आल्हा बुंदेलखंड में गाया जाने वाला
लोकप्रिय लोक काव्य है। बरसात के दिनों में
ग्रामीण इलाकों में लोग इसे चाव से गाते हैं।
यह वीर रस का काव्य है। इसकी रचना करीब
छह सौ साल पहले जगनीक नाम के जनकवि
ने की थी। तबसे यह बुंदेलखंड की लोक कला
संस्कृति का आईना बन गया है। मौजूदा दौर में
आल्हा गाने वाले कम हो गए हैं और अब कई
तरह की आल्हा भी बाजार में आ गई हैं,
लेकिन मेरठ से छपी असली आल्हा भी मिल
जाती है। आल्हा में महोबा के राजा आल्हा और
उनके भाई ऊदल के शौर्य की कहानी है और
साथ में बौना का युद्ध में हास्य रस का घोलना
भी है। आल्हा में कुल 52 लड़ाइयां हैं। ज्यादातर लड़ाइयां प्यार और शादी को लेकर हुईं हैं। राजकुमार का
दिल पड़ोसी देश की राजकुमारी पर आ गया, अब युद्ध के सिवा कोई चारा नहीं है। युद्ध का वर्णन बहुत रोचक
ढंग से किया गया है। इस लोक काव्य की धुन और शब्द गाने और सुनने वाले में जोश भर देते हैं।
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