प्राचीन भारतीय इतिहास को जानने के पुरातात्विक स्रोत क्या है?

इतिहासकार प्राचीन भारतीय इतिहास को तीन भागो में बाॅटते हैं। वह काल जिसके लिये कोई लिखित साधन उपलब्ध नहीं है जिसमें मानव का जीवन अपेक्षाकृत पूर्णतया सभ्य नहीं था, ‘प्रागैतिहासिक काल‘ कहलाता है। प्रागैतिहासिक काल के अन्तर्गत पाषाणकाल की गणना होती है। वह काल जिसके लिए लेखन कला के प्रमाण तो हैं किन्तु या तो वे अपुष्ट हैं या फिर उनकी गूढ़ लिपि का अर्थ निकालना कठिन है। उसे आद्य इतिहास कहा जाता है। हड़प्पा की संस्कृति और वैदिक कालीन संस्कृति की गणना ‘आद्य इतिहास‘ में की जाती है। वह काल जिसके लिए लेखन कला के प्रमाण हैं और उस लिपि को हम पढ़ने में सफल हो सके हैं उसकी गणना ऐतिहासिक काल के अन्तर्गत होती है। लगभग 600 ई0 पू0 के बाद का इतिहास ‘इतिहास‘ कहलाता है। इसका कारण यह है कि भारत में प्राचीनतम लिखित सामग्री अशोक के अभिलेख हैं जिनका समय ईसा से पूर्व तीसरी शताब्दी है और इस भाषा के विकास में लगभग 300 वर्ष लगे होंगे । 

इसके अतिरिक्त गौतम बुद्ध और महावीर की ऐतिहासिकता में भी कोई संदेह नहीं है। प्रागैतिहासिक काल का इतिहास लिखते समय इतिहासकार को पूर्णतः पुरातात्विक साधनों पर निर्भर रहना पड़ता है। आद्य इतिहास लिखते समय वह साहित्यिक और पुरातात्विक दोनों  प्रकार के साक्ष्यों का उपयोग करता है और इतिहास लिखते समय वह साहित्यिक और पुरातात्विक साधनों के अतिरिक्त विदेशियों के वर्णनों का भी उपयोग करता है। 

विदेशियों के वर्णन भी साहित्यिक साधन है। इन सभी साधनों का उपयोग करके इतिहासकार काल विशेष का सही-सही चित्र प्रस्तुत करने का प्रयत्न करता है।

प्राचीन भारतीय इतिहास जानने के स्रोत

प्राचीन भारतीय इतिहास जानने के साधनों को मुख्य रूप में दो वर्गाें में विभाजित किया गया है- 1. प्राचीन भारतीय इतिहास जानने के साहित्यिक स्रोत 2. प्राचीन भारतीय इतिहास जानने के पुरातात्विक स्रोत।

1. प्राचीन भारतीय इतिहास जानने के साहित्यिक स्रोत 

भारतीय ग्रन्थ - प्राचीन भारतीय ग्रन्थों  को धार्मिक आधार पर तीन वर्गाें में विभाजित किया गया है - ब्राह्मण ग्रन्थ, बौद्ध ग्रन्थ, जैन ग्रन्थ। इसके अतिरिक्त कुछ अन्य समसामयिक ग्रन्थ भी हैं, जो प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से भारतीय इतिहास पर प्रकाश डालते हैं। इस प्रकार भारतीय ग्रन्थों के चार वर्ग निर्धारित होते हैं- 
  1. ब्राह्मण ग्रन्थ 
  2. बौद्ध ग्रन्थ 
  3. जैन ग्रन्थ 
  4. समसामयिक ग्रन्थ 
1. ब्राह्मण ग्रन्थ - ब्राह्मण ग्रन्थो में सर्वप्रथम वेदों की गणना होती है। वेद संख्या में चार हैं - ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद अथवा अथर्ववेद। चारांे वेदों को ‘सहिता‘ भी कहा जाता है। ऋग्वेद में 10 मण्डल 1028 सूक्त हैं। इसके कुछ मंत्रों में आर्याें के विस्तार तथा दाशराज युद्ध का उल्लेख मिलता है। यह युद्ध आर्याे के दो प्रमुखजनो - भरत तथा पुरू के बीच हुआ था। भरत जन के नेता सुदास ने दस राजाओं के संघ को रावी नदी के तट पर परास्त किया था। इसी भरत जन के नाम हमारे देश का नाम भारत पड़ा। 

2. ब्राह्मण - चारो वेदों पर लिखी गयी गद्यमय टीकाओ को ब्राह्मण कहा जाता है। जैस-े ऋग्वेद दो ब्राह्मण ग्रन्थ - ऐतरेय, कौषीतकी, यजुर्वेद के शतपथ और तैत्तिरीय, सामवदे के पचं विश और अथर्ववेद के गोपथ ब्राह्मण ग्रन्थ है। इन ब्राह्मण गन्थो मे तत्कालीन सामाजिक तथा धार्मिक जीवन के साथ-साथ विभिन्न ऐतिहासिक राजवंशों का परिचय मिलता है। 

3. आरण्यक-उपनिषद - ये मुख्यतः दार्शनिक ग्रन्थ हैं जिनका ध्येय ज्ञान की खोज करना है। इनमें भी कुछ ऐतिहासिक तथ्य प्राप्त होते हैं। उपनिषदो की कुल संख्या - 108 है जिनमें वृहदारण्यक, छान्दोग्य, केन, ईश, कठ, मुण्डक आदि प्रमुख है। 

4. वेदांग के सूत्र - वेदों की भली भाॅति समझने के लिए छः वेदांगों की रचना की गयी शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरूक्त, छन्द और ज्योतिष। इसी प्रकार वैदिक साहित्य को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए सूत्र साहित्य की रचना की गयी। श्रौत, गृहय तथा धर्मसत्रू के अध्ययन से हम यज्ञीय विधि-विधानों कर्मकाण्डों तथा राजनीति, विधि एवं व्यवहार से सम्बन्धित अनेक महत्वपूर्ण बातें ज्ञात करते हैं। 

5. महाकाव्य - वेदांगों तथा सूत्र साहित्य का उल्लेख करने के पश्चात हम महाकाव्यों के ऐतिहासिक महत्व पर विचार करते हैं। रामायण और महाभारत दो महाकाव्य हैं। वाल्मीकिकृत रामायण से ज्ञात होता है कि भारतवासियों का कोई युद्ध यवन और शक जातियों के साथ हुआ था। इससे तत्कालीन सामाजिक, धार्मिक एवं आर्थिक स्थिति का भी ज्ञान प्राप्त होता है। इस ग्रन्थ कुल सात खण्ड हैं जिनमें से पहले तथा अन्तिम काण्ड के कुछ श्लोकों को प्रक्षिप्त माना जाता है। 

महर्षि व्यासकृत महाभारत में कुल 18 पर्व तथा 1 लाख श्लोक हैं। प्रारंभ में इस ग्रन्थ का नाम ‘जय‘ था बाद में भारत पड़ा और वर्तमान में यह महाभारत नाम से ज्ञात है। हरिवंश नाम से इसमें एक अतिरिक्त परिशिष्ट पर्व भी है। मुख्य रूप से इस महाकाव्य का वण्र्यविषय कौरव पाण्डवांें का युद्ध है, किन्तु साथ ही इसमे युनानी, शक एव पल्लव नामक कुछ विदेशी जातियों का उल्लेख भी है। इसके अतिरिक्त इस महाकाव्य मं े विष्णु एवं शिव की स्थापना विभिन्न स्थानों पर की गयी है और अनेक बार मन्दिरों एवं स्तूपों का उल्लेख भी हुआ है। 

इस महाकाव्य से प्राचीन भारतीय राजनीति धर्म एवं संस्कृति का व्यापक ज्ञान होता है। 

6. पुराण - भारतीय ऐतिहासिक कथाओं का सबसे अच्छा क्रमबद्ध विवरण पुराणो में मिलता है। पुराणो के स्वयिता लोमहर्ष अथवा उनके पुत्र उग्रश्रवा माने जाते हैं। सर्वप्रथम पार्जिटर महोदय ने इनके ऐतिहासिक महत्व को स्वीकार किया। पुराणों की संख्या 18 है। इनके अतिरिक्त साम्ब, नरसिंह, कालिका आदि उपपुराण भी है। अमरकोष में पुराणों के लक्षण पाँच बताये गये हैं - सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, महन्वन्तर और वंशानुचरित। इनमें ऐतिहासिक दृष्टि से ‘वंशानुचरित‘ का विशेष महत्व है। पुराणो में मत्स्य सबसे अधिक प्राचीन एवं प्रामाणिक है। पुराणो का रचनाकाल मुख्यतः गुप्तकाल के आस-पास माना जाता है। 

7. स्मृतिग्रन्थ - इन्हें धर्मशास्त्र भी कहा जाता है। इनमें मनुस्मृति तथा याज्ञक्ल्वयस्मृति सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त अन्य स्मृति ग्रन्थ है - विष्णु स्मृति, नारद स्मृति, पराशर स्मृति आदि। वर्तमान भारतीय कानून का निर्माण इन्हीं स्मृति-ग्रन्थो के विवरणो के आधार पर किया गया है। 

8. बौद्ध ग्रन्थ - बौद्ध ग्रन्थ पालि तथा संस्कृत दो भाषाओं में मिलते हैं। इनमें प्राचीनतम तथा सर्वाधिक महत्वपूर्ण है-पालि भाषा मे रचित त्रिपिटक। यह तीन पिटक है - सुत्त पिटक, विनय पिटक तथा अभिधम्म पिटक। सुत्त पिटक में गौतमबुद्ध के धार्मिक उपदेशों का संग्रह है। विनय पिटक में तथा अभिधम्म पिटक। सुत्त पिटक मे गौतमबुद्ध के धार्मिक उपदेशों का संग्रह है। विनय पिटक में बौद्ध संघ से सम्बन्धित विधि-विधानो का संग्रह है। अभिधम्म पिटक मे धर्म के सिद्धान्त की दार्शनिक व्याख्या मिलती है। पालि भाषा में रचित अन्य बौद्ध ग्रन्थो को अनुपिटक कहा जाता है। 

अनुपिटकों में प्राचीन भारतीय इतिहास लेखन की दृष्टि से मिलिन्दपन्हो, दीपवश्ं तथा महावश्ं ा का नाम महत्वपूर्ण है तथा संस्कृत बौद्ध ग्रन्थो में बुद्ध चरित, ललितविस्तर, दिव्यावदान, महावस्तु तथा सौन्दरानन्द आदि उल्लेखनीय हैं। 

9. जैन ग्रन्थ - जैन ग्रंथ मुख्यतः दो प्रकार के हैं - पुराण तथा आगम। जैन पुराणों को प्रायः चरित भी कहा जाता है। इनमें पद्मपुराण, उत्तर पुराण, आदि पुराण, महापुराण, महावीरचरित, आदिनाथ चरित विशेष रूप से उल्लेखनीय है। ये पुराण (चरित) प्राकृत, संस्कृत तथा अपभ्रंश भाषाओं में हैं। जैन आगमो के अन्तर्गत प्रायः 12 अंगो, 12 उपांगो, 10 प्रकीर्ण को 6 छेदसूत्रो, एक नन्दिसत्रू , एक अनुयोगद्वार 15 और चार मूल सूत्रों की गणना की जाती है। इनमें आचारांगसुत्त, और भगवतीसूत्र प्रमुख है। जैन विद्वानों की टीकाएॅ भी भारतीय इतिहास जानने के स्रोत हैं।

10. समसामयिक ग्रन्थ - उपर्युक्त धार्मिक ग्रन्थों के अतिरिक्त अन्य अनेक ऐसे ग्रन्थ भी हैं। जो प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से समसामयिक इतिहास पर प्रकाश डालते हैं। इनमें से कौटिल्य के अर्थशास्त्र, गार्गीसंहिता, कामन्दक के नीतिशास्त्र को अर्थ - ऐतिहासिक तथा मुद्राराक्षस, मानविकाग्निमित्र हर्षचरित, गौडवहो, मंजुश्रीमूलकल्प, नवसाहसांकचरित, राजतरंगिणी, विक्रमांकदेवचरित, कुमारपाल चरित, प्रबन्धचिन्तामणि, कीर्तिकौमुदी, वंसतविलास, अवन्तिसुन्दरीकथा, पृथ्वीराजविजय, रामचरित, हम्मीर महाकाव्य चचनामा आदि को ऐतिहासिक ग्रन्थो की श्रेणी में रखा जा सकता है। इनमें से अर्थ ऐतिहासिक ग्रन्थ तद्युगीन राजनीति, शासन-व्यवस्था, धर्म, समाज एवं संस्कृति पर तथा ऐतिहासिक ग्रन्थ उस समय होने वाली ऐतिहासिक घटनाओं पर प्रकाश डालते हैं। यह सभी ग्रन्थ उत्तर भारतीय इतिहास की रचना में सहायक है, जबकि दक्षिण भारतीय इतिहास की रचना में हमें सर्वाधिक सहायता तमिल तथा कन्नड साहित्य से मिलती है। 

तमिल रचनाओं से पाण्ड्य, चोल तथा चेर राजवंशों के इतिहास की जानकारी मिलती है। शिल्पादिकारम, मणिमेकलै, जीवक चिन्तामणि संगम साहित्य हैं। कन्नड़ साहित्य में कविराजमार्ग, विक्रमार्जुनविजय और गदायुद्ध नामक ग्रन्थ उल्लेखनीय हैं जिनसे चालुक्य तथा राष्ट्रकूट राजवंश के इतिहास लेखन में सहायता मिलती है। 

11. विदेशी यात्रियों के विवरण - विदेशी यात्रियों के विवरण का विवेचन हम तीन वर्गाें में करेंगे - 1. यूनानी और रोम के लेखक 2. चीन के लेखक 3. अरब के लेखक। 

2. प्राचीन भारतीय इतिहास जानने के पुरातात्विक स्रोत

1. पुरावशेष -  पुरातात्विक स्थलों से प्राप्त अवशेष ही पुरावशेष हैं जैसे - पाषाण उपकरण, मृदभाण्ड, लौह उपकरण, मानव मुण्ड आदि। इनके अध्ययन से हम तत्कालीन समाज, धर्म, अर्थव्यवस्था आदि का ज्ञान प्राप्त करते हैं।

2. अवशेष - बस्तियों के स्थानों के उत्खनन से जो अवशेष मिले हैं उनसे प्रागैतिहासिक और आद्य इतिहास अतीत पर बहुत प्रकाश पड़ा है। आदि मानव ने किस प्रकार उपलब्ध प्राकृतिक साधनों का उपयोग करके अपने जीवन को सुखमय बनाने का प्रयत्न किया, इसकी जानकारी हमें उनकी बस्तियों से प्राप्त पत्थर और हड्डी के औजारों, मिट्टी के बर्तनों, मकानों के खंडहरों से ही होती है।

3. सिक्के - प्राचीन भारतीय इतिहास के पुरातात्विक सामग्री में सिक्कों का स्थान भी कुछ कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। भारत के प्राचीनतम सिक्कों पर अनेक प्रकार के चित्र उत्कीर्ण हैं। उन पर किसी प्रकार के लेख नहीं हैं यह सिक्के आहत सिक्के कहलाते हैं। इन पर जो बने हैं उनका ठीक-ठीक अर्थ ज्ञात नहीं। इन सिक्कों को राजाओं के अतिरिक्त संभवत: व्यापारियों, व्यापारिक श्रेणियों और नगर निगमों ने चालू किया था। इनसे इतिहास अतीतकारों को विशेष सहायता नहीं मिली है। अरस्तू द्वारा कहा गया है कि पहले सिक्के प्राचीन ग्रीस के क्यमे के डेमोदी के द्वारा गढ़े गए थे जिसने पेस्सिनस के राजा मिदाज्ञ से शादी की थी और जिससे आगामेमनन नाम का एक पुत्र था। हेरोडोट्स ने कहा है कि (I, 94) लाइडियन्स पहले थे जिन्होंने सोने और चांदी के सिक्के बनाए उनके कहने का अर्थ है कि पहले दोनों सिक्के अलग-अलग कीमती धातुओं से गढ़े गए थे। बहुत से लोग उनके बयान से भ्रमित हो जाते हैं जैसा कि उल्लेखित है इन सिक्कों को एलेक्ट्रम ;सोना और चाँदी के मिश्रण से बना एक प्राकृतिक धातुद्ध से गढ़ा गया था।

भारत के प्राचीन सिक्के
भारत के प्राचीन सिक्के

कुछ पुरातात्विक और साहित्यिक प्रमाण बताते हैं कि भारतीय ने सबसे पहले, छठी और पाँचवीं सदी ई.पू. के बीच सिक्कों का आविष्कार किया था। हालांकि, कुछ मुद्राशास्त्री के विचार से सिक्के लगभग 600-550 ई.पूआनातोलिय में उद्भूत किए गए। विशेष रूप से लिडिया के आनातोलिया राज्य में जो आधुनिक युग के तुर्की से मेल खाता है।

आमतौर पर सिक्के को धातु या धातु सदृश सामग्री से बनाया जाता है। सामान्यतया जिसकी बनावट गोल चिपटी होती है और यह अकसर सरकार द्वारा जारी की जाती है। प्रतिदिन के सिक्के के संचरण से लेकर बड़ी संख्या में बुलियन सिक्के के भंडारण के लिए विभिन्न प्रकार से लेनदेन में सिक्के का प्रयोग ‘पैसे’ के रूप में होता है।

संपूर्ण इतिहास अतीत में सरकारें अपनी आपूर्ति से ज्यादा कीमती धातुओं से सिक्के बनाने के लिए जानी जाती है। सिक्के में मिश्रित अनमोल धातु के कुछ अंग को एक आधार धातु (अकसर तांबा या निकिल) से प्रतिस्थापित बदलकर सिक्के के आंतरिक मूल्य को कम किया गया (उससे उनके पैसे का अपमिश्रण होने लगा)। इस प्रकार सिक्कों का निर्माण करने के अधिकारी के लिए और अधिक सिक्के का उत्पादन संभव हो सका।

सिक्के ढालने का एकमात्र अधिकार भारत सरकार को है। सिक्का निर्माण का दायित्व समय-समय पर यथासंशोधित सिक्का निर्माण अधिनियम, 1906 के अनुसार भारत सरकार का है। विभिन्न मूल्यवर्ग के सिक्कों के अभिकल्प तैयार करने और उनकी ढलाई करने का दायित्व भी भारत सरकार का है। किंतु जब उत्तर-पश्चिमी भारत पर वैक्ट्रिया के हिन्द-यूनानी शासकों ने अधिकार कर लिया और सिक्का-लेखों वाले अपने सिक्के चलाए तो भारतीय शासक भी सिक्का-लेख वाले सिक्के चलाने लगे। इन सिक्कों पर सिक्का-लेख के अतिरिक्त बहुध सिक्के को चालू करने वाले शासक की आकृति भी होती थी।

यह सिक्के प्राचीन भारत का राजनीतिक इतिहास अतीत लिखने में उपयोगी सिद्ध हुए। उदाहरण के लिए यूनान और रोम के इतिहास अतीतकारों ने केवल चार या पाँच हिंदू-यूनानी शासकों का उल्लेख किया है किन्तु इनके सिक्कों के आधार पर इनके राज्यकाल का पूरा इतिहास अतीत लिखना संभव हो सकता है। यूनानी शासकों के बाद जिन शक और पह्लव और कुषाण शासकों ने उत्तर-पश्चिमी भारत में शासन किया उन्होंने भी यूनानियों के अनुरूप सिक्के चलाए। इसके बाद भारतीय राजतंत्र और गणतंत्र राज्यों के शासकों ने भी ऐसे ही सिक्के चलाए। पांचाल के मित्र शासकों और मालव तथा यौधेय आदि गणराज्यों का पूरा इतिहास अतीत उनके सिक्कों के आधार पर ही लिखा गया। गुप्त सम्राटों का इतिहास अतीत अधिकतर उनके अभिलेखों के आधार पर लिखा गया है किंतु उनके सिक्कों से भी उनकी उपलिब्ध्यों पर पर्याप्त प्रकाश पड़ा है।

4. चित्रकला - चित्रकला का प्रचार भारत, चीन, मिस्र आदि देशों में अत्यंत प्राचीन काल से है। मिस्र से ही चित्रकला यूनान में गई जहाँ उसने बहुत उन्नति की। लंदन के ब्रिटिश संग्रहालय में 3000 वर्ष तक के पुराने मिस्र चित्र हैं। भारतवर्ष में भी अत्यंत प्राचीन काल से यह विद्या प्रचलित थी इसके अनेक प्रमाण मिलते हैं। रामायण में चित्रों, चित्रकारों और चित्रशालाओं का वर्णन बराबर आया है। प्राकृतिक दृश्य को अंकित करने में प्राचीन भारतीय चित्रकार कितने निफण होते थे, इसका कुछ अभ्यास भवभूति के उत्तररामचरित के देखने से मिलता है जिसमें अपने सामने लाए हुए बनवास के चित्रों को देख सीता चकित हो जाती है। यद्यपि आजकल कोई ग्रंथ चित्रकला पर नहीं मिलता है तथापि प्राचीनकाल में ऐसे ग्रंथ अवश्य थे। कश्मीर के राजा जयादित्य की सभा के कवि दामोदर गुप्त आज से 2200 वर्ष पहले अपने कुट्टनीमत नामक ग्रंथ में चित्रविध के चित्रसूत्र नामक एक ग्रंथ का उल्लेख किया है। अजंता गुफा के चित्रों में भारतवासियों की चित्रनिफणता देख चकित रह जाना पड़ता है।

बड़े-बड़े विज्ञ यूरोपियनों ने इन चित्रों की प्रशंसा की है। उन गुफाओं में चित्रों का बनाना ईसा से दो सौ वर्ष पूर्व आरंभ हुआ था और आठवीं शताब्दी तक कुछ न कुछ गुफाएँ नई खुदती रही हैं। अत: डेढ़-दो हजार वर्ष के प्रत्यक्ष प्रमाण तो यह चित्र अवश्य हैं। इसी प्रकार अजंता के चित्रों के मनोभावों की सुन्दर अभिव्यक्ति मिलती है। चित्रकला ने माता और शिशु या ‘मरणासन्न राजकुमारी’ जैसे चित्रों में ऐसे मनोभावों का चित्रण किया है जो शाश्वत हैं और जो किसी देश या काल विशेष की बपौती नहीं है।

उनसे गुप्तकाल और कलात्मक उन्नति का पूर्ण आभास मिलता है। जीवन और कला का आन्योन्याश्रय संबंध है। चित्रकला से हमें तत्कालीन जीवन की झलक देखने को मिलती है।

5. स्मारक और भवन - प्राचीन काल के महलों और मन्दिरों की शैली से वास्तुकला के विकास पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है। उदाहरण के लिए, उत्तर भारत के मन्दिरों की कुछ अपनी विशेषताएँ हैं। उनकी कला की शैली ‘नागर शैली’ कहलाती है। दक्षिण भारत के मंदिरों की कला ‘द्रविड़ शैली’ कहलाती है। दक्षिणापथ के मंदिरों के निर्माण में नागर और द्राविड़ दोनों शैलियों का प्रभाव पड़ा, अत: वह ‘वेसर शैली’ कहलाती हैं।

प्राचीन मंदिर कई अलग-अलग जगह स्थापित किए गए। प्राचीन शिव मंदिर छत्तीसगढ़ राज्य के रायपुर जिले में डमरू नगर में स्थित है। यह स्मारक छत्तीसगढ़ राज्य द्वारा संरक्षित है। पेइचिंग में बड़ी संख्या में प्राचीन वास्तु निर्माण उपलब्ध हैं किन्तु ऐसा प्राचीन निर्माण केवल एक है जिसमें हान, मान, मंगोल और तिब्बत जातियों की शैली मिश्रित है, वह है यह मंदिर यानि लामा मंदिर। यह मंदिर विश्वविख्यात तिब्बती बौद्ध धर्म के मंदिरों में से एक है जिसका क्षेत्रफल 60 हजार वर्ग मीटर है और भवनों और कमरों की संख्या एक हजार से ज्यादा है। यह मंदिर पहले छिंग राजवंश के मशहूर सम्राट खागसी ने अपने चौथे पुत्र यनचन के लिए वर्ष 1694 में बनवाया था।

कन्फ़्यूशियस प्राचीन मंदिर चीन का प्रथम मंदिर माना जाता है पिछले दो हजार से ज्यादा सालों में इस मंदिर में नियमित कन्फ़्यूशियस की पूजा की जाती आई है। प्राचीन चीन का दार्शनिक कन्फ़्यूशियस विश्व में सर्वमान्य महान प्राचीन दार्शनिकों में से एक थे। वह चीन के कन्फ़्यूशियस शास्त्र के संस्थापक थे। चीन के पिछले दो हजार वर्ष लम्बे प्राचीन इतिहास अतीत में विभिन्न राजवंशों ने कन्फ़्यूशियस और उसके शास्त्र का समर्थन किया है।

कन्फ़्यूशियस मंदिर उत्तर-दक्षिण में एक हजार मीटर लम्बा है। उसका क्षेत्रफल एक लाख वर्ग मीटर तथा मंदिर में तकरीबन पाँच सौ कमरे हैं। मंदिर का पैमाना पेंइचिंग के पुराने शाही प्रसाद के बाद चीन का दूसरा बड़ा प्राचीन निर्माण समूह है। जो चीन के प्राचीन काल के मंदिर स्थापत्य कला की आदर्श मिसाल मानी गई है। इस प्रकार स्मारकों और भवनों से वास्तुकला के विकास के अध्ययन में बहुत सहायता मिलती है।

6. मूर्तियाँ - इसी प्रकार प्राचीन काल में कुषाणों, गुप्त शासकों और गुप्तोत्तर काल में जो मूर्तियाँ बनाई गई उनसे जनसाधारण की धार्मिक आस्थाओं और मूर्ति-कला के विकास पर बहुत प्रकाश पड़ा है। भारत की मूर्ति-कला की जड़ें भारतीय सभ्यता के इतिहास अतीत में बहुत दूर गहरी प्रतीत होती है। भारतीय मूर्तिकला आरंभ से ही यथार्थ रूप लिए हुए हैं जिसमें मानव आकृतियों में प्राय: पतली कमर, लचीले अंगों और एक तरूण और संवेदनापूर्ण रूप को चित्रित किया जाता है। भारतीय मूर्तियों में पेड़-पौधे और जीव-जन्तुओ से लेकर असंख्य देवी देवताओं को चित्रित किया गया है। कुषाण काल की मूर्ति-कला में विदेशी प्रभाव अधिक है। गुप्त काल की मूर्ति-कला में अंतरात्मा तथा मुखाकृति में जो सामंजस्य है वह अन्य किसी काल की कला में नहीं मिलता।

7. अभिलेख: अभिलेखों का ऐतिहासिक महत्व साहित्यिक साक्ष्यों से अधिक है। ये अभिलेख पाषाण शिलाओं स्तम्भो, ताम्रपत्रों, दीवारों मुद्राओं एवं प्रतिमाओं  आदि पर खुदे हुए मिले हैं। सबसे प्राचीन अभिलेखों मे  मध्य एशिया के बोघजकोई से प्राप्त अभिलेख हैं। इनमें वैदिक देवता इन्द्र, वरूण आदि के नाम मिलते हैं। पारसीक नरेशों के अभिलेख हमें पश्चिमोत्तर भारत में ईरानी साम्राज्य के विस्तार की सूचना देते हैं। परंतु अपने यथार्थ रूप में अभिलेख हमें अशोक के शासन काल से ही मिलने लगे हैं। अभिलेखों से अशोक के साम्राज्य की सीमा, उसके धर्म तथा शासन नीति पर महत्वपूर्ण प्रकाश डालता है। देवदत्त रामकृष्ण भण्डारकर (डी0आर0भण्डारकर) ने केवल अभिलेखो पर ही अशोक का इतिहास लिखा है।

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