सामाजिक तथ्य की प्रमुख विशेषताएं (दुर्खीम)

सामान्यतया कहा जा सकता है कि सामाजिक तथ्य एक अत्यंत जटिल विचार है, जिसमें बाह्यता, बाध्यता और अपरिहार्यता के गुण विद्यमान होते हैं।

दुर्खीम ने समाजशास्त्र की अपनी वैज्ञानिक दृष्टि को जिस मूलभूत सिद्धांत पर आधारित रख वह सामाजिक तथ्यों की वस्तुपरक वास्तविकता है। सामाजिक तथ्य कार्य करने, सोचने व अनुभव करने का वह तरीका है जो किसी भी समाज में लगभग सामान्य रूप से पाया जाता है। दुर्खीम ने सामाजिक तथ्यों का वस्तुओं की भांति प्रयोग किया है। वे वास्तविक है तथा व्यक्ति की इच्छा या चाह से परे है। वे व्यक्तियों के अधिकार क्षेत्र से बाहर है तथा उन पर दबाव डालने में समर्थ है। दूसरे शब्दों में उनकी प्रकृति दबावकारी या नियंत्रणकारी है।

अतः समाजिक तथ्यों का अपना एक स्वतंत्र अस्तित्व होता है। वे व्यक्तिगत अभिव्यक्तियों से स्वतंत्र है। सामाजिक तथ्यों की सही प्रकृति समाज में मौजूद सामूहिकता अथवा सहयोग की विशेषताओं में अंतर्निहित है। कानूनी संहिताएं तथा प्रथाएं, नैतिक नियम, धार्मिक विश्वास तथा रीतियां, भाषा आदि सभी सामाजिक तथ्यों की श्रेणी में आते है।

सामाजिक तथ्यों को दुर्खीम वस्तुओं के रूप में देखता है। दुर्खीम ने अपनी पुस्तक (The Rules of Sociological
Method) के अंतर्गत ‘वस्तु’ शब्द का प्रयोग चार अलग-अलग संदर्भों में किया है, जो निम्नलिखित हैंः
  1. सामाजिक तथ्य एक ऐसी वस्तु है जिसमें कुछ विशिष्ट गुण होते हैं। इन विशिष्ट गुणों को ऊपरी तौर पर देखा जा सकता है।
  2. सामाजिक तथ्य एक ऐसी वस्तु है जिसे अनुभव के माध्यम से ही जाना जा सकता है।
  3. सामाजिक तथ्य एक ऐसी वस्तु है जिसका अस्तित्व मनुष्य पर नहीं अपितु समाज पर निर्भर करता है।
  4. सामाजिक तथ्य एक ऐसी वस्तु है जिसे बाहरी स्तर पर देखकर जाना जा सकता है।
दुर्खीम के मतानुसार सामाजिक तथ्य वास्तव में सामूहिक चेतना को व्यक्त करते हैं। इसीलिए सामाजिक तथ्य सामाजिक घटनाओं का वास्तविक प्रतिनिधित्व करते हैं। अतः सामाजिक तथ्यों के अध्ययन के माध्यम से सामाजिक घटनाओं की मुख्य विशिष्टताओं का आसानी से पता लगाया जा सकता है। चूँकि ‘वस्तु’ के रूप में सामाजिक तथ्यों का वस्तुनिष्ठ निरीक्षण किया जा सकता है, इसलिए सामाजिक तथ्यों को सामाजिक घटनाओं का बोध करने के वैज्ञानिक आधार के रूप में स्वीकार किया जा सकता है। क्योंकि, जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि इसका वस्तुनिष्ठ रूप में निरीक्षण किया जा सकता है। वस्तु के रूप में सामाजिक तथ्य को स्वीकार करने का आशय यही है कि सामाजिक तथ्य कोई काल्पनिक धारणा, विश्वास अथवा विचार नहीं होता है, अपितु इसका अस्तित्व यथार्थ पर आधारित होता है। इस यथार्थ धरातल पर सामाजिक घटनाओं का वैज्ञानिक बोध आसान हो जाएगा।

एक सामाजिक तथ्य व्यवहार (सोचने-समझने, अनुभव करने या क्रिया संपादित करने) का एक भाग है जो प्रेक्षक की दृष्टि में वस्तुपरक है तथा जिसकी प्रकृति बाध्यतामूलक होती है।

अतः सामाजिक जीवन से संबंधित ऐसे व्यवहार या विचार, अनुभव या क्रिया को सामाजिक तथ्य कहा जाएगा जिनका निरीक्षण-परीक्षण हो सकता हो। इस कथन के अनुसार ‘भगवान’ सामाजिक तथ्य नहीं है क्योंकि, उसका निरीक्षण संभव नहीं है, जबकि उसी भगवान की सामूहिक प्रार्थना करना सामाजिक तथ्य है, क्योंकि इसका निरीक्षण संभव है।

सामाजिक तथ्य को परिभाषित करते हुए दुर्खीम ने लिखा है एक सामाजिक तथ्य कार्य करने का वह प्रत्येक तरीका है, चाहे निश्चित हो या नहीं, जो कि व्यक्ति पर बाहरी दबाव डालने की क्षमता रखता हो।

सामाजिक तथ्य को स्पष्ट करते हुए दुर्खीम ने लिखा है-तथ्य में, कार्य करने, सोचने, अनुभव करने के वे तरीके सम्मिलित हैं जो व्यक्ति हेतु बाहरी होते हैं तथा जो अपनी दबाव-शक्ति के माध्यम से व्यक्ति को नियंत्रित करते हैं।

सामाजिक तथ्य को दूसरे शब्दों में परिभाषित करते हुए दुर्खीम लिखते हैं फ्ये कार्य करने, सोचने या अनुभव करने के वे तरीके हैं जिनमें व्यक्तिगत चेतना से बाहर भी अस्तित्व को बनाए रखने की उल्लेखनीय विशिष्टता होती है। अतः स्पष्ट होता है कि प्रत्येक समाज में कुछ विशिष्ट तथ्य होते हैं अथवा सोचने, कार्य करने एवं अनुभव करने के ऐसे तरीके होते हैं जो व्यक्ति पर बाध्यकारी प्रभाव डालते हैं जिन्हें प्राणिशास्त्राीय या मनोवैज्ञानिक तथ्य के रूप में न स्वीकार करके अपितु सामाजिक तथ्य के रूप में स्वीकार करना ही तर्कसंगत होता है। इस कड़ी में दुर्खीम का कथन है कि विचार करने के ऐसे तरीकों को प्राणिशास्त्राीय घटनाओं के अंतर्गत स्वीकार नहीं करना चाहिए क्योंकि उनमें क्रियाएँ तथा प्रतिनिधित्व सम्मिलित हैं। इसे मनोवैज्ञानिक घटनाओं से भी मिलाया नहीं जा सकता है। जिसका अस्तित्व वैयक्तिक चेतना और उसके माध्यम से ही होता है। इस प्रकार वे एक ढंग की घटनाएँ नि£मत करते हैं और मात्रा इसी के लिये सामाजिक शब्द का प्रयोग किया जाना चाहिये।

सामाजिक तथ्यों के प्रकार

दुर्खीम के दृष्टि में सामाजिक तथ्य एक सतत क्रम में होते हैं। उसके एक सिरे पर संरचनात्मक अथवा स्वरूप संबंधी सामाजिक घटनांए होती है। ये सामाजिक जीवन के आधार को बनाती है। यहां उसका तात्पर्य समाज का निर्माण करने वाले मूलभूत भागों की प्रकृति व संख्या, वे जिस क्रम में व्यस्थित हैं तथा उनके संयोजन के परिणाम से है। इस श्रेणी के सामाजिक तथ्यों में भौगोलिक क्षेत्रों में जनसंख्या का वितरण, आवासों की रचना, संचार-व्यवस्था की प्रकृति आदि सम्मिलित है।

फिर, सामाजिक तथ्यों के संस्थागत स्वरूप आते है। यह समाज में लगभग सामान्य तथा विस्तृत रूप से व्याप्त रहते है। ये संपूर्ण समाज की सामूहिक प्रवृत्ति का प्रतिनिधित्व करते है। इस श्रेणी में समाज में विद्यमान कानूनी तथा नैतिक नियम, धार्मिक मत तथा विश्वास व प्रथाएं सम्मिलित है।

उसके बाद, वे सामाजिक तथ्य है जो संस्थागत नहीं हो पाये है। इस प्रकार के सामाजिक तथ्यों का एक स्पष्ट रूप नहीं बन पाया है। वे समाज के संस्थागत आदर्शों से परे स्थित है, साथ ही इस प्रकार के सामाजिक तथ्यों ने संस्थागत सामाजिक तथ्यों की तुलना में अभी तक पूर्णतया वस्तुपरक व स्वतंत्र अस्तित्व नहीं प्राप्त किया है।

इसके अतिरिक्त व्यक्तियों पर उनकी बह्यता तथा उन पर बाध्यता अभी पूर्ण रूप से एमिल दुर्खीम एमिल दर्खा इमएमिल दुर्खीम नहीं है। इस प्रकार के सामजिक तथ्यों को ‘‘सामाजिक प्रवाह’’ कहा गया है। उदाहरण के लिए विशिष्ट स्थितियों में उत्पन्न मतों का यत्र-तत्र प्रवाह, साहित्य में उपजी विचारधारांए (नई कविता), भीड़ मंे उत्पन्न उन्माद, लोगों की भीड़ में क्षणिक क्रोध, विशिष्ट घटनाओं द्वारा तिरस्कार या करूणा की भावना का उपजना, आदि।

उपरोक्त सभी सामाजिक तथ्य एक सतत क्रम बनाते हैं तथा समाज के सामाजिक परिवेश को संगठित करते है।

इसके अतिरिक्त दुर्खीमने सामान्य तथा व्याधिकीय प्रकार के सामाजिक तथ्यांे में अंतर किया है। एक सामाजिक तथ्य उस दशा में सामान्य है जब वह उद्विकास की किसी निश्चित अवस्था में किसी निश्चित प्रकार के समाज में सामान्य रूप से मिल जाता है। इससे विचलित तथ्य व्याधिकीय है। उदाहरण के लिए किसी भी सामाज में अपराध की कुछ मात्रा होना आवश्यक है। अतः दुर्खीम के अनुसार उस सीमा तक अपराध एक सामान्य सामाजिक तथ्य है (जैसे ‘आटे में नमक के बराबर’ कहावत में)। जबकि अपराध की दर मं असामान्य वष्द्धि होना व्याधिकीय सामाजिक तथ्य है। अपराध की नैतिक भत्र्सना मं कमी होना तथा विशिष्ट प्रकार के आर्थिक संकट जो समाज को अराजकता की ओर ले जाते है, व्याधिकीय सामाजिक तथ्यों के अन्य उदाहरण हैं।

सामाजिक तथ्य की प्रमुख विशेषताएं 

दुर्खीम के मत एक वस्तुपरक विज्ञान के रूप में सामाजशास्त्र को दूसरे विज्ञानों के प्रारूप के अनुरूप चलना चाहिये। ऐसा करने के लिए दो बातों का होना आवश्यक है। प्रथम, समाजशास्त्र का ‘‘विषय’’ निश्चित होना चाहिये तथा इसको सभी दूसरे विज्ञानों से अलग किया जाना चाहिये। द्वितीय, समाजशास्त्र का ‘‘विषय’’ ऐसा होना चाहिये जिसका अवलोकन व व्याख्या की जाती है। दुर्खीम की दृष्टि मे समाजशास्त्र का ‘‘विषय’’, सामाजिक तथ्य हैं तथा इन सामाजिक तथ्यों को ‘‘वस्तु’’ की भांति समझना चाहिये।

सामाजिक तथ्यों की प्रमुख विशेषताएं हैः 1. बाह्यता 2. बाध्यता 3. स्वतंत्रता तथा 4. सामान्यता। दुर्खीम के अनुसार सामाजिक तथ्यों का अस्तित्व व्यक्तिगत चेतना के बाहर होता है। उनका अस्तित्व व्यक्तियों के परे होता है। उदाहरण के लिए कानून व प्रथाओं में पारिवारिक अथवा नागरिक या संविदात्मक दायित्वों की परिभाषा व्यक्तियों से बाह्य होती है। धार्मिक विश्वास व व्यवहार व्यक्ति से परे व पहले से ही विद्यमान होते है। व्यक्ति समाज में जन्म लेता है और उसे छोड़ जाता है जबकि सामाजिक तथ्य समाज में पहले से ही विद्यमान रहते है। उदाहरणार्थ, भाषा किसी भी व्यक्ति पर निर्भर न रहते हुए स्वतंत्र रूप से कार्यरत है।

सामाजिक तथ्यों की एक अन्य विशेषता यह है कि ये व्यक्ति के ऊपर एक दबाव डालते है। सामाजिक तथ्यों की मान्यता का कारण है। कि ये स्वयं को व्यक्ति पर अधिरोपित करते है। उदाहरण के लिए, कानून शिक्षा, विश्वास आदि प्रत्येक व्यक्ति से पहले ही स्थापित रहते है। वे सभी के लिए प्रभावशाली व दायित्वपूर्ण होते है। जब एक भीड़ में कोइ अनुभव या सोच को अधिरोपित किया जाता है तो यह विवशता या एक प्रकार की बाध्यता का उदाहरण है। इस प्रकार की घटना सिद्धांत रूप से सामाजिक है क्योंकि सामाजिक तथ्य इसका आधार तथा विषय पूरा समूह है न कि कोई व्यक्ति विशेष।

सामाजिक तथ्य वह है जो समाज में लगभग सामान्य रूप से घटित होता है। साथ ही मानव प्रकृति के सार्वभौमिक गुणों व व्यक्तियों के व्यक्तिगत गुणों से सीमित न होने के अर्थ में स्वतंत्र है। इसके उदाहरण किसी समूह द्वारा सामूहिक रूप से किये गये कार्य, अनुभव तथा विश्वास है।

संक्षेप में सामाजिक तथ्य विशिष्ट होते है। उनका जन्म व्यक्तियों के पारस्परिक साहचर्य से होता है। सामाजिक तथ्य सामाजिक समूह अथवा समाज के सामूहिक प्रकरणों का प्रतिनिधित्व करते है। ये व्यक्तिगत चेतना से उत्पन्न तथ्यों से गुणांे में भिन्न होते है। सामाजिक तथ्यों को वर्गीकृत व श्रेणीबद्ध किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त सामाजिक तथ्य समाज के विज्ञान (समाजशास्त्र) की विषय-वस्तु है। सामाजिक तथ्यों की इस प्रकृति के आधार पर यह कहा जा सकता है कि सामाजिक तथ्यों में सामान्यता पाई जाती है अर्थात् सभी समाजों में ऐसे सामाजिक तथ्य होते है जिन्हें वर्गीकृत तथा श्रेणीबद्ध किया जा सकता है।

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