रीतिकालीन काव्य की प्रमुख प्रवृत्तियाँ एवं धाराएँ

सम्पूर्ण रीति साहित्य को तीन वर्गों में विभक्त किया जा सकता है। (1) रीतिशास्त्रीय काव्य, (2) रीतिबद्ध काव्य, (3) रीतिमुक्त काव्य। किन्तु इस सन्दर्भ में विद्वानों में मतभेद है। डॉ. नगेन्द्र द्वारा सम्पादित ‘हिन्दी साहित्य’ के इतिहास में लिखा गया है। “रीतिकालीन कविता के प्रसंग में विद्वानों ने तीन प्रकार के काव्य का विवरण दिया गया है- एक रीतिबद्ध, दूसरा रीतिसिद्ध और तीसरा रीतिमुक्त। रीतिमुक्त के सम्बन्ध में काइेर् मतभेद नहीं है। परन्तु ‘रीतिबद्ध’ शब्द के विषय में मतभेद प्राप्त होता है।” 

आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने यह वर्ग विभाजन इस प्रकार किया है- (1) रीतिबद्ध, (2) रीतिसिद्ध, (3) रीतिमुक्त। इनके अनुसार रीतिबद्ध रचना लक्षणों और उदाहरणों से युक्त होती है परन्तु डॉ. नगेन्द्र ऐसा नहीं मानते। ऐसे कवियों को वे रीतिकार या आचार्य कवि मानते हैं जिन्होंने काव्य शास्त्र की शिक्षा देने के लिए रीति ग्रन्थों का प्रणयन किया। रीतिबद्ध कवि वे उन्हें मानते हैं जिन्होंने रीति ग्रन्थों की रचना न करके काव्य सिद्धान्तों या लक्षणों के अनुसार काव्य की रचना की है। 

इस प्रकार विश्वनाथ प्रसाद, डॉ. नगेन्द्र के मत से सहमत नहीं है। क्योंकि मिश्र जी तो ऐसे कवियों को रीतिसिद्ध कवि मानते हैं। जिन्होंने काव्य सिद्धान्तों के अनुसार काव्य रचनाएँ तो की है पर लक्षण ग्रन्थ नहीं लिखे, अर्थात् स्वयं अपने किसी नये काव्य सिद्धान्तों की स्थापना नहीं की है। 

इस प्रकार हम रीति साहित्य को तीन धाराओं में विभक्त कर सकते हैं। (1) रीति शास्त्रीय काव्य, रीतिसिद्ध काव्य धारा और रीतिमुक्त काव्यधारा। आइए अब संक्षेप में इन काव्यधाराओं का साहित्यिक आधार जान ले। इस युग के कवियों की पहली व्यापक प्रवृत्ति रीति निरूपण की रही। यह प्रवृत्ति तीन रूपों में दिखाई देती है।

(क) रीतिकर्म कविता- इस वर्ग का कवि अलंकारिक विशिष्ट काव्यांगों पर संक्षिप्त लक्षण. उदाहरण देकर अथवा स्वरचित लक्षण और दूसरे कवियों के उदाहरण देकर विषय को मात्र समझाने में अपने कर्म को सफलता समझता रहा। वह स्वरचित सरस उदाहरणों के फरे में नहीं पड़ा। जसवन्तसिंह का ‘भाषा.भूषण’, दूलह का ‘कविकुल कण्ठाभरण’ रस रूप का ‘तुलसी भूषण’ आदि इसी प्रकार के ग्रन्थ हैं।

(ख) रीतिसिद्ध कविता- काव्य रचना इन कवियों का उद्देश्य था। काव्यशास्त्रीय ज्ञान होते हुए भी ये कवि लक्षणों के चक्कर में नहीं पड़े। फिर काव्यशास्त्रीय छाप इनके काव्य ग्रन्थों में दृष्टव्य है। बिहारी, मतिराम, भूपति आदि की सतसइयाँ, हठी जी का ‘श्रीराधा सुधाशतक’ ग्वाल कवि का ‘कविहृदय विनोद’ आदि ग्रन्थ इसी वर्ग में आते हैं। इन कविताओं का मुख्य विषय श्रृंगार है। फिर भी वीर रस भक्ति प्रवृत्ति, नीति की कविताएँ भी लिखी गई हैं। इस प्रकार इस वर्ग के इतिहास में सरसत के साथ.साथ विषय की विविधता भी देखने को मिलती है।

(ग) रीतिबद्ध कविता- इस वर्ग के कवियों ने काव्यांगों के लक्षणों और उनके अनुसार सरस उदाहरणों की रचना की है। चिन्तामणि के ‘कविकुल कल्प तरु’, ‘रस विलास’, ललितललाम’, भष्ू ाण का ‘शिवराज भूषण’ देव का ‘भावविलास’ ‘रसविलास’ पद्माकर का ‘जगविनोद’ आदि ग्रन्थ इसी प्रकार के ग्रन्थ हैं। रीतिबद्ध काव्य संग्रहों की संख्या सर्वाधिक है तथा विषय.वैविध्य भी पर्याप्त है। अब हम रीतिबद्ध और रीतिमुक्त काव्यधाराओ की प्रवृत्तियों पर विचार करेंगे ।

रीतिबद्ध काव्यधारा की प्रमुख प्रवृत्तियाँ

(1) लक्षण ग्रन्थों का निर्माण

रीति काल के अधिकांश कवियों की सर्व प्रमुख विशेषता लक्षण ग्रन्थों का निर्माण है। इनमें काव्य विवेचना अधिक है। संस्कृत के लक्षण ग्रन्थकार आचार्यों का अनुकरण करते हुए इन्होंने अपनी रचनाओं को लक्षण ग्रन्थों अथवा रीति ग्रन्थों के रूप में प्रस्तुत किया। अनेक कवियों ने पाण्डित्य प्रदर्शन में रुचि ली, लक्षण ग्रन्थ लिखे, किन्तु इस क्षेत्र में इनकी सफलता संदिग्ध हैं रामचन्द्र शुक्ल के शब्दों में- “हिन्दी में लक्षण ग्रन्थ की परिपाटी पर रचना करने वाले जो सैकड़ों कवि हुए वे आचार्य कोटि में नहीं आ सके। वे वास्तव में कवि ही थे। उनमें आचार्यात्व के गुण नहीं थे। बाबू श्यामसुन्दर दास के अनुसार आचार्यतव तथा कवित्व के मिश्रण ने ऐसी खिचड़ी पकाई जो स्वादिष्ट होने पर हितकर न हुई।”

(2) श्रृंगारिकता

भाव या अनुभूति का विश्लेषण करते हुए विद्वानों ने इन काव्यों में मुख्य रूप में श्रृंगार रस को देखा है। इस काल के काव्य रचना का प्रमुख प्रयोजन अर्थ प्राप्ति था। प्रतिपाद्य विषय आश्रय दाता की रुचि के अनुसार कविता करना। राजाओं की प्रवृत्ति श्रृंगारिक थी। अत: उसी के अनुसार इन्होंने श्रृंगार परक रचनाएँ लिखी। वास्तव में में यही उनका प्रतिपाद्य था। 

(3) आलंकारिता

रीतिबद्ध काव्य की एक अन्य प्रधान प्रवृत्ति आलंकारिता है। इसका कारण राजदरबारो का विलासी वातावरण तथा जन साधारण की रुचि था। कवि को अपनी कविता को भड़कील े रंगों में रंगना पड़ा। बहुत सारे कवियों ने अलंकारों के लक्षण उदाहरण दिये किन्तु उनके मन में भी लक्षण विद्यमान थे। अलंकारों का इतना अधिक प्रयोग हुआ कि वह साधन न रहकर साध्य बन गए जिसे काव्य का सौन्दर्य बढ़ाने की अपेक्षा कम ही हुआ। कभी-कभी केवल अलंकार ही अलंकार स्पष्ट होते हैं और कवि का अभिप्रते आ उसी चमत्कार में खा े जाता है। यह दोष रीविकालीन कवियों में प्राय: पाये जाते हैं। केशव को इसी कारण कठिन काव्य का प्रेत कहा गया है।

(4) जीवन दर्शन

इस काल के कवियों का मुख्य लक्ष्य जीवन और यौवन के रमणीय स्वरूप का उद्घाटन करना था। इनका जीवन दर्शन रूढ़िबद्ध और यांत्रिक है। यह एक सीमित कटघरे में बंधा हुआ है। जीवन की विविधता के दर्शन यहाँ नहीं होते। संघर्ष, साधना और वास्तविक समस्याओं का चित्रण यह काव्य नहीं कर सके। इस व्यापकता के अभाव के कारण उसमे गहराई और गम्भीर चिन्तन नहीं आ पाये हैं। ये आ भी कैसे सकते थे क्योंकि एक तो वह रसिकता प्रधान युग या दूसरे उस समय का कवि संस्कृत की ह्रासोन्मुखी परम्परा का आन्धानुकरण कर रहा था। इसी कारण चिन्तन का स्थान प्रदर्शन और अलंकरण प्रियता ने ले लिया और उसके काव्य में हल्कापन आ गया। फिर भी इन कवियों के काव्य में नवीन उद्भावनाएँ भी देखने को मिलती हैं। 

इन कवियों ने अपनी प्रतिभा द्वारा हिन्दी साहित्य को अलंकृत भी किया है। डॉ. भगीरथ मिश्र के शब्दों में हम कह सकते हैं कि ऐसा लगता है कि “रीति कविता के रचयिता यौवन और वसन्त के कवि हैं। जीवन का फलूता हुआ सुधर रूप ही उन्हें प्रिय है।”

(5) आचार्यत्त्व

सामान्यत: आचार्य उस विद्वान को कहते हैं जो साहित्य सम्बन्धी विषय के नूतन सिद्धान्तों की स्थापना करें अथवा व्याख्या करें। काव्यशास्त्र या लक्षण.ग्रन्थ की रचना करना उसका काम है। कवि कविता करता ह ै और आचार्य उसके गुण दोषों की मीमांसा करता है। रीतिकाल में कवि ही आचार्य भी थे, यह विचित्र संयोग था। उस समय कवि के लिए कवि शिक्षा का ज्ञाता होना आवश्यक था। बिहारी आदि कुछेक कवियों को छोड़कर रीतिकाल के केशव, देव, मतिराम, पद्माकर, भूषण आदि सभी कवि आचार्य भी थे। 

विद्वानों ने इन आचार्यों की आलोचना की है, परन्तु साहित्य के क्षत्रे में उनका योगदान उपेक्षणीय नहीं है। उसका सबसे बड़ा लाभ यह रहा कि एक तो इस बहाने काव्य में सरस उदाहरणों की भरमार हो गई और दूसरे काव्यशास्त्र के सिद्धान्त सरल सरस जनभाषा में व्यक्त कर दिये गये। 

हिन्दी में काव्यशास्त्र के अभाव की पूर्ति इन आचार्य कवियों द्वारा की गई है।

(6) आश्रयदाताओं की प्रशस्ति

आदिकालीन कवियों की भाँति इस काल के कवियों ने भी शासक एवं सामन्त लागे ां े के आश्रय में रहकर काव्य रचना की थी। अपने को आश्रय देने वाले व्यक्ति की स्तुति करना उनके लिए स्वाभाविक भी था। इन स्तुतियों में एक तो कवि ने अपनी बहुत सी रचनाओं के नाम ही अपने आश्रयदाता के नाम पर रखे हैं, जैसे भवानी विलास, हिम्मत बहादुर.विरुदावला जगद्विनोद आदि। 

दूसरे, आश्रयदाता के जीवन.चरित्र को लेकर उसके विषय में लिखा है, जैसे वीर सिंह देवचरित, जहाँगीर.जस चन्द्रिका, रतनावली, शिवाबावनी आदि ग्रन्थों में हैं। आश्रयदाता की वीरता, शूरता, दानशीलता, सन्दरता आदि अनेक गुण इन प्रशस्तियों में समाये हुए हैं। 

(7) भक्ति भावना का पुट

रीति काल की कविता की एक विशेषता यह भी है कि उसके श्रृंगारमय वर्णनों में कही-कहीं भक्ति के भाव भी आ गए हैं। बिहारी ने राधा की स्तुति की है। कृष्ण की स्तुति बिहारी तथा पद्माकर, देव, मतिराम सब की है। शिव, गणश्े ा, सरस्वती आदि की स्तुतियाँ करके कवियों ने अपनी भक्ति दिखलाई है। यह दूसरी बात है कि यह भक्ति शब्दमात्र की थी। इतना अवश्य है कि कवि राधा और कृष्ण के नाम का स्मरण करना चाहते थे। 

भिखारीदास ने रीतिकालीन कवियों द्वारा राधा.कृष्ण को बहाने के रूप में वण्र्य विषय बनाने की ओर संकेत किया है-
रीझिहैं सुकवि जो तो मानों कबिताई,
न तु राधिका.कन्हाई के सुमिरन को बहानो है।

इनके विपरीत रीतिमुक्त कवियों ने अवश्य सच्चे भाव से भक्तिकाव्य लिखे हैं।

(8) विभिन्न प्रकार की नायिकाओं का वर्णन

रीतिकालीन, आचार्यकवियों ने श्रृंगार वर्णन के आलम्बन रूप में जो विस्तार से नायक नायिका भेद बतलाया है, उसमें नायक के वर्गीकरण में उन्होंने उतनी रुचि प्रदशिर्त नहीं की है, जितनी नायिका के वर्गीकरण में रीतिकाल के इन कवियों ने अनेक प्रकार की नायिकाओं का वर्णन अपने काव्यों में किया है। 

देव, मतिराम, पद्माकर आदि ने विस्तार के साथ नायिकाओं के भेद बतलाएँ हैं और उनके उदाहरण दिये है। रसलीन ने नायिकाओं की संख्या 1152 तक पहुँचा दी है। इन नायिकाओं के भेदों के आठ आधार देखने में आते हैं :-
  1. जाति अनुसार, 
  2. कर्म अनुसार, 
  3. पति प्रेमानुसार, 
  4. वयक्रमानुसार, 
  5. मान के अनुसार, 
  6. दशा के अनुसार, 
  7. काल (अस्था) के अनुसार, 
  8. प्रकृति के अनुसार। 
इन नायिकाओं के वर्णनों में बहुत अधिक श्रृंगारिकता है। विलासपूर्ण जीवन बिताने वाले राजा नवाब यही चाहते थे और कवियों ने वैसा करके उनको प्रसन्न किया। उन्होंने नायिकाओं के भेद में श्रृंगार की कोई भी गोपनीय स्थिति बिना वर्णन के नहीं रहने दी।

(9) श्रृंगारेत्तर विषय

इस काल की कविता की विशेषताओं में यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि श्रृंगार के अतिरिक्त अन्य विषयों पर पर्याप्त मात्रा में अभिव्यक्ति की गई है। उनमें से भक्ति के अतिरिक्त मुख्यत: नीति, वीरता, प्रकृति चित्रण आदि को ले सकते हैं।

जीवन का व्यावहारिक अनुभवों से युक्त वृन्द, रहीम आदि के दोहे और गिरधर की कुंडलियाँ बहुत प्रसिद्ध हैं। बिहारी, देव, ममितराम आदि के काव्यों में भी श्रृंगारेत्तर विषयों का वर्णन मिलता है। प्रकृति का वर्णन आलम्बन और उद्दीपन दोनों ही रूपों में हुआ है।

(10) मुक्तक काव्य

रीतिकाल अपनी मुक्तक रचनाओं के लिए विशेष विख्यात है। यद्यपि इसमें प्रबन्ध काव्य भी लिखे गये हैं। रीतिकाल में मुक्तक काव्य लिखने की प्रवृत्ति प्रमुख रही है। अधिकांश कवियों ने एक क्षण में चमत्कृत कर देने वाली बात कविता में उत्पन्न करने की कोशिश की है। रीतिकाल के मुक्तक काव्यों से पहले काल की गाथासप्तसती, अकरुक का अमरुक शतक, गावेर्द्धनचार्य की आर्य सप्तशती आदि प्राकृत तथा संस्कृत के ग्रंथ लिख चुके थे। 

रीतिकालीन मुक्तक काव्य दरबारी काव्य अधिक रहा। प्रबन्ध काव्यों की संख्या बहुत कम है, पर प्रबन्ध काव्य भी लिखे गए हैं। इनके अतिरिक्त कुछ ‘नाटक’ नाम से रचनाएँ मिलती हैं, पर वे वास्तव में नाम के ही नाटक हैं।

(11) ब्रजभाषा का प्रयोग

ब्रजभाषा रीतिकाल के कवियों की प्रधान भाषा रही अपनी सुकुमारता, कामे लता और काव्योचित विशेषताओं के कारण ब्रजभाषा ने कवियों का ध्यान अपनी आरे आकर्षित किया। इस समय अतीव परिष्कृत बज्र भाषा का प्रयागे देखने में आता है। उसमें परिस्थितिवश अरबी, फारसी शब्दों की प्रचुरता भी मिलती है, पर वे प्रयोग ऐसे हैं जो भाषा में घुलमिल गए हैं और उसकी स्वाभाविकता को नष्ट नहीं कर पाते। 

बिहारी का भाषा की प्रांजलता की बार-बार प्रशंसा हुई है। इस भाषा की विशेषताओं ने मुसलमानों को ब्रजभाषा काव्य लिखने की आरे प्रवृत्त किया।

(12) छन्द

दोहा, कवित्त और सवैया इस काल के प्रमुख छन्द रहे हैं। बिहारी, मतिराम, रसनिधि आदि ने सतराई ग्रन्थों में दोहा छन्द का प्रयोग किया है। लक्षण ग्रन्थों में भी दोहा का प्रयोग बहुत हुआ है। इसके अतिरिक्त सोरठा, बरबै, छप्पय, रोला आदि छन्द भी रीतिकाल में बार.बार प्रयोग में आए हैं। लक्षण ग्रन्थों की रचना करने वाले कवियों द्वारा भिन्न छन्दों का सशक्त एवं उपयुक्त प्रयागे द्रष्टव्य है।

(13) ऊहात्मकता

ऊहात्मक वर्णन का अर्थ है बढ़ा.चढ़ाकर वर्णन करना। अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन करना भी रीतिकाल की एक विशेषता रही है। वियोग श्रृंगार.वर्णन में बिहारी की नायिका का जो चित्र है, वह ऊहात्मकता से युक्त है-
इत आवति, चलि जात उत, चली छ:सातक हाथ।
चढ़ी हिंडोरे सी रहे, लगी उसासनु साथ।
अर्थात् नायिका विरह में इतनी कमजोर हो गई है कि जब सांस छोड़ती है तब छ:सात हाथ आगे चली जाती है और जब सांस लेती है तो छ:सात हाथ पीछे आ जाती है। इस तरह वह हिंडोरे पर चढ़ती रहती है।

विरह के कारण नायिका इतनी तप्त है कि जाड़ े की रात में भी गीले वस्त्र की आड़ रखे बिना उसकी सखियाँ उसके पास नहीं आ सकती हैं। विरह से तप्त नायिका पर गुलाब जल डाला तो छनछनाकर सूख गया। राजाओं की प्रशस्ति में भी ऐसी अतिशयोक्तिपूर्ण ऊहाएँ देखने को मिलती है। अनेक प्रसंग संयोग श्रृंगार वर्णन के भी ऐसे हैं जिन्हें ऊहात्मक कहा जा सकता है।

निष्कर्ष यह है कि हिन्दी साहित्य के इतिहास में रीतिबद्ध कवियों का अपना विशिष्ट स्थान है। हिन्दी के रीति आचार्यों का प्रमुख योगदान यह है कि उन्होंने भारतीय काव्य शास्त्र परम्परा को हिन्दी में सरस रूप में अवतरित किया है। कला की दृष्टि से भी रीतिकाव्य का महत्व असन्दिग्ध है। 

रीतिमुक्त काव्यधारा की प्रमुख प्रवृत्तियाँ

रीतिकाल में रीतिमुक्त अथवा स्वछन्द काव्यधारा प्रमुख रूप से प्रवाहित हुई है। इस वर्ग की कविताएँ भाव प्रधान थीं। इनमें शारीरिक वासना की गन्ध नहीं, वरन् हृदय की अतृप्त पुकार है। राधा और कृष्ण की लीलाओं के गान के बहाने नहीं, सीधे.सादे रूप में वैयक्तिक रूप की स्पष्ट अभिव्यक्ति है। इन्होंने जा े कुछ भी लिखा अपनी अन्त प्रेरणा से परिचालित होकर लिखा है। 

रीतिमुक्त कवियों में घनानन्द, आलम, ठाकुर, बोध नाम उल्लेखनीय हैं। इन कवियों का काव्य दो प्रकार का मिलता है। (1) स्वानुभूितपरक काव्य, (2) भक्तिपरक काव्य। स्वानुभूतिपरक कवियों ने अपने हृदय की आँखों से प्रेम की पीड़ा को देखा था, उसकी चुभन को गहराई तक भोगा था और इसके कारण वियोग की तपन को झेला था। घनानन्द जैसे कवियों ने प्रणय में असफल होकर जहाँ एक आरे अपने विरह का गान किया है, वहीं दूसरी ओर अपने हृदय की रसार्द्रता को भक्ति में डुबाकर सांत्वना प्राप्त की है। स्वाभूि तपरक कवियों ने अपने जीवन के वास्तविक प्रेम से प्रेरणा लेकर प्रबन्धों और मुक्तकों की रचना की है, जबकि भक्तिप्रेिरत स्वछन्द कवियों ने कृष्ण भक्ति से प्रभावित होकर अपने काव्यों में श्रृंगार की सरिता नबहाई है। 

रीतिमुक्त धारा में अंगारी कवियों का श्रृंगार चित्रण एक भिन्न पद्धति पर चला है। अत: उनके काव्य की सामान्य प्रवृत्तियों और विशेषताओं को जानना आवश्यक है।

(1) स्वच्छन्द, संयत प्रेम का चित्रण

रीतिमुक्त काव्यधारा के कवियों ने प्रेम का चित्रण रीतिबद्ध कवियों के समान बंधी.बंधाई परिपाटी में नहीं किया है। रीतिबद्ध कवियों का प्रेम रसिकता की कोटि से आगे नहीं जा सका, उनमें उन्मुक्त रूप से हृदय का स्पन्दन नहीं आ सका, किन्तु रीतिमुक्त कवियों का प्रमे स्वछन्द और संयत है। उनमें भावप्रवण हृदय की सच्ची अनुभूति है कहीं भी कृत्रिमता नहीं, और न कहीं कोई छिपाव और दुराव है। उन्हें न काइेर् लाके लाज का भय है और न ही परलाके की चिन्ता। प्रेम का मार्ग सीधा है, उस पर चलने के लिए सरल हृदय होना आवश्यक है

(2) विरहानुभूति की प्रधानता

रीतिमुक्त कवियों का प्रेम व्यथा प्रधान है। पीड़ा ही इनके काव्य का प्राण है। वियोग वर्णन में इन कवियों की मनोवृत्ति अधिक रमी है, क्योंकि वियोग में कवि की दृष्टि अन्तर्मुखी होती है। वह अन्तस्तल के प्रेम की अतल गहराइयां े तक बैठने के लिए आतुर रहता है। वियोग की अमिट प्यास उसके भाव पेशल हृदय को सदा द्रवित रखती है। अत: उसमें क्रियाशीलता बनी रहती है। हाई ब्लड. प्रेशर की भी वह परवाह नहीं करता। 

इन कवियों के प्रेम के अन्तगर्त संयोग की मात्रा कम है और है भी तो उसमें भी पीड़ा की अनुभूति किसी न किसी प्रकार बनी रहती है- “यह कैसो संयोग न जानि परैजु वियोग न क्यौ हूँ बिछोहत है।” 

इन कवियों की प्रेम तृषा सदा बढ़ती ही रहती है। इनमें प्रेम की अथाह पीर है और उस पीर को पहचानने के लिए पीर भरा हृदय अपेक्षित है।
समुझे कविता घनानन्द की,
हिय आँखिन प्रेम की पीर तकी।
विरह की अग्नि इन कवियों के भीतर ही भीतर सुलगती रहती है। गिरिधर कविराय ने भी लिखा है- 
चिंता ज्वाल सरीर बन दाहा लगि लगि जाइ।
प्रगट धुआं नहीं देखियै उर अंतर धुंधआई।
इस प्रकार रीतिमुक्त काव्य परम्परा की व्यथा प्रधानता उसे प्रचलित परम्परा से पृथक् प्रमाणित करती है। इसका एक कारण फारसी का प्रभाव है। इसके अतिरिक्त इन कवियों की ‘प्रेम की पीर’ सूफी कवियों से भी प्रभावित प्रतीत होती है। इसी कारण इनके प्रेम में रहस्यमयता की झलक भी मिलती है। 

संक्षेप में इनका प्रेम बहिर्मुखी न होकर अन्तर्मुखी अधिक है। वह वासना पंकिल न होकर स्वच्छ एवं उदात्त है। उसमें हृदय की मार्मिक सूक्ष्म अनुभूतियाँ और सौन्दर्य की महीन से महीन बारीकियाँ हैं। वस्तुत: ये कवि प्रेम, हृदय और सौन्दर्य के सच्चे पारखी हैं। 

इन कवियों का विरह वर्णन शास्त्रीय कोटि का नहीं है, उनकी सच्ची अनुभूति में अनायास विराह के शास्त्रीय लक्षण मिल जाते हैं।

(3) काव्यगत दृष्टिकोण की भिन्नता

रीतिमुक्त कवियों ने न ता े परम्परागत काव्यशास्त्रीय नियमों को आधार बनाकर रचना की और न ही किसी काव्यशास्त्रीय सम्बन्धी विशष्े ा सम्प्रदाय का अनुसरण किया। ये कवि आश्रयदाताओं की इच्छा के गुलाम नहीं रहे। रीतिबद्ध कवियों ने अनुप्रास, यमक आदि अलंकार विधान को प्रधानता दी, अनुभूति गौण थी। रीतिमुक्त काव्य में यह क्रम उलट गया। इस काव्य में अनुभूति साध्य बनी और कवित्त रचना मात्र साधन रही। 

इस प्रकार रीतिमुक्त कवियों ने जा े अपने काव्यादर्श प्रस्तुत किये हैं उन्हे रीतिबद्ध काव्यादर्शों से पृथक समझा है।

(4) सौन्दर्यानुभूति

रीतिमुक्त कवियों ने प्रिय की छवि के अनेक रमणीय चित्र खींचा हैं, जा े सर्वथा लीक से हटकर हैं। रीतिबद्ध कवियों की तरह इन कवियों ने नायिका का नख.शिख का वर्णन नहीं किया, बल्कि प्रिय ने समग्र सौन्दर्य के प्रभाव का चित्रण किया है। नारी सौन्दर्य के अतिरिक्त कृष्ण रूप में पुरुष नायक के रूप प्रभाव का भी चित्रण किया है।

(5) प्रकृति चित्रण

रीतिमुक्त कवियों ने प्रकृति के विविध रूपों का चित्रण कर जिस संवेदनशीलता का उद्घाटन किया है वह उनके स्वछन्दतावादी दृष्टिकोण की परिचायक है। रीतिमुक्त कवियों ने प्रकृति के आलम्बन, उद्दीपन, अलंकार, पृष्ठभूमि और मानवीकरण आदि विविध रूपों का सजीवता के साथ चित्रांकन किया है।

(6) शिल्प सौष्ठव

रीतिमुक्त कवियों ने चमत्कार प्रदर्शन के लिए काव्य नहीं लिखा, अपितु भावावगे में जा े लिखा, वह उनकी सहजता का कलात्मक रूप बन गया। इन कवियों ने अरबी, फारसी शब्दों को स्वतन्त्र रूप में ग्रहण कर स्वच्छ प्रवृत्ति का परिचय दिया है। इन कवियों ने मुख्य रूप से ब्रजभाषा का प्रयागे किया है, इसके साथ-साथ कवि आलम ने अवधी भाषा में भी काव्य रचना की है। भाषा मुहावरेदार और लोकोक्ति प्रधान है। सानुप्रासिकता इनकी भाषा का निजी गुण है। लाक्षणिकता, व्यंजना और सूक्ति प्रयागे से इनकी काव्य भाषा रमणीय बन गयी है। 

इन कवियों ने अधिकांशत: कवित्त और सवैये का प्रयोग किया है, इसके साथ.साथ इनके काव्य में दोहा छन्द का प्रयोग भी पर्याप्त है। यत्र.तत्र कुछ अन्य छन्द भी प्रयुक्त हैं। छन्द में संगीतात्मकता और लय की अनुगूँज भी विद्यमान है।

रीतिमुक्त कवियों ने न केवल मुक्तक काव्य लिखे, वरन् प्रबन्ध काव्य भी लिखे हैं। कवि आलम और बोधा ने क्रमश: ‘माधवानल कामकन्दला’ और ‘विरह वारीश’ नामक प्रबन्ध काव्यों की रचना की। ‘श्याम सनेही’ भी प्रयाश: प्रबन्ध कोटि की रचना है। कवि घनानन्द रचित गिरिपूजन, यमुनायश, गोकुलगीत आदि को भी किसी सीमा तक प्रबन्धात्मक रचनाएँ माना जा सकता है।

इन कवियों ने अधिकांशत: दृश्य और श्रव्य बिम्बों का प्रयागे किया है। इन्होंने अपनी स्वछन्द प्रवृत्ति के अनुकूल प्रकृति के नैसर्गिक सौन्दर्य से बिम्ब ग्रहण किए हैं। इनकी सम्पूर्ण कला लोक जीवन की ओर विशेष झुकी हुई है।

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