अस्तित्ववादी दर्शन इतना क्रान्तिकारी तथा जटिल है कि शिक्षा की दृष्टि से इस पर कुछ कम विचार हुआ है। अस्तित्ववाद का पादुर्भाव एक जर्मन दार्शिनिक हीगेल के ‘‘अंगीकारात्मक या स्वीकारात्मक’’ आदर्शवाद का विरोध है। हम पूर्व में भी पढ़ चुके है कि यह अहंवादी दर्शन की एक खास धारा है।’’ मानव को चेतना युक्त, स्वयं निर्णय लेने अपने जीवन दशाओं को तय करने के योग्य मानते है तो ऐसी दशा में शिक्षा की आवश्यकता स्वयं सिद्ध हो जाती है। भारतीय दर्शन में इस दर्शन का प्रभाव परिलक्षित नहीं हुआ। परन्तु पाश्चात्य दर्शन ने इसका उल्लेख स्पष्ट रुप में मिलता है। अस्तित्ववाद के शैक्षिक विचार पर प्रथम पुस्तक 1958 में प्रकाशित हु और इस ओर मुख्य योगदान प्रो0 मारिस, प्रो0 नेलर तथा प्रो0 ब्रूबेकर आदि का है।
अस्तित्ववादी शिक्षा का अर्थ
अस्तित्ववादी शिक्षा को मनुष्य की एक क्रिया या प्रवृत्ति मानते है। शिक्षा मनुष्य के अपने व्यक्तिगत अनुभूति के रुप में पायी जाती है। अस्तित्ववादी शिक्षा को मनुष्य को अपने अस्तित्व की प्रदर्शित करने का माध्यम मानते है। अस्तित्ववादी के अनुसार शिक्षा व्यक्तिगत प्रयास है।अस्तित्ववाद एवं शिक्षा के उद्देश्य
प्रा0े आडे के अनुसार अस्तित्ववादी शिक्षा के उद्देश्य अग्राकित अविधारणा पर आधारित है- 1. मनुष्य स्वतंत्र है, उसकी नियति प्रागनुभूत नहीं हैं। वह जो बनना चाहें, उसके लिए स्वतंत्र है। 2. मनुष्य अपने कृत्यो का चयन करने वाला अभिकरण है उसे चयन की स्वतंत्रता है। इनके आधार पर उद्देश्य निर्धारित है-
अस्तित्ववाद के अनुसार हमे छात्र के अस्तित्व को महत्व देना चाहिये। अस्तित्ववादी विद्यार्थी के कुछ कर्तव्य निर्धारित करते है। विद्यार्थी स्वयं में महत्वपूर्ण और सन्निहित होते है। अस्तित्ववाद के अनुसार, विद्यार्थी एक मुक्त या निश्चित परिश्रमों एवं विचारणील प्राणी होता है। विद्यार्थियों की शिक्षा अलग-अलग प्रकार से उनकी योग्यता एवं व्यक्तित्व के अनुसार होनी चाहिए। प्रत्येक विद्यार्थी को अपने व्यक्तित्व के विकास एवं पूरा ध्यान देना चाहिये। अस्तित्ववादी बालक के व्यक्तित्व में इन गुणों की परिकल्पना करते है-
- स्वतंत्र व्यक्तित्व का विकास-चयन करने वाला अभिकरण होने के नाते चयन प्रक्रिया में व्यक्ति को समग्र रुप से अन्त:ग्रसित हो जाना पड़ता है। अत: शिक्षा का यह उद्देश्य है कि वह बालक के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का विकास करे।
- व्यक्तिगत गुणों व मूल्यों का विकास:-अस्तित्ववादी मानते है कि मानव स्वयं अपने गुणों एव मूल्यों को निर्धारित करता है। अत: शिक्षा को बालक में व्यक्तिगत गुणों और मूल्यों विकास की योग्यता विकसित करनी चाहिए।
- मानव में अहं व अभिलाषा का विकास करना-इस सम्बन्ध में प्रो0 मार्टिन हीडेगर का कथन है-’’सच्चा व्यक्तिगत अस्तित्व ऊपर से थोपे गये और अन्दर से इच्छित किये गये अभिलाषाओं का संकलन है।’’ अत: अस्तित्ववाद यह मानता है कि शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य की अहं भावना के साथ अभिलाषा का भी विकास करना होना चाहिये।
- वास्तविक जीवन हेतु तैयारी:-मानव अस्तित्व जीवन में यातना एवं कष्ट सहकर ही रहेगी। अत: अस्तित्ववादियों के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य बालक को इस योग्य बनाना है कि वह भावी जीवन में आने वाले संघर्षो, कष्टों और यातनाओं को सहन कर सके जो उत्तरदायित्व पूर्ण जीवन में आ सकते है। अस्तित्ववादी मृत्यु की शिक्षा देने के पक्ष में है।
- व्यक्तिगत ज्ञान या अन्तर्ज्ञान का विकास करना:-इस सम्बन्ध में प्रा0े बिआउबर का कहना है-’’मानव एक पत्थर या पौधा नहीं है’’ और अस्तित्ववाद इसके अनुसार दो-बाते मानते है कि मनुष्य अपनी बुद्धि और सूझ बूझा से काम करते है अत: अस्तित्ववादियों के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य व्यक्तिगत सहज ज्ञान या अन्तर्ज्ञान का विकास करना है और मानव को अपने क्रियाओं हेतु निर्णय लेने में सहायता देना है।
अस्तित्ववादी शिक्षा में शिक्षक एवं शिक्षार्थी
अस्तित्ववाद के अनुसार हमे छात्र के अस्तित्व को महत्व देना चाहिये। अस्तित्ववादी विद्यार्थी के कुछ कर्तव्य निर्धारित करते है। विद्यार्थी स्वयं में महत्वपूर्ण और सन्निहित होते है। अस्तित्ववाद के अनुसार, विद्यार्थी एक मुक्त या निश्चित परिश्रमों एवं विचारणील प्राणी होता है। विद्यार्थियों की शिक्षा अलग-अलग प्रकार से उनकी योग्यता एवं व्यक्तित्व के अनुसार होनी चाहिए। प्रत्येक विद्यार्थी को अपने व्यक्तित्व के विकास एवं पूरा ध्यान देना चाहिये। अस्तित्ववादी बालक के व्यक्तित्व में इन गुणों की परिकल्पना करते है-- आत्मबोध, आत्मनियर्णय या आत्मनियंत्रण की शक्ति।
- आत्मशुद्धि व आत्मकेद्रिता के गुण।
- विचारों, एवं इच्छाओं को प्रकट करने की क्षमता।
- सौन्दर्यबोध की क्षमता।
- जीवन पर्यन्त ज्ञान की इच्छा का विकसित करते रहने की क्षमता।
- अध्यापक के साथ सम्बन्ध स्थापन की क्षमता।
- भावात्मक पक्ष की सुदृढ़ता
- वह विषय सामग्री के प्रस्तुतिकरण में विद्यार्थियों को उसके सत्य के खोज के लिए स्वतंत्रता प्रदान करे।
- विद्यार्थियों में मस्तिष्क का स्वयं संचालक एवं नियंत्रण की क्षमता विकसित करे।
- विद्यार्थियों को चरित्र गठन कर स्वयं सिद्ध सत्य मानने की क्षमता उत्पन्न करे।
- विद्यार्थियों को चयन करने की स्वतंत्रा प्रदान करें।
- विद्यार्थियों को स्वयं की अनुभूति करने का अवसर प्रदान करे।