्त्री शिक्षा की महत्ता एवं उपयोगिता का निरूपण किया है। ‘‘कन्याओं को चाहिए कि ब्रह्मचर्य से विद्या और सुशिक्षा को समग्र ग्रहण करके अपनी बुद्धियों को बढ़ावें।’’  जो स्त्रियों के बीच में विदुषी स्त्री हो वह सब स्त्रियों को सदा सुशिक्षा करें जिससे स्त्रियों में विद्या की वृद्धि हो।’’

‘‘हे राजा आदि पुरुषों! तुम लोग इस जगत में कन्याओं को पढ़ाने के लिए शुद्ध विद्या की परीक्षा करने वाली स्त्री लोगों को नियुक्त करो। जिससे ये कन्या लोग विद्या और शिक्षा को प्राप्त हो के जवान हुई प्रियवर पुरुषों के साथ स्वयंवर विवाह करके वीर पुरुषों को उत्पन्न करें।’’

जो कुमार और कुमारी दीर्घ ब्रह्मचर्य सेवन से साँगोपाँग वेदों को पढ़ और अपनी-अपनी प्रसन्नता से स्वयंवर विवाह करके ऐश्वर्य के लिए प्रयत्न करें।’’

‘‘जो कन्या लोग चौबीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य सेवन और जितेन्द्रिय होकर छ: अंग अर्थात् शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरूक्त, छन्द और ज्योतिष, उपांग अर्थात् मीमांसा, वैशेषिक, न्याय, योग, सांख्य और वेदान्त तथा आयुर्वेद अर्थात् वैद्यक-विद्या आदि को पढ़ती हैं, वे सब संसारस्थ मनुष्य जाति की शोभा करने वाली होती हैं।’’

स्त्रियों के लिए केवल अक्षराभ्यास या साधारण शिक्षा ही नहीं है, उन्हें अंगों और उपांगों के साथ पूर्ण शिक्षा प्राप्त करनी है और विद्या में पुरुषों से पीछे नहीं रहना है। महर्षि के शब्दों में ‘‘जैसे पुरुष ब्रह्मचर्य से विद्या पढ़ के सब पदार्थों के गुण, कर्म स्वभावों को जानकर विद्वान होते हैं वैसे ही स्त्रियाँ भी हों।’’

जहाँ तक ब्रह्मचर्य आश्रम और वहाँ रहकर विद्याभ्यास का प्रश्न है, महर्षि ने बालकों और बालिकाओं में कोई भदे नहीं किया है। दोनों के लिए सत्य शास्त्रों और विविध ज्ञान-विज्ञान की समान रूप से आवश्यकता व उपयोगिता है, क्योंकि गृहस्थ जीवन में दोनों को एक-दूसरे का सहयोगी बनकर रहना है।

शिक्षा-दर्शन की प्रासंगिकता

महर्षि दयानंद सरस्वती ने शिक्षा-संस्थाओं एवं शिक्षा प्रणाली के लिए जिन सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है, उनका अपना विशेष महत्व है। शिक्षा के लिए जो अनेकविध पद्धतियाँ इस समय भारत तथा अन्य देशों में प्रचलित हैं, महर्षि दयानंद द्वारा प्रतिपादित शिक्षा पद्धति को भी उन्हीं में से एक समझना या उन्हें का विकल्प रूप मानना किसी भी प्रकार संगत नहीं है। महर्षि दयानंद के शिक्षा विषयक मूलतत्वों को क्रियात्मक रूप देने का परिणाम एक ऐसे समाज का निर्माण होगा, जिसमें सबको एक समान अवसर प्राप्त हो और जो पूर्ण तथा सामाजिक न्याय पर आधारित हो।

वस्तुत: महर्षि दयानंद द्वारा प्रतिपादित शिक्षा प्राणाली एक ऐसे क्रान्तिकारी एवं प्रगतिशील कार्यक्रम को प्रस्तुत करती है जिससे मानव समाज के सब अन्याय विषमता और शोषण दूर हो जाएं, और मनुष्यों के पारस्परिक सम्बन्धों का आधार औचित्य तथा न्याय हो जाए। समाज के वास्तविक लोक कल्याण के लिए महर्षि द्वारा शिक्षा विषयक जो मौलिक विचार प्रस्तुत किये गए हैं, उनके सार्वभौम और सार्वकालिक महत्व पर ध्यान देना अति आवश्यक है।

उन्नीसवÈ सदी के मध्य में भारत की जो सामाजिक दशा थी, उसे दृष्टि में रखते हुए जब महर्षि द्वारा प्रतिपादित शिक्षा प्रणाली पर विचार किया जाता है, तो उसके क्रान्तिकारी एवं प्रगतिशील तत्वों पर आश्चर्य होना स्वाभाविक है। महर्षि दयानंद ने केवल स्त्री शिक्षा का समर्थन ही नहीं किया, अपितु पुरूषों और स्त्रियों की शिक्षा को एक समान महत्व दिया। इसी प्रकार शूद्रों और अतिशूद्रों (जिन्हे आजकल हरिजन कहा जाता है और जो अछूत माने जाते हैं) को भी शिक्षा की ठीक वही सुविधाएँ दी जानी चाहिए जो द्विजों व सम्भ्रान्त वर्ग के बालक-बालिकाओं को प्राप्त हों- इनके अधिक प्रगतिशील विचारों की क्या कल्पना की जा सकती है? ये विचार महर्षि ने उस समय प्रतिपादित किये थे, जब ‘स्त्री शूद्रोनाधियाताम्’ का सिद्धान्त क्रियान्वित हो रहा था, स्त्रियों के लिए शिक्षा का तो प्रश्न ही क्या, उनका घर से बाहर जाना भी बुरा माना जाता था, और शूद्रों को तो साधारण मानव अधिकार भी प्राप्त नहीं थे। 

स्त्रियों के लिए महर्षि ने केवल अक्षराभ्यास एवं साधारण पढ़ाई लिखाई का ही प्रतिपादन नहीं किया, अपितु उन्हें चिकित्साशास्त्र, धनुर्विद्या (युद्धनीति) शिल्प और पदार्थ विज्ञान की शिक्षा दिये जाने पर भी बल दिया। महर्षि दयानंद के मन्तव्य के अनुसार स्त्रियों को उत्तम गृहिणी तो होना ही चाहिए पर साथ ही यह भी आवश्यक है कि व े सच्चे अर्थों में पति की सहधर्मिणी भी हों। यह तभी संभव है, जबकि वे भी उच्च शिक्षा प्राप्त करें और एसे े ही पुरुष के साथ विवाह करें जो योग्यता तथा गुण-कर्म में उनके अनुरूप हो।

सन्दर्भ -
  1. शिक्षा दर्शन, पृ0 11. 
  2. शिक्षा के सिद्धान्त, पृ0 281.
  3. सत्यार्थ प्रकाश, द्वितीय समुल्लास, पृ0 24. 
  4. ऋषि दयानंद: सिद्धान्त और जीवन दर्शन, पृ0 293, 294, 295. 
  5. आर्य समाज का इतिहास, भाग- 1, पृ0 481, 482. 
  6. स0 प्र0 द्वितीय समुल्लास, पृ0- 23, 24. 
  7. आर्य समाज का इतिहास, भाग- 1, पृ0 475 
  8. स0प्र0 तृतीय समुल्लास, पृ0- 45 
  9. आर्च समाज का इतिहास, भाग- 1, पृ0 475, 476. 
  10. आर्य समाज का इतिहास, प्रथम भाग, पृ0-462, 463.

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