यथार्थवाद क्या है? यथार्थवाद की विशेषताएं और प्रकार

यथार्थवाद कोई नई विचारधारा नहीं हे सृष्टि के आरम्भ से ही मानव अपने चारों ओर की वस्तुओं को देखकर उनमें विश्वास करता रहा है और यही यथार्थवादी विचारधारा की मूल पृष्ठभूमि है। प्रो. डी.एम. दत्त के अनुसार- ‘‘यथार्थवादी दृमिटकोण किसी भी प्रकार दर्शन में एक नवीन विचारधारा नहीं है। यथार्थवादियों के अनुसार यथार्थवाद मानव का मूल प्रवत्यात्मक विश्वास है और इसलिए यह इतना ही पुराना हे जितना मानव।’’ यथार्थवादी विचारधारा का उदय 16वीं शताब्दी के अंत में हुआ।

यथार्थवाद का अर्थ

शब्द अर्थ के अनुसार यथार्थवाद अंग्रेजी भाषा के शब्द Realisum का हिन्दी रुपान्तरण है। Real शब्द की उत्पति ग्रीक भाषा के Red शब्द से मानी जाती है जिसका अर्थ वस्तु है अत: Realisum का अर्थ वस्तु सम्बन्धी विचारधारा से है। एक अन्य दृविट से यथार्थवाद वस्तु के अस्तित्व संबंधी विचारों के प्रति एक दृतिटकोण है जो प्रत्यक्ष जगत को सत्य मानता है। यथार्थवाद के अनुसार जगत की वस्तुएं आवश्यक रूप से वैसी ही है जैसी कि वह दिखाई जाती है। हमारे ज्ञान में वह ठीक वैसी ही रहती हे जैसी कि वह चेतना में आने से पहले होती है हमारे अनुभव करने का उन पर कोइर् प्रभाव नहीं पड़ता। 

यथार्थवादी मान्यता के अनुसार वस्तु का स्वतन्त्र अस्तित्व है। यह वस्तु अनुभव में हो भी सकती है और नहीं भी हो सकती वस्तु का अस्तित्व ज्ञान पर निर्भर नहीं दोनों की सत्ता स्वतन्त्र है क्योंकि जगत में अनेक ऐसी वस्तुएं है जिनके बारे में हमें जानकारी नहीं है परन्तु हम यह नहीं कह सकते कि ऐसी वस्तुओं का अस्तित्व नहीं है। 

प्रसिद्ध विचारक बटलर की दृविट से ‘‘यथार्थवाद संसार को सामान्यत उसी रूप में स्वीकार करता है जिस रूप में वह हमें दिखाई देता है।’’ यथार्थवाद का अर्थ स्वामी रामतीर्थ के अनुसार ‘‘यथार्थवाद उस विश्वास और सिद्धान्त को कहा गया है जो जगत को वैसा ही स्वीकार करता है जैसा दिखाई देता है।’’ 

रॉस का भी कथन है- ‘‘यथार्थवाद का बल इस बात में निहित है कि हम जो कुछ भी अनुभव करते है उनके पीछे ओर उसी से मिलता जुलता वस्तुओं का एक संसार है।’’

यथार्थवादी विचारधारा, सिद्धान्तों अथवा शब्दों की अपेक्षा वस्तुओं या पदार्थों को अधिक महत्व देती है। यह विचारधारा जगत को उसी रूप में स्वीकार करती है जिस रूप में वह दिखाई देता है। यथार्थवादी ‘जो वास्तव में अस्तित्व है।’ उसका अध्ययन करता है। उसके अनुसार अनुभवों के गुण यथार्थ में स्वतन्त्र व संसार के तथ्य है। वह बाहय जगत को काल्पनिक नहीं मानता। वह वास्तविकता व्यावहारिकता, क्रिया, यथार्थ तथा लौकिक जीवन को महत्वपूर्ण मानता है उसकी मान्यता है कि केवल ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान ही सत्य है।

यथार्थवाद की विशेषताएं

  1. यह पदार्थों से बना है पदार्थ ओर जगत वास्तविक है।
  2. ज्ञानेन्द्रियों से परे आध्यात्मिक और मानसिक जगत की संकल्पना भ्रम है।
  3. व्यक्तिमन तथा ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से सांसारिक पदार्थों का ज्ञान प्राप्त करता है।
  4. मनुष्य एक पदार्थ ही है।
  5. ज्ञान प्राप्ति की वैज्ञानिक विधि सर्वोत्तम है विज्ञान के माध्यम से ही हम किसी वस्तु और क्रिया के बारे में व्यवस्थित और क्रमबद्ध ज्ञान प्राप्त करते है।
  6. अवलोकन और प्रयोग आधारित अनुभव ही उत्तम है।
  7. जो कुछ प्रत्यक्ष है वही सत्य है।
  8. विचार तथा वस्तु एक दूसरे से स्वतन्त्र है।
  9. वस्तु का अस्तित्व स्वतन्त्र रूप से होता है। ज्ञान तथा अनुभव इसे जानने में मात्र सहायता करते है।

यथार्थवाद के प्रकार

1. सामाजिक यथार्थवाद

सामाजिक यथार्थवाद के अनुसार सैद्धान्तिक शिक्षा की अपेक्षा जीवनोपयोगी तथा व्यावहारिक शिक्षा दी जानी चाहिए। जीवनोपयोगी व व्यावहारिक शिक्षा द्वारा ही किसी भी व्यक्ति की सामाजिक आवश्यकताओं की पूतीर् की जा सकती है और जब तक मनुष्य की सामाजिक आवश्यकताएं पूरी नहीं हो जाती तब तक वह सुखी नहीं हो सकता है। सैद्धान्तिक शिक्षा में व्यवहारिकता का कोई ज्ञान नहीं होता जिसमें वह सामाजिक व्यवहारों में कुशलता प्राप्त नहीं कर पाता है अत: शिक्षा का उद्देश्य मनुष्य को ज्ञान कोश बनाना नहीं वरन व्यवहार कुशल बनाना है 

सामाजिक यथाथर् वाद ऐसी शिक्षा का समर्थन करता है जो मनुष्य को दूसरी वस्तुओं के सम्बन्ध से प्राप्त होती है। यह सामाजिक जीवन में भाग लेने का समर्थन करता हैं तथा इसके पुस्तकीय ज्ञान को सामाजिक सम्बन्धों के अधीन कर दिया है। रास लार्ड मान्टेन जॉन लॉक मन्टेन इसके प्रमुख समर्थक है।

2. ज्ञानेन्द्रिय यथार्थवाद

17वीं शताब्दी में ज्ञानेन्द्रिय यथार्थवाद का उदय हुआ इनके अनुसार समस्त प्रकार के ज्ञान का साधन हमारी ज्ञानेन्द्रियां है इसलिए बालकों को इन्द्रियों द्वारा वस्तुओं का ज्ञान कराया जाना चाहिए उसे ज्ञानेन्द्रियों प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। ज्ञानेन्द्रिय यथार्थबादियों के अनुसार ज्ञान की प्राप्ति प्रकृति निरीक्षण और इन्द्रिय सम्पर्क से होती हे। अत: हमारी शिक्षा इस प्रकार की होनी चाहिए जिससे बालक को प्रकृति के सम्पर्क में आने का अवसर मिले और वह प्राकृतिक पदार्थों तथा नियमों का ज्ञान प्राप्त कर सके। 

ज्ञानेन्द्रिय यथार्थवाद ने पाठ्यक्रम में भाषा और साहित्य के स्थान पर प्रकृति निरीक्षण और विज्ञान की शिक्षा पर बल दिया। उनके अनुसार शिक्षण विधि वैज्ञानिक और आगमन पद्धति प्रधान होनी चाहिए जिसमें निरीक्षण, विश्लेषण तथा संश्लेषण का आधार लिया जाए। शरीर शिक्षा पर विशेष बल दिया गया। संसार की चर-अचर प्रत्येक वस्तु का एक अंग है समस्त अवयवों में सम्मिलित रूप से तरंगित प्रक्रिया हो रही है जिसके परिणाम स्वरूप परिवर्तन दृरिटगत होते है।

संदर्भ -
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  2. कुमार, राजेन्द्र (2007). आधुनिक भारतीय समाज में शिक्षा : भिवानी लक्ष्मी बुक डिपो
  3. वर्मा, वैद्यनाथ प्रसाद (2007). विश्व के महान शिक्षा शास्त्री : पटना, बिहार हिन्दी ग्रंथ अकादमी
  4. गुप्ता, रेणु (2007). उदीयमान भारतीय समाज में शिक्षा : नई दिल्ली, जगदम्बा पब्लिशिंग कम्पनी
  5. सचदेव एवं शर्मा (2006). उदीयमान भारतीय समाज में शिक्षा : लुधियाना विजया पब्लिकेशन
  6. यादव एवं यादव (2008). आधुनिक भारतीय समाज में शिक्षा : लुधियाना टण्डन पब्लिकेशन

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