प्राणायाम दो शब्दों से मिलकर बना है - प्राण + आयाम। प्राण = जीवनी शक्ति। आयाम - विस्तार या धारण करना, नियंत्रण करना या रोकना, अर्थात श्वास तथा प्रश्वास की गति को अवरूद्व करना ही प्राणायाम है। जिस प्रकार स्वास्थ्य की वृद्धि के लिए व्यायाम का विशेष महत्व है, उसी प्रकार प्राण शक्ति की वृद्धि के लिए प्राणायाम आवश्यक है। प्राणायाम एक कला है जिसमें तीन क्रियाएँ हैं- पूरक, रेचक, कुंभक। पूरक यानी श्वास लेना, रेचक यानी श्वास छोड़ना तथा कुंभक यानी श्वास को भीतर रोकर रखना।
प्राणायाम का मुख्य उद्देश्य
प्राणायाम का मुख्य उद्देश्य सम्पूर्ण शरीर में प्राणीक ऊर्जा के प्रवाह को नियन्त्रित करना हैं। प्राणायाम के नियमित अभ्यास से शरीर में स्थित समस्त नाडि़यों का शोधन होता है जिससे प्राण का प्रवाह नाडि़यों में सुचारू रूप से होता है जिसके परिणामस्वरूप साधक को भौतिक एवं मानसिक स्थिरता प्राप्त होती हैं। प्राणायाम के अभ्यास से सभी रोगों का नाश होता है साथ ही श्वसन संस्थान पूर्ण रूप से सक्रिय होता है। प्राणायाम के अभ्यास से केवल शारीरिक एवं मानसिक लाभ ही नहीं बल्कि आध्यात्मिक उन्नति भी प्राप्त होती है। इसके अभ्यास से शरीर में सोयी हुयी शक्तियां भी जाग्रत होती हैं।
प्राणायाम से लाभ
प्राणायाम करने से शरीर के कई अंगो पर प्रभाव पड़ता है।
प्राणायाम स्वास्थ्य हेतु अति उत्तम माना जाता है। प्राणायाम फेफड़ों को मजबूत
बनाता है। श्वास लेते समय जब फेफड़ों का प्रसार होता है तब गुर्दे, उदर, यकृत,
तिल्ली, आंतों तथा साथ ही साथ धड की सतह पर रक्त पोषक पदार्थों का समुचित
परिसंचरण करता है। प्रतिदिन प्राणायाम करने से शरीर कांतियुक्त हो जाता है। शरीर
के अंदर के प्रत्येक अवयव की प्राणायाम के माध्यम से अच्छी तरह से मालिश हो जाती
है। शरीर को अधिक मात्रा में आॅक्सीजन प्राप्त होने लगती है और शिरा एवं धमनियों
में जो अवरोध उत्पन्न होता है वह हट जाता है तथा शरीर में रक्त का संचार अधिक
सुचारू रूप से होने लगता है।
प्राणायाम के प्रकार
1. नाड़ी शोधन
कहा भी गया है कि बिना नाड़ी शुद्धि के अन्य 8 प्राणायाम सिद्ध नहीं होते। इसलिए इस प्राणायाम का अभ्यास
साधक को नियमित एवं नियम से करना चाहिए। नाड़ी शोधन जैसा की इसके नाम से ही विधित है- यह प्राणायाम शरीर में स्थित 72000 नाडि़यों का शोधन करता है। इड़ा तथा पिंगला की बीच संतुलन स्थापित करता है जिससे प्राण का प्रवाह सुषुम्ना में होता है। शरीर को निर्मल करता है। शरीर कान्तिवान तथा कृष होता है। इससे जठराग्नि प्रदीप्त होती है, नाद का अनुभव होता है तथा शरीर कभी भी रोग ग्रस्त नहीं होता।
2. सूर्यभेदन
इस प्राणायाम में बार-बार सूर्यनाड़ी का भेदन किया जाता है इसलिए इसे सूर्यभेदन या सूर्यभेदी कहा जाता है। इस प्राणायाम के नियमित अभ्यास से मस्तक की शुद्धि होती है, सभी प्रकार के वातरोग दूर होते है। पेट में होने वाले कृमि दोष नष्ट हो जाते हैं। सर्दियों में इसे करने से सर्दी नहीं लगती क्योंकि यह शरीर को उष्णता देता है।
3. उज्जायी
इसका नियमित अभ्यास से सभी प्रकार के कफ सम्बंधी कण्ठदोष नहीं होते। इससे नाड़ी सम्बन्धी, जलोदर, धातु सम्बन्धी सभी दोष दूर हो जाते हैं। कहा गया है कि इस प्राणायाम को उठते-बैठते हमेशा करना चाहिए।
4. सीत्कारी
इसके अभ्यास से भूख-प्यास संतुलित होती है तथा साधक को निद्रा या सुस्ती नहीं सताती। साधक का अपने शरीर पर पूरा नियंत्रण हो जाता है। इस प्राणायाम के अभ्यास से अम्ल-पित्त आदि की समस्याएं दूर होती है। मुख की दुर्गन्ध एवं पायरिया आदि रोग नहीं होते हैं।
5. भस्त्रिका
इस प्राणायाम के नियमित अभ्यास से बुखार और पित्त सम्बन्धी विकार दूर हो जाते हैं। भूख-प्यास नियंत्रित हो जाती हैं। इससे सभी रोग तथा विष का प्रभाव भी, नष्ट हो जाता है। मुँह के छाले, दुर्गंध, दांतो के रोग दूर हो जाते हैं। वात-पित्त-कफ से होने वाले सभी रोगों का दूर करता है। यह प्राणायाम कुण्डलिनी को जागृत करता है, यह शरीर को ऊष्मा प्रदान करता है।
6. भ्रामरी प्राणायाम
भ्रामरी के अभ्यास से मन शान्त होता है, आनंद का अनुभव होता है। सभी प्रकार के मानसिक रोग दूर होते हैं। क्रोध, चिंता एवं अनिद्रा का निवारण करता है। आवाज को मधुर एवं मजबूत बनाता हैं।
7. मूर्छा
इस प्राणायाम के अभ्यास से अत्यधिक मन को मूर्छा प्रदान करने वाले परमानंद की प्राप्ति होती है। यह स्थिति साधक के लिए बहुत ही आनंदकारी होती है।
8. प्लाविनी
इसका नियमित अभ्यास करने वाला साधक कभी भी जल में नहीं डूबता वह तो जल में कमल के पत्ते के समान तैरता रहता है।
सन्दर्भ-
- हठयोग प्रदीपिका- स्वामी स्वात्माराम-कृत, संस्करण कर्ता- स्वामी दिगम्बर जी, प्रकाशक कैवल्यधाम।
- आसन, प्राणायाम, मुद्राबंध- स्वामी सत्यानन्द सरस्वती।