तबले की उत्पत्ति एवं आविष्कार

तबले की उत्पत्ति एवं आविष्कार

तबला एक वाद्य यंत्र है। संगीत में वर्तमान समय में तबला महत्वपूर्ण ताल वाद्य के रूप में स्थान रखता है। संगीत, नृत्य विधा या वाद्य वादन की कोई भी विधा तबले के बिना अधूरी जान पड़ती है। तबला, दाहिना और बायाँ दो अलग-अलग संरचनाओं का संयुक्त रूप है। दाहिने को तबला तथा बांए को डग्गा कहते हैं। दोनों को एक साथ ‘तबला जोडी’ कहा जाता है।

तबला शब्द की व्युत्पत्ति

शब्द संरचना की दृष्टि से तब्ल शब्द मूलतः ‘त’ ‘ब’ और ‘ल’ इन तीन वर्णों से मिलकर बना है। 

मध्ययुग में मृदंग अर्थात् पखावज को बीच से काटकर दो हिस्सों में रखकर बजाने से तबला की उत्पत्ति हुई है। इस तरह पखावज के दो भाग करने पर भी उन्हें ऊध्र्वमुखी रूप में बजाया जाना सम्भव हुआ अर्थात् पखावज दो भागों में बँटकर भी एक नए वाद्य के रूप में बोला अतएव ‘तब भी बोला’ शब्दों का अपभृंष होकर तब भी + बोला = तब बोला तब्बोला तबोला तबला शब्द की व्युत्पत्ति हुई। 

तबला वादन प्रक्रिया के विषय में पखावज वादकों का विषेश योगदान होने पर भी पखावज को दो भागों में विभक्त करके तबला वाद्योत्पत्ति ‘‘तबबोला’’ से ‘तबला’ शब्द की व्युत्पत्ती का तर्क संगत वैज्ञानिक समाधान नहीं होता। क्योंकि बनावट की दृष्टि से पखावज को दो भागों में काट देने पर उसका प्रत्येक भाग विदेशी अवनद्व ‘वाद्य’ कागों के दोनों भागों की तरह नीचे से खुला होना चाहिए जबकि तबला वाद्य के दोनों भागों में नीचे के पेंदे पूरा  बन्द रहते है। 

मध्य युग में ‘तबला’ वाद्य के पूर्ण रूप ‘तब्बोला’ या ‘तबोला’ नामक किसी अवनद्व वाद्य का कोई उल्लेख नहीं मिलता बल्कि उसके स्थान पर ‘तब्ल’ या ‘तबल’ शब्दों का उल्लेख मध्यकालीन संस्कृत, फारसी, हिन्दी, असमियां और उर्दू साहित्य में अवश्य मिलता है। 

अतएव इन आधारों पर पखावज को दो भागों में काटकर तबले की उत्पत्ति और तब ‘भी’ बोला शब्दों से ‘तबला’ शब्द की व्युत्पत्ति किवदंती मात्र सिद्ध होती है। 

तबले की उत्पत्ति एवं आविष्कार

संगीत शास्त्रियों द्वारा तबले की उत्पत्ति एवं आविष्कार के विषय में मत- प्राचीन काल से ही अनेक वाद्य हमारे सामान्य जन जीवन के सांस्कृतिक एवं कलात्मक पक्षों से सम्बन्धित रहे हैं भुवनेश्वर मन्दिरों की शिल्प मूर्तियों में हमें ऐसे अनेक ताल वाद्यों के चित्र मिलते हैं। जिनका स्वरूप आज के तबले की जोड़ी जैसा है। ये गुफायें लगभग ईसा पूर्व 200 वर्ष से लेकर 16 वीं शताब्दी के काल की ही हैं। ये मूर्तियाँ एवं शिल्प उस समय के जन जीवन के प्रतीक हैं। इससे यह होता है, कि कलाकार अपने युग का वर्णन अपनी कला के माध्यम से करता है। इन सभी तथ्यों के आधार पर हम कह सकते हैं कि उत्तर भारत की गायन शैली में ख्याल शैली का प्रवेश 14 वीं सदी से प्रारम्भ हो गया था। यह युग तबले के लिए विषेश महत्व रखता है। 

वी0 सी देव के अनुसार :-’’6वीं शताब्दी के बादामी के एक शिल्प में तबला डग्गा जैसे वाद्य को बजाते हुए एक व्यक्ति की मूर्ति मिली है। उस शिल्प में दायाँ वाद्य ऊँचा है। जबकि बायाँ बाद्य उससे बिल्कुल आधा है। यह षिल्पाकृति ही आधुनिक तबले डग्गा का प्रारम्भिक रूप क्यों न हो।’’ कि बजाने में असुविधा होने के कारण दोनों वाद्यों की ऊँचाई एक सी कर दी गई होगी। ‘‘बादामी का यह शिल्प 6वीं शताब्दी का है। इसके 800 वर्ष पूर्व अर्थात् ईसा पूर्व 200 वर्ष की एक बौद्ध गुफा में हमें एक इन्द्र शिल्प मिलता है। जिसमें तबले जैसे वाद्य का तथा उसकी वाटिका का स्पष्ट चित्रांकन किया गया है। महाराष्ट्र के पूर्व नगर के निकट भाजा नाम की गुफा बौद्ध धर्म के हीनयान पंथ के उन्नित काल में श्रंड राजाओं के समय की है। ऐसा पुरातत्व विभाग की पत्रिका में भी मिलता है। भाजा की इन गुफाओं पर श्रंडकाल की छाप स्पष्ट दिखाई देती है।’’

‘‘गुफा न0 14 इन्द्र शिल्प लगभग बारह फीट ऊँचा है। उसमें इन्द्र ऐरावत पर गज संचालन कर रहे है। उनके पीछे एक ध्वज बाहक है। उसमें उधान का भी कुछ दृश्य है। उसके नीचे एक नृत्य गोष्ठी का चित्रांकन है। शिल्प में आसन पर बैठे राजा को एक चामरधारिणी स्त्री चामर हिला रही है। सामने एक नृतकी नृत्य कर रही है। एवं एक वीणावादक वादन में निमग्न हैं। पास में ही एक स्त्री वाटिका खड़ी है, जो सामने रखे दो चर्म वाद्य बुद्ध ताल वाद्यों को दोनो हाथों से बजा रही है।’’ आधुनिक तबला जोड़ी के साथ उसका सामंजस्य स्पष्ट दिखाया है। तथा इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि ईसा पूर्व द्वितीय सदी तबले जैसे वाद्य का प्रचलन भारत में था। उन दिनों उसका उपयोग कदाचित लोक वाद्य के रूप में होता था उसका नाम भी कुछ ही और होगा। ऐसा विश्वास है कि वे तबला वाद्य की प्राचीनता एवं भारतीयता के विवादास्पद प्रश्न को सुलझाकर उसे नवीन मोड़ देने में सफल होंगे। महाराष्ट्र के पहाड़ में अंकित यह गुफा शिल्प समय के थपेड़े खाकर कुछ क्षति ग्रस्त हो गया है। परन्तु फिर भी षिल्पाकृति के आधार पर तबले की उत्पत्ति को प्रमाणित किया जा सकता है।

कुछ अन्य विद्वानों के अनुसार- तबले को विदेशों से आया माना गया है। उनके अनुसार वह अरेबियन, सुमेरियन, मेसोपोटेमियन, अथवा फारसी संस्कृति से सम्बन्धित विदेशी ताल वाद्य है प्राचीन काल में अरेबिया में तबला और नक्कारा जैसे वाद्य सैनिकों को युद्ध में प्रोत्साहित करने हेतु प्रयुक्त होते थे। घोड़े या ऊँट की पीठ पर रख करके वह लकड़ी से बजाया जाता था जिसे तब्ल जंग कहा जाता था। अरब पेषों में आज भी तब्ल जंग प्रसिद्ध बाद्य है, जो कमर पर बाँधकर या ऊँट की पीठ पर रखकर लकड़ी से बजाया जाता है। कुछ विद्वानों की धारणा है कि इसी तब्ल जंग से ‘‘तबला’’ बना है। अत: तबला विदेशी वाद्य है और यवनों के साथ भारत आया है।

अन्य विद्वानों के अनुसार तबले का उद्भव पंजाब प्रान्त के दुक्कड़ नामक वाद्य से हुआ है। दुक्कड़ का अर्थ है दो और वह वाद्य भी तबले के समान दो भागों में होता है। अत: इस मत के पोशक तबले को उद्भव इसी दो भाग वाले दुक्कड़ का परिश्कृत रूप बतलाते हैं।

कुछ विद्वान तबले का जन्म उध्र्वक एवं आलिंग्य से हुआ मानते हैं। भरत कालीन त्रिपुश्कर का जो वर्णन भरत के नाट्य शास्त्र में मिलता है, उसके तीन अंग बतलाये गये है- 1. आँकिक, 2. उध्र्वक, 3. आलिंग्य। आठवीं एवं नवी शती के पश्चात त्रिपुश्कर के रूप में परिर्वतन हुआ। उध्र्वक एवं आलिंग्य भाग हटा दिये और रह गया केवल आँकिक। आज मृदंग का जो स्वरूप प्रचलित है वह भरत कालीन त्रिपुश्कर का केवल आँकिक भाग है। अत: इस मत के विद्वान यह मानते है कि खड़े रहकर बजने वाले भरत कालीन मृदंग के दो भागों का प्रयोग ख्याल गायकी के साथ एक स्वतन्त्र ताल वाद्य के रूप होने लगा जो यवन काल में कुछ परिवर्तन के पश्चात तबला जोड़ी के नाम से प्रसिद्ध हुआ होगा। 

अन्य कुछ विद्वान प्राचीन अवनद्ध वाद्य ‘‘दर्दुर’’ एवं ‘‘नक्कारों’’ का सम्बन्ध तबला की जोड़ी मानते है। प्राचीन मतों का विषलेशण करने से स्पष्ट होता है कि कुछ मतानुसार तबला लोक वाद्य से है जबकि कुछ मतानुसार तबला भरत कालीन ताल वाद्यों से है। प्रमाणित इतिहास के अभाव में हम किसी एक मत का प्रतिपादन नहीं कर सकते, तथापि इतना निश्चित रूप से कह सकते हैं कि तबला पूर्णत: एक भारतीय ताल वाद्य है जो अन्य स्वरूपों में इस देष में था।

हजरत अमीर खुसरों द्वारा तबला का आविष्कार संबंधी मत-13वीं शताब्दी में दिल्ली के हजरत अमीर खुसरों ने तबला का आविष्कार किया। आचार्य वृहस्पति के अनुसार इस मत का सर्वप्रथम उल्लेख अवध के वाजिद अलीषाह के समय लखनऊ में हकीम मुहम्मद करम इमाम ने अपने ग्रंथ ‘‘मादुनल मूसीकी’’ में इस तरह किया है।

हजरत अमीर खुसरों को तब्ल का आविष्कारक मानने वालों के मत पर विचार करने से कुछ विषेश तथ्य सामने आते है। जिस प्रकार हजरत अमीर खुसरों जिसका समय 13वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से चौदहवीं शताब्दी के पूर्वाध (जन्म सन् 1253 और मृत्यु सन् 1325) तक है। उन्होने स्वंय अपने ग्रन्थों में तब्ल या तबल नामक वाद्य का उल्लेख किया हैं इसके अतिरिक्त हजरत अमीर खुसरों ने लगभग 300 वर्ष बाद तक भी तबल शब्द का वर्णन युद्ध के नगाडे़ के अर्थ में किया है। जिसका पता सिखों के ‘गुरू ग्रन्थ साहिब’ और मलिक मुहम्मद जायसी कृत ‘पद्मावत’ महाकाव्य से मिलता है।

मनोरंजन प्रधान देषी संगीत की कलात्मक विधाओं के साथ बजाये जाने वाले अवनद्व वाद्य के रूप में तबले का उल्लेख अठारहवीं शताब्दी से पहले किसी ग्रन्थ में नहीं मिलता। हजरत अमीर खुसरों के समय अर्थात् तेरहवीं शताब्दी से लेकर 17वीं शताब्दी तक कलात्मक अवनद्व वाद्य के रूप में तबले का उल्लेख न होना यह प्रमाणित करता है कि भारतीय संगीत में कलात्मक वाद्य के लिए तबला शब्द हजरत अमीर खुसरों के बाद में प्रचलित हुआ है।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि सत्रहवीं शताब्दी तक लिखे गये मध्यकालीन ग्रंथों में तबला या उसके वादों का कोई जिक्र नहीं मिलता ऐसा लगता है कि हजरत अमीर खुसरों द्वारा तबला कलाकारों में प्रचलित हुई इसी गलतफहमी से लोगों ने तेरहवीं शताब्दी के हजरत अमीर खुसरों को तबले के आविष्कार का श्रेय दे दिया होगा। पिछले कुछ वर्षों तक विद्वानों एवं संगीतज्ञों में एक भ्रामक धारणा व्याप्त थी कि हजरत अमीर खुसरों (सन् 1275 से 1325 ई0) ने तबले के आविष्कार किया, इसका कारण मात्र यह था कि सन् 1853 ई0 में हकीम मौहम्मद करम इमाम द्वारा ऊर्दू भाषा में लिखी गयी पुस्तक मउदन-उल-मूसीकी में तबले के आविष्कारक का नाम खुसरों हुआ। यह सत्य है, कि अमीर खुसरों ने अपनी कला कौशल से भारतीय संगीत को समृद्ध किया एवं नयी नवीन तालों की रचना करके ताल शास्त्र के भण्डार को धनी बनाया। किन्तु वे तबले के आविष्कारक थे यह धारणा निर्मूल है।

किसी भी मध्यकालीन पुस्तक में तबले के जन्मदाता के रूप में अमीर खुसरों का उल्लेख नहीं मिलता। हजरत अमीर खुसरों ने अपनी फारसी कृत एजाजे खुषरबी बादशाह के सम्मुख बजाये जाने वाले जिन वाद्यों का उल्लेख किया है। उनमें से तब्ल एक है। फारसी भाषा में प्रत्येक वाद्य के लिए तब्ल शब्द प्रयोग किया जाता है। तब्ल शब्द का अर्थ वे वाद्य थे जिनके ऊपर का भाग सपाट था मृदंग, भेरी, नक्कारा आदि सभी अवनद्व वाद्य इस श्रेणी में आते हैं अत: अमीर खुसरों ने अपने ग्रंथ में तब्ल शब्द का प्रयोग किस अर्थ में किया है यह कहना कठिन है अबुल फजल ने अई न-ई-अकबरी में अकबर युग के 36 संगीत कलाकारों के नाम गिनाये हैं, किन्तु उनमें एक भी तबला वादक का उल्लेख नहीं किया है मोहम्मद शाह रंगीले के युग तग (ई0 स0 1719 से ई0 स0 1748) कहीं किसी पुस्तक में हमें तबला वाद्य का और तबला वादकों की कोई चर्चा नहीं मिलती।

तबले के संबंध में गोपेश्वर वेदोपाध्याय का कथन है कि सागर अलाउद्दीन की सभा के अन्यतम् विद्वान अमीर खुसरों को तबला सृश्टो कहकर अनेक लोग भूल सकते है। हमें इस बात की प्रमाणित शहादत मिलती है कि 11वीं सदी के प्रारम्भ में तबले का रिवाज यहाँ हो चुका था। हजरत अमीर खुसरों के जन्म के सैकड़ों वर्ष पहले तबला भारत में था। इसके अविश्कार से हजरत इमीर खुसरों का कोई संबंध नहीं है। हम इतना ही कह सकते है कि तब्ल फारसी शब्द है और अन्तिम मुगल बादशाह आलम तक के युग में हमें किसी तबला वादक का नाम नहीं मिलता। अत: हम जनाब रसीद मलिक से सहमत हैं। कि हजरत अमीर खुसरों तबले के आविष्कारक नहीं है।

आधुनिक तबला वाद्य का सम्बंध वस्तुत: तेरहवीं शताब्दी के सुप्रसिद्ध विद्वान कवि हजरत अमीर खुसरों से न होकर 18 वीं शताब्दी के संगीतज्ञ खुसरों खाँ से था। ‘‘खुसरों नाम साम्य के कारण भ्रंमवष या तबले की महत्ता प्रतिश्ठित करने के लिए आगे चलकर 19वीं शताब्दी में कलाकारों ने तबला आविष्कारक अमीर खुसरों से जोड़ दिया। अतएव हजरत अमीर खुसरों द्वारा तबला वाद्य के आविष्कार का मत आधारहीन तथा भ्रमपूर्ण हैं।

इसमें कोई सन्देह नहीं है कि विद्वान सिधार खाँ या सुधार खाँ नाम को तबला वाद्य के विकास व प्रचार में खुसरों खाँ का विषेश योगदान रहा है और सितार खाँ या सुधार खाँ उन्हीं के उपनाम रहे थे। सम्भवत: इसलिए कुछ लोग खुसरों खाँ (भ्रमवष) हजरत अमीर खुसरों और कुछ लोग सिधार खाँ या सुधार खाँ को तबले का आविष्कारक मानने लगे। 

विजय शंकर ने अपनी पुस्तक तबला पुराण में लिखा है- ‘‘जब पखावज की दो चार बद्वियाँ कट जाने से ही उससे सही ध्वनि नहीं निकलती है तो पूरा पखावज काट देने से कौनसी ध्वनि निकली होगी ? हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि मात्र ढब-ढब की आवाज को सांगीतिक भाषा में बोलना नहीं कहते। साजों के बोलने का अभिप्राय सांगीतापयोंगी ध्वनि से होता है। ताल प्रकाश पुस्तक की भूमिका में प्रसिद्ध ताबलिए पं0 किशन महाराज ने भी इस तथ्य के प्रति अपनी असहमति व्यक्त की है। अगर इस आधार पर तबले की उत्पत्ति मान भी ले तब भी आकार आदि का प्रश्न उठ खड़ा किया गया होगा तो उसका नीचे का पृथ्वी तल तक टिका हिस्सा निःसंदेह खुला रहा होगा, जैसा कि पाश्चात्य वाद्यो कांगो, वांगो में होता है। लेकिन तबले में ऐसा नहीं है। साथ ही आज तक किसी सांगीतिक ग्रंथ में तब भी बोला, तब बोला या तब्बोला नामक किसी वाद्य का कहीं उल्लेख नहीं मिलता।’’

खब्बे हुसैन खाँ ठोलकिए द्वारा तबला आविश्कार सम्बन्धी मत- कुछ लोगों के मतानुसार कुदऊसिंह के समकालीन खब्बे हुसैन खाँ ठोलकिए तबले के आविश्कारक थे। ऐसी किंवदंती है, कि कुदऊसिंह के पखावज वादन के साथ खब्बे हुसैन खाँ के ठोलक वादन की प्रतियोगिता हुई थी। परन्तु कुदऊ सिंह पखावजी की परम्परा के सुप्रसिद्ध पखावज वादक स्व0 पं0 अयोध्या प्रसाद के मतानुसार खब्बे हुसैन खाँ ठोलकिए वास्तव में कुदऊसिंह पखावजी का समकालीन न रहकर उनके गुरू लाला भवानीदीन पखावजी का समकालीन था और यह प्रतियोगिता खब्बे हुसैन खाँ और भवानीदीन के बीच हुई। मादुनल यूसीकी से लेकर हकीम मुहम्मद करम इमाम ने भी बादशाह मुहम्मद शाह रंगीले के दरबार में भवानीदास, उर्फ दास जी पखावजी द्वारा पखावज बादन का उल्लेख किया गया है।
 
उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक तबले को मूलत: भारतीय अवनद्व वाद्य स्वीकार किया गया था। और उस समय तक अमीर खुसरों खाँ या खब्बे हुसैन का नाम तबला अविश्कारक के रूप में संगीत में इंगित नहीं हुआ था। मुहम्मद करम इमाम के उक्त कथानुसार तबले को भारतीय परम्परा को वाद्य माना गया है। शोद्यकत्री ने संगीतज्ञों में प्रचलित तबला आविष्कार सम्बन्धी किंवदतियों से निष्कर्ष निकलने का प्रयास किया है, कि अठाहरवीं शताब्दी तक उत्तर भारतीय कलात्मक संगीत में जोड़ी के रूप में बजाये जाने वाले एक विषेश ऊध्र्वमुखी अवनद्व वाद्य के लिए संगीत में तबला नाम जन समाज में प्रचलित हो चुका था। 

तबले के वर्णों की उत्पत्ति 

तबले के निर्माण के पश्चात उस पर बजाने के लिए वर्णों का आविष्कार किया गया। वाद्य संगीत में ध्वनि उत्पन्न करने के लिए विभिन्न प्रकार के आघात को संगीत की भाषा में ‘‘बोल’’ या ‘‘वर्ण’’ कहा जाता है। विभिन्न वाद्यों में विभिन्न वर्णो का प्रयोग किया जाता है।
 
अवनद्ध वाद्यों के बोल समूह को संगीत रत्नाकर में पाट कहा गया है। इस शास्त्र में हस्तपाट का भी उल्लेख हैं इसी प्रकार तबले के भी कुछ बोल निश्चित है जिन्हें तबले के वर्ण कहते है। प्रथम मत के अनुसार कुल सात वर्ण है। तथा द्वितीय मत के अनुसार 10 वर्ण है। अधिकांश रूप से विद्वान द्वितीय मत को ही मानते हैं। दाहिने तबले पर बजाने वाले 6 वर्ण हैं-
  1. ता या ना
  2. तिं या ती
  3. दिं या थुँ
  4. ते या ति
  5. रे या ट
  6. तू, ते
बाँये तबले पर बजने वाले दो वर्ण हैं-
  1. घे या गे
  2. के, की, कत्
दोनो तबलों पर संयुक्त रूप से बजने वाले दो वर्ण हैं-
  1. धा
  2. धिं
तबले में इन वर्णों के आधार पर विभिन्न प्रकार की बन्दिषों का निर्माण करके उनका वादन किया जाता है। इन बन्दिषों के आधार पर संगत के साथ-2 एकल वादन को भी प्रयोग में लाया गया अत: वाद्य के वर्ण बन्दिषों स्थानीय प्रभाव पड़ने के कारण विभिन्न घरानों का सूत्रपात हुआ है। संगीत के प्रचार प्रसार व विस्तार के सन्दर्भ में घरानों की चर्चा विषेश स्थान रखती है क्योंकि घरानेदार संगीतज्ञों के जाने अनजाने प्रयत्नों व प्रेरणा से शास्त्रीय संगीत की अनेक नवीन शैलियों का विकास हो जाता है।

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