लीची का वैज्ञानिक नाम लीची चाईनेन्सिस (Litchi Chinensis) है तथा सपेन्डेसी(Sapindacenae) परिवार का सदस्य है। इसके फल मनमोहक सुगंधयुक्त स्वाद आकर्षक रंग
एवं पौष्टिक गुणों के कारण ही इसे फलो की रानी कहा जाता है। लीची उत्पादन में भारत का विश्व में चीन के बाद
दूसरा स्थान है। लीची के फल, पोषक तत्वों से भरपूर एवं स्फूर्तिदायक होते है। इसके फल में 11%शर्करा, 0.7% प्राटीन, 0.3% वसा, 0.7% खनिज पदार्थ एवं अनेक विटामिन प्रचुर मात्रा में पाए जाते
है।
भारत मे लीची की बागवानी मुख्यतः बिहार, पश्चिम बंगाल, उत्तराखंड ,
असम, उड़ीसा, हिमाचल प्रदेश त्रिपुरा, झारखंड, पंजाब, छत्तीससगढ़ एवं हरियाणा में की जाती है। भारत में सबसे पहले
लीची के फल त्रिपुरा में पक कर तैयार होते है। इसके बाद क्रमशः राँची एवं पूर्वी सिहभूम(झारखंड), मुर्षीदाबाद (प0
बंगाल), मुजफ्फरपूर एवं समस्तीपुर (बिहार), उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्र, पंजाब, उत्तराखंड के देहरादून एवं पिथौरागढ़
की घाटी मे फल पक कर तैयार होते है। लीची के फल मुख्यतः ताजे फल के रूप में ही ज्यादा पसंद किया जाता है।
इसके फलों से अनेक प्रकार के परिरक्षित पदार्थ जैसे- फलों की डिब्बाबंदी, फलों का विशुद्ध रस,शरबत, नेक्टर,
कार्बोनेटेड पेय, जैम, जैली, लीची का सुखौता, लीची कैंडी, एवं फ्रोजेनलीची आदि के साथ खमीरी पेय पदार्थ सिरका
भी बनाये जाते हैं।
लीची की खेती के लिए भूमि
लीची की खेती विभिन्न प्रकार की मिट्टी में की जा सकती है लेकिन सामान्य ph मान वाली गहरी
बलुई दोमट मिट्टी इनके लिए उपयुक्त होती हैं हल्की अम्लीय से लेकर हल्की क्षारीय मिट्टी, लीची की
खेती के लिए सही मानी जाती है।
लीची की खेती के लिए जलवायु
लीचीकी खेती उपोष्ण जलवायु उत्पादन के लिए बहुत ही उपयुक्त पायी गई हैं। गर्म, एवं आर्द
जलवायु गर्मी मे एवं जाडे में शुष्क एवं ठंड जलवायु सर्वाेतम माना जाता है। लीची के फूल निकलने के लिए
200से0ग्रे0 तापक्रम जबकि फल वृद्वि के लिए लगभग 300 से0ग्रे0 तापक्रम की आवश्यकता होती है। सफल
लीची उत्पादन हेतु आर्द्रतायुक्त वसंत और गर्मी के मौसम के बाद शरद ऋतु कर समय पर आगमन लीची फूलन
फलन के लिए सर्वोतम माना जाता है।
लीची की किस्में
भारत में लीची की कई किस्में उगायी जाती हैं। प्रमुख किस्म है जैसे- शाही, चाईना, पूर्वी, अर्ली बेदाना, लेट बेदाना, बम्वई, देहरादून, देहरा-रोज, रोज-सेन्टेड, अर्ली, लार्ज रेड, मंदराजी,
देषी, मुजफ्फरपूर, कस्बा, ग्रीन, अझौली, त्रिकोलिया, स्वर्णरूपा, सबौर मधु, सबौर बेदाना, हाइब्रीड 235, एच-73 ।
पौधा रोपण
लीची के वृक्ष बड़े होनें पर अकार मे बड़ा एवं फैलाव लिए होता है। इसे औसतन
10मी0×10मी0 की दूरी पर वर्गाकार रोपण विधि से लगाया जाता है। कम ओजपूर्ण वृद्धि वाले बौने किस्मों के पौधों को
सघन बागवानी के लिए 8मी0×8मी0, 7.5मी0×7.5मी0 6मी0×6मी0 पर लगाए जाने की अनुशंसा की जाती है। लीची
के पौध की रोपाई के पहले खेत में दूरी पर 1मी0×1मी0×1मी0 के गड्ढे, चिन्हित स्थान पर
अप्रैल-मई माह मे खोद कर 15-20दिन तक खुला छोड‐ दें। जून के माह में प्रति गड्ढ़ा निकाली गई मिट्टी में 40
कि0ग्रा0 कम्पोस्ट, 2कि0ग्रा0 नीम या करंज की खल्ली, 2 कि0ग्रा0 चूना, 1कि0ग्रा0 सिंगल सुपर फास्फेट, 50ग्रा0
क्लोरपाइरीफास 10ः धुल, अच्घ्छी तरह मिला कर गड्ढ़ा भर देना चाहिए। गड्ढे को खेत की सामान्य सतह से
10-15 से0 मी0 ऊँचा भरना चाहिए। वर्षा ऋतु में गड्ढ़े की मिट्टी दब जाने के बाद उसके बीच में पौधे की पिंडी के
आकार के गड्ढे खोद कर पौधा लगाना चाहिए। पौधा लगाने पष्चात उसके पास की मिट्टी को अच्छी तरह से दबाना
चाहिए एवं पौधों के चारों तरफ थाला बनाकर 25-30 लीटर पानी डाल देना चाहिए। यदि वर्षा न हो तो, पौध के
पूर्णस्थापना तक सिंचाई करते रहना चाहिए।
पौध प्रवर्धन
लीची का प्रवर्धन बीज और गुटी द्वारा किया जाता है। बीज
द्वारा तैयार पौधे में पैतृक गुणों के अभाव के कारण अच्छी गुणवत्ता के फल नहीं होते है और फलन भी 10-15 वर्ष
बाद होता है। गुटी से तैयार पौध े पैतृक गुणों से पूर्ण एवं शीघ्र फलन देने वाले होते है। गुटी तैयार करने के लिए
मई-जून के महीने में स्वस्थ एवं सीधी डाली चुन कर डाली के शीर्ष से 50 से0मी0 नीचे कियी गांठ के पास गोलाई
से 2-3 से0मी0 चैड़ा छल्ला बना कर छल्ले को नम माॅंस घास से, या चिकनी मिट्टी से ढंककर उपर से 400 गेज की
सफेद पाॅलीथीन का टुकड़ा लपेट कर सुतली से कस कर बाँध देना चाहिए। गुटी बाँधने के 2 माह के अंदर जुड़े पूर्ण
रूप से विकसित हो जाती है। इसे पौधों से अलग कर नर्सरी में अधिक छायादार स्थान पर लगाकर पौधे तैयार कर
लिए जाते है।
लीची की खेती के लिए खाद एवं उर्वरक
लीची के लिए खाद एवं उर्वरकों का निर्धारण पौधे के आकर,
कटाई-छंटाई, कृषि क्रियाए एवं मिट्टी जाँच के आधार पर करना चाहिए। प्रारम्भ के 2-5 वर्षों तक लीची के पौधों को
10-15 कि0ग्रा0 तक कम्पोस्ट, 1कि0ग्रा0 नीम या करंज की खल्ली, 150-250ग्रा0 यूरिया, 250ग्रा0 सि0सु0फाॅ और
100ग्रा0 म्यूरेट आफ पोटाष प्रति पौधा की दर से देना चाहिए उसके बाद पौधे की बढ़वार के साथ-साथ खाद की
मात्रा में वृद्धि करते जाना चाहिए। 5कि0ग्राम कम्पोस्ट, 250 ग्र0 करंजा खल्ली, 150ग्र0 यूरिया,
200ग्रा0सि0सु0फॅा0 एवं 60ग्रा0 म्यूरेट आफ पोटाष प्रति पौधा की दर से पिछले वर्ष में दिये गये मात्रा के साथ जोड़
कर देना चाहिए।
लीची की खेती के लिए सिंचाई
लीची के छाटे े पौधों में समय नियमित सिंचाई करनी चाहिए। जिसके लिए जाडे में
5-7 दिनों तथा गर्मी मे 3-4 दिनों के अंतराल पर सिंचाई करनी चाहिए। फलन बाले पौधों को फुल आने के 3-4
माह पूर्व (नवम्बर से फरवरी) पानी नहीं देना चाहिए। जब फल का आकार मटर के दाने के बराबर हो जाए तव
नियमित अतंराल पर पौधो मे सिंचाई करत े रहना चाहिए। पानी की कमी से फल का विकास रुक जाता है। एव फल
चटखने लगते है। अतः उचित जल प्रवधन से गूदे वालेफल प्राप्त होते है। विकसित पौधों में छत्रक के नीेवे छोट-छोटे
फब्वारे लगाकर नमी बनाए रखा जा सकता है। बूँद-बूँद सिंचाई विधि द्वारा प्रतिदिन 10-50 लीटर देने से लीची के फलों का अच्छा विकास होता
है। लीची के गुणवत्तायुक्त नमी का रहना अतिआवश्यक है। पौधो मे खाद दने े के बाद, बाग में नमी कम हो तो, सिंचाई अवश्य देनी
चाहिए।
लीची की खेती में समस्याएँ
1. फलों का फटना : फल विकसित होने के समय भूमि मे नमी तथा तजे गर्म हवाओ से फल अधिक फटते है।
2. फलों का झड़ना: भूमि में नेत्रजन एवं पानी की कमी तथा गर्म एवं तेज हवाओं के कारण लीची
के फल छोटी अवस्था में ही झड़ने लगते है। खाद एवं जल की उचित व्यवस्था करने से फल झड़ने की समस्या नहीं
आती हैं।
तोड़ाई एवं उपज
लीची के पौधों में जनवरी-फरवरी में फूल आते हैं एवं फल मई-जून में पक कर तैयार हो जाते है। फल पकने के बाद गहरे गुलाबी रंग के हो जाते हैं और उनके ऊपर के छोटे-छोटे उभार चपटे हो जाते है। प्रारम्भिक अवस्था में लीची के पौधों से उपज कम मिलती है। पूर्ण विकसित 15-20 वर्ष के लीची के पौधों से औसतन 70-100 कि0ग्रा0 फल प्रति वृक्ष प्रतिवर्ष प्राप्त किये जा सकते है।
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