‘दर्शन' शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के 'दृश' धातु से हुई है, जिसका अर्थ है देखना। दर्शन शब्द का अर्थ है “दृश्यते अनेन इति दर्शनम् " जिसके द्वारा देखा - जाय तो वह दर्शन है, अर्थात वस्तु का वास्तविक स्वरूप जाना जाय वह दर्शन है । वेदों में बतलाये गये ज्ञान की मीमांसा दर्शन शास्त्रों में मुनियों द्वारा सूत्र रूप से की गई है । दर्शनों के प्रतिपाद्य विषय चार है-
- दुःख का वास्तविक स्वरूप क्या है ?
- दुःख का वास्तविक कारण क्या है ?
- दुःख का नितांत अभाव क्या है ?
- नितांत दुःख निवृत्ति का साधन क्या है ?
‘भारतीय दर्शन' का प्रारंभ दुःख निवृत्ति की मूल प्रवृत्ति से हुआ है। दुःख निवारण सभी भारतीय दर्शनों का उद्देश्य रहा है । भारतीय दर्शनकारों के सामने इन दुःखों के निवाराण के लिये उपाय खोजना ही साध्य रहा ।
”दार्शनिक अन्वेषण जीवन के प्रति उदासीनता, बैचेनी अथवा अंसतोष की भावना से प्रारंभ होता है । मनुष्य यह जानने का प्रयत्न करता है कि वह स्वयं क्या है ? क्यों या किसके लिये जीता है ? दार्शनिक अन्वेषण का स्वरूप समीक्षात्मक एवं समन्वयात्मक होता है जिसमें विभिन्न विधाओं, विज्ञानों तथा मान्यताओं की समीक्षा की जाती है । दर्शन एक व्यापक चिंतन, दार्शनिक अन्वेषण, निष्पक्ष व तर्कसंगत होता है । यह अपने निष्कर्षों को अंतिम नहीं मानता । दार्शनिक अन्वेषण विज्ञान नहीं, पर विज्ञान से मिलता जुलता है । दोनों का विषय एवं उद्देश्य सत्य की खोज है ।
मानव ने अपनी बुद्धि और चिन्तन के द्वारा उस सत की खोज प्रारंभ की जिससे सनातन सुख और शांति उपलब्ध होते हैं । उस खोज के परिणाम स्वरूप जो विचारधाराएँ प्रचलित हुई, उन्हें दार्शनिक प्रवृत्तियाँ कहते हैं । उन प्रवत्तियों और प्रणालियों के द्वारा जिस गूढ़ ज्ञान का संचयन हुआ उसे दर्शन कहते हैं ।
दर्शन जीव व जगत के बारे में युक्तिपूर्वक ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न है । दर्शन एक ऐसी दिव्य दृष्टि प्रदान करता है जो आत्मदर्शन एवं तत्व दर्शन को संभव बनाती है । जीव व जगत की व्याख्या एवं उसके अनुसार समाज की संरचना ही दर्शन का मूल है
'दर्शन शास्त्र' एक ऐसा सार्वभौम चिंतन है जो मानव जीवन के व्यक्तिगत सामाजिक एवं सास्कृतिक पक्षों को प्रभावित करता है । भारतीय दर्शनों का सबसे महत्वपूर्ण तथा मूलभूत पक्ष यह है कि वे सभी पुरूषार्थ साधन के लिये है। 'चार्वाक दर्शन' को छोड़कर सभी दर्शनों में दर्शनशास्त्र के अध्ययन का लक्ष्य मोक्ष अथवा निवार्ण की प्राप्ति मानी गयी है ।
षड़दर्शन और उनके प्रणेता इस प्रकार है
- सांख्य दर्शन - कपिल मुनि
- योग दर्शन - महर्षि पतंजलि
- न्याय दर्शन - महर्षि गोतम
- वैशेषिक दर्शन - कणाद मुनि
- मीमांसा दर्शन - जैमिनी
- वेदांत दर्शन - बादरायण
वे दर्शन सिद्धांत जो वेदों की शिक्षा को स्वीकार नहीं करते अथवा वेद विरोधी
है, वे नास्तिक दर्शन तीन है -
- चार्वाक दर्शन - बृहस्पति
- जैन दर्शन - महावीर
- बौद्ध दर्शन - गौतम बुद्ध
भारतीय दर्शनों में ‘योग दर्शन' प्राचीनतम एवं महत्वपूर्ण है । आत्म - दर्शन हेतु योग की महत्ता का उल्लेख प्रायः सभी दर्शनों में किसी न किसी रूप में अवश्य मिलता है । योग षडदर्शनों में से एक है जो आस्तिक दर्शनों की श्रेणी में आता है।
‘योग–विद्या— भारतीय सभ्यता की एक अमूल्य धरोहर है जो अनादिकाल से चली आ रही है और इस धरोहर को एक दर्शन के रूप में संजोकर रखने वाले "महर्षि पतंजलि को कोटि कोटि नमन, जिन्होंने योग सूत्र के माध्यम से योग विद्या को - लोक कल्याण के लिये प्रस्तुत किया ।
समस्त भारतीय धार्मिक सम्प्रदायों, धर्म दर्शनों, आध्यात्मिक विचारधाराओं, परंपराओं में योग की महत्ता को माना गया है ।
भारतीय अध्यात्म व योग, में सर्वाधिक लोकप्रिय ग्रंथ महर्षि पतंजिल का योग सूत्र है । उससे पूर्व की योग परंपराओं एवं अध्यात्मिक साधनाओं का उल्लेख एवं विवेचन, वेद, उपनिषद, जैन आगम ग्रंथों, बौद्ध त्रिपिटक, महाभारत, गीता एवं पुराणों में उपलब्ध होता है, पर उसका संक्षिप्त, सूत्रवत, व्यवस्थित तार्किक एवं दार्शनिक ढंग से विवेचन ‘महर्षि पंतजलि के योगसूत्र' में मिलता है । पंतजलि के योग सूत्र का दार्शनिक आधार सांख्य सिद्धांत है।