वर्धन वंश का संस्थापक कौन था ? वर्धन वंश के शासक

वर्धन वंश का संस्थापक पुष्यभूति को माना जाता है। बाणभट्ट ने हर्षचरित में ’पुष्पभूति’ को वर्धन वंश का संस्थापक बताया है। बाणभट्ट ने पुष्पभूति को भूपाल और राजा कहा है, जिससे उसके स्वतंत्र शासक के स्थान पर एक सामन्त होने को प्रमाणित करता है किन्तु हर्षवर्धन के अभिलेखों में पुष्यभूति (पुष्पभूति) का कोई उल्लेख नहीं है अभिलेखों में नरवर्धन का नाम सर्वप्रथम आया है।  वर्धन वंश का प्रमाणिक प्रथम पुरूष नरवर्धन ही था और संभवतः उसके अंत के वर्धन नामाक्षर से ही इस वंश का नाम ’वर्धन वंश‘ पड़ा। वर्धन राजवंश का राजनैतिक विकास सामन्त शासकों के रूप में हुआ। वर्धन राजवंश समय-समय पर गुप्तों, हूणों और मौखरियों के सामन्त रहे।

वर्धन वंश की जातीय उत्पत्ति के संबंध में इतिहासविदों की कहना है कि, वर्धन वंश वैश्य जातीय था। 

थानेश्वर के वर्धन राजवंश में छः प्रमाणिक राजाओं के नाम मिलते हैं। हर्ष के बांसखेड़ा एवं मधुवन ताम्राभिलेखों तथा सोनीपत एवं नालन्दा राजमुद्राभिलेखों में वर्धन राजवंश के चार शासकों एवं उनकी रानियों के नाम मिलते हैं। 
  1. प्रथम शासक नरवर्धन था, उसकी पत्नी का नाम वज्रिणी देवी था। 
  2. द्वितीय शासक राज्यवर्धन (प्रथम) तथा उसकी पत्नि का नाम अप्सरादेवी, 
  3. तृतीय शासक आदित्यवर्धन एवं उसकी पत्नी का नाम महासेनगुप्त देवी 
  4. चतुर्थ शासक प्रभाकरवर्धन एवं उसकी पत्नी नाम यशोमती देवी मिलता है। 
प्रथम तीन शासकों के राजनैतिक एवं प्रशासनिक कार्यों की प्रमाणिक जानकारी हमें किसी भी ऐतिहासिक स्रोत से नहीं मिलती है। प्रथम तीन शासकों के अभिलेखों में महाराज कहा गया है।

वर्धन वंश के तीनों शासकों का शासनकाल इतिहासविदों ने लगभग 500 - 580 ई0 के मध्य रखा है।

वर्धन वंश के शासक

1. महाराजाधिराज प्रभाकरवर्धन

प्रभाकरवर्धन, वर्धनराजवंश का प्रथम शासक था। बाणभट्ट ने हर्षचरित में लिखा है कि, प्रभाकरवर्धन ’प्रतापशील’ नाम से भी प्रसिद्ध था। उसने वर्धन राजवंश के थानेश्वर के आसपास फैले छोटे से राज्य को अपनी विजयों से एक साम्राज्य में परिवर्तित कर दिया था। इसी कारण प्रभाकरवर्धन को महाराजाधिराज एवं परमभट्टारक जैसी उपाधियों से सुशोभित किया गया था।

2. महाराजाधिराज राज्यवर्धन

प्रभाकरवर्धन की निधन के बाद लगभग 605 ई0 में राज्यवर्धन, वर्धन वंश का अगला शासक बना। प्रभाकरवर्धन की निधन के समय हर्षवर्धन युद्ध से वापस लौटकर थानेश्वर आ गया था। राज्यवर्धन की अनुपस्थिति एवं तत्कालीन संकटकालीन परिस्थिति के कारण राजसिंहासन खाली नहीं रखा जा सकता था, इसी कारण प्रभाकरवर्धन ने हर्ष को राजसिंहासन पर बैठने को कहा। लेकिन हर्ष ने राजसिंहासन को ग्रहण करने से इंकार कर दिया और राज्यवर्धन के आने का इंतजार करने को कहा। राज्यवर्धन ने राजधानी थानेश्वर लौटने के बाद राजसिंहासन पर बैठने से मना कर दिया और हर्षवर्धन को सत्ता संभालने के लिए कहा।

कन्नौज के मौंखरी नरेश ग्रहवर्मा (जो राज्यवर्धन का बहनोई था) की मालवराज द्वारा हत्या और बहिन राज्यश्री के कन्नौज में कैद होने की सूचना थानेश्वर पहुँची। ऐसी विकट परिस्थिति में राज्यवर्धन को राजसिंहासन पर बैठना स्वीकार करना पड़ा। राज्यवर्धन एक बड़ी सेना लेकर कन्नौज की ओर बड़ा और शीघ्र ही उसने कन्नौज पर आधिपत्य स्थापित कर लिया। मधुवन एवं बाँसखेड़ा अभिलेखों में वर्णित है कि, राज्यवर्धन ने देवगुप्त आदि राजाओं को परास्त किया।

डाॅ0 सुधाकर चट्टोपाध्याय का मत है कि, राज्यवर्धन ने अकेले देवगुप्त को नहीं अपितु शत्रुओं के एक संघ को परास्त किया था। इतिहासविदों की धारणा है कि, यह देवगुप्त मालवा का राजा देवगुप्त था, जिसे राज्यवर्धन ने मार डाला। देवगुप्त का मित्र गौड़राज शशांक था, जिसे उखाड़ फैंकने का प्रण राज्यवर्धन ने लिया। किन्तु शशांक ने प्रत्यक्ष युद्ध न करके कूटनीति से राज्यवर्धन को प्रभावित कर लिया और अपने शिविर में बुलाकर धोखे से उसकी हत्या कर दी।

3. हर्षवर्धन

हर्षवर्धन, वर्धन राजवंश का सर्वाधिक शक्तिशाली और प्रतापी नरेश था। शक्तिशाली गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद भारत के राजनैतिक पटल पर शक्ति - शून्यता को भरकर, एक सशक्त राज्य की स्थापना की। हर्षवर्धन लगभग 16 वर्ष की आयु में 606 ई0 में वर्धन राजवंश का शासक बना। हर्षवर्धन का जन्म लगभग 590-91 ई0 में थानेश्वर में हुआ था। उसके पिता का नाम महाराजा प्रभाकरवर्धन तथा माता का नाम यशोमति था। हर्षवर्धन के बड़े भाई का नाम राज्यवर्धन तथा बहिन राज्यश्री (मौखरी नरेश ग्रहवर्मा की पत्नी) थी। माता-पिता की मृत्यु, भाई राज्यवर्धन तथा बहनोई कन्नौज नरेश ग्रहवर्मा की हत्या एवं बहिन राज्यश्री का बंदी ग्रह में कैद होना आदि घटनाओं ने हर्ष के हृदय को विचलित कर दिया था, इसका मार्मिक विवरण बाणभट्ट ने हर्षचरित् में दिया है। हर्ष बड़ी ही विकट परिस्थितियों में सिंहासन संभाला। स्वयं हर्ष ने नागानंद, रत्नावली एवं प्रियदर्शिका नाटकों का संस्कृत भाषा सृजन
किया। हर्ष के दरबार में प्रसिद्ध विद्वान बाणभट्ट रहता था, उसने हर्षचरित, कादम्बरी, चण्डीशतक एवं
पार्वती परिणय जैसे ग्रंथों की रचना की। 

हर्षवर्धन ने सिंहासन पर बैठते ही राज्यवर्धन के हत्यारे गौड़ नरेश शशांक को मारने का संकल्प लिया। हर्ष ने एक बड़ी सेना के साथ कन्नौज की ओर प्रस्थान किया। लेकिन रास्ते में ही हर्ष को सूचना मिली कि, शशांक ने राज्यश्री को कैद से मुक्त कर दिया है और राज्यश्री विंध्य के जंगलों में चली गयी है। अब हर्ष का उद्देश्य पहले राज्य को खोजना हो गया। विंध्य के जंगलों में राज्यश्री को खोजते हुए भाग्य से ग्रहवर्मा के बचपन के दोस्त दिवाकर जो बौद्ध भिक्षु बनकर विंध्य के जंगलों में रह रहा था के सहयोग से हर्षवर्धन ने राज्यश्री को खोज लिया। जब राज्यश्री मिली तब वह अपनी जीवनलीला समाप्त करने के लिए अग्नि में प्रवेश कर रही थी। किसी भी प्रकार से हर्ष और दिवाकरमित्र राज्यश्री को समझाने में सफल रहे। अब हर्ष ने आगे बढ़कर कन्नौज पर आधिपत्य स्थापित कर लिया। हर्ष अपनी बहिन राज्यश्री के साथ कन्नौज का शासन करने लगा। हर्ष अपनी बहिन की सहायता से कन्नौज का शासन संचालन कर रहा था। हर्ष थानेश्वर और कन्नौज दोनों का शासक बन गया था, हर्षवर्धन ने थानेश्वर के स्थान पर कन्नौज को ही अपनी राजधानी बनाया और समस्त उपलब्धियाँ कन्नौज के शासक के रूप में ही प्राप्त की।

कन्नौज का सम्मेलन एवं प्रयाग सभा हर्षवर्धन की श्रेष्ठ सांस्कृतिक उपलब्धियाँ है।

1 Comments

  1. बहुत अच्छा काम कर रहे हैं ।मैं मुंबई से हूँ , एक चित्रकार हूँ और मैं भी अपने अनुभवों को व्यक्त करता हूँ ।
    www.artandhumansociety.in मेरे लेख पढ़ सकते है ।

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