एक सदनीय विधायिका किसे कहते है? || एक सदनीय विधायिका के पक्ष और विपक्ष में तर्क

जिस देश में व्यवस्थापिका का एक सदन होता है उसे एक सदनीय विधायिका कहा जाता है। यह पद्धति आज विश्व के अनेक देशों में प्रचलित है। यह पद्धति 18वीं तथा 19वीं सदी के दौरान अधिक लोकप्रिय रही और आज भी है। इस पद्धति के समर्थकों का कहना है कि लोकप्रिय सम्प्रभुता जनता में निवास करती है और उसका प्रतिनिधित्व केवल एक ही सदन द्वारा होना चाहिए। 

सीएज का कहना है कि “कानून लोगों की इच्छा का परिणाम है। लोग एक समय में एक ही विषय पर दो भिन्न इच्छाएं नहीं रख सकते, इसलिए कानून निर्माण करने वाली सभा भी, जो जनता का प्रतिनिधित्व करती है, अनिवार्यता एक ही होनी चाहिए।” बीन्जामिन फ्रैंकलीन ने भी एक सदन का ही समर्थन किया है। 

आज यूनान, यूगोस्लाविया, चीन, पाकिस्तान, तुर्की आदि देशों में एक-सदनीय व्यवस्थापिकाएं हैं।

एक सदनीय विधायिका के पक्ष में तर्क

आज अनेक देशों में एक सदनीय व्यवस्थाएं हैं। इसके समर्थक कहते हैं कि जनमत का प्रतिनिधित्व एक ही सदन कर सकता है, दो नहीं इसके पक्ष में तर्क दिए जाते हैं :-
  1. एकसदनीय व्यवस्था सम्प्रभुता के सिद्धान्त की समर्थक है। इसके समर्थकों का कहना है कि सम्प्रुता की अभिव्यक्ति जनता की इच्छा में होती है जिसका प्रतिनिधित्व व्यवस्थापिका द्वारा ही होता है। यह सम्प्रभु की इच्छा अखण्ड या अविभाजित होती है। इसलिए इसका प्रतिनिधित्व एक सदन से ही होना चाहिए।
  2. एकसदनीय व्यवस्थापिका में उत्तरदायित्व सुनिश्चित रहता है। इसमें उत्तरदायित्व का दो सदनों या दो स्थानों पर विभाजन नहीं होता।
  3. यह सार्वजनिक हित के अनुकूल है। द्वितीय सदन तो धनवान वर्गों का पोषक है।
  4. इससे समय व धन दोनों की बचत होती है।
  5. इसमें दो सदनों में पाए जाने वाले गतिरोध की सम्भावना नहीं होती है।
  6. यह अच्छे व उपयोगी कानूनों का निर्माण करती है।
  7. यह सरल पद्धति है। इसके आधार पर विधायिका का संगठन आसानी से समझा जा सकता है।

एक सदनीय विधायिका के विपक्ष में तर्क 

एक सदनीय विधायिका के विपक्ष में द्वि-सदनीय विधायिका के समर्थक तर्क देते हैं :-
  1. एकसदनीय विधायिका के स्वेच्छाचारी तथा निरंकुश बनने के आसार अधिक होते हैं, क्योंकि कानून-निर्माण की सारी शक्ति उसी में केन्द्रित होती है।
  2. एक सदनीय विधायिका जल्दबाजी में एकपक्षीय और तर्कहीन कानूनों का निर्माण करती है।
  3. एकसदनीय विधायिका में शक्तियों का केन्द्रीयकरण प्रजातन्त्र के सिद्धान्तों के विपरीत है। इससे वैयक्तिक स्वतन्त्रता को खतरा उत्पन्न हो सकता है।
  4. आज के कल्याणकारी राज्यों के युग में व्यवस्थापिका के कार्य भी बढ़ गए हैं। एकसदनीय विधायिका द्वारा उन्हें पूरा करना सम्भव नहीं है।
  5. एक सदनीय विधायिका में सभी वर्गों को उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिल सकता। इसलिए दूसरे सदन का होना आवश्यक है।
  6. एकसदनीय विधायिका में व्यवस्थापिका अपनी गलतियों का पुनरावलोकन नहीं कर सकती।
  7. एकसदनीय व्यवस्थापिका संघात्मक शासन-व्यवस्था के अनुपयुक्त रहती है।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि एकसदनीय विधायिका लोकतन्त्र की आस्था के विपरीत है। इसके अवगुणों के कारण आज द्विसदनीय विधायिका का प्रतिमान अधिक लोकप्रिय होता जा रहा है।

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