हीनयान और महायान क्या है ? हीनयान सम्प्रदाय, महायान सम्प्रदाय से क्यों अलग था ?

कुषाण राजवंश में कनिष्क के सत्तारूढ़ होने तक बौद्ध मतानुयायियों की संख्या बहुत अधिक हो चुकी थी। बौद्ध धर्म के प्राचीन स्वरूप में परिवर्तन लाना जरूरी हो गया। कुछ रूढि़वादी लोग बौद्ध धर्म के प्राचीन आदर्शों को ज्यों का त्यों बनाये रखना चाहते थे और वे उसके स्वरूप में किसी प्रकार का परिवर्तन अथवा सुधार नहीं चाहते थे। सुधारवादी लोगों का सम्प्रदाय महायान कहा गया गैर सुधारवादी लोगों का सम्प्रदाय ‘हीनयान’ कहा गया।

महायान के विचार

महायान में परोपकार पर विशेष बल दिया गया। बुद्ध को देवता मानकर मूर्ति के रूप में पूजा होने लगी। निर्वाण प्राप्त करने वाले वे व्यक्ति, जो मुक्ति के बाद भी मानव जाति को उसके दुःखों से छुटकारा दिलाने के लिये प्रयत्नषील रहते थे बोधिसत्व कहे गये। महायानी आत्मा एवं पुर्नजन्म में विश्वास करता है। महायान के सिद्धान्त सरल एवं सर्वसाधारण के लिये सुलभ है। यह मुख्यतः गृहस्थ धर्म है जिसमें भिक्षुओं के साथ-साथ सामान्य व्यक्तियों को भी महत्व दिया गया है। इस सम्प्रदाय के विचार व्यापकता, उदारता एवं सहिष्णुता से परिपूर्ण हैं। महायान के अंर्तगत भी 2 सम्प्रदायों का उदय हुआ - (i) शून्यवाद (माध्यमिक), (ii) विज्ञानवाद (योगाचार)।

शून्यवाद के प्रवर्तक नागार्जुन है जिनके अनुसार प्रत्येक वस्तु किसी न किसी कारण से उत्पन्न हुई है और वह परस्पर निर्भर है। उनके अनुसार परम तत्व को बुद्धि अथवा विचारों के द्वारा नहीं समझा जा सकता। उनका स्वरूप अवर्णनीय है।

विज्ञानवाद की स्थापना मैत्रेयनाथ ने ईसा की तीसरी शताब्दी में की थी। इस मत के अनुसार चित्त (मन) या विज्ञान के अतिरिक्त संसार में किसी भी वस्तु का अस्तित्व नहीं है। समस्त बाह्य पदार्थ जिन्हें हम देखते है, चित्त के विज्ञान मात्र है। जो पदार्थ बाहर समझे जाते है वे वस्तुतः हमारे मन के ही अंर्तगत है।

हीनयान के विचार

हीनयान विचारधारा में महात्मा बुद्ध को एक महापुरूष माना गया। इस विचारधारा में व्यक्तिवादी व्यवस्था है तथा उसके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को अपने प्रयत्नों से ही मोक्ष प्राप्त करना चाहिये। महायानियों के विपरीत हीनयानी मूर्ति पूजा में विष्वास नहीं रखते तथा वे भिक्षु जीवन के हिमायती है। इसके अनुसार निर्वाण प्राप्ति के पश्चात व्यक्ति का पुर्नजन्म नहीं होता। हीनयान के प्रमुख सम्प्रदाय है - वैभाषिक तथा सौत्रान्तिक।

वैभाषिक मतानुयायी चित्त तथा बाह्य वस्तु के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए यह प्रतिपादित करते है कि वस्तुओं का ज्ञान केवल प्रत्यक्ष से ही संभव है। इसके अतिरिक्त कोई दूसरा साधन नहीं है। जबकि सौत्रान्तिक चित्त तथा बाह्य जगत दोनों ही सत्ता में विष्वास करते है किंतु वे यह नहीं मानते कि वस्तुओं का ज्ञान प्रत्यक्ष रूप से होता है।

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