द्विसदनीय विधायिका क्या है? || द्विसदनीय विधायिका के पक्ष और विपक्ष में तर्क

द्विसदनीय विधायिका की परम्परा ब्रिटेन की देन है। सबसे पहले ब्रिटेन में संसद के दो सदन विकसित हुए थे। बाद में सभी प्रजातन्त्रीय देशों ने ब्रिटिश प्रतिमान का ही अनुसरण किया है और उनमें द्विसदनीय विधायिकाएं हैं। प्रत्येक देश में निम्न सदन जन साधारण का प्रतिनिधित्व करता है और उच्च सदन जनता के कुछ विशिष्ट वर्गों का प्रतिनिधित्व करता है। जनसाधारण का प्रतिनिधित्व करने के कारण निम्न सदन, उच्च सदन से अधिक शक्तिशाली भी होता है। लेकिन आज विश्व के अनेक देशों में द्विसदनीय विधायिका का परम्परा का ही निर्वहन हो रहा है। पृथक सदन की रचना तो जनप्रतिनिधियों द्वारा ही होती है, जबकि उच्च सदन के रचना के बारे में अलग-अलग प्रावधान है। 

ब्रिटेन में यह वंशानुगत आधार पर होती है तो अमेरिका में निर्वाचन के आधार पर होती है। जापान, इटली और कनाडा में उच्च सदन के सदस्यों का मनोनयन होता है। 

भारत में निर्वाचन तथा मनोनयन के बीच की व्यवस्था द्वारा उच्च सदन (राज्य-सभा) की रचना होती है। आज अनेक देशों में विधायिका के दूसरे सदन की महत्वपूर्ण भूमिका है। 

भारत, कनाडा, अमेरिका, आस्ट्रेलिया आदि देशों में द्विसदनीय विधायिकाएं हैं।

द्विसदनीय विधायिका के पक्ष में तर्क

सर हैनरी मेन का कहना है कि व्यवस्थापिका का दूसरा सदन अवश्य होना चाहिए ताकि पहले सदन की निरंकुशता को रोका जा सके। लोकतन्त्र के चढ़ते ज्वार ने व्यवस्थापिका को सम्पूर्ण शक्ति का केन्द्र बना दिया है। नागरिकों की स्वतन्त्रता की रक्षा करने तथा व्यवस्थापिकाओं को दलीय हितों का पोषक बनने से रोकने के लिए आज द्विसदनीय विधायिका का सिद्धान्त प्रबल हो गया है। इस सिद्धान्त के अनुसार प्रथम सदन यदि अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करता है तो उसे दूसरे सदन द्वारा रोका जा सकता है, क्योंकि द्वितीय सदन के रूप में शक्ति को शक्ति का नियन्त्रक बनाया गया है। इसकी स्थापना का उद्देश्य ही पहले सदन की तानाशाही पर रोक लगाना है। द्विसदनीय विधायिका के समर्थक इसके पक्ष में तर्क देते हैं :-

1. दूसरा सदन पहले सदन की निरंकुशता पर रोक लगाता है - द्विसदनीय विधायिका के समर्थकों का कहना है कि जिस देश में विधानपालिका का एक ही सदन होता है, उसके निरंकुश बनने की सम्भावना अधिक रहती है। साधारणतया यह बात सत्य निकलती है कि शक्ति मनुष्य को भ्रष्ट करती है और निरंकुश शक्ति उसे पूर्ण भ्रष्ट कर देती है। व्यवस्थापिका के प्रथम सदन के सदस्य यद्यपि जनता द्वारा निर्वाचित होते हैं, लेकिन फिर भी उनके पथ-भ्रष्ट होने की सम्भावना तो रहती है। जिस दल का सदन में बहुमत होता है, वह अपनी मनमानी करके स्वेच्छाचारी कानूनों का निर्माण कर सकता है और अल्पसंख्यकों के हितों की अनदेखी कर सकता है। 

लीकाक ने कहा है कि एकसदनीय व्यवस्थापिका निरंकुश और अनुत्तरदायी होती है। इसी तरह लेकी ने भी सरकार के सभी रूपों में सर्वशक्तिसम्पन्न लोकतन्त्रीय सदन को बुरा बताया है। जे0एस0गिल ने लिखा है - “दूसरे सदन के अभाव में एक सदन निरंकुश एवं स्वेच्छाचारी हो जाता है। अत: अविभाजित सत्ता के दूषित प्रभाव को रोकने के लिए दूसरा सदन आवश्यक है।” 

गैटेल ने भी लिखा है - “यदि कानून बनाने की सारी शक्ति एक सदन में ही केन्द्रित कर दी गई तो इस सदन के राज्य में सारी राजनैतिक सत्ता अपने हाथ में लेने, भ्रष्टाचारी तथा अत्याचारों का भय अधिक हो जाएगा। इसलिए दूसरे सदन की स्थापना भी अनिवार्यता करनी ही चाहिए।” 

लार्ड एकटन ने ठीक ही कहा है-”स्वतन्त्रता की रक्षा के लिए दूसरा सदन अति आवश्यक है।” जे0एस0 मिल ने भी दूसरा सदन पहले सदन की निरंकुशता को रोकने के लिए आवश्यक माना है। 

स्टोरी ने भी कहा है-”व्यवस्थापिका के अत्याचारों से बचने का यही उपाय है कि उसके कार्यों का विभाजन कर दिया जाए। हित के विरुद्ध हित, इच्छा के विरुद्ध इच्छा का गठबन्ध या प्रभुत्व खड़ा कर दिया जाए।” 

इसी तरह ब्राईस ने भी इसी बात पर जोर दिया है कि पहले सदन की निरंकुशता को रोकने के लिए दूसरा सदन आवश्यक है।

2. दूसरा सदन अविचारपूर्ण तथा जल्दबाजी में पास किए गए कानूनों को रोकता है - पहले सदन द्वारा अविचारपूर्ण तथा जल्दी में पास किए गए कानूनों को रोकने के लिए दूसरा सदन बहुत आवश्यक होता है। पहले सदन को जनता द्वारा निर्वाचित किया जाने के कारण, चुनाव के समय उसके सदस्यों ने जनता के साथ कुछ वायदे किए होते हैं, इसलिए चुनावों के बाद सरकार बनने पर उस सदन के नेता जोश में आकर गलत कानून बना देते हैं। ऐसे कानून जनता को थोड़े समय के लिए तो खुश कर देते हैं, लेकिन उनके परिणाम भयानक होते हैं। एक सदन के पास काम की अधिकता के कारण भी कानूनों को बिना पूर्ण सोच विचार के पास करने की सम्भावना भी बढ़ जाती है। इसलिए अच्छे कानूनों का निर्माण करने के लिए तथा पहले सदन के द्वारा बनाए गए कानूनों पर विचार करने के लिए दूसरे सदन की महती आवश्यकता है। इससे कानून की गलतियां दूर हो जाती हैं और जो कानून बनता है, उसका प्रभाव अधिक स्थाई रहता है। सोच विचारकर बनाए गए कानून ही राजनीतिक समाज का आधार मजबूत कर सकते हैं। 

बलंशली ने दूसरे सदन का समर्थन करते हुए लिखा है-”चार आंखें दो आंखों की अपेक्षा अधिक अच्छी तरह देख सकती हैं, विशेषतया जब किसी विषय पर विभिन्न दृष्टिकोणों से विचार करना आवश्यक हो।” लेकी ने भी दूसरे सदन की आवश्यकता पर जोर दिया है। यह बात सही है कि दूसरे सदन के नियन्त्रण के बिना पहले सदन की न तो निरंकुशता को रोक पाना सम्भव है और न ही अच्छे कानूनों का निर्माण सम्भव है।

3. दूसरा सदन पहले सदन के समय की बचत करता है - आज का युग कल्याणकारी राज्यों का युग है। इसमें राज्यों के कार्यों में अपार वृद्धि हो चुकी है। इससे विधानमण्डल के कार्य भी बहुत बढ़ गए हैं। एक सदन के पास कार्यों का बोझ इतना अधिक हो गया है कि वह उसे सम्भालने में परेशानी महसूस करने लगा है। इसके सदस्य बार बार बदलने के कारण विधायिका को शासन की जटिलता समझने का अवसर प्राप्त नहीं होता। विकासशील देशों में तो राजनीतिक अस्थिरता के कारण यह समस्या और भी अधिक गहरी है। इसलिए दूसरा सदन स्थाई सदन होने के कारण शासन की बारीकियों को समझने में सक्षम होता है और प्रथम सदन के कार्यभार को कम भी कर सकता है। दूसरे सदन में अधिक अनुभवी व योग्य व्यक्ति होते हैं, जिससे प्रशासनिक कार्यों में भी असुविधा रहती है। बिलों पर वाद-विवाद करके पहले सदन का समय बचाने में भी दूसरा सदन उपयोगी है। दूसरे सदन में जो बिल पेश किये जाते हैं, वे प्राय: कम महत्व के होते हैं। उन पर दूसरा सदन ही प्राय: विचार-विमर्श करके पहले सदन के कीमती समय को नष्ट होने से बचा लेता है और पहले सदन को आवश्यक बिलों पर व्यापक विचार-विमर्श करने का पर्याप्त समय मिल जाता है। 

4. दूसरा सदन विशेष हितों और अल्पसंख्यकों को प्रतिनिधित्व देने के लिए आवश्यक है - निम्न सदन में बहुमत का प्रतिनिधित्व होने के कारण प्राय: अल्पसंख्यक वर्गों के हितों का पोषण करने वाला प्रतिनिधि वर्ग पीछे रह जाता है। शांति की स्थापना के लिए यह जरूरी होता है कि समाज के सभी वर्गों को शासन में भागीदार बनाया जाएं जनता द्वारा निर्वाचित होने के कारण कई बार पहले सदन में समाज के कुछ विशेष वर्गों या अल्पसंख्यक वर्गों के हितों की अनदेखी हो जाती है। इसलिए उनके हितों को प्रतिनिधित्व देने के लिए दूसरे सदन की व्यवस्था जरूरी है। इसके अतिरिक्त देश में कुछ ऐसे व्यक्ति भी होते हैं जो चुनाव लड़ना पसंद नहीं करते, परन्तु उनकी योग्यता की देश को आवश्यकता होती है। 

द्वितीय सदन में ऐसे ही योग्य, अनुभवी, कुशल व बुद्धिजीवियों को मनोनीत कर लिया जाता है। भारत में राष्ट्रपति को राज्यसभा या उच्च सदन में 12 ऐसे सदस्य मनोनीत करने का अधिकार है जिन्होंने साहित्य, कला, विज्ञान, इतिहास तथा समाजसेवा में उल्लेखनीय कार्य किया हो। इसी तरह ब्रिटेन में सम्राट या साम्राज्ञी को ऐसे ही योग्य व्यक्तियों को लार्ड सदन में मनोनीत करने का अधिकार प्राप्त है।

5. दूसरा सदन स्थाई है - द्वितीय सदन का कार्यकाल पहले सदन की तुलना में अधिक होता है। संसदीय शासन प्रणाली वाले देशों, विशेषतौर पर विकासशील देशों में जहां सरकार अस्थिर होती है, वहां तो इसका महत्व स्थायित्व के कारण अधिक बढ़ जाता है। भारत तथा इंग्लैण्ड में प्रधानमन्त्री की सलाह से राष्ट्राध्यक्ष व शासनाध्यक्ष निम्न सदन को निर्धारित अवधि से पहले भी भंग कर सकता है। परन्तु भारत में राज्यसभा और इंग्लैंड में लार्ड सदन स्थाई सदन हैं। उन्हें किसी भी अवस्था में भंग करने का अधिकार किसी को भी नहीं है। भारत व अमेरिका में ऊपरी सदन की अवधि तो 6 वर्ष है, लेकिन निम्न सदन की 5 वर्ष है। 

भारत में अविश्वास प्रस्ताव पारित करके इस सदन को समय से पहले भी प्रधानमन्त्री की सिफारिश पर राष्ट्रपति द्वारा भंग किया जा सकता है। अधिक स्थाई होने के कारण स्थाई शासन के गुण इस सदन में ही होते हैं और जनता को इसके स्थायित्व व इसके सदस्यों की योग्यता का पूरा लाभ मिलने लगता है। यह स्थायित्व अच्छे शासन व अच्छे कानून दोनों के हित में है।

6. दूसरा सदन संघात्मक राज्यों के लिए अनिवार्य है - जिन देशों में संघात्मक सरकार की स्थापना की गई है, वहां विधायिका का दूसरा सदन जरूरी है। पहले सदन (निम्न सदन) के सदस्यों का चुनाव तो आबादी के आधार पर होता है, जिससे अधिक आबादी वाले राज्यों को अधिक प्रतिनिधित्व मिल जाता है। इससे कम आबादी वाले राज्यों को प्रतिनिधित्व की हानि होती है। बड़े-बड़े राज्य छोटे-छोटे राज्यों के विरुद्ध कानून पास करके उनके हितों को हानि पहुंचा सकते हैं। इसलिए उनके हितों की सुरक्षा के लिए उच्च सदन या द्वितीय सदन की स्थापना करना आवश्यक है। 

प्रो0 गेटेल ने लिखा है-’”दो सदनों के रहने से विचार-विमर्श में सतर्कता एवं संतुलन और अधिक सावधानी से विश्लेषित एवं संग्रहित व्यवस्थापन की प्राप्ति होती है।” अमेरिका, भारत, स्विटरजरलैण्ड में सभी राज्यों को ऊपरी सदन में बराबर प्रतिनिधित्व दिया गया है ताकि सभी राज्यों के हितों को घोषित करके संघात्मक व्यवस्था को सुदृढ़ बनाया जा सके।

7. पहले सदन के कार्यों का पुनरावलोकन - दूसरा सदन पहले सदन द्वारा पारित किए गए कार्यों का पुनरावलोकन करने के लिए बहुत आवश्यक है। आजकल पहले सदन के पास कार्यभार की अधिकता के कारण सभी बिलों पर ध्यान देना आवश्यक है। व्यापक विचार-विमर्श की बजाय प्राय: जल्दबाजी में ही बिलों को पास कर दिया जाता है। इससे कानून त्रुटिपूर्ण बन जाता है। इसलिए व्यवस्थापिका में न्यायपालिका की तरह पुनरावलोकन का होना भी जरूरी है। इसलिए दूसरा सदन इसी कमी की पूर्ति कर सकता है। पर्याप्त समय होने के कारण यह योग्य व्यक्तियों के सदन के रूप में पहले सदन के बिलों पर व्यापक विचार-विमर्श करके कमियों को दूर करने में अहम भूमिका निभा सकता है। बलंशली ने ठीक ही कहा है कि एक से दो आंखे अधिक अच्छी होती हैं। इसलिए दूसरा सदन कानूनों ने पुनरावलोकन के लिए बहुत आवश्यक है।

8. द्विसदनीय व्यवस्थापिका कार्यपालिका की स्वतन्त्रता के लिए आवश्यक है - दो सदनीय विधायिका में दोनों सदन एक दूसरे पर नियन्त्रण करके कार्यपालिका को अधिक स्वतन्त्रता प्रदान करते हैं। कार्यपालिका अपना कार्य तभी कुशलतापूर्वक कर सकती है, जब उसे कार्य करने की आजादी हो। कई बार कार्यपालिका को अपनी नीतियों का एक सदन में तो समर्थन प्राप्त नहींं होता, परन्तु दूसरे में प्राप्त हो जाता है। कार्यपालिका की एक सदन पर निर्भरता कम होने से वह अपना कार्य स्वतन्त्रतापूर्वक कर सकती है। भारत तथा अमेरिका जैसे देशों में कार्यपालिका के अध्यक्ष को संसद अभियोग द्वारा हटा सकती है। लेकिन दो सदनों की व्यवस्था में यह कार्य कठिन होता है। इसमें एक सदन तो आरोप लगाता है, जबकि दूसरा जांच करता है। एक सदन द्वारा लगाए गए गलत आरोपों का दूसरे सदन में निवारण हो जाता है। इससे कार्यपालिका निर्भय होकर उचित कार्यों के निष्पादन में लगी रह सकती है। इसलिए कार्यपालिका की स्वतन्त्रता के लिए दूसरे सदन का होना बहुत जरूरी है।

9. दूसरा सदन योग्य व्यक्तियों का सदन है - दूसरा सदन पहले सदन की अपेक्षा योग्य व्यक्तियों का ही सदन है। भारत में निम्न सदन में अनपढ़ तथा अयोग्य व्यक्ति भी पहुंच जाते हैं, लेकिन दूसरे सदन (राज्य सभा) में सभी सदस्य योग्य व अनुभवी ही मिलते हैं। उनहें राष्ट्रपति उनकी योग्यता के कारण ही मनोनीत करता है। उनके भाषण भी उच्च स्तर के होते हैं। इंग्लैण्ड में इस सदन में रिटायर न्यायधीश, प्रशासक, स्पीकर डॉक्टर आदि नियुक्त किए जाते हैं। उनके कार्य-व्यवहार का जनता पर व्यापक प्रभाव पड़ता है। उनके भाषण जनता को उच्च स्तर की राजनीतिक शिक्षा प्रदान करने वाले होते हैं। इसलिए जनता को राजनीतिक व्यवस्था के लाभों से परिपूर्ण करने के लिए दूसरे सदन की महती जरूरत है।

10. ऐतिहासिक समर्थन - द्वितीय सदन के समर्थकों का कहना है कि इतिहास के आधार पर भी दूसरे सदन की आवश्यकता स्वत: सिद्ध है। 1649 ई0 में इंग्लैण्ड में क्रामवैल ने दूसरे सदन को समाप्त कर दिया था, लेकिन उसके महत्व को देखते हुए 1660 ई0 में उसे दूसरा स्थापित करना पड़ा। आज भी वहां दो सदन हैं। अमेरिका में भी स्वतन्त्रता के समय एक ही सदन था, लेकिन बाद में दूसरे सदन की आवश्यकता महसूस होने पर इसकी भी स्थापना करनी पड़ी। आज संसार के अनेक देशों में व्यवस्थापिका के दो सदन पाये जाते हैं। यदि दूसरे सदन की कोई उपयोगिता नहीं होती तो उसे क्यों स्थापित रखा जाता। इसलिए ऐतिहासिक तथ्य भी द्विसदनीय विधायिका का ही समर्थन करते हैं।
    इस प्रकार हम कह सकते हैं कि दूसरे सदन की आवश्यकता स्वतन्त्र, निष्पक्ष व अनुभवी सदन के रूप में है। चीन को छोड़कर आज बड़ी जनसंख्या वाले देशों में संसद के दो सदन ही पाए जाते हैं। सांस्कृतिक दृष्टि से विभिन्नता वाले समाजों में समान राजनीतिक प्रतिनिधित्व व उनके हितों में सामंजस्य स्थापित करने के लिए दूसरा सदन महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहा है। संघात्मक शासन प्रणालियों वाले देशों में आज दूसरा सदन समन्वयकारी भूमिका निभा रहा है। अत: निष्कर्ष रूप में द्वितीय सदन का होना आधुनिक राज्यों में बहुत ही अनिवार्य है।

    द्विसदनीय विधायिका के विपक्ष में तर्क 

    यद्यपि दूसरा सदन अनेक देशों में महत्वपूर्ण कार्य कर रहा है, लेकिन फिर भी उसके ऊपर कुछ आपेक्ष लगाए जाते हैं। इन आपेक्षों में कुछ दम भी दिखाई देता है। इसके विपक्ष में तर्क पेश किए जाते हैं। :-
    1. दूसरा सदन समाज के दूसरे मत का अभिव्यक्तक होने के कारण समाज में विभाजन की प्रवृत्ति को पैदा करता है।
    2. यह व्यवस्था सम्प्रभुता की धारणा के विरुद्ध है, क्योंकि सम्प्रभुता की अभिव्यक्ति जनता की इच्छा में होती है। उस इच्छा का प्रतिनिधित्व करने में निम्न सदन ही पर्याप्त है। इसलिए उस इच्छा को बांटना अनुचित है।
    3. उपरि सदन व्यर्थ या शरारती दोनों हैं। यदि वह निम्न सदन के प्रत्येक बिल को पास कर देता है तो वह व्यर्थ है। यदि उसके रास्तें में बाधाएं खड़ी करता है तो वह शरारती है।
    4. निम्न सदन में कानून सोच-विचार के बाद ही पास होते हैं। द्विसदनीय विधायिका के समर्थकों का यह मानना गलत है कि एक सदन में कानून सही नहीं बन पाता। कानून बनने से पहले बिल के कई वाचन होते हैं और उचित प्रक्रिया से गुजरकर ही वह कानून का रूप लेता है।
    5. दूसरे सदन के समर्थकों का यह कथन भी गलत है कि यह पहले सदन की स्वेच्छाचारिता को रोकता है। दूसरा सदन अप्रत्यक्ष रूप से चुना जाने के कारण निम्न सदन से कम शक्तिशाली होने के कारण निम्न सदन पर प्रभावी नियन्त्रण कैसे रख सकता है ? वह निम्न सदन द्वारा पास बिल पर देरी तो कर सकता है, उसे निरस्त नहीं कर सकता। भारत जैसे देश में विधानमण्डल पर नियन्त्रण न्यायपालिका ही कर सकती है, दूसरा सदन नहीं।
    6. दूसरा सदन पूंजीपति वर्ग का ही प्रतिनिधित्व करता है, इसलिए यह सर्वसाधारण के हितों के विरुद्ध है।
    7. दूसरा सदन संसद के द्वारा राष्ट्रीय धन को अपव्यय का साधन बन जाता है। लास्की का कहना सही है कि इससे राष्ट्रीय कोष पर अनावश्यक भार पड़ता है।
    8. इससे व्यवस्थापिका के दोनों सदनों में गतिरोध की संभावना बढ़ जाती है, क्योंकि दूसरा सदन रूढ़िवादियों और प्रतिक्रियावादियों का समूह होता है।
    9. संघात्मक शासन में दूसरा सदन आवश्यक नहीं है। इसमें अल्पसंख्यकों अथवा सघीभूत इकाईयों के अधिकारों की रक्षा दूसरे सदन की अपेक्षा वैधानिक संरक्षणों एवं स्वतन्त्र न्यायपालिका के द्वारा ही हो सकती है, दूसरे सदन से नहीं।
    10. दूसरे सदन की संगठनात्मक व्यवस्था अनेक देशों में वंशानुगत है या प्रजातन्त्र के सिद्धान्तों के विपरीत है। अत: दूसरा सदन अनावश्यक व अप्रजातन्त्रीय है।
    अत: द्विसदनीय विधायिका के पक्ष और विपक्ष में दिए गए तर्कों के आधार पर निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि आधुनिक राज्यों में दूसरे सदन को व्यर्थ ही माना जाता है। वैज्ञानिक फ्रैंकलिन ने तो यहां तक कह दिया है कि “व्यवस्थापिका जो दो सदनों में विभाजित है, एक ऐसी गाड़ी के समान है जिसे एक घोड़ा आगे खींच रहा है और दूसरा पीछे।” अबेसियस ने इसे व्यर्थ या शरारती सरकार के अंग 99 सदन कहा है। 

    लास्की का भी मत है कि संघ की रक्षा के लिए दूसरा सदन कोई प्रभावशाली गारन्टी नहीं है। आज अनेक देशों में दूसरा सदन राष्ट्रीय कोष पर अनावश्यक भार बन रहा है। लेकिन इसका अर्थ यह कदापि नहीं हो सकता कि दूसरा सदन उपयोगी नहीं है। ऐतिहासिक आधार पर इस बात का समर्थन किया जा सकता है कि जिन देशों में दूसरे सदन को समाप्त किया गया था, वहां इसे फिर से स्थापित करना पड़ा। इसकी स्थापना ही इसकी उपयोगिता की गारन्टी है। 

    लीकाक ने तो यहां तक कहा है कि एक सदनीय प्रणाली तो कभी अधिक सफल नहीं रही, लेकिन दो सदनों वाली विधायिका सभी देशों में सफल रही है। इसलिए यह कहना सर्वथा गलत है कि दूसरा सदन अनुपयोगी है। अमेरिका में दूसरा सदन (सीनेट) संसार में शासन-व्यवस्था के लिए एक प्रबल उदाहरण है। भारत में भी राज्य सभा की दूसरे सदन के रूप में प्रभावी भूमिका है। जिन जिन देशों में लोकतन्त्रीय व्यवस्थाएं हैं, वहां पर दूसरे सदन की आवश्यकता अनुभव की जाती है। जब तक लोकतन्त्र रहेगा तब तक दूसरे सदन को मिटाना असम्भव है। सर्वसत्ताधिकारवादी तथा तानाशाही या एकात्मक शासन व्यवस्था वाले देशों में तो द्विसदनीय विधायिका की दशा मरे हुए सांप की तरह है जो अपनी रक्षा ही नहीं कर सकता तो जनहितों का ख्याल कैसे रख पाएगा। 

    अत: यह कहना अनुचित है कि आज विश्व की शासन प्रणालियों में दूसरे सदन के महत्व का हास हो रहा है। लोकतन्त्रीय अवस्थाओं के प्रहरी के रूप में दूसरे सदन की आज भी महती आवश्यकता है।

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