ठुमरी शैली की उत्पत्ति एवं विकास

ठुमरी की उत्पत्ति - तीन चार सौ वर्ष पूर्व भारतीय संगीत में ध्रुपद गायन का प्रचार था। परिस्थितिवश ख्याल गायन का प्रादुर्भाव हुआ। धीरे-धीरे ध्रुपद का स्थान ख्याल ने ले लिया। मनुष्यों के बदलती हुई भावनाओं और विचार के परिवर्तन के कारण ख्याल के पश्चात क्रमश: टप्पा, ठुमरी, भावगीत, फिल्मी गीत प्रचलित हुआ।

राग की शुद्धता व लय के चमत्कारिक प्रदर्शन के लिये ध्रुपद का महत्व भले ही हो पर ख्याल, टप्पा, ठुमरी व गीतों की अवहेलना वर्तमान समय में नहीं की जा सकती। सत्य तो यह है कि सबकी अपनी-अपनी विशेषताएँ हैं और अपनी उन्ह विशेषताओं के कारण उनका अलग अस्तित्व और महत्व है। 

ध्रुपद गायन-गंभीर, राग शुद्धता ताल लय का चमत्कार, ओजपूर्ण स्वर व प्राचीन शैली के लिये अवश्य महत्वपूर्ण है परन्तु ख्याल को मधुरता, भावयुक्त, आलाप, सपाटेदार तान व श्रोताओं को आकर्षित करने के लिये स्वाभाविक गुण के कारण गुणियों व संगीत प्रेमियों के हृदय से नहीं निकाला जा सकता है। इसी प्रकार ठुमरी भी भावुक श्रोताओं व जनसाधारण के हृदय में अपना स्थान बना चुकी है। भारतीय संगीत में ठुमरी को एक महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है।

ठुमरी शब्द के ठुम और री दो अंश हैं। ठुम- ठुमकने का द्योतक है और री अंतरंग सखी से अपने अंतर की बात कहने का ठुमरी का विषय नायिका के अंतर की असंख्य भाव लहरियों का। चित्रण है यही विषय रेख्ती नामक फारसी काव्य का भी है जिसकी परम्परा उर्दू काव्य में भी आई है।

इसी प्रयोजन के सिद्धि के लिये कैशिकी वृत्ति का आश्रय लेकर जब स्वर, भाषा, ताल और मार्ग का प्रयोग किया जाता है तब ठुमरी नामक गीत की उत्पत्ति या सृष्टि होती है जब वादन के द्वारा यह गीत उपरंजित होता है और अभिनय के द्वारा इसे पूर्ण करके संगीत बना दिया जाता है तब ये भावनायें मूर्त होकर आ जाती है जिनके द्वारा भगवान ने मोहिनी रूप धारण कर योगिराज देवाधिदेव महादेव जैसे कामरिपु को मनमाना नाच नचाया था और गोलियों में जिन भावनाओं के मूर्त होने पर मायापति लीलापुरुषोत्तम कन्हैया बनकर छछिया भर छाछ पर नाचे थे।

लखनऊ के दरबार नवाब वाजिद अली शाह के दरबार से ठुमरी का प्रचलन हुआ।

गोस्वामी तुलसीदास जी के शब्द इसके प्रमाण हैं-
जैसे- भाव कुभाव अनख आलस हू।
नाम जपत मंगल दिश दस हूँ।।

ठुमरी दो अंगों से गायी जाती है पहला पूरब अंग दूसरा पंजाबी अंग। दोनों अंगों की अपनी-अपनी विशेषता है। पूरब अंग की ठुमरी अपनी सादगी व मधुरता के लिये प्रसिद्ध है इसमें मुरकियो का प्रयोग सीधे व सरल ढंग से होता है। कई गायक ठुमरी के टप्पा अंगों का प्रयोग करते हैं पर गायक की कुशलता एक मात्रा ठुमरी अंग का प्रयोग करते हुये गायन को आकर्षण बनाने में है। टप्पा के अंगों का उचित प्रयोग गायन को आकर्षण बना देता है।

नाट्यवेद के आधार पर कालक्रमानुसार प्राप्त नाट्य, नृत्य की आधारशिला पर समयानुकूल परिवर्तित बनती-बिगड़ती हुई अनेक नवीन नामों को धारण करती हुई अन्त में एक मनमोहक चित्ताकर्षक अत्यन्त हृदयस्पर्शी गायन शैली ठुमरी के रूप में आज भारतीय शास्त्रीय संगीत का अभिन्न अंग बनकर संगीत प्रेमियों में अपना विशिष्ट स्थान प्राप्त कर चुकी है जिसके दो तीन सदी पूर्व के इतिहास के अवलोकन में अनेक रससिद्ध ठुमरी गायकों, भक्तिकाल, पुष्टमार्गी-काल के रसज्ञ सिद्ध सन्त, भक्त कवि एवं रचनाकार तथा नर्तक कलाकारों का विशिष्ट योगदान रहा है।

ठुमरी गायन शैली को हर घराने के गायकों ने अपनी निजी शैली में अपनी लोकभाषा के माध्यम से प्रस्तुत कर अपार लोकप्रियता प्रदान की। ठुमरी मुख्य रूप से भैरवी, सिन्धु भैरवी, काफी, पिलू, खमाज तिलंग, सिंदूरा तिलंग, झिंझोटी देश, बिहारी तिलक कामोद, तिलक बिहारी गारा जिला सोरठ, बिहाग, मांड पहाड़ी, आसा, सावनी, धानी, बरवा, शिवरंजनी जोगिया खमाज, माज खमाज आदि रागों में गाई जाती है।

Bandey

I am full time blogger and social worker from Chitrakoot India.

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