पुलकेशिन द्वितीय द्वारा साम्राज्य विस्तार

कीर्तिवर्मन का पुत्र पुलकेशिन द्वितीय था जिसने अपने चाचा से विद्रोह करके सिंहासन प्राप्त किया। पुलकेशिन ने जिस समय विद्रोह किया था, उस समय इस गृहयुद्ध का संपूर्ण लाभ अधीनस्थ सामंतों तथा आंतरिक शत्रुओ ने उठाया इसलिए सत्ता में आते ही पुलकेशिन को धैर्य, साहस, दढृता तथा सफलता के साथ परिस्थितियों का सामना करना पड़ा। एहाले अभिलेख में उस काल की परिस्थितियों का वर्णन किया गया है। यह अभिलेख कवि रविकीर्ति द्वारा पद्यबद्ध किया गया है। 

पुलकेशिन द्वितीय द्वारा साम्राज्य विस्तार

उसने सर्वप्रथम गोविंद तथा आप्यायिक को असफल करने के लिए कूटनीति का सहारा लिया। ये दोनों उसके साम्राज्य पर आक्रमण करते हुए भीमा नदी तक आ पहुंचे थे। पुलकेशिन ने गोविंद से मैत्री की और आप्यायिक को हराने में सफलता प्राप्त की। 

➤ उसकी शक्ति, व साम्राज्य विस्तार के पश्चात गंग शासक ने अपनी पुत्री का विवाह पुलकेशिन से संपन्न किया। अब गंग शासक भी पुलकेशिन के मित्र बन गए थे। 

➤ अब पुलकेशिन ने कदंब वंश की राजधानी वनवासी पर आक्रमण किया और उसे आत्मसमर्पण के लिए मजबूर होकर पुलकेशिन की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी। 

➤ इस समय उत्तरी कोंकण पर मौर्य शासक शासन कर रहे थे। इन पर आक्रमण करके पुलकेशिन द्वितीय ने राजधानी पुरी को अपने अधिकार में ले लिया। मौर्यों ने पराजित हाके र उनकी अधीनता स्वीकार कर ली। 

➤ इस समय उत्तरी भारत पर सबसे शक्तिशाली शासक हर्षवर्धन शासन कर रहा था। गुर्जर, मालव, तथा लाट हर्ष की बढ़ती हुई शक्ति से भयभीत थे अतः इन्होंने पुलकेशिन द्वितीय की अधीनता स्वीकार कर ली थी। 

➤ हर्षवर्धन से पुलकेशिन द्वितीय के युद्ध की भी घटना मिलती है। इस युद्ध का कारण हर्ष के शत्रु ’गुरनरपति दद्’ की पुलकेशिन से मित्रता थी। हर्ष और पुलकेशिन दोनों वल्लभी राज्य पर अधिकार करना चाहते थे, अतः युद्ध अवश्यंभावी था। यह एकमात्र युद्ध है जिसमें हर्ष को पराजय का सामना करना पड़ा। ‘एहाले अभिलेख’ में इस विजय का विस्तृत वर्णन किया गया है। यह युद्ध संभवतः 630 से 634 ई. के मध्य में हुए थे। ह्वेनसांग के अनुसार पुलकेशिन के नेतृत्व में महाराष्ट्र के लोगों ने हर्ष के आक्रमण का निराकरण किया। इस विजय के पश्चात उसने परमेश्वर और दक्षिण की उपाधियां धारण कीं। 

‘एहाले अभिलेख’ के अनुसार कलिंग और कौशल के शासकों ने पुलकेशिन द्वितीय की अधीनता स्वीकार कर ली थी। अपने अनुज विष्णुवर्धन को राजधानी सौंपकर स्वयं पूर्वी दक्कन की ओर विजय के लिए चल पड़ा। 

➤ इस समय पल्लव वंशीय शासक महेंद्रवर्मन प्रथम, पुलकेशिन का समकालीन था। वह महेंद्रवर्मन को अपना शत्रु समझता था, अतः पुलकेशिन ने उस पर आक्रमण कर दिया, किंतु वह पल्लवों को परास्त नहीं कर सका और पुल्ललूर तक चला गया। पल्लवांे को परास्त करने के लिए उसने चोलों तथा पाण्डयों से मैत्री संबंध स्थापित किए। 630ई. के ‘लोहनेर अभिलेख’ में पुलकेशिन को पूर्व और पश्चिम का स्वामी बताया गया है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि उसने 630ई. से पूर्व ही यह विजय प्राप्त की होगी। 

➤ इन उपरोक्त विजयों के अतिरिक्त पुलकेशिन ने वैदेशिक संबंध भी स्थापित किए। हाबरी के अनुसार उसने फारस/ईरान के राजा खुसरू द्वितीय से भी संबंध स्थापित किए थे और 625ई. में कुछ पत्र और भेंट देकर अपने दूत भेजे थे।  ह्वेनसांग भी उसके दरबार में आया था। 

➤ पल्लव शासक महेंद्रवर्मन के बाद उसका पुत्र नरसिंहवर्मन शासक बना। पुलकेशिन ने एक बार पुनः उस पर आक्रमण किया। इस बार लंका के राजकुमार मानवर्मा ने नरसिंह वर्मा को सहयोग दिया और इस युद्ध में पुलकेशिन द्वितीय को हार का सामना करना पड़ा। इस विजय के पश्चात पुलकेशिन द्वितीय की राजधानी वातापी पर अधिकार करके वातापी कोड की उपाधि धारण की। इस युद्ध में पुलिकेशिन द्वितीय वीरगति को प्राप्त हुआ। पुलकेशिन द्वितीय की मृत्यु के समय से ही चालुक्य वंश का पतन होने लगा। 

इस प्रकार पुलकेशिन द्वितीय ने सारे दक्षिणापथ पर अधिकार कर लिया था। साथ ही विदेशों से भी मैत्री संबंध स्थापित किए गए। उसके पूर्वज तो वैदिक धर्म को मानने वाले थे, किंतु पुलकेशिन द्वितीय जैन अनुयायी था। वह विद्या व कला का संरक्षक था। उसके समय के गुहा-स्थापत्य और चित्रकला के नमूने अजंता में पाए जाते हैं।

Bandey

I am full time blogger and social worker from Chitrakoot India.

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