अरविन्द घोष के शैक्षिक विचार

अरविन्द घोष  के शैक्षिक विचार

अरविन्द घोष एक महान शिक्षाविद एवं दार्शनिक थे। वे अपने शैक्षिक विचारों को अपनी पुस्तक “नेशनल सिस्टम ऑफ एजुकेशन” तथा “आन एजुकेशन” में व्यक्त किए हैं। उपनिषद् एवं वेदान्त के मौलिक सार तत्व उनके जीवन दर्शन के आधार थे। उन्होंने आध्यात्मिक अभ्यास, योग तथा ब्रह्मचर्य को अपने जीवन में विशेष महत्व दिया। एक आदर्शवादी के रूप में अरविन्द घोष का शिक्षा दर्शन आध्यात्मिक तपस्या, योग तथा ब्रह्मचर्य के अभ्यास पर आधारित है। उन्होंने माना कि यदि कोई व्यक्ति शिक्षा के सभी तीनों पक्षों को प्राप्त करता है, वह निश्चित रूप से स्वयं की पूर्ण विस्तार तक विकसित कर सकता/सकती है। 

अरविन्द घोष के लिए, “वास्तविक शिक्षा वह है जो बच्चे को स्वतंत्र एवं सृजनशील वातावरण प्रदान करती है तथा उसकी रूचियों, सृजनशीलता, मानसिक, नैतिक तथा सौन्दर्य बोध का विकास करते हुए अंतत: उसके आध्यात्मिक शक्ति के विकास को अग्रसरित करती है।

अरविन्द घोष  के शैक्षिक विचार 

अरविन्द घोष के अनुसार, शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए: शुद्धता के साथ बच्चे का शारीरिक तथा मानसिक विकास, इन्द्रियों का विकास, नैतिकता का विकास, अंत:करण का विकास, आध्यात्मिकता का विकास। उनके मूलभूत शैक्षिक विचारों को निम्नलिखित पंक्तियों से बताया जा सकता है :
  1. शिक्षा का माध्यम मातृभाषा होना चाहिए।
  2. बच्चे को सभी मानसिक योग्यताओं तथा मनोविज्ञान के अनुरूप प्रदान की जानी चाहिए।
  3. शिक्षा का लक्ष्य अध्यात्म की प्राप्ति होनी चाहिए।
  4. शिक्षा के माध्यम से इन्द्रियों का प्रशिक्षण तथा अंत:करण का विकास होना चाहिए।
  5. शिक्षा का मूलभूत आधार ब्रह्मचर्य होना चाहिए।
  6. बच्चे को संपूर्ण मानव बनाने के लिए शिक्षा को उसके सभी आनुवंशिक शक्तियों को विकसित करना चाहिए।

पाठ्यचर्या तथा शिक्षण विधियाँ

पाठ्यचर्या में समाविष्ट विषय बच्चे की रुचि के अनुरूप होने चाहिए। उनके अनुसार पाठ्यचर्या को बच्चे के शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक विकास में सहायक होना चाहिए। उन्होंने सुझाया कि पाठ्यचर्या रूचिकर होनी चाहिए तथा इसे बच्चे को अध्ययन के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।

शिक्षक, विद्यालय तथा अनुशासन की अवधारणा

बालक शिक्षा की प्रक्रिया में केन्द्रीय स्थान ग्रहण करता है। प्रत्येक बालक में संभावित योग्यताएँ होती हैं जिन्हें शिक्षकों को पहचानने एवं विकसित करने की आवश्यकता होती है। शिक्षक को विद्यार्थियों पर अपने विचारों को नहीं थोपना चाहिए बल्कि उन्हें संपूर्ण मानव बनने के लिए सहायता एवं मार्ग प्रशस्त करना चाहिए। उनके अनुसार, शिक्षक एक सुविधा या सहायता प्रदाता तथा पथ प्रदर्शक होता है।

विद्यालय वातावरण बच्चे के शारीरिक तथा आध्यात्मिक विकास में सहायक होना चाहिए। बच्चों के साथ धर्म, जाति, प्रदेश, रंग, पंथ आदि के आधार पर भेदभाव नहीं करना चाहिए। विद्यालय वातावरण सहयोग, प्रेम तथा सौहार्द से पूर्ण होना चाहिए। अरविन्द शारीरिक दण्ड का प्रबल विरोध किया तथा इसे अमानवीय बताया। वे बच्चों के स्वयं द्वारा नियंत्रण के प्रबल समर्थक थे यद्यपि बाह्य या अन्य स्रोतों से नियंत्रण के विरुद्ध थे। 

उनका मानना था कि स्वनियंत्रण का विकास योग एवं ब्रह्मचर्य के अभ्यास द्वारा किया जा सकता है।

Bandey

I am full time blogger and social worker from Chitrakoot India.

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