आश्रम-व्यवस्था का संक्षिप्त वर्णन

आश्रम शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के श्रम् धातु से हुई है। जिसका अर्थ है परिश्रम या प्रयास करना। अतः आश्रम वे स्थान हैं, जहां प्रयास किया जाये। मूलतः आश्रम जीवन की यात्रा में एक विश्राम स्थल है जहां आगे की तैयारी की जाती है। इसका अन्तिम लक्ष्य मोक्ष तक पहुंचना होता है। वर्ण व्यवस्था का सिद्धान्त सम्पूर्ण समाज के लिए था और आश्रम का सिद्धान्त व्यक्ति के लिए था। चारो आश्रम ब्रह्मचर्य ,गृहस्थ, वानप्रस्थ व सन्यास तथा चारो पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष, इनके बीच घनिष्ठ सम्बन्ध माना गया है।

आश्रम व्यवस्था व्यक्ति के जीवन का व्यवस्थित स्वरूप हैं जीवेम शरदः शतम् के प्रकाश में सम्पूर्ण जीवन के समान अवधि के आधार पर 4 भागों में विभक्त किया गया हैं वे चार भाग ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा सन्यास हैं । पी.वी. काणे ने इस संदर्भ में स्पष्ट लिखा है कि "वर्ण का सिद्धान्त सम्पूर्ण समाज के लिए था तथा आश्रम का सिद्धान्त व्यक्ति के लिए था । 'आश्रम व्यवस्था' एक मनोनैतिक (Psycho-moral system) व्यवस्था हैं इस व्यवस्था में व्यक्ति को आयु के विभिन्न स्तरों से संबंधित कर्तव्यों एवं दायित्वों का निर्वाह करते हुए अनितम लक्ष्य 'मोक्ष' की दिशा में अग्रसर होना पड़ता है। 

आश्रम व्यवस्था के प्रकार

सामान्यतः आश्रम चार माने गए हैं, जो इस प्रकार हैं- 1. ब्रह्मचर्य आश्रम 2. गृहस्था आश्रम, 3. वानप्रस्था आश्रम, 4. सन्यासा आश्रम। 

1 ब्रह्मचर्य आश्रम

ब्रह्मचर्य शब्द ब्रह्म और चर्य दो शब्दों से मिलकर बना है। ब्रह्म का अर्थ है वेद अथवा महान तथा चर्य का अर्थ है विचरण या अनुसरण करना। इस प्रकार ब्रह्मचर्य का अर्थ है -विद्याध्ययन के मार्ग पर चलना। इसका प्रारम्भ उपनयन संस्कार से होता है। इस संस्कार के बाद ही ब्रह्मचर्य आश्रम में प्रवेश मिलता था। शास्त्रों में ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य इन तीनो वर्णों के उपनयन संस्कार का वर्णन मिलता है। स्त्रियों का भी उपनयन का अधिकार था, जिससे ज्ञात होता है कि उन्हें भी वेदाध्ययन का अधिकार प्राप्त था। वेदाध्ययन की समाप्ति के बाद समावर्तन संस्कार होता था।  

2. गृहस्थ आश्रम

गृहस्थ आश्रम सभी आश्रमों में सबसे महत्वपूर्ण आश्रम माना गया है। इसकी अवधि 25 से 50 वर्ष तक मानी गयी है। गृहस्थ आश्रम में रहकर ही मनुष्य अपने व्यक्तिगत, सामाजिक धार्मिक, नैतिक, आर्थिक आदि विभिन्न कर्तव्यों का पालन करता था। गुरुकुल से लौटने के बाद विवाहोपरान्त वह गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करता था। शास्त्रों में गृहस्थ के कर्तव्य हैं - अपने धर्म के अनुकूल जीविकोपार्जन करना, विधिपूर्वक विवाह करना, विवाहिता पत्नी से ही सम्बन्ध रखना, देवों, पितरों एवं सेवकों आदि को खिलाने के बाद बचे हुए अन्न को ग्रहण करना। 

इस आश्रम में ज्ञान योग की तुलना में कर्मयोग को प्रधानता दी गई है। गृहस्थ आश्रम में ही गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म, कर्णछेदन, विद्यारम्भ, उपनयन, विवाह, अन्त्येष्टि आदि सभी संस्कार सम्पन्न किये जाते थे।

3. वानप्रस्थ आश्रम

वानप्रस्थ जीवन में मनुष्य का मूल उद्देश्य आध्यात्मिक उत्कर्ष और समस्त भौतिक स्पृहाओं से मुक्ति पाना था। वह इस जीवन में तप, त्याग, अहिंसा और ज्ञान का अर्जन करता था। शरीर की शुद्धि और तपस्या की वृद्धि के लिए वह संयमित और कठोर जीवन का अनुपालन करता था। 

4. सन्यास आश्रम

यदि मनुष्य बानप्रस्थ आश्रम को पार कर लेता तब वह अन्तिम आश्रम सन्यास में प्रवेश करता था। सन्यासी का भिक्षु, यति, परिवाट् और परिव्राजक भी कहा गया है। इस आश्रम की अवधि 75 से 100 वर्ष तक की मानी गई है। संन्यास आश्रम का मूल लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त करना था, इसलिए वह राग, द्वेष और माया से विरत पूर्ण एकाकी जीवन व्यतीत करता था। महाभारत में कहा गया है कि वह अग्नि, धन, पत्नी और सन्तान के प्रति हमेशा अनासक्त रहे। वह आसन, वस्त्र, शैया आदि सुख के साधनों का त्याग करके सदा भ्रमणशील रहे।

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