पाठ्यपुस्तक किसे कहते है? पाठ्य पुस्तक की आवश्यकता एवं महत्व

किसी विषय के ज्ञान को जब एक स्थान पर पुस्तक के रूप में संगठित ढंग से प्रस्तुत किया जाता है तो उसे पाठ्य-पुस्तक की संज्ञा प्रदान की जाती है। राष्ट्रीय पाठयचर्या रूपरेखा 2005 में पाठयपुस्तक को एक शिक्षण अधिगम सामग्री के पैकेज का भाग माना है एवं कहा है ‘‘पाठयपुस्तक एक मार्गदर्शिका के रूप में प्रयोग की जाने वाली सहायक सामग्री है जिससे छात्र सक्रिय रूप से पाठ, विचारों, वस्तुओं, वातावरण और लोगों से जुड़ता है एवं उनके अन्दर अपनी समझ का निर्माण करता है यह ऐसी चीज नहीं जो ज्ञान को अंतिम उत्पाद के रूप में बच्चों के दिमाग में भरने का काम करें’’

पाठ्यपुस्तक की परिभाषा

राष्ट्रीय पाठयचर्या रूपरेखा (2005) एवं अधिगम बिना बोझ के 1953 ने माना कि भारत के अधिकांश स्कूलों में पाठयपुस्तक कक्षा में हावी है, इन्होंने यह भी माना पाठयपुस्तक केवल सूचनाओं का भण्डार है और शिक्षक इन सूचनाओं को छात्र तक इन पाठ्यपुस्तक के माध्यम से पहुंचा रहे है। शिक्षा प्रणाली में पाठय पुस्तकों को वही स्थान हासिल है जो कि हमारे धर्मों में पवित्र पुस्तकों का है। यह कहना गलत नही होगा कि शिक्षण अधिगम की प्रक्रिया का प्रारंभ एवं अंत पाठयपुस्तक से ही होता है यहाॅ तक की विभिन्न प्रकार के क्रियाकलापों का आयोजन शिक्षक छात्र के बीच अंत क्रिया परीक्षा इत्यादि सभी पाठय्पुस्तक केन्द्रित है। इसके जरूरत से ज्यादा महत्व के कारण पाठयपुस्तक ने एक गौरवशाली और मानक रूपरेखा केा अपना लिया है पाठयपुस्तक एक प्रभुत्व का प्रतीक बन गई है जिसे अवमानित करना कठिन है।

राष्टीªय पाठयचर्या रूपरेखा 2005 के अनुसार पाठयपुस्तक भारत में मूल सिद्धातो के आधार पर रची गई है परन्तु विद्यालय एवं शिक्षक को स्वायतता प्रदान करें जिससे वह कक्षा के स्तर पर आकर विभिन्न प्रकार के प्रयोग जैसे सीखने के गति, सामग्री एवं मूर्त उदाहरण शिक्षण, पद्धति विषय-वस्तु से जूड़ी हुई अनुभव इत्यादि का चुनाव कर सके राष्ट्रीय पाठयचर्यी रूपरेखा ने माना कि पाठयपुस्तकों का निर्माण इस तरह से हो जिसमें शिक्षक एवं छात्र को सृजनात्मक कार्य करने की प्ररेणा मिले। शिक्षक एवं छात्र पाठ्यपुस्तक के अधीन न हो जाए। पाठयपुस्तक का निर्माण करते समय इस बात पर विशेष ध्यान दिया जाए कि वह अधिक से अधिक विकेन्द्रित हो एवं राज्य, जिला ब्लाक स्तर पर छात्र से जुड़े क्रियाकलापों को शामिल किया जायें जिससे लचीलापन की नीति अपनाई जा सकें। पाठयपुस्तक में विषय-वस्तु को बोझ न बनाकर अपितु समझ कर सीखने एवं सीखने के अधिगम पर जोर दे तथा छात्रों के व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर समझने की क्षमता वृद्धि में उनकी सहायता करें।

शिक्षक क्योंकि शिक्षण अधिगम प्रक्रिया के लिए जिम्मेदार होता है और यह उसकी स्वतन्त्रता एवं स्वायतता पर निर्भर करता है कि वह पाठय-पुस्तक की पठन-पाठन सामाग्री का अंग बनाता है या वह उसे एक मात्र स्त्रोत मानता हे।

पाठ्यपुस्तक के मूल्यांकन हेतु शैलडन (1998) ने कई प्रमुख कारण बतायें है। उन्होनें कहा है कि पाठय-पुस्तक बहुत ही महत्वपूर्ण प्रशासनिक एवं शैक्षिक फैसले लेने में अपनी भूमिका अदा करता है। जिसमें शामिल होता है व्यावसायिक, वित्तीय एवं राजनैतिक। पाठयपुस्तक के मूल्याकंन से शिक्षक को यह तय करने में मदद मिलती है कि विभिन्न प्रकार की जो पाठ्य-पुस्तके उपलब्ध है उनमें से बेहतर कौन सी है, इसके अलावा विषय-वस्तु से परिचित करना एवं पाठय-पुस्तक के गुण-दोष से भी अवगत करता है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि पाठय-पुस्तक का विशलेषण शिक्षक के वृति-विकास में सहायता प्रदान करता है। 

कनिंगवर्थ (1995) एवं एलिस (1997) ने सुझाव दिया कि पाठयपुस्तक का मूल्याकन शिक्षक को शुद्ध, उपयोगी, व्यवस्थित एवं परिपेक्षय अंर्तदृष्टि को अधिग्रहण करने में मदद करता है। पाठय-पुस्तक के मूल्यांकन के द्वारा शिक्षक क्रियात्मक अनुसंधान एवं व्यावसायिक सशक्तिकरण कर सकता है। दुनिया राष्ट्र एवं समाज में होने वाले बदलावों एवं नये ज्ञान के सृजन को पाठय पुस्तकों ने समाहित कैसे और किन बिन्दुओं से इनका मूल्यांकन शिक्षक करें। 

हैरोलिकर के अनुसार- ‘‘पाठ्य-पुस्तक ज्ञान, आदतों, भावनाओं, क्रियाओं तथा प्रवृत्तियों का सम्पूर्ण योग है।’’

हाल-क्वेस्ट के शब्दों में- ‘‘पाठ्य-पुस्तक शिक्षण अभिप्रायों के लिए व्यवस्थित प्रजातीय चिन्तन का एक अभिलेख है।’’

डगलस का कथन है- ‘‘अध्यापकों के बहुमत ने अन्तिम विश्लेषण के आधार पर पाठ्य-पुस्तक को वे क्या और किस प्रकार पढ़ायेंगे, की आधारशिला माना है।’’

बेकन का कहना है - ‘‘पाठ्य-पुस्तक कक्षा-प्रयोग के लिए विशेषज्ञों द्वारा सावधानी से तैयार की जाती है। यह शिक्षण युक्तियों से भी सुसज्जित होती है।’’

पाठ्य पुस्तक की आवश्यकता एवं महत्व 

इसका विद्यालय में महत्वपूर्ण स्थान है। इसका अतीत में भी अधिक महत्व था तथा आज भी है। इसको जनसामान्य की भी लोकप्रियता प्राप्त होती है, क्योंकि पाठ्य-पुस्तक विद्यालय या कक्षा में छात्रों तथा शिक्षकों के लिए विशेष रूप से तैयार होती है, क्योंकि पाठ्य-पुस्तक विद्यालय या कक्षा में छात्रों तथा शिक्षकों के लिए विशेष रूप से तैयार की जाती है जो किसी एक विषय या सम्बन्धित विषयों की पाठ्यवस्तु का प्रस्तुतीकरण करती है।’’ पाठ्य-पुस्तक की आवश्यकता एवं महत्व को निम्नांकित कारणों से स्वीकार किया जाता है -
  1. पाठ्य-पुस्तक में निर्धारित पाठ्यक्रम के अनुसार विषय का संगठित ज्ञान एक स्थान पर मिल जाता है।
  2. पाठ्य-पुस्तकें शिक्षकों एवं छात्रों के लिए मार्गदर्शन का कार्य करती है।
  3. पाठ्य-पुस्तकों के द्वारा छात्रों एवं शिक्षकों को यह जानकारी मिलती है कि किसी कक्षा-स्तर के लिए कितनी विषयवस्तु का अध्ययन-अध्यापन करना है।
  4. इनके द्वारा छात्रों एवं शिक्षकों के समय की बचत होती है।
  5. छात्रों का मानसिक स्तर इतना ऊँचा नहीं होता है कि वे विद्यालय में पढ़ाई गई विषयवस्तु को एक ही बार में आत्मसात् कर सकें। उन्हें विषयवस्तु को कई बार पढ़ना एवं दुहराना पड़ता है। अतः पाठ्य-पुस्तक की आवश्यकता होती है।
  6. योग्य शिक्षकों का ज्ञान भी अव्यवस्थित होता है। अतः उसे व्यवस्थित करने में पाठ्य-पुस्तक सहायक होती है। इसी प्रकार छात्रों के अपूर्ण ज्ञान को परिवर्धित एवं पूर्णता प्रदान करने के लिए यह सहायक होती है।
  7. पाठ्य-पुस्तकों के माध्यम से स्वाध्याय द्वारा ज्ञान प्राप्त करने में छात्रों को प्रेरणा प्राप्त होती है।
  8. पाठ्य-पुस्तक के आधार पर कक्षा-कार्य तथा मूल्यांकन सम्भव होता है।
  9. पाठ्य-पुस्तक के आधार पर प्रत्येक राज्य में, प्रत्येक कक्षा में एक निश्चित पाठ्यवस्तु का अध्यापन सम्भव होता है तथा इससे छात्रों का मूल्यांकन सामूहिक रूप से किया जा सकता है।
  10. पाठ्य-पुस्तकें छात्रों को विषयवस्तु को संकलित करने में सहायता प्रदान करती है।
  11. इनके माध्यम से छात्रों की स्मरण एवं तर्क-शक्ति का विकास होता है।
  12. पाठ्य-पुस्तकें मन्दबुद्धि तथा प्रतिभाशाली दोनों प्रकार के बालकों के लिए उपयोगी होती है।
  13. ये परीक्षा के समय छात्रों की सहायक होती है।
  14. पाठ्य-पुस्तकें शिक्षक को कक्षा-स्तर के अनुसार शिक्षण कार्य करने का बोध कराती है।
  15. पाठ्य-पुस्तक में विषयवस्तु को तार्किक ढंग से प्रस्तुत किया जाता है जिससे छात्रों के लिए विषयवस्तु सरल एवं सुगम हो जाती है।
  16. पाठ्य-पुस्तक कक्षा-शिक्षण की अनेक कमियों को भी दूर करती है। कक्षा-शिक्षण के समय शिक्षक सभी छात्रों पर व्यक्तिगत रूप से ध्यान नहीं दे पाता है (अतः पाठ्य-पुस्तकों की सहायता से छात्र व्यक्तिगत रूचि एवं गति के साथ अध्ययन कर सकते है)।
  17. पाठ्य-पुस्तकें शिक्षकों तथा छात्रों को विद्वानों के बहुमूल्य विचारों एवं उपयोगी अुभवों को प्रदान करती हैं जिससे वे इन अनुभवों का लाभ उठाने में समर्थ हो सकते है।
  18. पाठ्य-पुस्तकों से अध्ययन-अध्यापन में एकरूपता आती है।
  19. पाठ्य-पुस्तकों में विषय के पाठ्यक्रम की सम्पूर्ण रूप में व्याख्या की जाती है जिसमें शिक्षक उपयुक्त अधिगम अनुभव प्रदान कर सकता है।
  20. विभिन्न शिक्षा आयोगों द्वारा भी पाठ्य-पुस्तकों की आवश्यकता एवं महत्व को स्वीकार किया गया है।

अच्छी पाठ्य-पुस्तक की प्रमुख विशेषताएँ

एक अच्छी पाठ्य-पुस्तक में निम्नांकित गुणों का होना आवश्यक होता है -
  1. विषयवस्तु का प्रस्तुतीकरण बालकों के मानसिक स्तर के अनुरूप।
  2. विषयवस्तु का संगठन तार्किक एवं मनोवैज्ञानिक।
  3. व्याख्या, स्पष्टीकरण, उदाहरणों आदि की सहायता से विषय का सरलीकरण।
  4. भाषा-शैली में सरलता, स्पष्टता, मौलिकता एवं प्रवाहशीलता।
  5. विद्यार्थियों में स्वयं पढ़ने की रूचि विकसित कर सकने की क्षमता।
  6. अन्य लेखकों, विद्वानों के संदर्भ स्पष्ट, विश्वसनीय एवं वैध हो।
  7. मुख्यपृष्ठ सचित्र, आकर्षक एवं सोद्देश्य हों।
  8. मुद्रण स्वच्छ, शुद्ध एवं स्पष्ट हो।
  9. आकार सुविधाजनक।
  10. अध्यायों के आकार बालकों के स्तर एवं क्षमताओं के अनुरूप।
  11. विषयवस्तु का प्रस्तुतीकरण शिक्षण उद्देश्यों एवं मूल्यों के अनुरूप।
  12. विषयवस्तु से सम्बन्धित आधुनिकतम घटनाओं, तथ्यों एवं समस्याओं पर बल।
  13. विषयवस्तु के अनुकूल चित्रों, मानचित्रों, रेखाचित्रों आदि का प्रस्तीकरण।
  14. विषय-सूची, शब्दावली, संदर्भ ग्रन्थ-सूची, निर्देश नियमावली आदि का समावेश।
  15. चिन्तन एवं नवीन विचारों का प्रस्तुतीकरण।
  16. विषयवस्तु से किसी की भी भावनाओं को आघात न पहुँचना अर्थात् धर्मनिरपेक्षता की भावना पर ध्यान।
  17. अध्याय के अन्त में विद्यार्थियों द्वारा स्वतः मूल्यांकन हेतु अभ्यास प्रश्नों का समावेश।

पाठ्यपुस्तकों का मूल्यांकन 

पाठ्यपुस्तकों का मूल्यांकन कई बिंदुओं पर निर्भर करता है। जिनमें से प्रमुख बिन्दुओं निम्नलिखित है:-

1. शिक्षा का उद्देश्य - शिक्षा का महत्वपूर्ण उद्देश्य यह है कि वह ज्ञान मीमांसा की पूर्ति करे एवं राष्ट्रीय मूल्यों और आदर्शो को धरोहर समझकर उन्हें समाज में बढ़ाए एवं सामाजिक आकांक्षाओं की पूति करें। पाठ्य पुस्तक क्योंकि पाठयचर्या का दर्पण होता है इसलिए पाठ्य-पुस्तक में दिए गए शिक्षण क्रियाओं के माध्यम से छात्रों के अन्दर राष्ट्रीय मूल्य एवं आदर्शों को उत्पन्न किया जा सकता है। पाठ्यपुस्तक का मूल्याकंन राष्ट्रीय मूल्यों, सामाजिक आंकक्षाओं उसके प्रतिबिम्ब एवं विकास के आधार पर किया जाना चाहिये। शिक्षा के उद्देश्य शिक्षा के स्तर एवं विषय के अनुसार भी तैयार किया जाता है इसलिए यह अनिवार्य है कि पाठ्य पुस्तक का विश्लेषण करते समय इन दोनों स्तरों के उद्देश्यों की पूर्ति हुई है या नही उस का भी मूल्यांकन किया जाता है उदाहरण के तौर पर शिक्षा का उदेशय चरित्र एवं जिम्मेदार नागरिक तैयार करना होता है एवं वहीं पर विषय संबंधी उद्देश्य हो सकते है जैसे छात्रों की अभिव्यक्ति की क्षमता, अभिवृत्तियों का विकास करना एंव विषय-वस्तु संबंधी जैसे चिंतन शक्ति, तर्क शक्ति, मूर्त एवं अमूर्त चितंन इत्यादि का विकास करना। इन सभी का मूल्यांकन करना पाठ्य-पुस्तक शिक्षा से जूड़े उदेश्यों का विश्लेषण के अंतर्गत आता है।

2. विषय-वस्तु की रचना एंव प्रस्तुतीकरण - पाठय पुस्तक की रचना एवं प्रस्तुतीकरण विषय-वस्तु से जुड़ी हुई होती है। भाषा संबधी पाठय-पुस्तक की संरचना एवं प्रस्तुतीकरण, विज्ञान संबंधी पाठयपुस्तक की संरचना एवं प्रस्तुतीकरण से बिल्कुल भिन्न होगी क्योंकि दोनो विषयों की प्रकृति एक दूसरे से भिन्न है। जहां भाषा की पाठय-पुस्तक की रचना एवं प्रस्तुतीकरण में छात्रों में भाषा कौशल के विकास पर बल दिया जाएगा वहीं विज्ञान की पाठ्यपुस्तक में प्रयोगात्मक विकास पर बल होगा। पाठ्य-पुस्तक का विश्लेषण करते समय इस बात पर अधिक ध्यान देने की जरूरत है कि विषय-वस्तु की संरचना सरल से प्रारम्भ करके कठिन अवधारणों तक हो, इन अवधाराणओं का अधिक से अधिक उदाहरण की सहायता से समझाया गया हो उदाहरण छात्रों की जिन्दगी से जुड़ा हुआ हो और इसके अलावा एक अवधारणा दूसरी अवधारणा को समझने में मददगार साबित हो, पाठय पुस्तक विश्लेषण में इस बात पर ध्यान देना चाहिये कि पाठ का प्रस्तुतीकरण रोचक ढंग से किया गया हो जैसे किसी कहानी के द्वारा, चित्रण द्वारा या प्रयोग द्वारा। आज के समाज में ज्ञान का विस्फोट है एवं प्रतिदिन नए ज्ञान का सृजन हो रहा है एवं पाठय-पुस्तकों में इन्हें सम्मिलित किया जाना चाहिए। इस आधार पर भी पाठ्यपुस्तक का मूल्यांकन होना चाहिए जो नई अवधारणा सम्मिलित की गई है उनमें आपस में संबंध है या नहीं।

3. बच्चे का मानसिक विकास - पाठ्य-पुस्तक की संरचना अधिकतर बच्चे के मानसिक विकास के स्तर के आधार पर की जानी चाहिये, बच्चें जिस मानसिक स्तर के होते है पाठ्य-पुस्तक में विषय-वस्तु का चुनाव उसी प्रकार किया जाना चाहिये। यह कहना गलत नही होगा कि पाठ्य-पुस्तक बच्चों के मानसिक विकास का सहभागी होना चाहिए, पाठय पुस्तक में बच्चों के मूर्त-अमूर्त तर्क करने की शक्ति को बढ़ावा मिलना चाहिये। पाठय पुस्तकों को बच्चें के सृजनात्मक एवं रचनात्मक विकास के लिए बीज का काम करना चाहिये। इसके अलावा भाषायी क्षमता, सामाजिक परिपक्वता, शरीर की दक्षता इत्यादि के विकास में पाठयपुस्तक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। एक शिक्षक को चाहिये कि इन सभी बिंदुओ पर पाठय-पुस्तक का वह मूल्यांकन करें।

4. अभिन्यास एवं रचना - पाठ्य-पुस्तक की अभिन्यास एवं संरचना मूल्यांकन का एक महत्वपूर्ण बिंदु है। अभिन्यास एवं रचना से हमारा मतलब पाठ्यपुस्तक की बनावट से है पाठ्य-पुस्तक की बनावट में उसका वजन, छपाई लेखन के अक्षर, आकार इत्यादि शामिल होते है शिक्षक जब पाठ्य-पुस्तक का मूल्याकंन करें तो इस बात पर अत्याधिक ध्यान दे कि पाठ्य-पुस्तक बहुत भारी न हो, छपाई सुन्दर हो, अक्षर छात्रों के आयु अनुसार हो एवं आकार सामान्य हो जिससे छात्रों को किसी भी प्रकार की असुविधा न हो। हाल के दिनों में यह बात सामने आई है कि स्कूलों में किताबो का बोझ बढ़ता जा रहा है जिससे छात्रों में शारीकि समस्याऐं उत्पन्न हो रही है। प्रोफेसर यशपाल ने अपने रिपोर्ट ‘‘बोझ के बिना सीखने’’ में कहा है कि छात्रों पर दोहरा बोझ बढ़ रहा है एक तो दिमागी दूसरा शारीरिक जिसके कारण छात्रों में शिक्षा के प्रति अरूचि बढ़ी है। इसलिए जितना हो सके पाठ्य-पुस्तक को कम वजनदार, एवं अधिक आकर्षण का केन्द्र बनाया जाए।

5. मानसिक स्तर का विकास - विषय-वस्तु का विशलेषण छात्रों को मानसिक स्तर के आधार पर होनी चाहिये। मानसिक स्तर से यह अभिप्राय है है कि वह विषय-वस्तु जो छात्रों के मानसिक क्षमता को योग्य हो या उनको समझने में कठिनाई न हो ऐसे विषय-वस्तु को पाठयपुस्तक में सम्मिलित किया जाना चाहिए। पियाजे के अनुसार मानसिक स्तर की वृद्धि चार चरणों मे होती है एवं स्तर के उपयुक्त छात्रों के भीतर उस तरह के क्षमता या योग्यता का विकास होता है उदाहरण की तौर पर बाल्यकाल में मूर्त चिंतन अधिक प्रबल होता है इसलिए पाठ्य-पुस्तक में उन विषय-वस्तुओं को रखा जाना चाहिये जिससे छात्रों मूर्त चिंतन को विकास होने का अवसर प्राप्त हो इसके अलावा पाठ्यपुस्तक छात्रों की सामाजिक आर्थिक परिवेश को ध्यान में रखकर तैयार किया जाना। छात्रों के मानसिक स्तर को बढ़ाने में मदद मिले।

6. उपयुक्त भाषा एवं शैली - एक अच्छी पाठ्य-पुस्तक हमेशा विचारों एवं सामगियों को उपयुक्त भाषा एवं शैली में अपने पाठकों तक पहुॅचाता है। पाठय-पुस्तकों में भाषा एवं लेखन शैली छात्रों के आयु मानसिक स्तर एवं रूचि के अनुसार होनी चाहिये। अगर पाठ्य-पुस्तक छोटी कक्षाओं के लिए है तो उसे कहानी, वार्ता, कार्टून इत्यादि के रूप में प्रस्तुत किया जाना चाहिये। पाठ्य पुस्तक लिखते समय सरल भाषा का उपयोग हो जिससे बच्चे आसानी से समझ सकें एवं वह उनके भाषायी क्षमता के अनुसार हो शब्दों एवं वाक्यों का चुनाव बच्चे के मानसिक स्तर के आधार पर हो। पाठ्य-पुस्तकों में अधिक चित्रण अलेख इत्यादि का उपयोग किया जायें। जिससे छात्रों की समझने में सरलता हो, प्रत्येक विषय कि अपनी प्रक्रति एवं संरचना होती है एवं इसको ध्यान में रखकर पाठ्य-पुस्तकें लिखी होनी चाहिये। उदाहरण स्वरूप विज्ञान विषय का आधार तथ्य, सिद्धांत, नियम, प्रयोग, परिक्षण एवं परिणाम पर आधारित होते इसलिए पाठ्य-पुस्तक में अधिक से अधिक इनकी जगह होनी चाहिये। यहां तक उस विषय में प्रयोग में होने वाले चिन्ह, परिभाषा, शब्दावली जो सर्वमान्य हो उसे ही पाठय पुस्तक लिखते समय प्रयोग किया जाना चाहिए। शिक्षक इन बिंदुओं पर भी पाठ्यपुस्तक का मूल्यांकन करके पाठ्यपुस्तकों की उपयोगिता बढ़ा सकता है।

शिक्षा आयोग (1964-66) ने अपने रिपोर्ट में लिखा है कि पाठ्य-पुस्तक को लिखने वाला व्यक्ति अपने विषय में विशेषज्ञ हो एवं निर्माण करते समय कई बातों का अत्यधिक ध्यान दें जैसे लेखन, छपाई, चित्रण इत्यादि जो छात्रों को प्रोत्साहित करें शिक्षक को उससे पढने के लिए शिक्षण अधिगम में मदद मिलें।

संदर्भ -

1. Mohan, R (2010). Innovative Science Teaching for physical science , New Delhi : PHI.
2. Davar, M. (2012) Teaching of science New Delhi: PHI.
3. Naseema, C. (2012). Physical Science Education: Nature and Scope. New Delhi: Shipra Publication.
4. पण्डा, के.बी. ’’भाषा कौशल एवं संचार साधन’’ हिन्दी ग्रन्थ अकादमी (2013)

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