यूरोप और ऐशिया के सामान्यत: मध्यकाल के युग को सामंतवाद कहा जाता है क्योंकि इसका उदय, विकास और हृास इसी
काल में हुआ। इस शब्द की विभिन्न परिभाषाएं हैं क्योंकि विभिन्न विद्वानों ने इसकी अलग-अलग व्याख्या की है। इसका प्रयोग
ऐतिहासिक विकास की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं के सन्दर्भ में किया जाता है और ये अवस्थाएं कालक्रम के अनुसार विभिन्न
स्थानों पर अलग-अलग कालों में अस्तित्व में आई।
जैसे यूरोप में आमतौर पर पांचवी शताब्दी से 15वीं शताब्दी तक यूरोपीय
समाज को सामंतवाद कहा जाता है। जबकि एशिया में इसकी शुरूआत तीसरी से पांचवी शताब्दी एक समान नहीं था तथा
विभिन्न देशों के लोग इसके बदलते स्वरूप के साथ-साथ बदलते गए।
मध्यकाल में जो आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक और
सांस्कृतिक उन्नति और परिवर्तन हुए उनका आधार ही सामंतवाद था।
सामंतवाद की परिभाषा
Oxford Dictionary-आक्सफोर्ड डिक्शनरी में Feudal - फ्यूडल शब्द से अभिप्राय: Vassal तथा राजा के बीच सबंधों को स्थापित
करने की नीतियों से लिया गया है।
March Bloch मार्क ब्लाख के शब्दों में यूरोपिय सांमतवाद कृषि दासता प्रधान था जिसमें
ये लार्ड को बगैर वेतन श्रम-सेवा प्रदान करते थे, कृषक जमीन से बंधे हुए थे तथा वे उच्च जातियों और योद्धाओं की बात
मानने को बाध्य थे।
विभिन्न इतिहासकारों द्वारा सामंतवाद की अलग-2 व्याख्याएँ दी गई है। एक सुझाव यह भी है कि सामंतवाद ऐसी अवस्था को दर्शाता है जिसमें सैनिकों की सहायता से जमीनों पर अधिकार कर लिया जाता था यह दर्शाता है कि इसमें सैन्य संगठन की भी भागीदारी होती थी लेकिन सामंतवाद शब्द से अभिप्राय: हमें विशेष सैनिक बंधन नही लेना चाहिए। जहां तक कृषक और जमीन का ताल्लुक था दोनों के बीच अनेक बंधन थे जैसे सैनिक, राजनैतिक और आर्थिक। दरअसल ये बंधन प्रत्येक देश मे अलग-2 थे। सैन्य संगठन सामान्यत: एक जैसा ही था।
विभिन्न इतिहासकारों द्वारा सामंतवाद की अलग-2 व्याख्याएँ दी गई है। एक सुझाव यह भी है कि सामंतवाद ऐसी अवस्था को दर्शाता है जिसमें सैनिकों की सहायता से जमीनों पर अधिकार कर लिया जाता था यह दर्शाता है कि इसमें सैन्य संगठन की भी भागीदारी होती थी लेकिन सामंतवाद शब्द से अभिप्राय: हमें विशेष सैनिक बंधन नही लेना चाहिए। जहां तक कृषक और जमीन का ताल्लुक था दोनों के बीच अनेक बंधन थे जैसे सैनिक, राजनैतिक और आर्थिक। दरअसल ये बंधन प्रत्येक देश मे अलग-2 थे। सैन्य संगठन सामान्यत: एक जैसा ही था।
राम शरण शर्मा के अनुसार यूरोप के सामंतवाद की तरह भारतीय
सामंतवाद का भी आर्थिक मर्म भूस्वामी मध्यवर्ग का उदय था जिसके कारण किसान कृषिदासों की अवस्था में पहुँच गए। क्योंकि
उनके एक-स्थान पर आने जाने की पांबदी लगा दी गई, उनसे अधिक श्रम (विष्टि) लिया जाने लगा, उन पर करों का बोझ
लाद दिया गया तथा उपसामंतीकरण की प्रक्रिया ने सारी कमी को पूरा कर दिया।
डी.डी. कौंसाबी के अनुसार ईसंवी सन्
की प्रारंभिक सदियों के दौरान जब राजा भूमि पर अपने राजस्विक और प्रशासनिक अधिकार अपने अधीनस्थ अधिकारियों को
देने लगा तो इनका कृषकों से सीधा सबंध कायम हुआ। इस कारण गांव की बंद अर्थव्यवस्था से खलल पडा। इस प्रक्रिया
को वे ‘उपर से विकसित होने वाला सांमतवाद’ मानते है। बाद में गुप्तकाल में यह प्रक्रिया और विकसित हुई कोंसबी के अनुसार
आगे चलकर गांव के भीतर राज्य और कृषकों के बीच भू-स्वामियों का एक वर्ग विकसित हुआ जिसने अपनी सेना और शास्त्रों
के बल पर धीरे-धीरे स्थानीय आबादी पर सता स्थापित कर ली। इस प्रक्रिया को कोंसबी ‘नीचे से विकसित होने वाला
सामंतवाद’ मानते है।
कुछ इतिहासकारों ने फ्लयूडलिज्म को नाइटों के समर्थन और सेवा से संबधित संस्थाओं के एक समूह
और कानून, शासन और सैनिक संगठन की एक ऐसी प्रणाली के रूप में देखते है जिसकी मुख्य विशेषता प्रशासनिक
विकेन्द्रीकरण है। फ्यूडलिज्म की इस अवधारणा से कभी-2 भारतीय इतिहासकार भी प्रभावित हुए है। इस प्रकार सामंतवाद
को परिभाषित करना कठिन है क्योंकि सामंतवाद पर शोध करने वाले विद्वानों ने इसकी अलग-2 व्याख्या दी है।
लेकिन
साधारणत: सामंतवादी व्यवस्था में राजनैतिक एवम् प्रशासनिक ढांचा भूमि अनुदानों के आधार पर गठित था। असली आर्थिक
ढांचा कृषि दासत्व प्रथा पर आधारित था। इसमें जमींदार भूमि के स्वामी थे जो काश्तकारों ओर राजाओं के बीच कड़ी का
कार्य करते थे। इस प्रणाली में आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था थी। इसमें उत्पादन स्थानीय किसानो और मालिकों के उपभाग के लिए
होता था ना कि बाजारों के लिए।