पुरुषार्थ क्या है और कितने प्रकार के होते हैं?

पुरुषार्थ का शाब्दिक अर्थ है - पुरुष द्वारा प्राप्त करने योग्य। हिन्दू विचार शास्त्रियों ने चार पुरुषार्थ माने हैं। धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष। धर्म का अर्थ है- जीवन का नियामक तत्व, अर्थ का तात्पर्य है-जीवन के भौतिक साधन, काम का अर्थ है-जीवन की वैध कामनाएं और मोक्ष का अभिप्राय है जीवन के सभी बन्धनों से मुक्ति। प्रथम तीन को पवर्ग और अन्तिम को अपवर्ग कहते हैं। इन चारों का चारो आश्रमों से सम्बन्ध है। प्रथम आश्रम ब्रह्मचर्य धर्म का, दूसरा गार्हस्थ्य धर्म एवं काम का तथा तीसरा वानप्रस्थ एवं चौथा संन्यास मोक्ष के अधिष्ठान हैं। 

यहाँ धर्म का विशेष अर्थ है - अनुशासन तथा सारे जीवन को एक दार्शनिक रूप से चलाने की शिक्षा, जो प्रथम ब्रह्मचर्य में ही सीखना पड़ता है। इन चारों पुरुषार्थों में भी विकास परिलक्षित होता है। यथा एक से दूसरे की प्राप्ति धर्म से अर्थ, अर्थ से काम तथा धर्म से पुनः मोक्ष की प्राप्ति।

इन चारो पुरुषार्थों को चतुर्वर्ग की संज्ञा दी गई है। बाद में चलकर मोक्ष को अन्तिम मानकर तीन पुरुषार्थों धर्म, अर्थ और काम पर ही बल दिया गया जिन्हें त्रिवर्ग कहा गया। ये तीनों जीवन में एक साथ अनुसरित किये जा सकते हैं।

पुरुषार्थ के प्रकार

हिन्दू विचार शास्त्रियों ने चार पुरुषार्थ माने हैं। धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष। 

1. धर्म

धृ´्धारणे धातु से मन् प्रत्यय का संयोग होने पर धर्म शब्द बना है। जिसका अर्थ है पालन करना तथा आश्रय देना। सामान्यतः धर्म व्यक्ति के आचरण और व्यवहार की एक संहिता है जो उसके कार्यों को देश, काल और परिस्थिति के अनुसार व्यवस्थित, नियमित और नियंत्रित करता है तथा उसे स्वस्थ और उज्ज्वल जीवन जीने के लिए ज्ञान का मार्ग प्रशस्त करता है। धर्म का अभिप्राय जीवन की ऐसी विधि से है जो नैतिक और सात्विक आचरण से सम्बद्ध है। 
आचरणगत नियमों का संग्रह ही धर्म है, जिसके तीन मूल कार्य हैं - 1. नियन्त्रण 2. व्यक्तित्व का उत्थान 3.जीवन के अन्तिम लक्ष्य ‘मोक्ष’ के लिए व्यक्ति को सन्नद्ध करना।

शास्त्रों के अनुसार धर्म वह तत्व है जो जगत् को धारण करता है तथा यम-नियम द्वारा जीवन को संतुलित रखता है। अंहिसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ये पाँच यम हैं तथा शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर-प्रणिधान ये पाॅच नियम हैं। इन दसों के अनुसार विचार-आचरण करना धर्म है। समग्र वेद एवं स्मृतिवेत्ताओं ने शील, आचार और आत्मसंतोष को धर्म के साक्षात् लक्षण कहे हैं।

ये धर्म के मौलिक तत्व हैं। मनु ने दस मानवीय गुणों को धर्म कहा है। ये हैं -धृती, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय निग्रह, धी, विद्या, सत्य और अक्रोध। महाभारत में भीष्मपितामह ने धर्म के नौ लक्षण बतायें हैं- क्रोध न करना, सत्य बोलना, धन बाॅटकर भोगना, समभाव रखना, अपनी पत्नी से ही सन्तान उत्पन्न करना, बाहर तथा भीतर से पवित्र रहना, किसी से द्रोह न करना, सरल स्वभाव रखना और भरण-पोषण योग्य व्यक्तियों का पालन करना।

उपर्युक्त सभी गुणों को विद्वानों ने मनुष्य के सामान्य धर्म के रूप में निर्दिष्ट किया है। विपत्ति के समय अपेक्षित धर्म अनुपालन का निर्देश दिया है।

2. अर्थ

अर्थ का अभिप्राय उन सभी उपकरणों अथवा भौतिक साधानों से है, जो व्यक्ति को समस्त सांसारिक सुख उपलब्ध कराते हैं। मनुष्य को अपने जीवन में अनेक प्रकार के कर्तव्य और उत्तरदायित्व पूरा करने के लिए अर्थ की आवश्यकता पड़ती है। यह अर्थ उपार्जन धर्म के माध्यम से ही करने के लिए निर्देशित किया गया है। साधारणतः व्यक्ति सुख-सुविधा और यश - ऐश्वर्य का आंकाक्षी होता है। वह भौतिक सुख के प्रति अत्यधिक आकर्षित रहता है।

धन को काम और धर्म का आधार माना गया है। इससे स्वर्ग का मार्ग प्रशस्त होता है। धर्म-स्थापन के लिए अर्थ अनिवार्य है, क्योंकि इसी से प्राप्त सुविधा द्वारा धार्मिक कृत्य किये जा सकते हैं। जो धन से हीन है वह धर्म से भी, क्योंकि समस्त धार्मिक कार्यों में धन की अपेक्षा की जाती है। अर्थविहीन व्यक्ति ग्रीष्म की सूखी सरिता के समान माना गया है। अर्थ के बिना जीवनयापन असम्भव है। अर्थ सम्पन्न व्यक्ति के पास मित्र, धर्म, विद्या, गुण क्या नही होता? दूसरी ओर अर्थहीन व्यक्ति मृतक अथवा चाण्डाल के समान है। इस प्रकार धन(अर्थ) ही जगत् का मूल है। 

प्राचीनकालीन अधिकांश विचारकों ने अर्थ की महत्ता, आवश्यकता और उपादेयता सिद्ध की है। कौटिल्य ने अर्थ को धर्म और काम का आधार माना है। व्यक्ति का धन- संग्रह धार्मिक आधार पर होना चाहिए। अधार्मिकता और अन्याय से अर्जित भौतिक सुख और धन-सम्पत्ति का फल दुखद होता है तथा धर्म-व्यय करना भी निन्दनीय माना जाता है। धर्म को हानि पहुंचा सकने वाला अर्थ का त्याग करना श्रेयस्कर था। मनु के अनुसार अगर अर्थ और काम धर्म-विरूद्ध है तो उनको छोड़ देना चाहिए।

3. काम

‘काम’ मनुष्य का तीसरा पुरुषार्थ है। काम भावना और इन्द्रिय-सुख काम के प्रधान लक्ष्य हैं। व्यक्ति की समस्त कामानाएं, वासनाजन्य प्रवत्तियांँ तथा आसक्ति-मूलक वृतियाँ काम के अन्तर्गत आती हैं। काम के ही वशीभूत होकर व्यक्ति एक दूसरे से प्रेम और सम्भोग करता है तथा अपने प्रियजनों के प्रति आकृष्ट होता है। वस्तुतः ‘काम’ में कामना और वासना दोनों का सन्निवेश है। मनुष्य की स्वाभाविक और सहज स्थितियाँ, जिनमें क्रमशः स्नेह, प्रेम, वात्सल्य, अनुराग, सौन्दर्य-प्रियता और आकर्षण है तथा इन्द्रिय-सुख और यौन सम्बन्धी इच्छाओं की तृप्ति है। अगर देखा जाय तो सन्तान-प्राप्ति, परिवार और वंश की निरन्तरता तथा पितृ-श्रृण से मुक्ति ‘काम’ के ही कारण है। काम के वशीभूत होकर धर्म नहीं छोड़ना चाहिए। काम धार्मिक नियमों, संयमों के अनुरूप होना चाहिए। 

कौटिल्य ने बिना धर्म और अर्थ को बाधा पहुंचाए इसका पालन करने के लिए निर्देश दिया है। गृहस्थ जीवन की सार्थकता काम के माध्यम से सन्तान उत्पन्न करके मानी गई है। इससे अक्षय स्वर्ग और ऐहिक सुख प्राप्त होता है।

4. मोक्ष

मनुष्य के पुरुषार्थ की अन्तिम और चरम परिणति ‘मोक्ष’ है। अपने जीवन के समस्त कार्य सात्विकता और सफलतापूर्वक सम्मन्न करने के बाद मनुष्य वृद्धावस्था में इस चरम उद्देश्य मोक्ष की प्राप्ति में संलग्न होता है। जन्म और पुनर्जन्म के बन्धन से छुटकारा तथा इस संसार के आवागमन से मुक्ति ही मोक्ष है। मोक्ष आध्यात्मिक जीवन का अन्तिम और उच्चतम आदर्श माना गया है। मोक्ष की प्राप्ति पूर्णरूपेण आध्यात्मिक और धार्मिक होने पर ही सम्भव कही गई है। आत्मा और परमात्मा का तादात्म्य ही मोक्ष तथा परम आनन्द की चरमानुभूति है। जीव परम ब्रह्म में लीन होकर तथा आवागमन के बन्धन से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त करता है। आत्मा सीमित है तथा परमात्मा असीम। मोक्ष ससीम और असीम में एकात्मकता स्थापित करता है।

Post a Comment

Previous Post Next Post