भारतवर्ष में योग साधना की परंपरा प्राचीन काल से ही चली
आ रही है। पौराणिक मान्यता के अनुसार भगवान शंकर योग
के आदि आचार्य माने जाते हैं, तो भगवान श्रीकृष्ण योगीराज।
वेदों में तो योग का गंभीर विवेचन किया है। योगदर्शन के
प्रणेता महर्षि पतंजलि पहले ही सूत्र में लिख देते है कि
‘‘अर्थयोगानुसासनम‘‘ अर्थात जीवन में अनुशासन लाने वाली
क्रियाएं ही योग है। योग हमारे ऋषि-मुनियों एवं सनातन
संस्कृति की देन है।
अष्टांग योग के आठ अंग
अष्टांग योग के आठ अंग कौन-कौन से हैं
- यम
- नियम
- आसन
- प्राणायाम
- प्रत्याहार
- धारणा
- ध्यान
- समाधि
1. यम
जो अवांछनीय कार्यों से मुक्ति दिलाता है, निवृति दिलाता है वह यम कहलाता है। यम की उत्पत्ति संस्कृत के दो धातु से माना गया है। पातंजल योग सूत्र में पांच प्रकार के यमों का वर्णन मिलता है। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रहमचर्य और अपरिग्रह ये पांच यम है।
- अहिंसा - अहिंसा का अर्थ है सदा और सर्वदा किसी प्राणी का अपकार न करना, कष्ट. न देना।
- सत्य- सत्य का अर्थ है- मन, वचन और कर्म में एकरूपता। अर्थात अर्थानुकूल वाणी और मन का व्यसवहार होना, जैसा देखा और अनुमान करके बुद्धि से निर्णय किया अथवा सुना हो, वैसा ही वाणी से कथन कर देना और बुद्धि में धारण करना। सत्य बोले, परन्तु प्रिय शब्दों में बोले, अप्रिय सत्य न बोलें।
- अस्तेय - स्तेय का अर्थ है- अधिकृत पदार्थ को अपना लेना। इसे भी बुद्धि वचन और कर्म से त्याग देना अस्तेय है।
- ब्रहमचर्य - मन को ब्रहम या ईश्वर परायण बनाये रखना ही ब्रहमचर्य है। वीर्य शक्ति की अविचल रूप में रक्षा करना या धारण करना ब्रहमचर्य है।
- अपरिग्रह - संचय वृत्ति का त्याग ‘अपरिग्रह’ है। विषयों के अर्जन में, रक्षण उनका क्षय, उनके संग और उनमें हिंसादि दोष को विषयों को स्वीकार न करना ही अपरिग्रह है।
2. नियम
नियम का तात्पर्य आन्तरिक अनुशासन से है। यम व्यक्ति के जीवन को सामाजिक एवं वाह्य क्रियाओं के सामंजस्य पूर्ण बनाते है और नियम उसके आन्तरिक जीवन को अनुशासित करते हैं। नियमों के अन्तर्गत शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्राणीधान आते हैं।
i. शौच- शौच का अर्थ है परिशुद्धि, सफाई, पवित्रता। न खाने लायक चीज को न खाना, निन्दितों के साथ संग न करना और अपने धर्म में रहना शौच है। शौच मुख्यत: दो है बाह्य और आभ्यान्तर। शौच या पवित्रता दो प्रकार की कहीं गई है। 1. बाह्य 2. आभ्यान्तर शौच।
- बाह्य शौच- जल व मिट्टी आदि से शरीर की शुद्धि, स्वार्थ त्याग, सत्याचरण से मानव व्यवहार की शुद्धि, विद्या व तप से पंचभूतों की शुद्धि, ज्ञान से बुद्धि की शुद्धि ये सब बाº्रा शुद्धि कहलाती है।
- आन्तरिक शौच - अंहकार, राग, द्वेष, ईष्र्या , काम, क्रोध आदि मलों को दूर करना आन्तरिक पवित्रता कहलाती है।
iii. तप - अपने वर्ण, आश्रम, परिस्थिति और योग्यता के अनुसार स्वधर्म का पालन करना और उसके पालन में जो शारीरिक या मानसिक अधिक से अधिक कष्ट, प्राप्त हो, उसे सहर्ष करने का नाम ही ‘तप’ है। तपो द्वन्दसहनम् - सब प्रकार के द्वन्दों को सहन करना तप है। तप के बिना साधना, सिद्धि नहीं होती है, अत: योग साधना के काल में सर्द गर्म, भूख, प्यास, आलस तथा जड़तादि द्वन्दों को सहन करते हुए अपनी साधना में उसका रहना ‘तप’ कहा जाता है।
iv. स्वायध्याय - स्वाध्याय का तात्पर्य है आचार्य विद्वान तथा गुरूजनों से वेद उपनिषद् दर्शन आदि मोक्ष शास्त्रों का अध्ययन करना।यह एक अर्थ है। स्वाध्याय का दूसरा अर्थ है स्वयं का अध्य यन करना यह भी स्वाध्याय ही है।
3. आसन
आसन शब्द् संस्कृ्त भाषा के अस धातु से बना है जिनका दो अर्थ है। पहला है सीट बैठने का स्थान , दूसरा अर्थ शारीरिक अवस्था शरीर मन और आत्मा जब एक संग और स्थिर हो जाता है, उससे जो सुख की अनुभूति होती है वह स्थिति आसन कहलाती है। स्थिर और सुख पूर्वक बैठना आसन कहलाता है।
4. प्राणायाम
प्राणायाम दो शब्दों से मिलकर बना है। प्राण + आयाम । प्राण का अर्थ होता है, जीवनी शक्ति, आयाम के दो अर्थ है। पहला- नियन्त्रण करना या रोकना तथा दूसरा लम्बा या विस्तार करना। प्राणवायु का निरोध करना ‘प्राणायाम’ कहलाता है।
5. प्रत्याहार
पातंजल योग में प्राणायाम के पश्चात प्रत्याहार का कथन एवं विवेचन उसकी उपयोगिता की –ष्टि से किया गया है। प्रत्याहार का सामान्य अर्थ होता है, पीछे हटना उल्टा होना, विषयों से विमुख होना। इसमें इन्द्रिया अपने बहिर्मुख विषयों से अलग होकर अन्तर्मुख हो जाती है, इसलिए इसे प्रत्याहार कहा गया है। इन्द्रियों के संयम को भी प्राणायाम कहते है।
6. धारणा
महर्षि पतन्जलि द्वारा प्रतिपादित अष्टांग योग के अन्तरंग यह योग का छठा अंग है। मन (चित्त ) को एक विशेष स्थान पर स्थिर करने का नाम ‘धारणा’ है। यह वस्तुत: मन की स्थिरता का घोतक है। हमारे सामान्य दैनिक जीवन में विभन्न प्रकार के विचार आते जाते रहते है। दीर्घकाल तक स्थिर रूप से वे नहीं टिक पाते और मन की सामान्य एकाग्रता केवल अल्प समय के लिए ही अपनी पूर्णता में रहती है। इसके विपरीत धारणा में सम्पूकर्णत चित्त की एकाग्रता की पूर्णता रहती है। (बाहर या शरीर के भीतर कही भी) किसी एक स्थान विशेष (देश) में चित्त को बांधाना धारणा कहलाता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि जब किसी देश विशेष में चित्त की वृत्ति स्थिर हो जाती है और तदाकार रूप होकर उसका अनुष्ठान होंने लगता है तो वह ‘धारणा’ कहलाता है।
7. ध्यान
धारणा की उच्च अवस्था ध्यान है ध्यान शब्द की उत्पत्ति ध्येचित्तायाम् धातु से होती है जिसका अर्थ होता है, चिन्तन करना। किन्तु यहाँ पर ध्यान का अर्थ चिन्तन करना नहीं अपितु चिन्तन का एकाग्रीकरण अर्थात् चित्त को एक ही लक्ष्य पर स्थिर करना। सामान्यत: ईश्वर या परमात्मा में ही अपना मनोनियोग इस प्रकार करना कि केवल उसमें ही साधक निगमन हो और किसी अन्य विषय की ओर उसकी वृत्ति आकर्षित न हो ‘ध्यान’ कहलाता है। योग शास्त्रो के अनुसार जिस ध्येय वस्तु में चित्त को लगाया जाये उसी में चित्त का एकाग्र से जाना अर्थात् केवल ध्येय मात्र में एक ही तरह की वृत्ति का प्रवाह चलना, उसके बीच में किसी दूसरी वृत्ति का नहीं उठना ‘ध्यान’ कहलाता है।
8. समाधि
अष्टांग योग में समाधि का विशिष्ट एवं महत्वपूर्ण स्थान है। साधना की यह चरम अवस्था है, जिसमें समाधि स्वयं योगी का बाह्य जगत् के साथ संबंध टूट जाता है। यह योग की एक ऐसी दशा है, जिसमें योगी चरमोत्कर्ष की प्राप्ति कर मोक्ष प्राप्ति की ओर अग्रसर होता है। और यही योग साधना का लक्ष्य है। अत: मोक्ष्य प्राप्ति से पूर्व योगी को समाधि की अवस्था से गुजरना पड़ता है।
योग शास्त्र में समाधि को मोक्ष प्राप्ति का मुख्य साधन बताया गया है, योग भाष्य में सम्भमवत इसलिए योग को समाधि कहा गया है। यथा ‘‘योग: समाधि’’ पातंजलि योगसूत्र में चित्त की वृतियो के निरोध को योग कहा गया है। योगश्चितवृत्ति निरोध। समाधि अवस्था में भी योगी की समस्त प्रकार की चित्त वृत्तियॉ निरूद्ध हो जाती है।